शुक्रवार, 30 मई 2008

आइए ले चलें आपको पेरियार के जंगलों में....

जैसा कि मैंने आपको पेरियार झील (Periyar Lake) के सफ़र के दौरान बताया था कि पेरियार एक टाइगर रिजर्व है और इसका विस्तार करीब ७७७ वर्ग किमी तक फैला हुआ है जिसमें ३०० किमी से ऊपर का इलाका सदाबहार घने वनों से घिरा हुआ है। हमलोग २७ दिसंबर की दोपहर गाइड के साथ इस जंगल में घुसे और करीब ढाई घंटों तक इसकी सघनता के बीचों बीच कूदते फाँदते थोड़ी उत्सुकता, थोड़े भय के साथ चलते रहे। जंगल के अंदर क्या हुआ उसका विवरण तो आप मेरी केरल यात्रा की अगली पोस्ट पर पाएँगे, पर तब तक कुछ चित्रों के द्वारा आपको भी जंगल के वातावरण से परिचित कराते चलें।

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले...

अगर वन सघन ना हो तो फिर वो वन कैसा?


अरे हमारे घर में ये कौन घुस आए ?



पत्तियाँ चली गईं तो क्या वो तो फिर से आ जाएँगी, पर ऊपर ये नीला आसमान तो हमेशा रहेगा


क्या भिन्न नहीं हूँ मैं? देखो मेरे तने को कितनी लताओं को आश्रय दिया है मैंने!


हवाओं ने झुका दिया तो क्या अभी भी जान बाकी है मुझमें..


अरे नीचे ही देख कर चलते रहोगे, जरा ऊपर भी देखो हमारे इस सुंदर आशियाने की तरफ..



अरे डरो नहीं मैं हूँ विषहीन सर्पीला वृक्ष !


अरे हम तो अब जंगल में नहीं रहते पापा मम्मी ने ठिकाना झील के उस पार कर लिया है.. :)

रविवार, 11 मई 2008

यात्रा चर्चा : किस्सा कुर्गी जोंक, सोनार किले और पाकीजा पान का !

मई का महिना आ चुका है। सारा उत्तर भारत गर्मी की चपेट में है। हालत ये है कि छुट्टी के दिन भी सुबह काम निपटा कर लोग बाग घर में दुबक कर बैठ जा रहे हैं। अब इस गर्मी से बचने का तो तरीका सिर्फ ये है कि आप पहाड़ों की शरण में चले जाएँ। तो आज की यात्रा चर्चा की शुरुआत करते हैं एक छोटे से परंतु रमणीक पहाड़ी पर्यटन स्थल कुर्ग (Coorg) से !


अगर आपको ये नाम नया सा लगे तो ये बताना लाज़िमी होगा कि कर्नाटक के दक्षिण पश्चिम में पश्चिमी घाट के किनारे बसा कुर्ग अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए जाना जाता है और वहाँ की यात्रा की हमारे साथी चिट्ठाकार अमित कुलश्रेष्ठ ने।


ये बता दूँ कि एक कुशल गणितज्ञ होने के साथ साथ अमित एक साहासी योद्धा भी हैं। अपनी यात्रा के पहले ही दिन इन्हें जंगल में विचरण करने की सूझी। जलप्रपात तक पहुँचना था पर रास्ता ले लिया जोकों के अड्डों की तरफ वाला। नतीजन जोंक की सेनाओं के साथ हुए युद्ध में इन्होंने भीषण रक्तपात मचाया और अपनी शौर्यता का परिचय देते हुए विजय भी प्राप्त की। पर विडंबना देखें इस रक्तपात के बाद शायद उन्हें कलिंग युद्ध की याद आ गई और अगले ही दिन वो चल पड़े ब्यालाकुप्पे बुद्ध विहार की ओर। अमित लिखते हैं

".....ब्यालाकुप्पे मैसूर के पश्चिम में स्थित कुशानगर नामक शहर के पास का इलाका है जिसमें १९६० के दशक में भारत आये करीब दस हज़ार तिब्बती लोग शरण ले रहे हैं। यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं नामड्रोलिंग विहार और उससे लगा हुआ मंदिर।
इतना भव्य मंदिर तिब्बती लोगों की अपनी मातृभूमि से हज़ारों कोस दूर! भारत की यही रंग-बिरंगी विविधता मुझे अक्सर अचंभित कर देती है। मंदिर के अंदर गया तो बच्चन जी की `बुद्ध और नाचघर’ का स्मरण हो आया। भला बुद्ध और मूर्ति! कहीं मैं एक विरोधाभास के बीच तो नहीं खड़ा? इसी बौद्धिक मंथन के बीच मेरी नज़र राजस्थान से आये एक परिवार पर पड़ी।
चौखट को प्रणाम करके बुद्ध की मूर्ति के सामने इस परिवार के सदस्य उसी श्रद्धा से नत-मस्तक होकर खड़े थे जैसे वे अपने किसी इष्ट देव का ध्यान कर रहे हों। “जैसे भगवान हमारे, वैसे उनके“, यह भाव उनके चेहरे पर स्पष्ट था। मूर्तियाँ एक अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करती हैं। जिस रूप में सौंदर्य के दर्शन हों, उसी में मूर्ति ढाल लो और दे दो अपने देव का सांकेतिक स्वरूप। पहले बौद्धिक मंथन का समाधान हुआ तो मैं दूसरे में उलझ गया। विश्व के सभी लोग उसी समरसता के साथ क्यों नहीं रह सकते जिसके दर्शन मुझे अभी इस राजस्थानी परिवार में हुये। ..."

भई वाह ! कितना उत्तम विचार दिया अमित ने। खैर, अब जब जिक्र राजस्थान का आ ही गया है तो क्यूँ ना आपको ले चलें जैसलमेर !
राजस्थान में मैं जयपुर दो बार गया हूँ और हर बार वहाँ राजपूती शासकों द्वारा बनाए गए किलों की संरचना और स्थापत्य देख कर मैं दंग रह गया हूँ पर अपने यूनुस भाई जैसलमेर के जिस किले में आपको घुमा रहे हैं वो अपने आप में निराला है।

किले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में यूनुस लिखते हैं

"...जैसलमेर के किले को यहां के भाटी राजपूत शासक रावल जैसल ने सन 1156 में बनवाया था । यानी आज से तकरीबन साढ़े आठ सौ साल पहले । मध्‍य युग में जैसलमेर ईरान, अरब, मिश्र और अफ्रीक़ा से व्‍यापार का एक मुख्‍य केंद्र था । दिलचस्‍प बात ये है कि इसकी पीले पत्‍थरों से बनी दीवारें दिन में तो शेर जैसे चमकीले पीले-भूरे रंग की नज़र आती हैं और शाम ढलते ही इनका रंग सुनहरा हो जाता है । इसलिये इसे सुनहरा कि़ला
कहा जाता है । आपको बता दें कि महान फिल्‍मकार सत्‍यजीत रे का एक जासूसी उपन्‍यास 'शोनार किला' इसी किले की पृष्‍ठभूमि पर लिखा गया है । त्रिकुट पहाड़ी पर बने इस कि़ले ने कई लड़ाईयों को देखा और झेला है । तेरहवीं शताब्‍दी में अलाउद्दीन खि़लजी ने इस कि़ले पर आक्रमण कर दिया था और नौ बरस तक कि़ला उसकी मिल्कियत बना रहा ।
यूनुस के पास किले को देखने के लिए मात्र दो घंटे थे। दो घंटों के इस अल्प समय में यूनुस को कौन-कौन से दृश्य सबसे ज्यादा भाए इसका राज मैं अभी नहीं खोलूँगा। ये नज़ारा तो आप इनके चिट्ठे पर जाकर उनके द्वारा ली गई मजेदार तसवीरों से ले सकते हैं।

अपनी मुन्नार यात्रा में चाय बागानों की सुन्दरता से अभी हम मुक्त भी नहीं हो पाए थे कि हमें मिली एक निहायत खूबसूरत रात और ताज़ी सुबह जिसकी सुंदरता में खोकर मैंने लिखा

हमारे सामने पहाड़ियों का अर्धवृताकार जाल था जिसमें लगभग समान ऊँचाई वाले पाँच छः शिखर थोड़ी-थोड़ी दूर पर अपना साम्राज्य बटोरे खड़े थे। चंद्रमा ने अपना दूधिया प्रकाश, इन पहाड़ों और उनकी घाटियों पर बड़ी उदारता से फैला रखा था। मूनलिट नाईट के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था पर उसी दिन महसूस कर पाए कि चाँद ना केवल खुद बेहद खूबसूरत है वरन् वो अपने प्रकाश से धरती की छटा को भी निराली कर देता है। केरल की दस दिनों की यात्रा का मेरे लिए ये सबसे खूबसूरत लमहा था जिसे हम अपने कैमरे में कम प्रकाश और त्रिपाद (tripod) ना रहने की वज़ह से क़ैद नहीं कर सके। पर रात की चाँदनी के दृश्य भले ही हमारे कैमरे की गिरफ़्त में ना आ पाए हों सूर्योदय के पहले की नीली-नारंगी आभा को हम जरूर आप तक बटोर लाने में सफल रहे।


पर चलते-चलते थोड़ी सैर अलीगढ़ की भी कर ली जाए जहाँ से मुनीश भाई अपने धमाकेदार चित्रों के साथ वापस लौटे हैं। लगता है ए. एम. यू. कैंपस और फैज़ गेट देखने के बाद जब वे थक गए तो पास के ढ़ाबे में इन्होंने शुद्ध देशी घी के प्रेमी पराठे खाये । शाम को 'मय' ढूँढने निकले तो वो तो मयस्सर नहीं हुई, सो पाकीजा पान खा कर ही बेचारे स्टेशन वापस चले आए :)। इस पूरे प्रकरण की चित्रात्मक दास्तान आप यहाँ देख सकते हैं।


तो भाई यात्रा चर्चा के लिए आज इतना ही । अगले हफ्ते ये मुसाफ़िर आपको ले चलेगा हिंदी चिट्ठाकारों के साथ कुछ और नयी जगहों पर।

बुधवार, 7 मई 2008

चाय बागान का खूबसूरत प्रहरी : सिल्वर ओक

मुन्नार में चाय बागानों के बीचों बीच एक प्रहरी की तरह एक वृक्ष हमेशा दिखायी पड़ेगा। इस वृक्ष का नाम है सिल्वर ओक (Silver Oak) जिसे जीव वैज्ञानिक Grevillea Robusta के नाम से जानते हैं।

सिल्वर ओक मूलतः आस्ट्रेलिया का पेड़ है जिसे वहाँ सिल्क या सिल्की ओक के नाम से भी पुकारा जाता है।चाय बगानों की कतारों में बराबर दूरी पर लगाया जाने वाला ये पेड़ , बागानों की खूबसूरती को एक अलग रंग देता है। पर क्या सिर्फ सुंदर दिखने के लिए बागान मालिक इसे लगाते है?

नहीं ऍसा नहीं है। चाय बागानों में सिल्वर ओक एक हवा प्रतिरोधक का काम करता है, चाय के पौधों को छाया प्रदान कर अत्याधिक गर्मी से बचाता है। इसलिए इसे शेड ट्री की श्रेणी में भी रखा जाता है। इसके आलावा जलवाष्प को खींच कर ये मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि करता है।
दिसंबर में जब हम मुन्नार गए तब इसके पेड़ में फूल नहीं थे। पर मैंने कई चित्रों में इस पेड़ को सफेद और हल्के बैंगनी रंग के फूलों से लदा देखा है। हमारे समूह ने इन्हें जिन रंगों में देखा वो आपके सामने है।








(सभी चित्र मेरे और मेरे सहयात्री पी. एस. खेतवाल के कैमरे से)

रविवार, 4 मई 2008

हिंदी चिट्ठों की पहली यात्रा चर्चा : हाय अल्लाह। यहाँ की भैंसें तक हमारी भैंसों जैसी ही हैं।

जैसे कि आपसे वादा था कि मुसफ़िर हो यारों पर हर हफ्ते मैं चर्चा करूँगा इस दौरान हमारे साथी चिट्ठाकारों द्वारा लिखे गए यात्रा से जुड़े कुछ दिलचस्प लेखों के बारे में।

तो पहले ले चलते हैं आपको अपनी सरहद के उस पार यानि पाकिस्तान में ! एक आम भारतीय या फिर एक आम पाकिस्तानी में एक दूसरे के रहन सहन, तौर तरीकों को जानने की बेहद उत्सुकता रहती है। पर जब वास्तव में कोई इधर वाला उधर या उधर वाला इधर होकर आता है तो उसे लगता है अरे ! यहाँ तो सब वैसा ही हैं। हमारी साथी चिट्ठाकार विभा रानी अभी लाहौर गईं और उन्होंने वहाँ क्या देखा उसका सजीव वर्णन अपने चिट्ठे पर करते हुए विभा लिखती हैं..

"...पंजाब होने के कारण लहजा ठेठ पंजाबी है, मगर तलफ्फुज बिल्कुल साफ। मुल्क बनने के बाद उर्दू में तर्जुमा और आम जिंदगी में उनका इस्तेमाल बढा है-एक्सक्यूज मी की जगह बात सुनें और सिग्नल और रेड, यलो, ग्रीन लाइट के बदले इशारा। लाल, पीली और सब्ज बत्तियां, लेफ्ट और राइट के बदले उल्टे और सीधे हाथ कहने का प्रचलन है। बोलने से पहले अस्सलाम वालेकुम बोलना जिन्दगी का हिस्सा है, यहां तक कि फोन पर भी हैलो के बदले अस्सलाम वालेकुम।..."
".....मजहब और अल्लाह खून के कतरे की तरह समाया हुआ है - इंशाअल्लह, माशाअल्लाह, अल्लाह की मेहरबानी, अल्लाह का शुक्र वगैरह सहज तरीके से जबान में बस गए हैं।..."
"...बीएनयू की ग‌र्ल्स हॉस्टल की वार्डन गजाला बताती हैं - हम जब इंडिया गए, तब हमने सोचा था, सबकुछ अलग होगा, पर हमारी लडकियों ने कहा - हाय अल्लाह। यहाँ की भैंसें तक हमारी भैंसों जैसी ही हैं।..."

अब जब देश के बाहर निकल ही गए हैं तो थोड़ी दूर क्यूँ ना चलें। आजकल हमारे उन्मुक्त जी आस्ट्रिया का विचरण कर रहे हैं और इस हफ्ते वो आपको घुमा रहे हैं कुछ शानदार तसवीरों के साथ, विएना में। डैन्यूब नदी और वहाँ के गिरिजाघरों से होते हुए वो जा पहुँचे राजा के महल पर और उन्होंने लिखा

"..इसके देखने के लिये कई टूर हैं और सबका पैसा अलग-अलग है हमलोगों ने सबसे सस्ता वाला टूर लिया इसमें ३५ कमरों का दिखाया जाता है। इसकी सबसे अच्छी बात है कि यह आपको एक माइक्रोफोन देते हैं। कमरे में जाकर बटन दबाइये तो वह उस कमरे के बारे में यह बताता है और उस कमरे के वर्णन के बाद रूक जाता है। अगले कमरे में जाकर पुन: बटन दबाने पर, उस कमरे के बारे में बताना शुरू करता है। महल के पीछे राजा का बाग है। यह जगह बहुत सुन्दर थी। हर तरफ हरे भरे लॉन हैं। वहां पर लोगों ने बताया कि गर्मी में यह और भी खूबसूरत लगता है।.."
सारे लोग विदेश की हरी भरी वादियों का आनंद ले रहे हों ऐसी बात भी नहीं। अब हमारे सप्तरंगी नितिन बागला को देखिए, श्री शैलम के शिव मंदिर की उमस भरी गर्मी और भीड़ भड़क्का इन्हें भक्ति मार्ग से डिगा नहीं पाया। छः सौ पचास रुपये की टिकट खरीदी और चल दिए प्रभु के दर्शन को ! अब आगे क्या हुआ, इसका किस्सा वो कुछ यूँ बताते हैं...


चूंकि मंदिर का अंदरूनी भाग बहुत छोटा था और पब्लिक बहुत ज्यादा, सो गर्मी औए उमस भयंकर थी। कुछ AC लगे हुए दिखे पर काम नही कर रहे थे। हमने सोंचा कि हमें तो यहां से चन्द पल में चल देना है, बेचारे भगवान जी का क्या हाल होता था, जो हमेशा यहीं रहते हैं। एकदम मुख्य गृह तो और भी बहुत छोटा था और अंधेरा भी। पंडित लोग खडे थे जो किसी को २ सेकेंड से ज्याद मत्था नही टेकने देते । आप सिर झुकाइये..पीछे से वो आपको झुकायेंगे और उठा देंगे। हमने सिर टिकाया और जो पीछे से धक्का लगा तो भट्ट से सिर टकराया शिवलिंग से। हमने शिवजी से माफी मांगी और निकल लिये।

शहर में रहते-रहते जब हम अचानक ही ग्रामीण परिवेश से रूबरू होते हैं तो एक अलग सी खुशी का अनुभव होता है, खासकर तब जो वो परिवेश राजस्थान के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की झलक दिखाता हो। ऍसे ही परिवेश से रूबरु करा रही हैं पारुल आपको जयपुर की चोखी ढाणी ले जा कर।

केरल में मैं फिलहाल तो आपको घुमा ही रहा हूँ। इस हफ्ते मैंने लिखा कोच्चि से मुन्नार तक की अपनी यात्रा के बारे में। रबर के जंगलों, अनानास के खेतों और पैशन फ्रूट का स्वाद चखने के बाद जब इन खूबसूरत चाय बागानों से सामना हुआ तो मन कह उठा

"..पहाड़ की ढलानों के साथ उठते गिरते चाय बागान और उनके बीचों बीच कई लकीरें बनाती पगडंडियाँ इतना रमणीक दृश्य उपस्थित करते हैं कि क्या कहें ! पर्वतों की चोटियों और बादलों के बीच छन कर आती धूप हरे धानि रंग के इतने शेड्स बनाती है कि हृदय प्रकृति की इस मनोहारी लीला को देख दंग रह जाता है। दिल करता है कि इन बागानों के बीच बिताए एक-एक पल को आत्मसात कर लिया जाए।.."

तो इस बार तो इतना ही अगले हफ्ते फिर चर्चा होगी यात्रा से जुड़े कुछ और प्रविष्टियों की। आपको ये यात्रा चर्चा कैसी लगी ये अवश्य बताएँ !