गुरुवार, 28 जनवरी 2010

यादें केरल की : भाग 5 - मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह

अपने ठहरने की जगह यानि चांसलर रिसार्ट पर हम करीब पौने पाँच बजे पहुँचे। ये रिसार्ट मुन्नार मदुरई मार्ग पर मुन्नार से करीब २५ किमी आगे बना हुआ है और बेहद खूबसूरत है।


इस रिसार्ट के ठीक सामने रोड पर खड़े होकर आप आनाईरंगल झील (Anayirangal Lake) का नज़ारा देख सकते हैं (बगल के चित्र में देखें)। हमारी कॉटेज के चारों ओर पहाड़ियों का खूबसूरत जाल था और उस पर बिखरे थे टाटा के चाय बागान। थोड़ी देर में हम आनाईरंगल झील के रास्ते में थे। चाय बागानों के बीच से जाती राष्ट्रीय राजमार्ग ४९ (NH 49) की ये सड़क तमिलनाडु के मदुरई शहर तक चली जाती है। इलायची के पेड़ों के झुंड और टाटा के चाय कारखाने को पार कर शीघ्र ही हम चेक डैम तक पहुँच चुके थे। संयोगवश डैम पर और कोई पर्यटक दल मौजूद नहीं था। सांझ आ चुकी थी और झील का पानी खुले गेट से तेज प्रवाह के साथ गिर रहा था। शांत वातावरण में हमने कुछ पल वहाँ प्रकृति के साथ बाँटे और फिर वापस अपने रिसार्ट की ओर मुड़ गए।



वापस रास्ते में सूर्य अपनी रक्तिम लालिमा लिये पहाड़ियों की ओट में जाता दिखाई दिया। हमारे दुमंजिला कॉटेज की ऊपरी बॉलकोनी पश्चिम दिशा की ओर खुलती थी। इसलिए हम सभी जल्द से जल्द वहाँ पहुँच कर इस मनोरम दृश्य को कैमरे में कै़द कर लेना चाहते थे। भागते दौड़ते जब तक वहाँ पहुँचे तो थोड़ी देर हो चुकी थी।


पहाड़ियों की श्रृंखला अँधेरे में गुम हो चुकी थी। बचा था तो, उनकी ओट से आता लाल नारंगी प्रकाश। हम सारे टकटकी लगाए तब तक प्रकृति की लीला को निहारते रहे जब तक अंधकार ने रहे सहे प्रकाश पर अपनी विजय पताका ना फहरा ली।

शाम से रिसार्ट में चहल पहल बढ़ने लगी थी। तीन चार बसों में भर कर किशोरियों का दल वहाँ क्रिसमस ईव मनाने आ पहुँचा था।


रात्रि के आठ बजे हम रिसार्ट का चक्कर मारने निकले। चाँद अपने पूरे शबाब के साथ पूर्ण वृताकार रूप में आसमान की शोभा बढ़ा रहा था। थोड़ी देर में ही हम रिसार्ट की सबसे ऊँची इमारत पर जा पहुँचे जिसमें अभी निर्माण कार्य चल रहा था । ईट पत्थरों को कूदते फाँदते जब हम उस कक्ष की बालकोनी तक पहुँचे। सामने जो दृश्य था उसे मैं शायद अपने जीवन में कभी भूल नहीं पाऊँगा।


हमारे सामने पहाड़ियों का अर्धवृताकार जाल था जिसमें लगभग समान ऊँचाई वाले पाँच छः शिखर थोड़ी थोड़ी दूर पर अपना साम्राज्य बटोरे खड़े थे। चंद्रमा ने अपना दूधिया प्रकाश, इन पहाड़ों और उनकी घाटियों पर बड़ी उदारता से फैला रखा था। मूनलिट नाईट के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था पर उसी दिन महसूस कर पाए कि चाँद ना केवल खुद बेहद खूबसूरत है वरन वो अपने प्रकाश से धरती की छटा को भी निराली कर देता है। केरल की दस दिनों की यात्रा का मेरे लिए ये सबसे खूबसूरत लमहा था जिसे हम अपने कैमरे में कम प्रकाश और त्रिपाद (tripod) ना रहने की वज़ह से क़ैद नहीं कर सके। दिल कर रहा था कि रात यहीं बिता दें पर इमारत में काम कर रहे मजदूर रात्रि के भोजन के लिए निकल रहे थे सो हमें वहाँ से मन मसोस कर आना पड़ा।


नीचे संगीत का शोर बढ़ता सा मालूम हो रहा था। वहाँ पहुँचे तो पाया कि होटल की तरफ से बॉन फॉयर (Bon Fire) का इंतजाम था। सारे बच्चे अपने शिक्षकों की देखरेख में आग के चारों ओर हाथ में हाथ थामे घेरा लगा कर खड़े थे। कुछ बच्चों ने सान्ताक्लॉज की टोपियाँ पहन रखी थीं। थोड़ी देर में गीत संगीत के साथ नृत्य शुरु हुआ। पहले बच्चों ने जम कर डॉन्स किया फिर उनके शिक्षकों ने। बच्चों को यूँ सबके साथ मिल जुल कर मस्ती करते देखना अच्छा लगा।



वापस अपने कमरे में लौटे तो ये निर्णय लिया गया कि सुबह साढ़े पाँच बजे ही हम सब सूर्योदय देखते हुए टहलने निकल जाएँगे। साढ़े पाँच बजे उठ तो गए पर बाहर अभी भी घुप्प अंधकार था। छः बज गए फिर भी हालत वही रही। अब हमें लगा कि और रुकने से कोई लाभ नहीं। चल कर बाहर देखते हैं कि या इलाही ये माज़रा क्या है सुबह सवा छः बजे भी चाँद अपनी पूरी चमक के साथ नीले आकाश का सिरमौर बना हुआ था।

टहलते हुए हम रिसार्ट के पूर्वी किनारे पर जा पहुँचे। वहाँ हमारी तरह ही, सूर्य किरणों के स्वागत के लिए लोग प्रतीक्षारत मिले। थोड़ी ही देर में आकाश ने गिरगिट की तरह अपने रंग बदलने शुरु किए। पहले नीले और फिर लाल नारंगी की मिश्रित आभा से पूरा आसमान बदल गया। नीला नारंगी आसमान और उसके नीचे झील के उपर तैरते बादल ! बड़ा कमाल का दृश्य था वो भी। सूर्योदय सामने की ऊँची पहाड़ियों की वज़ह से जब दिखाई नहीं पड़ा तो हम चाय बागानों में टहलने निकल पड़े।

चट्टानों को छोड़ दें तो पहाड़ की कोई ढलान शायद ही बची थी जहाँ चाय के पौधों की कालीननुमा पट्टियाँ ना दिखती हों। हम सड़क पर थोड़ी दूर चलकर शीघ्र ही एक चाय बागान में उतर गए। आखिर सुबह सुबह ऍसी खूबसूरत हरियाली देखने को कहाँ मिलती है। सो चाय के पौधों की कतारों के बीच से उतरते-उतरते हम कब काफी नीचे तक पहुँच गए ये पता ही नहीं चला। वहाँ से ऊपर का दृश्य चित्र में देखिए। चोटी पर जो तिमंजिला निर्माणाधीन इमारत दिख रही है, रात्रि में हम वहीं थे। चाय के बागानों में बीच-बीच में जो पेड़ दिख रहा है वो सिल्वर ओक का है। आप जरा सोचिए ये क्यूँ लगाया जाता है ?

ग्यारह बजे तक हमें चाय बागानों को छोड़ कर खास मुन्नार शहर रवाना होना था। चांसलर रिसार्ट की पिछली रात तो बेहद सुकून देने वाली थी पर अगली रात ऍसी निकली कि अपना सोना भी मुहाल हो गया। क्यूँ हुआ ऐसा ये जानते हैं इस यात्रा वृत्तांत की अगली किश्त में....



इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

रविवार, 24 जनवरी 2010

क्या है मुन्नार के चाय बागानों का इतिहास ?

अगर आप टाटा टी के शौकीन हों तो ये अवश्य जानना चाहेंगे कि आखिर टाटा के ये बागान हैं कहाँ, जहाँ से आपकी सुबह की प्याली में डाली जाने वाली चाय पत्ती आती है। वैसे तो टाटा के चाय बागान केरल और तमिलनाडु के कई हिस्सों में हैं पर उनमें से सबसे मशहूर मुन्नार के चाय बागान हैं।

मुन्नार में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चाय की खेती शुरु करने का श्रेय एक यूरोपीय ए. एच. शार्प (A.H.Sharp) को जाता है। शार्प के चाय बागानों को आज साइलेंट वैली टी एस्टेट (Silent valley Tea Estate) के नाम से जाना जाता है।


१८९५ में फिनले समूह ने ३३ चाय बागानों को अधिग्रृहित किया। दो साल बाद 'कानन देवन हिल्स प्रोड्यूस कंपनी ' का गठन हुआ जिसे १९६४ में टाटा ने ले लिया। २००५ से इन चाय बागानों की देख रेख का जिम्मा पुराने नाम से बनी नयी कंपनी 'कानन देवन हिल्स प्रोड्यूस कंपनी' पर है। आज की तारीख में इस कंपनी के पास मुन्नार के १६ चाय बागान हैं जो ८६०० वर्ग हेक्टेयर में फैले हुए हैं। तभी तो आप मुन्नार में जिधर भी नज़र घुमाएँ आपको चाय के बागान ही दिखाई पड़ते हैं।


इस बार हम जब मुन्नार गए तो दूसरे दिन हमें इसी कंपनी के गेस्ट हॉउस में रहने की जगह मिली। अब ये नाम मुन्नार के चाय बागान के इतिहास में इतना माएने रखता है, ये वहाँ से आने के बाद पता चला। पुराने तरीके से थोड़ी ऊँचाई पर बना ये गेस्ट हाउस सामने से बेहद आकर्षक दिखता है। वैसे दिसंबर के पीक सीजन में भी यहाँ कमरे का किराया 7०० रुपये था जो बाकियों की तुलना में काफी कम था। अगर मुन्नार जाएँ और बजट के अंदर ठिकाने की तालाश हो, तो ये जगह भी बुरी नहीं।

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

यादें केरल की - भाग 4 : कोच्चि से मुन्नार टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान

24 दिसंबर की सुबह हमारे लिए खास थी क्योंकि कुछ ही घंटों में हमें मुन्नार कूच करना था। पूरी यात्रा की योजना बनाते वक़्त मुन्नार के बारे में पढ़ कर हम वहाँ जाने के प्रति सबसे ज्यादा उत्साहित थे। मुन्नार कोचीन से करीब 140 किमी है और गाड़ी से ये दूरी करीब साढ़े चार से पाँच घंटे में पूरी होती है। दस बजे तक हम कोच्चि छोड़ NH 49 की राह पकड़ चुके थे। कोच्चि से कुछ दूर बाहर निकलते ही हमें रबर के बागान दिखाई देने लगे।

इससे पहले रबर के जंगल हमने अंडमान में देखे थे तो वही दृश्य फिर आँखों के सामने घूम गया। थोड़ी ही दूर आगे बढ़े थे की रबर निकालने की प्रक्रिया सामने खुद ही दृष्टिगोचर हो गई। हमारे मलयाली ड्राइवर ने तुरत गाड़ी रोकी ताकि कैमरे से हम चित्र उतार सकें। जैसा कि आप देख सकते हैं, रबड़ निकालने के लिए पेड़ के तने में घुमावदार चीरा लगाया जाता है जिसके रास्ते रबर, एक पात्र में जमा होता है। रबर के जंगल खत्म हुए ही थे कि अनानास के खेत दिखने लगे। हमारे पूरे समूह के लिए ये एक नया और अद्भुत नज़ारा था।

लगभग ग्यारह बजे हम कोठामंगलम (Kothamangalam) की व्यस्त सड़कों के बीच से गुज़र रहे थे।

केरल का भूगोल अपने आप में अनूठा है। यूँ तो इसकी तट रेखा 580 किमी. लंबी है पर इसकी चौड़ाई पूरे राज्य में मात्र 35 से 120 किमी. के बीच है। इस चौड़ाई के एक तरफ़ तो समुद्र है तो दूसरी और 1500 से 1600 तक औसत ऊँचाई वाले पश्चिमी घाट। इसलिए जब भी आप पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व की ओर सफ़र करेंगे, आपको काफी घुमावदार रास्तों से विचरण करना होगा। इसलिए इन रास्तो पर चलने के पहले उल्टी की दवा खाकर चलना श्रेयस्कर है। यूँ तो हमारे दल के सदस्यों ने एवोमीन ली थी पर देर से लेने की वज़ह से मेरे पुत्र वोमिटिंग का शिकार हो गया।

हम नेरिएमंगलम (Neriamanglam) से कुछ दूर आगे एक नर्सरी में रुके। कोच्चि से मुन्नार के रास्ते में कुछ छोटे जलप्रपात भी आते हैं जिसके बगल में बैठकर आप सफ़र की थकान मिटा सकते हैं। आदिमाली (Adimali) जो कोच्चि से करीब 100 किमी की दूरी पर है, तक पहुँचते-पहुँचते हम सब की हालत खराब हो रही थी। सब यही सोच रहे थे कि इन सर्पीलेकार, चक्करदार रास्तों से कब मुक्ति मिलेगी ? मुन्नार शहर से करीब १२ किमी पहले एक विउ प्वांट पर हमने आधे घंटे का ब्रेक लिया ताकि चकराते सिर को पहाड़ों से आती हल्की ठंडी हवा की खुराक दी जा सके। अब हम पहाड़ों के बिलकुल करीब आ चुके थे। हरे भरे पहाड़ों और जंगलों की गोद में मुन्नार के मशहूर चाय बागान अपनी झलक दिखला रहे थे।

बाहर फेरीवाला एक अलग तरह का फल बेच रहा था। नाम ऐसा कि आप खाने से अपने आप को रोक ना पाएँ। चौंकिए मत,एक सामान्य नीबू से आकार में दुगने बड़े इस फल का नाम था पैशन (Passion Fruit)। अब इस फल का नाम कैसे पड़ा ये तो मालूम नहीं पर इसे खाने का तरीका भी कुछ अलग सा है। फल को लम्बवत काटिए और इसके लिज़लिज़े हिस्से को हाथों या चम्मच से निकाल कर इसका मज़ा लीजिए। इसका स्वाद तो मुझे हल्के मीठे साइट्रस फ्रूट की तरह का लगा पर बच्चों में ये ऍसा जमा की जहाँ जाते इस फल की माँग कर बैठते। बाद में मुझे पता चला कि ये फल केरल ही नहीं वरन् विश्व के अन्य भागों में भी खाया जाता है। यहाँ देखें

थोड़ी देर में हम मुन्नार शहर में थे। चारों ओर की छटा निराली हो चुकी थी पर हमारा ध्यान कहीं और था। रास्ते के हिचकोलों ने पेट में एक अलग तरह का संग्राम मचाया हुआ था। सो पहले हल्की पेट पूजा की । हल्की इसलिए कि हमारी यात्रा मुन्नार पहुँचने तक ही खत्म नहीं होने वाली थी। बल्कि हमें शहर से २५ किमी दूर मुन्नार से थेक्कड़ि (Thekkady) जाने वाले रास्ते में देवीकुलम से थोड़ा आगे स्थित चांसलर रिसार्ट में रहना था। दूसरे दिन के लिए आरक्षण नहीं था। बजट के अंदर होटल ढूंढने में हमें एक घंटा लगा। कोई हजार दो हजार से नीचे की बात ही नहीं कर रहा था। पर मलयाली ड्राइवर की कुशलता से इतने पीक सीजन में हमें ७०० रुपये का कमरा मिला पर वो भी एक।

खैर कल की कल देखी जाएगी कह कर हम अपने ठिकाने की तरफ निकल पड़े। मुन्नार से थेक्कड़ी की तरफ़ निकलने वाले रास्ते में थोड़ी दूर बढ़े ही थे कि चाय के हरे भरे बागान हमारे बिल्कुल करीब आ गए। पहाड़ की ढलानों के साथ उठते गिरते चाय बागान और उनके बीचों बीच कई लकीरें बनाती पगडंडियाँ इतना रमणीक दृश्य उपस्थित करते हैं कि क्या कहें ! पर्वतों की चोटियों और बादलों के बीच छन कर आती धूप हरे धानि रंग के इतने शेड्स बनाती है कि मन प्रकृति की इस मनोहारी लीला को देख विस्मृत हो जाता है। हृदय इन बागानों के बीच बिताए एक एक पल को आत्मसात करने को उद्यत करता है। चाय बागानों की बात तो अभी आगे भी होनी है ।

अपने गन्तव्य से ५‍-१० किमी पूर्व चिन्नाकनाल का ये खूबसूरत झरना मिला। बच्चे पानी की गिरती धाराओं को देखने के लिए खुशी से दौड़ पड़े। शाम के ठीक चार बजे हम अपने रिसार्ट में थे। शाम चार बजे से अगली सुबह तक का हाल लेकर आऊंगा अगली किश्त में।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

रविवार, 17 जनवरी 2010

क्या आप $72 में कोचीन शहर खरीदना चाहेंगे ?

72 डॉलर है आपकी जेब में ? अगर हैं तो कोच्चि शहर आपका। यक़ीन नहीं आता तो यहाँ देख लीजिए जनाब।

बात पिछले दिसंबर की है। कोचीन यानि कोच्चि में यहूदियों के प्रार्थना स्थल से डच पैलेस की ओर आ रहा था कि एक दुकान के बाहर दीवार पर ये पंक्तियाँ लिखी दिखाई दीं। दीवार पर लिखे बाकी ब्राड अंग्रेजों के ज़माने में बेहद प्रचलित थे।

इटली के यात्री निकोलस कोन्टी (Nicholas Conti) कोचीन के बारे में अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा था कि

"आप चीन में खूब पैसा बना सकते हैं और कोचीन में खर्च कर सकते हैं।"

क्यूँ ना खर्च करें जब इतने कम दामों में पूरा शहर मिल रहा हो :) !

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...

यूँ तो कोचीन का इतिहास बड़ा पुराना है पर आज तक इसके नाम की व्युत्पत्ति पर सारे इतिहासकार एक मत नहीं हैं। इसकी एक वज़ह ये भी है कि कोचीन के व्यवसायिक महत्त्व के चलते यहाँ अरब, चीनी, पुर्तगाली, डच और अंग्रेज सभी आए और इन सब ने इस जगह को अपने इतिहास के पन्नों में अलग-अलग ढंग से दर्ज किया।


कुछ इतिहासकार मलयालम शब्द कोच अज्हि (Small Lagoon) से और कुछ कसि (harbour) से कोचीन नाम पड़ने की बात करते हैं। फिर कुछ लोग ये भी कहते हैं कि कोच्चि नाम कुबलई खान के दरबार से आए व्यापारियों का रखा है।

अलग-अलग संस्कृतियों को किस तरह अपने दिल में संजोए है ये शहर, ये देखने के लिए कड़ी धूप में ठीक दो बजे हम एरनाकुलम बोट जैट्टी ( जो मेरीन ड्राइव की बगल में है) से विलिंगडन द्वीप की और बढ़ चले। हमारी मोटरबोट के एक ओर तो मुख्य भूभाग का छूटता किनारा दिखाई दे रहा था तो दूसरी ओर नौ सेना के छोटे-छोटे पोत। सबसे पहले ये खूबसूरत इमारत नज़र आई जिसे लोग कोई सरकारी कार्यालय बता रहे थे।



क़ायदे से हमें सबसे पहले सेंट फ्रांसिस के चर्च जाना था। पर दिन था रविवार। अब मुश्किल ये थी कि रविवार के दिन, प्रार्थना की वज़ह से चर्च पर्यटकों के लिए खुला नहीं था। हमारे गाइड ने बताया कि सेंट फ्रांसिस चर्च (St. Francis Church) , भारत के सबसे पुराने चर्च के रूप में जाना जाता है। सन ५२ में सेंट थामस ने इस चर्च की स्थापना की थी। १५२४ ई. में वास्कोडिगामा की मृत्यु के पश्चात उसे इसी चर्च में दफ़नाया गया था। मन ही मन ऍसी ऍतिहासिक धरोहर ना देख पाने का अफ़सोस हुआ।

हमारा पहला पड़ाव था डच पैलेस (Dutch Palace) नौका से उतरकर कुछ दूर चलने पर ही डच पैलेस का मुख्य द्वार आ जाता है। अब जिन लोगों ने राजस्थान के किलों और महलों को देखा है वो इस इमारत को पैलेस कहने में जरूर हिचकिचाहट महसूस करेंगे। दूर से देखने से ये खपड़ैल से बने बड़े घर जैसा दिखता है। वास्तव में इस इमारत की नींव पुर्तगालियों ने रखी थी, पर सत्रहवी शताब्दी में जब डच कोचीन में अपना प्रभामंडल बढ़ा रहे थे तो कोच्चि के राजा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने इस इमारत में थोड़ी बहुत फेरबदल कर राजा को भेंट कर दिया।

महल के अंदर रामायण और महाभारत के सुंदर भित्ति चित्र (Mural Paintings) लगे हैं। इन चित्रों में चटकीले रंगों का प्रयोग किया गया है। एक कक्ष से दूसरे में जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाँ हैं। एक संकरी सीढ़ी नीचे की ओर के कक्ष की तरफ जाती है। इस कक्ष में चित्रों में भिन्नता ये है कि इन्हें आप बच्चों के साथ देखने में सहज नहीं महसूस करेंगे। डच पैलेस में करीब २०-२५ मिनट बिताने के बाद हम चल पड़े बगल ही में यहूदियों के प्रार्थना स्थल पर।

(चित्र सौजन्य विकीपीडिया यहाँ अंदर चित्र लेने की मनाही थी)

मात्तनचेरी की गलियों से गुजरते हम जब इस यहूदी सिनगॉग पर पहुँचे तो सबसे पहले इसका अज़ीब सा नाम ध्यान आकर्षित कर गया। यहूदियों का ये प्रार्थना स्थल परदेशी सिनगॉग (Pardeshi Synagogue) कहलाता है। इसका कारण ये है कि इसे यहाँ रह रहे स्पेनिश, डच और बाकी यूरोपीय यहूदियों के वंशजों ने मिलकर 1568 में बनाया था। इसलिए परदेशियों का बनाया परदेशी प्रार्थना स्थल हो गया। मज़े की बात ये है कि किसी यहूदी प्रार्थना स्थल में चप्पल उतार कर जाना अनिवार्य नहीं रहता । पर परदेशी सिनागॉग में आप बिना चप्पल उतारे प्रवेश नहीं कर सकते। साफ है कि समय के साथ हिंदू रीति रिवाज का यहाँ रहने बाले यहूदियों पर भी असर पड़ा और उन्होंने उसे अपना लिया।

प्रार्थना स्थल, चीन से लाई गई सफ़ेद नीली टाइलों और बेल्जियम से लाए गए शानदार झाड़फानूसों से सुसज्जित है। प्रार्थना स्थल से डच पैलेस के बीच का पतला रास्ता बड़ा ही मनोहारी है। जी नहीं, मैं किसी प्राकृतिक दृश्य की बात नहीं कर रहा बल्कि उन दुकानों की बात कर रहा हूँ जिसमें बिकती वस्तुएँ बरबस आपका ध्यान खींच लेती हैं। पुराने ज़माने की वे धरोहरें जिसे भारतीय पर्यटक सिर्फ देख पाते हैं और विदेशी जिन्हे खरीदने में बेहद दिलचस्पी दिखाते हैं। अब इस पुरानी लकड़ी की नाव को ही देखें।

हमारा अंतिम पड़ाव था फोर्ट कोच्चि के तट का वो हिस्सा जहाँ मछुआरे चाइनीज फिशिंग नेट का प्रयोग करते हैं। चीन के बाहर पूरे विश्व में सिर्फ केरल में मछली पकड़ने के लिए ऐसे विशाल जाल का प्रयोग होता है।

कोच्चि से अगली सुबह यानि 24 दिसंबर को निकलना था हमें मुन्नार की ओर। ये दिन हमारी संपूर्ण केरल यात्रा का सबसे अविस्मरणीय दिन था। क्या था ऍसा अद्भुत ये जानते हैं इस यात्रा वृत्तांत की अगली किश्त में....
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...

वैसे तो कोच्चि (पुराना नाम कोचीन) दस छोटे बड़े द्वीपों से मिलके बना है,पर मुख्यतः इसे आप तीन भागों मे बाँट सकते हैं।


एक हिस्सा मानव निर्मित विलिंगडन द्वीप (Willingdon Island) है जिसे अंग्रेजों ने समुद् से निकाली गई मिट्टी से 1920 में बनाया था। कोच्चि के इस हिस्से में कोंकण रेलवे का कोचीन रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डा और भारतीय नौ सेना के कार्यालय आते हैं। विलिंगडन द्वीप के एक ओर फोर्ट कोच्चि मात्तनचेरी (Mattancherry) के इलाके आते हैं जिसमें कोच्चि की ज्यादातर ऍतिहासिक विरासतें स्थित हैं तो दूसरी ओर मुख्य भूभाग से जुड़ा एरनाकुलम (Ernakulam) का व्यवसायिक नगर आता है।

अक्सर लोग केरल पैकेज टूर के तहत जाते हैं। विमान से उतरने के बाद वाहन और होटल की सुविधा के बारे में पर्यटक को सोचना नहीं पड़ता पर ये जरूर है कि जेब अच्छी तरह से हल्की हो जाती है। हमलोग जब एरनाकुलम पहुँचे तो हमारे पास जाने वाली सारी मुख्य जगहों का एक-एक दिन का आरक्षण था। ये सोचकर आ गए थे कि पहले दिन तो कोई चिंता नहीं रहेगी और दूसरे दिन घूम फिरकर कोई ठौर ठिकाना ढूँढ ही लेंगे ।

एरनाकुलम स्टेशन पर उतरे ही थे कि काली काली पोशाकों में झुंड के झुंड लोग भगवान अयप्पा ( Ayappa) की जयजयकार करते हुए रेलवे ओवरब्रिज पर जाते दिखाई पड़े। ट्रेन में हमें सहयात्रियों से पता चल चुका था कि जिस तरह उत्तर भारत में जगह जगह काँवरिया काँवर उठाकर धार्मिक स्थलों की तरफ जाते हैं (राँची के समीप देवघर में भी सावन के समय ऍसी यात्राएँ होती हैं) वैसे ही ये दल कोट्टायम के समीप पहाड़ी पर स्थित सबरीमाला के मंदिर जा रहा है।

जिधर प्री पेड आटो का बूथ था हम उधर ही चल पड़े। वहाँ अंदर लाइट जल रही थी पर रसीद काटने वाले का दूर-दूर तक पता ना था। ये अनुपस्थिति सुनियोजित ही थी क्योंकि साढ़े छः सात का वक्त ट्रेनों की आवाजाही के हिसाब से व्यस्त ही कहा जाएगा। पुरानी दिल्ली स्टेशन की यादें ताज़ा हो गईं। इस बात को फिर बल मिला कि अनेकता में एकता वाकई है हमारे देश में। खैर दस पन्द्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद भी जब वहाँ कोई नही् आया तब हमने टैक्सी और आटो वालों से पूछना शुरु किया। तीस की जगह हमसे सौ रुपये माँगे जा रहे थे। कोई और उपाय ना देख हमने डेढ़ सौ रुपये में एक टेक्सी कर ली जो दस मिनट से कम समय में ही हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचा गई।

हमारा गेस्ट हाउस रिहाईशी इलाके में था सो नहा धो कर हम खाने का जुगाड़ ढूँढने लगे। थोड़ी देर चलने के बाद हमें एक छोटा सा होटल दिखाई पड़ा। केरल में आम तौर पर भोजनालयों में रोटी नहीं मिलती। इसकी जगह मिलता हैं पराठा जो तिकोना ना होकर गोल होता है और प्रायः मैदे का बनाया जाता है। मेनू कार्ड में जो एक नयी चीज दिखाई दी वो थी अप्पम (Appam)। चावल से बनाए जाने वाले इस व्यंजन को हमारे सुपुत्र ने शीघ्र ही अपना प्रिय आहार बना लिया। सामान्यतः तमिलनाडु और केरल में लोग इसे नाश्ते के तौर पर चटनी के साथ (ये अपने आप में फीका होता है) खाते हैं। खाने के बाद हमने टूरिस्ट बस के बारे में पूछताछ शुरु की। अब वहाँ आंग्ल भाषा के जानकार गिने चुने थे। होटल के मालिक ने कुछ लोगों को हमारी बात समझने के लिए आगे किया पर वो भी हमारे प्रश्न को समझने में असफल रहे।


अगली सुबह दस बजे जब टूरिस्ट आफिस में फोन लगाया तो पता चला कि कोच्चि के प्रमुख स्थानों के लिए उनके यहाँ से मोटरबोट सेवा उपलब्ध है। टूरिस्ट आफिस से दिन का टिकट ले कर हम बगल के एनर्जी यानि उर्जा पार्क चल पड़े। बच्चों को वहाँ कॉर चलाने, और तरह तरह के झूलों में आनंद आ गया। शाम को जब जेटी से लौट कर वापस आए तो पार्क में तिल भर पैर रखने की जगह नहीं थी। पूरा उत्सव सा माहौल था।

पार्क के पिछवाड़े में वेम्बनाड झील (Vembanad Lake) है जो भारत की सबसे लंबी झील है। इस झील का विस्तार एरनाकुलम, कोट्टायम और एलेप्पी जिलों तक है। कोच्चि में आकर ये अरब सागर में मिलती है। इस झील के किनारे-किनारे चहलकदमी के लिए खूबसूरत सा मार्ग बना है जो कोच्चि का मेरीन ड्राइव कहलाता है। मार्ग में बीच बीच में अर्धवृत्ताकार पुल भी हैं। मार्ग के दूसरी ओर बड़े-बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों और शॉपिंग मॉल्स की लंबी कतारे हैं। पर मेरीन ड्राइव के रास्ते में शहर के गंदे नाले आकर मिलते हैं जिनसे निरंतर आती बदबू रास्ते की शोभा को धूमिल कर देती है। इसी वज़ह से हमसे पल भर भी मेरीन ड्राइव पर बैठने की इच्छा नहीं हुई।

दिन में जेट्टी लेने के पहले हम आगे के सफ़र के लिए गाड़ी बुक करना चाहते थे। हमने सोचा कि ये काम स्टेशन के आस पास बढ़िया तरीके से हो पाएगा। इसलिए एक आटो को रोका और स्टेशन कहते हुए बैठ गए। अब वो मलयालम में हमसे कुछ पूछने लगा। हमारे अँग्रेजी में समझाने पर उसने सर पर हाथ रख लिया और कहा NO ENGLISH। फिर कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा नार्था..साउथाहमने सोचा कि लगता है हम कहाँ से आए हैं ये पूछ रहा है तो दाँते निपोरते हुए हमने कहा नार्था.. उसने अज़ीब सा मुँह बनाया और फिर कुछ कहा। हमने बिना समझे फिर एक मुस्कुराहट से प्रत्युत्तर दिया। थोड़ी देर में मुझे लगा कि ये वो रास्ता नहीं है जिस तरफ से हम रात में आए थे, पर उसे ये समझाएँ कैसे ये सोचकर चुप रह गए। थोड़ी देर में सड़कों पर घूमते घुमाते वो हमें एरनाकुलम टाउन स्टेशन ले आया और तब हमें अहसास हुआ कि वो शायद शहर के उत्तर या दक्षिण दिशा वाले स्टेशन के बारे में पूछ रहा था। खैर तीस चालीस रुपये का चूना लगवाकर हम मुख्य स्टेशन पहुँचे।

चूंकि कोच्चि रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डा वेलिंगडन में है, ज्यादातर ट्रैवेल एजेन्ट शहर के उस हिस्से में हैं। दिसंबर की भीड़ और क्रिसमस की वजह से तमाम गाड़ियाँ पहले से बुक थीं। हम लोगों की योजना थी की Non AC Qualis ले लेंगे पर वो मिली ही नहीं और हमें AC वाहन लेना पड़ा। इस भागदौड़ में दिन का एक बज गया। दिन में हमने कोच्चि की शानदार बिरयानी खाई और चल पड़े जेट्टी के सफ़र पर।
जेट्टी से हमने क्या देखा और क्या नहीं देखा इसका खुलासा अगली किश्त में।

कोचीन का मानचित्र यहाँ से लिया गया है


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

सोमवार, 4 जनवरी 2010

यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र

अक्सर लोग दिसंबर से मार्च के बीच अपना सालाना पर्यटन का कार्यक्रम बनाते हैं। खासकर दिसंबर की आखिरी की छुट्टियाँ तो इसके लिए सबसे उपयुक्त रहती हैं। समूचा उत्तर जब ठंड में कटकटाता रहता है तो भारत का दक्षिणी कोना बिल्कुल इस ठंड से अछूता रहता है। तो नए साल में अपने इस यात्रा चिट्ठे पर आपको ले चल रहा हूँ केरल की यात्रा पर जहाँ कुछ साल पहले इसी मौसम में दस दिनों के लिए गया था। इस यात्रा के दौरान मैं आपको कोचीन, मुन्नार, थेकड़ी, कोट्टायम, कोवलम और त्रिवेंदम होते हुए वापस एलेप्पी ले जाऊँगा। आशा है अन्य सफ़रनामों की तरह आप शुरु से अंत तक मेरे साथ होंगे।

पिछले साल केरल जाने की योजना हमने सितंबर में ही बनानी शुरु कर दी थी। जाना दिसंबर के अंतिम सप्ताह में था। पहली समस्या थी कि कैसे जाएँ। सुन रखा था कि पहले से हवाई टिकट कटाने में काम कम पैसों में ही हो जाता है। पर जब नेट पर कोचीन पहुँचने के तमाम हवाई मार्गो का अध्ययन किया तो पाया कि प्रति परिवार सिर्फ आने जाने का ही खर्चा 25000 से 30000 हजार रुपये आ रहा है और सीधी उड़ान ना होने की वजह से समय की भी ज्यादा बचत नहीं हो रही। अब इतनी रकम में तो पूरी यात्रा का खर्च निकल जाता सो हमने फैसला किया कि जब दो परिवार साथ हैं तो 2300 किमी की ये लंबी यात्रा हम मौज मस्ती में गप हाँकते, खाते पीते ही बिता देंगे।

तो जनाब, आरक्षण खिड़की पर ठीक दो महिने पहले सुबह दस बजे यानि कांउटर खुलने के ठीक दो घंटे बाद मैं और मेरे मित्र मौजूद थे। पाँच लोगों का आरक्षण पर्चा खिड़की से अंदर सरकाते हुए मैंने क्लर्क से कहा कि भाई अगर छः वाले कूपे में इकठ्ठा दे दो तो बड़ी मेहरबानी होगी। उधर से जवाब आया कि सर, कुल जमा छः सीट पूरे कोच में बची हैं और आप एक साथ देने की बात कर रहे हैं। हमारा सिर चकराया कि कहाँ पूरे रास्ते एक साथ बैठकर गप्पे हाँकने की बात हो रही थी और यहाँ तो सारी सीटें इधर उधर की मिल रही हैं। कोई और चारा नहीं था इस लिए टिकट लेकर बुझे मन से घर लौट आए। लगा कि ये सब इंटरनेट की करामात है सो अगले हफ्ते वापसी के टिकट की बुकिंग नेट पर बैठ कर की पर नतीजा फिर वही रहा। समझ नहीं आया कि ये सब पीक टाइम रश की वज़ह से था या कुछ और !

खैर, 20 दिसंबर को हम धनबाद एलेप्पी एक्सप्रेस में दिन के तीन बजे बैठ गए। हमे उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और केरल के 91 स्टेशनो को पार कर 22 की शाम छः बजे एरनाकुलम पहुँचना था। रात तक सहयात्रियों से सीटों की अदला बदली कर हम सब एक जगह बैठने में सफल हो चुके थे। भोजन का ज़खीरा हमारे पास मौजूद था जिसका जम कर उपभोग किया गया. वैसे भी ट्रेन में मुझे तो बैठते ही भूख लगनी शुरु हो जाती है।


सुबह होने तक हम उड़ीसा छोड़ आंध्रप्रदेश के तटीय इलाके में प्रवेश कर चुके थे। राँची की दिसंबर की कड़ी ठंड अब हल्की गर्मी में तब्दील हो चुकी थी। दक्षिण भारत में घुसने के साथ चाय 'चाया' हो जाती है और कॉफी के साथ फलों के रस धड़ल्ले से लगभग हर स्टेशन पर उपलब्ध हो जाते हैं। विशाखापट्टनम (Vizag) में हम सबने अंगूर और अनानास के शर्बत का खूब आनंद उठाया। दिन के दो बजे के लगभग जब हम लोग राजमुन्दरी (Rajmundari) से थोड़ा आगे बढ़े तो गोदावरी नदी पर बना अद्भुत विशालकाय पुल हमारे सामने था। इस का शुमार एशिया के सबसे लंबे रेल और रोड पुल में किया जाता है। इस पुल में रेल ब्रिज के ऊपर सड़क पुल है जबकि आम तौर पर इसका उलटा होता है। 25 साल पहले बने इस पुल की लंबाई मुझे छः सात किमी के आसपास लगी।


22 दिसंबर की सुबह जब दूसरी रात बिताने के बाद आँख खुली तो पता चला कि हमारी ट्रेन चेन्नई स्टेशन को पार कर सलेम की ओर बढ़ रही है। एक अच्छी बात ये लगी कि हर आठ घंटे में ट्रेन की पूरी सफाई नियमित रुप से होती रही।

अब हम पूर्वी घाट को छोड़ पश्चिमी घाट की ओर बढ़ रहे थे। बाहर का दृश्य मनोरम हो चला था। अपने अपने कैमरे ले कर हमने अपने डिब्बे के द्वार पर स्थान ले लिया। पहाड़ियों की कतारें, धान के हरे भरे खेत और उनके बीच फैले नारियल के पेड़ों के झुंड मन को मोहित कर रहे थे।

दिन के डेढ बजने तक हमारी गाड़ी तमिलनाडु के आखिरी पड़ाव कोयम्बटूर (Coimbatore) पर पहुँच चुकी थी। भौगोलिक रूप से इस जिले की खासियत ये है कि इसका पश्चिमी सिरा नीलगिरी की पहाड़ियों को छूता है तो उत्तरी सिरा मुन्नार की पहाड़ियों को। इतना ही नहीं इस जिले के पास ही पश्चिमी घाट का सबसे कम ऊँचाई वाला हिस्सा है जिसे पार कर केरल में पहुँचा जा सकता है। ये हिस्सा पलक्कड़ गैप (Palakkad Gap) के रूप में जाना जाता है और ये ३२ से ४२ किमी तक चौड़ा है। पश्चिमी घाट में इस गैप के आलावा तमिलनाडु और केरल के बीच और कोई पॉस यानि दर्रा नहीं है। इसलिए इस मार्ग का व्यापार के लिए प्रयोग आदि काल से हो रहा है।

दिन के करीब ढाई बजे हम केरल में प्रवेश कर चुके थे और पलक्कड़ (Palakkad) जिसका पहले नाम पालघाट (Palghat) था हमारे सामने था। शाम तक हमारी गाड़ी शोरनूर, त्रिचूर होते हुए एरनाकुलम पहुँच चुकी थी। दो हजार किमी की यात्रा में सच पूछिए तो हमें ऍसी कुछ खास थकान नहीं हुई जिसकी कल्पना की थी। यात्रा के अगले पड़ाव में बातें होगी ऍतिहासिक शहर कोचीन (Kochin) की..

गोदावरी पुल का चित्र यहाँ से लिया गया है। बाकी चित्र मेरे कैमरे से।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !