बुधवार, 29 दिसंबर 2010

हीराकुड बाँध : चिपलिमा का नैसर्गिक सौंदर्य और घंटेश्वरी मंदिर

हीराकुड से निकलने वाली नहरों को देखने के बाद हम शाम को चिपलिमा के लिए निकल पड़े। चिपलिमा  (Chiplima) हीराकुड से पैंतीस किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ पर एक छोटा सा जलप्रपात है जिसमें करीब पच्चीस मीटर ऊँचाई से पानी नीचे गिरता है। पर चिपलिमा अपने इस जलप्रपात के आलावा घंटेश्वरी मंदिर के लिए भी जाना जाता है जिसके परिसर में हमेशा श्रृद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। पर इससे पहले कि आपको मैं जलप्रपात के मनोरम दृश्यों से रूबरू कराऊँ  पहले आपको घंटेश्वरी के प्राचीन मंदिर कर बारे में बताना चाहूँगा।

ये मंदिर महानदी के उस हिस्से के पास अवस्थित हैं जहाँ महानदी की तीन धाराएँ आकर मिलती थीं। धाराओं के मेल से यहाँ ऐसे भँवर बना करते थे जो नौकाओं को अपनी चपेट में ले लेते थे। कहते हैं कि नाविकों की मदद के लिए यहाँ बड़ी बड़ी घंटियाँ लगा दी गयीं। ये घंटियाँ इस इलाके में हवा के निरंतर प्रवाह की वज़ह से आपस में टकराती थीं जिसकी आवाज़ से नाविक इस इलाके के पास आने से पहले ही सचेत हो जाया करते थे। इन घंटियों की वज़ह से इस जगह को 'बिना रोशनी का प्रकाश स्तंभ' कहा जाने लगा। जब हीराकुड बाँध बनने के साथ चिपलिमा में पनबिजली केंद्र बना तब यहाँ की जलधाराएँ शांत हो गयीं।

चिपलिमा के इस घंटेश्वरी मंदिर तक पहुँचने के लिए पहले जलप्रपात के ऊपर बनाए गए पतले रास्ते से गुजरना पड़ता है।

हरे भरे पेड़ों के बीच ये पानी जब नीचे की ओर जाता है तो पानी का तेज बहाव सामने आने वाले प्रतिरोधों से टकराकर थोड़ी थोड़ी दूर पर कई अर्धवृताकार रूप बनाता है। पानी में बने ये चाँद, सामने की हरियाली और  प्रपात का दूधिया उफनता फेनिल जल ये तीनों मिलकर एक अत्यंत मोहक दृश्य पैदा करते हैं। एक ऐसा मंज़र जिसे मिनटों अपलक निहारते हुए मन यही कहता है कि काश ये वक़्त ठहर जाए।



थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर रेलिंग के बीच का रास्ता और संकरा हो जाता है। इतना संकरा कि बमुश्किल दो आदमी साथ साथ चल पाएँ। संकरे रास्ता के खत्म होते ही नीचे की ओर की राह आपको घंटेश्वरी मंदिर तक ले जाती हैं।


मंदिर ज्यादा बड़ा नहीं है। पर मंदिर के चारों ओर जहाँ भी नज़र दौड़ाई जाए सिर्फ घंटियाँ ही घंटियाँ दिखाई देती हैं। माता का दर्शन कर और ढेर सारी घंटियाँ बजा लेने के बाद एक बार फिर मैं गिरते पानी के पास चला आया। साँझ गहरी हो रही थी। मंदिर आने वाले यात्रियों का आना अभी भी ज़ारी था। नीचे से जो दृश्य दिख रहा था वो कैमरे में क़ैद करना मुझे जरूरी लगा..

प्रकृति की इन मनमोहक छटाओं को छोड़ कर जाने की इच्छा तो नहीं हो रही थी पर अँधेरे की बढ़ती चादर ने हमें वापस जाने को मजबूर कर दिया। हीराकुड पहुँचने के लिए आप किसी भी ऍसी ट्रेन से आ सकते हैं जो संभलपुर हो कर जाती हो। वैसे हीराकुड का अपना एक अलग छोटा सा स्टेशन भी है पर वहाँ सारी गाड़ियाँ नहीं रुकती।

आज हीराकुड की इस यात्रा को एक साल बीत गया है पर इस स्थान की खूबसूरती और हरियाली के चित्र जब भी दिमाग में कौंधते हैं, मन एक गहरे सुकून से भर उठता है।

 सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

    मुसाफ़िर हूँ यारों का इस साल का सफ़र तो यहीं समाप्त होता है। नए वर्ष में फिर एक नई राह एक नई डगर होगी। आशा है आप भी साथ होंगे। आप सब को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ !

    गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

    हीराकुड बाँध : नहर परिक्रमा के साथ देखिए मछली पकड़ने का ये अनोखा तरीका..

    हीराकुड बाँध आज मुख्य रूप से सिचाई के स्रोत की तरह प्रयुक्त हो रहा है। जब ये बना था तो सिचाई के साथ तीन सौ से ज्यादा मेगावाट बिजली उत्पादन, इस बाँध का लक्ष्य था। पर समय के साथ साथ इस बाँध के तल में महानदी से लगातार लाई जा रही मिट्टी की वजह से संचित जल की मात्रा कम होती चली गई। खेती के साथ साथ  इस इलाके में कई उद्योग लगने शुरु हो गए। आज उद्योगों और कृषि के लिए पानी के बँटवारे को लेकर सरकार और यहाँ के किसानों में तनातनी चलती रहती है। पानी की आपूर्ति दोनों क्षेत्रों में करने की वज़ह से बिजली उत्पादन पर बुरा असर पड़ा है।

    हीराकुड बाँध और फिर गाँधी मीनार को देख लेने के बाद हम बाँध के विभिन्न तटबंधों और नहरों का चक्कर लगाने के लिए निकले। हीराकुड बाँध से यूँ तो कई नहरें निकली हैं पर इनमें बारगढ़ (Bargarh) और सासोन (Sason) नहरें, बाकी नहरों से बड़ी हैं। बाँध से पानी की निकासी स्लयूइस गेट (Sluice Gate) के माध्यम से होती है। पानी की मात्रा कितनी निकलेगी ये जानने के लिए निकासी की जगह पर वीयर (Weir) का निर्माण होता है। Weir की गहराई और चौड़ाई ये निर्धारित करती है कि नहर से अधिकतम कितना पानी छोड़ा जा सकेगा। सासोन नहर देखने के पहले हम इस छोटी नहर पर पहुँचे।


    हरे भरे खेतों की बगल से और दुबली पतली सड़कों के नीचे रास्ता बनाती ये नहरें यहाँ के किसानों की जीवनरेखा हैं।


    इसके बाद हम चल पड़े सासोन नहर (Sason Canal) की ओर। ये नहर सँभलपुर के जमादारपली गाँव में स्थित है। पाँच फीट गहरी और पचपन फीट चौड़ी इस नहर के पास जब हम पहुँचे तो हल्की हल्की बारिश शुरु हो गई थी। नहर के आस पास बच्चे बारी - बारी से नहर में छलाँग लगा कर मौज़ मस्ती कर रहे थे। वहीं कुछ बच्चे पानी में बंसी डाल कर  मछली के जाल में फँसने के लिए प्रतीक्षारत थे।


    नहर भ्रमण में सबसे अधिक आनंद तब आया जब हम बारगढ़ नहर (Bargarh Canal) के नजदीक पहुँचे। वहाँ पहुँचते पहुँचते बारिश थम चुकी थी। नीचे से पानी का जबरदस्त शोर सुनाई पड़ रहा था। दरअसल ये हीराकुड से निकलने वाली सबसे बड़ी नहर है।

    नहर में बाँध से आते पानी का दृश्य देखते ही बनता है। पानी भयंकर गर्जना के साथ नहर में गिर रहा था। अचानक हमारी नज़र रेलिंग से लटकी हुई जालीनुमा पर आयताकार खुली टोकरी पर गई जो पानी की उठती हिलोरों में ना जाकर उसके ऊपर तक ही लटका कर रखी गई थी। पहले तो समझ नहीं आया कि अगर ये जाल है तो इसे पानी के अंदर तक क्यूँ नहीं डाला गया? थोड़ी देर वहाँ खड़े रहने से स्थिति स्पष्ट गई। पानी के तेज बहाव की वज़ह से जो मछलियाँ बाँध के स्लूइस गेट से होकर नहर में आती हैं वो जोर का झटका लगने की वज़ह से पाँच फीट तक हवा में उछल जाती हैं और नीचे आते वक्त टोकरी में गिर कर फँस जाती हैं।


    मछलियों के यूँ उछल उछल कर गिरने का मंजर बड़ा दिलचस्प था। मैंने बारहा इन उछलती मछलियों को कैमरे में क़ैद करने की कोशिश की। पर बटन दबाने के पहले ही वे नहर के दूधिया जल में विलीन हो जाती थीं। आखिरकार एक फ्रेम में मुझे आंशिक सफलता मिली। मछली काफी बड़ी थी। यहां सिर्फ आपको उसका पिछला भाग दिख रहा है।

    नहर के दूसरी तरफ दूर तक फैलाव लिए बाँध का पानी...

    पहाड़ियों के सामने के ये दो पेड़ लगता था एक दूसरे के लिए ही बने हों...



    नहरों की इस यात्रा पूरी करने में दिन के दो बज गए थे। जब हम वापस अपने गेस्ट हाउस पहुँचे तो देखा कि लंगूरों की फौज आहाते में धमाचौकड़ी मचा रही है।

    थोड़ा आराम कर हम लोग शाम को हीराकुड से बीस पचीस किमी दूर स्थित चिपलिमा की ओर चल पड़े। क्या देखा हमने चिपलिमा में वो जानिएगा इस श्रृंखला के आखिरी भाग में...

     सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

      बुधवार, 15 दिसंबर 2010

      गाँधी मीनार, हीराकुद बाँध : कितनी अनूठी थी वो हरियाली और कितना रूमानी था वो रास्ता ?

      इससे पहले कि आपको आज मैं हीराकुड बाँध के उत्तरी छोर पर बनी गाँधी मीनार की ओर ले चलूँ एक भ्रांति दूर कर ली जाए। अक्सर हम लोग इस बाँध को हीराकुंड बोल जाते हैं और लोगों को इस नाम पर इस लिए भी संशय नहीं होता क्यूँकि हिंदी में कुंड का शाब्दिक अर्थ, सरोवर से मेल खाता है। पर ये गलत है। इस बाँध का सही नाम हीराकुड (Hirakud) है। पिछली बार गाँधी मीनार की उल्लेख करते हुए मैंने कहा था कि इसमें एक खास खूबी है जो इसे जवाहर मीनार से अलग करती है।

      यह खूबी है इसका ऊपरी प्लेटफार्म जो मीनार के ऊपर अवस्थित है। ये प्लेटफार्म चारों ओर घूम सकता है। घुमावदार सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए प्लेटफार्म पर पहुँचा जा सकता है। फिर मोटर का बटन दबाने की देर है और प्लेटफार्म का घूमना शुरु। गाँधी मीनार का उद्घाटन उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरेकृष्ण माहताब ने मार्च 1959 में किया था। हीराकुड बाँध की यात्रा गाँधी मीनार पर जाए बिना पूरी नहीं मानी जा सकती। इस मीनार पर खड़े होकर तीन सौ साठ डिग्री के कोण पर आप जिधर नज़र घुमाएँगे प्रकृति अपने अद्भुत रूप में आपके सामने होगी। तो आइए शुरु करते हैं 360 डिग्री का ये सफ़र....

      बारिश से भींगी सर्पीलाकार सड़कों का जाल , दूर दराज दिखते मकान और घास चरते मवेशी



      गाँधी मीनार के पास बना ये उद्यान शाम को अपने आसपास की झिलमिलाती रोशनियों से जब नहाता है तो और हसीन दिखता है...

      गाँधी मीनार हो या जवाहर मीनार चारों ओर फैली महानदी की विशाल जलराशि की सत्ता को कोई चुनौती देता प्रतीत होता है तो ये पहाड़ियाँ और उनपर पनपे ये घने जंगल





      क्या आपको नहीं लगता ये बाँध क्या कुछ लकीरें भर है। सीधी खींची मटमैली, हरी और काली लकीरें...


      मीनार के ठीक नीचे का उद्यान...


      और इस हरियाली और ऐसे रास्ते को देखकर भला कौन मंत्रमुग्ध ना हो जाए ?


      पश्चिमी घाट तो अपने हरे भरे पहाड़ों के लिए विख्यात हैं ही पूर्वी घाट भी कम नहीं..

      हमारा अगला सफ़र उन्हीं सर्पीलाकार सड़कों से हो कर था जो बाँध के जलमग्न क्षेत्र और पहाड़ियों के बीच सीमा का काम करती हैं। अगली पोस्ट में दिखाएँगे आपको हीराकुड से निकलती मुख्य नहरें और मछली पकड़ने का एक अनोखा तरीका...

       सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

        बुधवार, 8 दिसंबर 2010

        बारिश में नहाया हुआ हीराकुड बाँध और कथा मवेशियों के द्वीप की...

        पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह भुवनेश्वर से धेनकनाल होते हुए हम जा पहुँचे सँभलपुर। हीराकुड पहुँचते पहुँचते अँधेरा हो चुका था इसलिए अगली सुबह बाँध के दर्शन की उम्मीद लिए हम सब सोने चले गए। सुबह छः बजे जब मेरी नींद खुली तो बाहर हल्का अँधेरा सा दिखा। दरवाजा खोला तो देखा बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है। मन मसोस कर वापस कंबल में दुबक लिए। आधे घंटे बाद फिर निकला। बारिश थोड़ी धीमी हो चुकी थी। दौड़ कर गेस्ट हाउस की छत पर पहुँचे। नीचे विशाल पानी की चादर थी और ऊपर कुछ स्याह तो कुछ काले बादलों का जमावड़ा था। दूर क्षितिज में बादल और पानी का रंग लगभग एक दूसरे में मिलता प्रतीत हो रहा था।



        पानी की इस विशाल चादर को अपने चौड़े सीने पर रोककर हीराकुड बाँध अपनी जबरदस्त मजबूती का परिचय दे रहा था। यूँ तो हीराकुड बाँध करीब 26 किमी लंबा है पर इसके मुख्य हिस्से की लंबाई करीब पाँच किमी है। मुख्य बाँध के बीच का हिस्सा हरा भरा दिखता है और ये मिट्टी का बना है जबकि इसके दोनों किनारे सीमेंट कंक्रीट के बने हैं। कंक्रीट वाले हिस्से में ही अलग अलग तलों पर लोहे के विशाल गेट लगे हैं जिसे पानी का स्तर बढ़ने पर खोल दिया जाता है।



        सहज प्रश्न मन में उठता है कि सँभलपुर के पास बने इस बाँध का नाम आखिर हीराकुड क्यूँ पड़ा? कहते हैं पुरातनकाल में सँभलपुर हीरे के व्यवसाय के लिए जाना जाता था। कालांतर में ये जगह हीराकुड के नाम से जानी जाने लगी।

        हीराकुड बाँध की परिकल्पना विशवेश्वरैया जी ने तीस के दशक में रखी थी। सन 1937 में महानदी में जब भीषण बाढ़ आई तो इस परिकल्पना को वास्तविक रूप देने के लिए गंभीरता से विचार होने लगा। ये पाया गया कि जहाँ छत्तिसगढ़ में महानदी के उद्गम स्थल का इलाका सूखाग्रस्त रहता है तो उड़ीसा में महानदी का डेल्टाई हिस्सा अक्सर बाढ़ की त्रासदी को झेलता रहता है। लिहाज़ा यहाँ एक विशाल बाँध बनाने का काम आजादी से ठीक पूर्व 1946 में चालू हुआ। करीब सौ करोड़ की लागत से (तब के मूल्यों में) यह बाँध सात साल यानि 1953 में जाकर पूरा हुआ और 1957 में नेहरू जी ने इसका विधिवत उद्घाटन किया। मिट्टी और कंक्रीट से बनाया गया ये बाँध विश्व के सबसे लंबे बाँध के रूप में जाना जाता है। बाँध की विशालता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसको बनाने में एक करोड़ इक्यासी लाख मीटर क्यूब मिट्टी और करीब ग्यारह लाख मीटर क्यूब कंक्रीट लगी थी।

        बाँध के चारों ओर की हरियाली देखते ही बनती है। दूर- दूर तक हरे भरे पेड़ों और पहाड़ियों पर घने जंगलों के आलावा कुछ नहीं दिखता। बाँध के दूसरी ओर पनबिजली संयंत्र है। पूरी परियोजना से तीन सौ मेगावाट तक बिजली बनाने की क्षमता थी। बाँध का एक चक्कर लगाने के बाद हमारा समूह बाँध के अंदर घुसा।



        जी हाँ, बाँध के विभिन्न तलों के रखरखाव के लिए अंदर पूरी गैलरी बनी हुई है। नीचे तक जाने में साँसे फूल जाती हैं और साथ ही ये डर भी साथ रहता है कि जिस मोटी दीवार के इस तरफ हम खड़े हैं उसके दूसरी तरफ पानी हमारे सर की ऊँचाई से कई गुना ऊपर तक हिलोरें मार रहा है। बाँध के दूसरी ओर के इलाके में पानी एक पालतू जानवर की तरह उसी राह पर चलता है जो मानव ने उसके लिए निर्धारित किया है। जलरहित नदी का विशाल पाट बिल्कुल पथरीला दिखता है।



        हीराकुड बाँध की सुंदरता उसके चारो ओर फैली हरियाली से और बढ़ जाती है। मुख्य बाँध लमडुँगुरी और चाँदिलीडुँगुरी पहाड़ियों के बीच बना है और दोनों ओर की पहाड़ियों पर एक एक वॉचटावर भी बने हैं। इन्हीं वॉचटावरों में से एकजवाहर मीनार तो हमारे गेस्ट हाउस के ठीक सामने ही थी।



        बाँध की ओर जाने के पहले ही हम जवाहर मीनार पर चढ़कर चारों ओर का नज़ारा ले चुके थे। मीनार के ऊपर से नीचे के उद्यान की छटा देखते ही बनती है


        बाँध के दूसरी तरफ गाँधी मीनार है। गाँधी मीनार की एक खासियत है जो आपको अगली पोस्ट में बताऊँगा पर चलते चलते हीराकुड के "कैटल आइलेंड" यानि मवेशियों के द्वीप की बात जरूर करना चाहूँगा।

        पचास के दशक में जब हीराकुड बाँध बन कर तैयार हुआ तो करीब छः सौ वर्ग किमी का क्षेत्र पानी में डूब गया। इस इलाके में कई छोटी बड़ी पहाड़ियाँ थीं जिस पर उस समय कई गाँव बसे हुए थे। गाँववाले तो पहाड़ियों पर स्थित इन गाँवों से पलायन कर गए पर कुछ ने अपने मवेशी इन पहाड़ियों पर छोड़ दिए। जलस्तर पूरा बढ़ने पर भी इन पहाड़ियों का ऊपरी हिस्सा नहीं डूबा और ये पालतू मवेशी बच गए। बाँध बनने के पाँच दशकों बाद मानव के संपर्क से दूर रहते हुए ये मवेशी अब जंगली हो गए हैं और इन्हें पहाड़ियों पर दौड़ लगाते देखा जा सकता है। वैसे इन द्वीपों में सबसे ज्यादा संख्या में जहाँ ये पाए जाते हैं वो जगह संभलपुर से करीब नब्बे किमी दूरी पर है पर पानी के रास्ते मात्र दस किमी दूरी तय कर वहाँ पहुँचा जा सकता है।

        अगली पोस्ट में चलिएगा मेरे साथ गाँधी मीनार पर और देखियगा हीराकुड बाँध के आसपास के मनमोहक नज़ारे।


         सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

          शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

          धेनकनाल, डोकरा मूर्ति कला और वो बाँध जिसने महानदी को रोक लिया था...

          पिछले एक महिने से इस चिट्ठे पर खामोशी थी। दरअसल जब एक बार कहीं घूमने के लिए निकलता हूँ तो फिर नेट की तरफ रुख करने को भी दिल नहीं करता। दीपावली में घर निकल गया और वहाँ से लौटने के बाद लगभग अगले दो हफ़्ते राजस्थान में बीते। पर आज मैं आपको राजस्थान ले जाने के लिए नहीं आया हूँ उस पर तो बहुत सारी बातें आने वाले दिनों में आपसे होती रहेंगी।

          आज चलते हैं एक ऐसी जगह पर जहाँ की साड़ियों बड़ी मनमोहक होती हैं। उड़ीसा (ओडीसा) में होते हुए जहाँ की मूल भाषा उड़िया से हट कर रही। जहाँ आजादी के बाद एक नदी घाटी परियोजना शुरु हुई जिनसे उस नदी से जुड़े इलाकों को एक साथ बाढ़ और सूखे की विभीषिका से बचाया। इस इलाके को उड़ीसा में धान के कटोरे के नाम से भी जाना जाता है। अब इतने सारे संकेत देने के बाद तो आप समझ ही गए होंहे कि मैं उड़ीसा के शहर संभलपुर की बात कर रहा हूँ।

          बात पिछले साल अक्टूबर की है जब मैं अपनी दीदी के यहाँ भुवनेश्वर गया था। वहीं से योजना बनी कि इस बार हीराकुड बाँध (Hirakud Dam) देखने चला जाए। हीराकुड बाँध सँभलपुर से करीब पन्द्रह किमी की दूरी पर स्थित है। वहीं भुवनेश्वर से सँभलपुर की दूरी करीब 321 किमी है। सँभलपुर जाने के लिए पहले से भुवनेश्वर से कटक जाते हैं और फिर वहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 42 पकड़ते हैं जो सँभलपुर में जाकर ही खत्म होता है।


          हल्की बूँदा बाँदी के बीच हम भुवनेश्वर से निकले। कटक के आगे बढ़ते ही बारिश तेज हो गई। पर सौ किमी की दूरी पार कर जब हम धेनकनाल पहुँचे तो बारिश थम चुकी थी। धेनकनाल पूर्व मध्य उड़ीसा का वो जिला है जिसका अधिकांश हिस्सा पूर्वी घाट की पहाड़ियों और जंगलों से घिरा हुआ है।किसी ज़माने में इन पहाड़ियों पर धेनका नाम के कबीलाई सरदार का शासन था इस लिए जगह का नाम धेनकनाल पड़ा। चाय पानी के विश्राम के लिए हम वहाँ के सर्किट हाउस में थोड़ी देर के लिए रुके। सर्किट हाउस एक छोटी सी पहाड़ी पर था।

          सर्किट हाउस के कक्ष में डोकरा कला के कुछ नमूने दिखे। प्राचीन समय से चली आ रही ये कला छत्तिसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के जन जातीय इलाकों में खासी लोकप्रिय रही है। धोकरा कला से बनाए हस्तशिल्पों में वहाँ की लोकसंस्कृति की झलक मिलती है। अक्सर ऐसे हस्तशिल्प द्वारा जानवरों,राजाओं,सामाजिक उत्सवों और देवी देवताओं की छवियाँ देखने को मिलती हैं। पीतल से बनाई जाने वाले इस हस्तशिल्प को बनाने की प्रक्रिया रोचक है।



          जिस छवि को बनाना होता है लगभग उसके जैसा मिट्टी का आकार बना लिया जाता है जो शिल्प के केंद्र में रहता है। सबसे पहले कठोर मिट्टी के चारों ओर मोम का ढाँचा बनाया जाता हैऔर उसी पर कलाकृति भी उकेर ली जाती है। फिर इसके चारों ओर अधिक तापमान सहने वाली रिफ्रैक्ट्री (Refractory Material) की मुलायम परतें चढ़ाई जाती हैं। ये परतें बाहरी ढाँचे का काम करती हैं। जब ढाँचा गर्म किया जाता है तो कठोर मिट्टी और बाहरी रिफ्रैक्ट्री की परतें तो जस की तस रहती हैं पर अंदर की मोम पिघल जाती है। अब इस पिघली मोम की जगह कोई भी धातु जो लौहयुक्त ना हो (Non Ferrous Metal) जैसे पीतल पिघला कर डाली जाती है और वो ढाँचे का स्वरूप ले लेती है। तापमान और बढ़ाने पर मिट्टी और रिफ्रैक्ट्री की परतें भी निकल जाती है और धातुई शिल्प तैयार हो जाता है।

          धेनकनाल से साठ किमी और आगे बढ़ने पर अंगुल (Angul) आता है जो अब जिला मुख्यालय बन गया है। अंगुल के ठीक पहले ही नालको का संयंत्र है। सतकोसिया का वन्य जीव अभ्यारण्य यहाँ से लगभह साठ किमी पर स्थित है। महानदी यहाँ बड़ी ही संकरी घाटी से होकर गुजरती है। इस इलाके को देखने के लिए लोग टीकरपाड़ा में रुकते हैं जो अंगुल से साठ किमी दूरी पर है। वहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है।

          अंगुल में थोड़ा समय बिताकर हम सँभलपुर की ओर बढ़ गए। सँभलपुर के ठीक पहले के चालीस पचास किमी का रास्ता घने जंगलों के बीच से गुजरता है। चूँकि जंगल के इस इलाके से गुजरने के पहले ही सूर्यास्त हो चुका था हमें बाहर की छटा ज्यादा नहीं दिखाई दी। सँभलपुर के ठीक पहले ही हीराकुड जाने का रास्ता अलग हो गया। करीब साढ़े छः बजे हम हीराकुड में अपने ठिकाने पर पहुँचे। हमें बताया गया कि गेस्ट हाउस की बॉलकोनी से बाँध का नज़ारा स्पष्ट दिखता है।

          बाहर घुप्प अँधेरा था। बाँध पर कुछ रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। पर पानी में कोई हलचल न थी। बाँध के दूसरी ओर हिडांलकों और महानदी कोल्ड फील्ड की फैक्ट्री से लाल पीले रंग की टिमटिमाहट ही दूर तक ठहरी कालिमा में रंग भरने का प्रयास कर रही थी।


          पानी के बीचों बीच पहाड़ी जैसा कुछ आभास होता था और उसके ठीक पीछे का आकाश लाल नारंगी रंग की आभा से दीप्त था। संभवतः उस पहाड़ी के पीछे भी कोई संयंत्र रहा होगा। बाँध की ओर से ठंडी हवा के झोंके मन को प्रसन्न कर दे रहे थे। गेस्ट हाउस के बरामदे में इस दृश्य को बिना त्रिपाद के कैमरे में उतारना काफी कठिन था।


          गेस्ट हाउस के चारों ओर चहलकदमी कर हम शीघ्र ही सोने चले गए। दरअसल सुबह सुबह उठ कर हीराकुड की विशालता का अनुमान लगाने की उत्कंठा जोर मार रही थी। पर क्या हमारी सुबह की उस मार्निंग वॉक का कार्यक्रम फलीभूत हो पाया। इसके बारे में बात करेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में..

           सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

            रविवार, 17 अक्तूबर 2010

            राँची के दुर्गा पूजा के पंडालों की सैर भाग 2 आज देखिए नज़ारे बकरी बाजार, काँटाटोली, कोकर और रातू रोड के...

            पिछली पोस्ट में आपने मेरे साथ राँची के हरमू, राँची झील और अपर बाजार के पंडालों को देखा था। आज आपसे वादा था राँची के सबसे बड़े पंडाल और बारिश में भीगी राँची की रात की गहमागहमी को दिखाने का। पिछली पोस्ट में अभिषेक ओझा पूछ रहे थे इस साल बकरी बाजार में क्या हुआ? राँची वासियों के लिए हर साल दुर्गा पूजा में ये सवाल सबसे अहम होता है और इसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हम आज के सफ़र की शुरुआत करते हैं अपर बाजार स्थित 'बकरी बाजार' के पंडाल से।

            बकरी बाजार के पंडाल की खासियत हमेशा से ये रही है कि इसके पास अपनी चुनी हुई थीम को प्रदर्शित करने के लिए काफी जगह है। इस बार यहाँ पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के तामलुक में स्थित किले और उसके प्रागण के एक पुराने मंदिर को प्रदर्शित किया गया है। किले की दीवारों में दिखती सीलन, लतर वाले पादपों की लटकती बेलें एक पुराने किले में घुसने के अहसास को पुरज़ोर करती हैं। जब हम वहाँ पहुँचे तो बारिश की एक लहर आ कर जा चुकी थी और उससे मंदिर और किले की लाल इँटों की दीवारें और स्याह हो कर अपने पुरातन होने की गवाही दे रही थीं।


            करारी धूप ने पल भर में दीवारों के रंग पर क्या प्रभाव डाला वो आप ऊपर और नीचे के चित्रों में साफ देख सकते हैं।



            अंदर मंदिर के प्रागण का हरा भरा खुला वातावरण मन मोह रहा था..


            माता दुर्गा के इस रूप में देखकर भला किसकामन श्रृद्धामय ना हो जाए...



            बकरी बाजार से वापस लौट कर शाम हमने घर में बिताई। शाम से बारिश के तीन चार झमाझम दौर हो चुके थे। रात दस बजे लगा कि बारिश रुक गई है। सो हम रात ग्यारह बजे राँची की रंगत देखने के लिए निकल पड़े कोकर की ओर जो अपनी जगमगाती विद्युत सज्जा के लिए खास तौर पर जाना जाता है। कोकर जाने के पहले हम रुके काँटाटोली के 'नेताजीनगर पूजा समिति' के द्वार पर। इस बार यहाँ पंडाल में तीन ऐसी वस्तुओं का प्रयोग किया गया था जिनका हम रोजमर्रा की ज़िंदगी में अक्सर प्रयोग करते हैं। एक नज़र नीचे के चित्र को देख कर क्या आप पहचान सकते हैं कि क्या हैं ये तीन वस्तुएँ?


            ठहरिए पहले क्लोज अप ले लिया जाए! तो देख लिया आपने सूप, टोकरी और आइसक्रीम खाने वाले चम्मच का किस तरह उपयोग किया पंडाल बनाने वाले कारीगरों ने ?



            मुख्य मंडप तक पहुँचने के पहले गलियारे में भी शानदार सजावट थी...


            लकड़ी के इस काम को भला कौन नहीं सराहेगा ?



            जितनी मेहनत इस बाहरी साज सज्जा में की गई, उतनी ही माता को सजाने सँवारने में....


            काँटाटोली से हम बढ़े कोकर की ओर। बच्चों के लिए कोकर जाना हमेशा खुशी का विशेष सबब रहा है। इस बार भी विद्युत सज्जा में दिखती झांकियाँ, शेर और मगरमच्छ के चलते फिरते पुतले और फिर पूजा मंडप के निकट लगने वाला मेला उनको आकर्षित कर रहा था। अब जब विद्युत सज्जा अगर फुटबॉल प्रेमी बंगाली कारीगर करेंगे तो फिर हमारे आक्टोपसी पॉल बाबा को स्पेन वाले बक्से पर बैठने का नज़ारा क्यूँ कर दिखाना भूल जाएँगे?



            पर इस बार कोकर के पूजा पंडाल की साज सज्जा पिछले साल से फीकी रही।


            कोकर से हम बढ़े कचहरी चौक की तरफ जहाँ इस साल वैष्णव देवी के मंदिर का मॉडल तैयार किया गया था। रात के साढ़े बारह बज रहे थे और बारिश पुनः प्रारंभ हो गई थी पर संग्राम पूजा समिति के पंडाल के बाहर जबरदस्त भीड जमा थी। अंदर बिजली से चलने वाले प्रारूपों की मदद से अघोरी साधु भैरवनाथ और दुर्गा माता द्वारा उनके संहार की कथा चल रही थी। भीड़ ने झटके से हमें अंदर ठेला। कथा चलती रही भक्त देवी के हर वार पर खुशी से जय माता दी का हर्षोन्नाद करते दिखे। क्या बच्चे क्या बड़े सभी भक्ति के रंग में रँगे थे।

            हल्की बारिश अभी भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। रात्रि का एक बज चुका था। अब हमें अपने अंतिम पड़ाव रातू रोड की ओर बढ़ना था। बारिश में भींगते हमारे जैसे कई लोग थे। कुछ ही जन ऐसे थे जो छतरी के साथ चल रहे थे। रातू रोड भी हर साल की तरह सुंदर विद्युत सज्जा से चकाचौंध था।


            पंद्रह मिनट तक बारिश की फुहारों के बीच चलते हम रातू रोड के 75 फीट ऊँचे पूजा पंडाल के पास पहुँचे। नारियल के बाहरी कवच और उसके रेशे से पूरे पंडाल की साज सज्जा की गई थी।


            पंडाल के अंदर भगवान राम की ये छवि मुझे विशेष रूप से पसंद आई।


            रातू रोड से हम वापस रात दो बजे तक घर आ गए। और देखिए मौसम का मिजाज़, आज विजयदशमी के दिन बादल एक बार फिर सही समय पर छँट गए जिससे रावण दहन भली भांति सम्पन्न हो गया।

            शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

            आइए चलें राँची के दुर्गा पूजा पंडालों की सैर पर.. भाग 1

            राँची में इस वक़्त दुर्गा पूजा का जश्न जोरों पर है। वैसे पूजा की इस बेला में मौसम ने भी क्या खूब करवट ली है। अष्टमी के साथ ही बादलों की फौज राँची के आसमाँ में पूरी तरह काबिज़ हो गई है। बारिश भी ऐसी की अभी है और अभी नहीं है। पर ऊपर से गिरती इन ठंडी फुहारों का पूजा का आनंद उठाने वालों पर जरा सा भी असर नहीं पड़ा है। बारिश और धूप से आँखमिचौली के बीच मैंने भी दुर्गा पूजा पंडालों के बीच एक दिन और एक रात बिताई। दुर्गा पूजा के पंडालों (Puja Pandals of Ranchi ) में आपको पहले भी घुमाता रहा हूँ तो चलिए निकलते हैं आपको लेकर माता के दर्शन पर..

            सुबह के साढ़े नौ बजे हैं। घर से साढ़े दस बजे निकलने का वक़्त तय है। पर दस बजे से ग्यारह बजे की बारिश हमारे कार्यक्रम को पैंतालिस मिनट आगे खिसका देती है। अपनी कॉलोनी से डिबडी चौक के फ्लाईओवर को क्रास करते ही अरगोड़ा और फिर हरमू का इलाका आ जाता है। अरगोड़ा दुर्गा पुजा पंडाल से ज्यादा रावण दहन के लिए जाना जाता है। इसलिए सबसे पहले हम जा पहुँचते हैं हरमू की पंचमंदिर पूजा समिति के पंडाल पर। वैसे जो राँची के नहीं हैं उन्हे बता दूँ कि इस इलाके का नाम हरमू नदी के नाम पर है जो अब अवैध निर्माणों की वज़ह से लगभग विलुप्तप्राय ही हो गई है। हमारे क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी हमारी कॉलोनी छोड़ अब इसी इलाके में बने अपने नए घर में रहते हैं।

            पंडाल के करीब पहुँचे तो चटक रंगों से सुसज्जित पंडाल को देख कर मन रंगीन हो उठा। बोध गया के बौद्ध मंदिर से प्रेरित ये पंडाल सिर्फ बाहर से ही बौद्ध मठ की याद नहीं दिलाता।

            अंदर माँ दुर्गा की प्रतिमा भी बौद्ध मूर्ति कला की झलक दिखलाती है।

            हरमू रोड से रातू रोड के बीच के इलाके में राँची शहर के खासमखास पंडाल रहते हैं। पर इन सबमें मुझे हर साल सत्य अमर लोक पूजा समिति द्वारा रचित पंडाल सबसे ज्यादा आकर्षित करता है। कम जगह और कम बजट में ये लोग हर साल कलाकारी के कुछ ऐसे नायाब नमूने लाते हैं कि दाँतों तले उंगलियाँ दबाने को जी चाहता है। चार लाख की लागत पर बनाया गया इस साल का पंडाल फिरोज़ाबाद से लाई हुई चूड़ियों से बनाया गया है। पंडाल में दुर्गा माता को एक विजय रथ पर सवार हैं।


            और रथ के वाहक हैं ये सफेद घोड़े...





            रथ के पहिए बहुत कुछ कोणार्क के सूर्य मंदिर के चक्रों की याद दिलाते हैं।


            पंडाल के अंदर और बाहर हर हिस्से में चूड़ियों को तोड़ तोड़ कर भांति भांति की मनोरम आकृतियाँ बनाई गई हैं। आयोजकों का कहना है कि करीब तीन लाख चूड़ियों से बनाए गए इस पंडाल की चूड़ियों का काली पूजा में फिर प्रयोग करेंगे।


            बगल में ही गाड़ीखाना का पंडाल है जहाँ इस बार थर्मोकोल पर इस तरह डिजायन बनाए गए हैं मानो संगमरमर पत्थर के हों।

            गाड़ीखाना से हमारी गाड़ी बढ़ती है राजस्थान चित्र मंडल के पंडाल की ओर। ये पंडाल राँची झील के किनारे काफी व्यस्त इलाके में बनाया जाता है। कम जगह होने की वज़ह से सत्य अमर लोक की तरह इस पंडाल के आयोजक कारीगरी के नए प्रयोगों को हमेशा से प्रोत्साहित करते रहे हैं। राजस्थान चित्र मंडल का इस साल का पंडाल नेट के कपड़े से और मूर्तियाँ जूट से बनाई गई हैं.

            तो देखिए जूट से बनी दुर्गा जी का ये रूप...


            राँची झील के दूसरी तरफ ओसीसी पूजा समिति का पहाड़नुमा ये पंडाल बच्चों को खूब भा रहा है।



            दुर्गा माँ की प्रतिमा भी यहाँ निराली है।

            आज के लिए तो बस इतना ही। कल आपको दर्शन कराएँगे राँची के सबसे बड़े पंडाल का और साथ में होगी बारिश से भीगी राँची की मध्यरात्रि में चमक दमक।