सोमवार, 30 नवंबर 2009

कोलकाता के अद्भुत पूजा पंडाल : क्या आपने देखा है हरा भरा इगलू (Igloo) और डोकरा (Dokra) शिल्प कला

पिछली पोस्ट में आप से वादा किया था कि कोलकाता की दुर्गापूजा के कलात्मक पक्ष को सामने रखने के लिए आपको वहाँ के नयनाभिराम पंडालों की सैर कराऊँगा। इस कड़ी में आज एक ऐसे पंडाल की ओर रुख करते हैं जिसका प्रारूप झारखंड, बंगाल और उड़ीसा में रहने वाले आदिवासियों की संस्कृति पर आधारित था। कोलकाता के लेकटाऊन (Laketown) में बने इस पूजा पंडाल को इस साल के सर्वश्रेष्ठ पूजा पंडाल का पुरस्कार मिला। तो देखिए कलाकारों की इस अद्भुत कारीगिरी का एक और नमूना..

एक बार फिर अगर आप नीचे के चित्र को देखेंगे तो समझ ही नहीं पाएँगे की ये पंडाल है। बचपन में हम सभी ध्रुवीय प्रदेशों में रहने वाले एस्किमो (Eskimo) के घर इगलू (Igloo) के बारे में पढ़ा करते थे। अब इगलू की दीवारें तो खालिस बर्फ की बनी होती थीं. पर अगर बर्फ को मिट्टी और उस पर उगाई गई लत्तरों से परिवर्तित किया जाएगा तो जो नज़ारा दिखेगा वो बहुत कुछ इसी तरह का होगा।



तो इस इगलूनुमा पंडाल के भीतर ही माँ दुर्गा की प्रतिमा रखी गई थी। अब आदिवासी संस्कृति का प्रभाव मूर्ति के शिल्प में दिखाने के लिए डोकरा कला (Dhokra/Dokra Art) का इस्तेमाल किया गया । ये कला झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में काफी प्रचलित है। चलिए अब इस कला की बात हो ही रही है तो थोड़ा विस्तार से जान लीजिए कि इस कला में धातुयी शिल्प किस प्रकार बनाए जाते हैं?

सबसे पहले कठोर मिट्टी के चारों ओर मोम का ढाँचा बनाया जाता है। फिर इसके चारों ओर अधिक तापमान सहने वाली रिफ्रैक्ट्री (Refractory Material) की मुलायम परतें चढ़ाई जाती हैं। ये परतें बाहरी ढाँचे का काम करती हैं। जब ढाँचा गर्म किया जाता है तो कठोर मिट्टी और बाहरी रिफ्रैक्ट्री की परतें तो जस की तस रहती हैं पर अंदर की मोम पिघल जाती है। अब इस पिघली मोम की जगह कोई भी धातु जो लौहयुक्त ना हो (Non Ferrous Metal) जैसे पीतल पिघला कर डाली जाती है और वो ढाँचे का स्वरूप ले लेती है। तापमान और बढ़ाने पर मिट्टी और रिफ्रैक्ट्री की परतें भी निकल जाती है और धातुई शिल्प तैयार हो जाता है।



इगलू की ऊपरी छत पर लतरें भले हों पर अंदरुनी सतह पर क्या खूबसूरत चित्रकारी की गई है। इस तरह के चित्र आपको आदिवासी घरों की मिट्टी की दीवारों पर आसानी से देखने को मिल जाएँगे।


नीचे के चित्र में अपने परम्परागत हथियारों धनुष और भालों के साथ आदिवासियों को एक कतार में चलते दिखाया गया है



आदिवासी संस्कृति में गीत संगीत का बेहद महत्त्व है। इन से जुड़े हर पर्व में हाथ में हाथ बाँधे युवक युवतियाँ ताल वाद्यों की थाप पर बड़ा मोहक नृत्य पेश करते हैं. पंडाल के बाहरी प्रांगण में ये दिखाने की कोशिश की गई है।



(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)
तो कैसा लगा आपको आदिवासी संस्कृति से रूबरू कराता ये पूजा पंडाल? अगली कड़ी में ऐसी ही कुछ और झाँकियों के साथ पुनः लौटूँगा...

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

चित्र पहेली 10 : खा गए ना चकमा! जिन्हें आप सचमुच की इमारत समझ रहे थे वे थे कोलकाता के पूजा पंडाल......

इस बार की चित्र पहेली में कोलकाता के शिल्पकारों ने पाठकों को ऐसा दिग्भ्रमित किया की पहेली में दिखने वाली इमारतों को आप सभी सचमुच का मान बैठे। दरअसल इन नकली हवेलियों द्वारा शिल्पकारों ने कोलकाता के पुराने स्वरूप का चेहरा दिखाने की कोशिश की थी। मौका था इस साल की दुर्गा पूजा का ! यानि जर्जर हवेली और अंग्रेजों के ज़माने की साफ सुथरी इमारत की खासियत ये थी कि वे दोनों ही दुर्गा पूजा के पंडाल थे। विश्वास नहीं हो रहा तो चलिए मेरे साथ इन हवेलियों के अंदर...

दक्षिणी कोलकाता में जादवपुर और धाकुरिया के बीच में एक इलाका है जोधपुर पार्क (Jodhpur Park) और उसके नज़दीक ही है बाबूबागान। ये दोनों जगहें दुर्गा पूजा पंडालों के लिए जानी जाती हैं। तो सबसे पहले बात करते हैं बाबू बागान की जहाँ पर बनाया गया था प्लाइवुड और थर्मोकोल की सहायता से पुरानी जर्जर सी हवेली का ये सजीव प्रारूप।

इस दुर्गापूजा पंडाल की थीम भी बड़ी दिलचस्प थी। कलाकार रूपचंद्र कुंडू ने भगवान का रूप धारण कर कस्बों और गाँवों में घूमने वाले बहुरुपियों को ध्यान में रखकर इस प्रारूप को रचा। इमारत के अंदर पुरानी दुकानें,टूटती दीवारों पर देवी देवताओं के चित्र बनाए गए थे ताकि माहौल कुछ दशक पहले की झाँकी प्रस्तुत कर सके।

पंडाल के दोनों किनारों पर बनी सीढ़ियाँ दुर्गा पूजा पंडाल के पहले तल्ले पर ले जाती थीं जहाँ अनेक प्रकाशदीपों से सुसज्जित झाड़फानूस लगाया गया था।
और ठीक इसके सामने दुर्गा, लक्ष्मी, कार्तिक, गणेश और असुर की प्रतिमाएँ इस तरह से रची गई थीं मानों ऐसा लगे कि सामने सचमुच के बहुरुपिए खड़े हों। तो मान गए ना लोहा आप इन कारीगरों की मेहनत और अद्भुत सोच का।

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)
दूसरे चित्र में अंग्रेजों के ज़माने में बनाई गई इमारत दिख रही थी। ये भी एक पूजा पंडाल था जो जोधपुर पार्क में लगाया गया था। प्लाइवुड थर्मोकोल और कार्डबोर्ड से रची इन इमारतों को इतने बेहतरीन तरीके से बनाया गया कि खिड़कियों की बनावट और वास्तुशिल्प का अध्ययन करते वक़्त आपके मन में ये ख्याल नहीं आया कि ये साज सज्जा नकली हो सकती है।

पिछली पोस्ट के चित्र में दिखाई दे रहे हवेली के सामने का बाग और मुस्तैदी से रक्षा करते पहरेदार ने आपके भ्रम को बढ़ाए रखने में मदद की। इसलिए छत के ऊपर का डिजाइन, बिल्कुल बेदाग दीवारें और चित्र के दाँयी ओर Entry का साइनबोर्ड भी आपकी नज़रों को नहीं खटका।


चित्र साभार : कुणाल गुहा

मुझे आशा थी कि कोलकाता से जुड़ा कोई व्यक्ति इस पहेली का सही उत्तर बता सकेगा। बाकी लोगों के लिए इतना अनुमान लगा लेना की हवेली नकली है काफी होता। फिर भी आप सब ने पूरी मेहनत से अपने अनुमान लगाए उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। दरअसल मेरा उद्देश्य दुर्गापूजा के पुनीत पर्व पर हर साल बनाए जाने वाले इन अद्भुत पूजा पंडालों की ओर आपका ध्यान खींचना था।
इस चिट्ठे की अगली कुछ पोस्टों में आपको मैं कोलकाता की दुर्गापूजा के कुछ और नयनाभिराम पंडालों की सैर कराऊँगा।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

नए संकेतों के साथ चित्र पहेली 10 : बताइए क्या खास है शहर की इन इमारतों में ?

हर शहर का अपना एक चेहरा होता है। वैसे ये कहना ज्यादा सही होगा कि हर शहर अपने चेहरों में कई चेहरों को समाए रहता है। उसके किसी हिस्से में हमारा आधुनिक परिवेश से सामना होता है तो कहीं एकदम से उसका पुराना रूप सामने आ जाता है।

इन नए पुराने रूपों को सामने लाने में शहर की इमारतों का ख़ासा योगदान होता है। आज की ये चित्र पहेली ऍसी ही कुछ इमारतों से जुड़ी है। नीचे के चित्रों को देखिए। पहले चित्र में आपको एक जर्जर होती हवेली दिखाई पड़ेगी जबकि दूसरे में अंग्रेजों के ज़माने में बना कोई कार्यालय या जमींदार का मकान ! आप सोच रहे होंगे कि इन इमारतों में ऍसा खास क्या है? ऍसी इमारतें या इनसे मिलती जुलती खंडहर होती हवेलियाँ तो आपने पहले भी देखी होंगी।

तो बस यही तो दिमागी घोड़े आपको दौड़ाने हैं जनाब ! ये दोनों चित्र एक बात में बिल्कुल एक जैसे हैं यानि इनकी एक विशेषता इन्हें एक ही कोटि में ला खड़ा करती है। तो बताइए क्या है वो विशेषता ?




(ऊपर के दोनों चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)

पहेली का जवाब इसी चिट्ठे पर आपको मिल जाएगा। तब तक आपके कमेंट माडरेशन में रहेंगे।
पुनःश्च (20.11.09, 11.30 PM IST): आप सब में से बहुतों ने पहेली के हल तक पहुँचने के लिए संकेतों की माँग की थी। चलिए आपका काम कुछ आसान करने के लिए संकेत हाज़िर हैं

संकेत १ : ये दोनों चित्र पश्चिम बंगाल के एक शहर के हैं।

संकेत २ : चित्र में दिखाई देने वाली हवेलियाँ छायाकार को एक ही इलाके में दिखी थीं और उस इलाके में एक का नाम राजस्थान के एक ऐतिहासिक नगर के नाम पर है।

संकेत ३: खिड़कियों का तो आप सब ने बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया। पता नहीं आपके मन में ये खटका क्यूँ नहीं हुआ कि पहले चित्र में इतनी जर्जर हो चुकी हवेली के पहले तल्ले से झाड़फानूस की रौशनी कैसे आ रही है? है ना ये विडंबना।

वैसे उत्तर के साथ मैं आपको ले चलूँगा इन हवेलियों के अंदर :) ! तब तक चलिए थोड़ा विचार कर देखिए।
Update 21.11.09, 8.42 PM
संकेत ४: दूसरी इमारत की छत की रेलिंग कुछ अलग सी नहीं है क्या? इसके आलावा भी दूसरे चित्र को ध्यान से देखने पर आपको एक संकेत और दिखाई देगा।
पहेली का जवाब 24 November को 10.40 AM पर बताया जाएगा।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

चित्र पहेली 9 : आइए जानते हैं कछुओं की दौड़ का रहस्य और कथा 'Doomed Eggs' की.!.




पिछली चित्र पहेली में प्रश्न था कि ये दौड़ क्यूँ और कहाँ हो रही है?




आपमें से अधिकतर लोगों के जवाब सही थे। पर आप में से एक ने ही बताया सही स्थान का नाम। दरअसल भितरकनिका से जुड़े इस हिस्से की बात मैंने इस पहेली की वज़ह से आप सबको अपने यात्रा वृत्तांत में नहीं बताई थी।

तो पहेली का सही हल देखने के साथ समुद्र तट पर कछुओं द्वारा अंडे देने से लेकर नन्हे बच्चों के वापस समुद्र में जाने की झाँकी देखिए यहाँ पर...