गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

चित्तौड़गढ़ :जिसकी दीवारों में कभी गूँजे थे मीरा के भजन और राणा कुंभ के जयघोष !

उदयपुर से दूसरे दिन हम जब चित्तौड़ की ओर निकले तो सुबह खुशनुमा थी। आकाश में हल्के हल्ले बादल जरूर थे पर बारिश नहीं हो रही थी। राष्ट्रीय राजमार्ग 76 के शानदार रास्ते पर चित्तौड़गढ़ की करीब 115 किमी की दूरी डेढ़ घंटे में कैसे कट गई पता ही नहीं चला।

 करीब डेढ़ दो सौ मीटर ऊँची पहाड़ी पर बने इस तीन मील लंबे और पाँच सौ फीट ऊँचे किले पर जब हम चढ़ रहे थे तो दिन के बारह बज चुके थे। किले तक पहुँचने के लिए इसके सात गेटों (पदन ,भैरों, हनुमान, गणेश, जोदला लक्ष्मण और राम) को पार करना पड़ता है। गेटों की नुकीली मेहराबें ऐसी कि ना हाथी को आसानी से घुसने दें और ना ही तोप के गोलों को ही अंदर जाने दें।


गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

रंगीलो राजस्थान : कैसे दिखते हैं रात में उदयपुर के महल ?

सज्जनगढ़ से लौटने वक़्त शाम ढल आयी थी। नवंबर का महिना होने के बाद भी सर्दी ना के बराबर थी। हमने जिस होटल विनायक में पनाह ले रखी थी वो भी ऍसा ना था जिसमें चुपचाप वक़्त गुजारने का मन करे। वैसे भी आप प्रतिदिन मात्र पाँच -छः सौ रुपये देकर उदयपुर जैसे शहर में पीक सीजन में उम्मीद भी क्या रख सकते हैं। इसलिए  ज्यादा समय बगैर गँवाए हम रात के उदयपुर की सैर पर निकल गए।

अब रात के उदयपुर की जगमगाहट देखनी हो तो करणी माता मंदिर तक पहुँचाने वाले रोपवे से अच्छी जगह हो ही नहीं सकती। दूधतलाई स्थित इस रोपवे के जब हम पास पहुँचे तो आशा के विपरीत वहाँ जरा भी भीड़ नहीं थी। वैसे ये रोपवे सुबह नौ बजे से रात्रि के नौ बजे तक खुला रहता है। प्रति व्यक्ति तिरसठ रुपये का टिकट आम आदमी पर भारी जरूर पड़ता है पर उदयपुर के जो नज़ारे इसकी सवारी करने के बाद मिलते हैं उससे पूरा पैसा वसूल समझिए।
रोपवे के ठीक ऊपर एक रेस्टोरेन्ट है और साथ ही एक बरामदा भी जहाँ चाय की चुस्कियों के साथ पिछोला झील में चमकते दमकते महलों का दृश्य आप आसानी से क़ैद कर सकते हैं। थोड़ी चढ़ाई और चढ़ने पर यहाँ करणी माता का एक मंदिर भी है।
अगर आपके कैमरे में रात के दृश्यों को क़ैद करने की क्षमता है तो यहाँ उसकी परीक्षा हो जाएगी। ये बताना आवश्यक होगा कि रात के चित्रों को लेने के लिए कैमरे के आलावा त्रिपाद (ट्राइपॉड) का होना बहुत जरूरी है। मैं ट्राइपॉड लेकर यहाँ नहीं आया था जिसका अफ़सोस हुआ फिर भी उसके बिना भी हाथ स्थिर कर कुछ चित्र ठीक ठाक आ गए। तो चलिए देखें तो रात में पिछोला किन रंगों में रँगी रहती है?

अँधेरे में डूबी झील में सबसे पहले नज़र ठहरती है झील के मध्य में स्थित होटल लेक पैलेस पर।



सोमवार, 14 नवंबर 2011

रंगीलो राजस्थान : कैसा दिखता है उदयपुर, सिटी पैलेस, मोती मगरी और सज्जनगढ़ से ?

पिछली पोस्ट में मैंने आपको सिटी पैलेस के चक्कर लगवाए थे। पर सिटी पैलेस में  सिर्फ अंदर के संग्रहालय को देखकर ही मन विस्मित नहीं होता बल्कि ऊपर के तल्लों से दिखने वाले दृश्य भी स्मृतिपटल पर हमेशा हमेशा के लिए क़ैद हो जाते हैं। तो आइए आज आपको ले चलें उदयपुर की उन जगहों पर जहाँ से पूरे शहर के कई अद्भुत नज़ारों का दीदार होता है।
जैसे ही हम सिटी पैलेस की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं सबसे पहले हमें झरोखों से बड़ी पोल
और त्रिपोलिया गेट के दर्शन होते हैं और उसके पीछे दिखता है आज का उदयपुर....कंक्रीट के उन्हीं जंगलों के बीच, जो भारत के बढ़ते शहरों के पहचान चिन्ह बन गए हैं। फर्क बस इतना है कि इन जंगलों को आज भी अरावली की पहाड़ियाँ अपनी गोद में समेटे हुए हैं। चाहे जिस दिशा में भी देखें यही पहाड़ियाँ चारों ओर दिखाई पड़ती हैं। दरअसल इस शहर की पहचान भी यही हैं क्यूँकि ये पहाड़ियाँ ज्यादा हरी भरी ना भी हों पर इनका अस्तित्व यहाँ की झीलों की तरह मानसूनी बारिश पर निर्भर नहीं है।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

रंगीलो राजस्थान : आइए चलें उदयपुर के सिटी पैलेस में !

'उदयपुर का सिटी पैलेस', इसी महल को दिखाने का वादा किया था ना पिछली बार। पर कार्यालय की व्यस्तताओं और दीपावली की छुट्टियों के बीच लिखना संभव नहीं हो पाया। पर आज आपको मैं शिशोदिया राजपूत घराने के महाराणा उदय सिंह द्वारा बनवाए गए इस महल की सैर अवश्य कराऊँगा। 
चित्तौड़गढ़ के होते हुए आख़िर महाराणा उदय सिंह को इस महल को बनवाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? 1537 में महाराणा ने जब चित्तौड़गढ़ का किला सँभाला तो दो परेशानियों से उनका सामना हुआ। दरअसल पहाड़ी पर स्थित चित्तौड़गढ़ के चारों ओर मैदानी इलाका है। मुगल सेनाओं द्वारा युद्ध में इस किले की घेराबंदी कर रसद पानी के मार्ग को अक्सर अवरुद्ध कर दिया जाता। दूसरे चित्तौड़ में पानी की बड़ी समस्या थी। कहते हैं कि महाराणा 1559 में अपने सैनिकों के साथ अरावली से लगे जंगलों में शिकार करने आए। पिछोला झील से सटी पहाड़ी पर उन्हें एक महात्मा मिले जिन्होंने उन्हें उसी इलाके में राजधनी बनाने का मशवरा दिया। राणा को महात्मा की बात जँच गयी क्यूँकि ये जगह चारों ओर से पहाड़ियों , घने जंगलों और झील से घिरी हुई थी। सन 1559 में उदयपुर के सिटी पैलेस की नींव पड़ी। फिर अगले तीन सौ सालों तक शिशौदिया घराने के सूर्यवंशी नरेशों  ने इस महल का विस्तार किया।


गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

रंगीलो राजस्थान: राँची से उदयपुर तक का सफ़र !

अपनी उम्र के बच्चों के विपरीत स्कूल में इतिहास और भूगोल मेरा प्रिय विषय रहे थे। अक्सर लोग इतिहास के नाम से इसलिए घबराते थे कि एक तो इस विषय में महत्त्वपूर्ण तारीख़ों को याद रखने के लिए अच्छी खासी क़वायद करनी पड़ती थी और दूसरे इम्तिहान में चाहे जितना जोर लगाओ, सारे सवालों का हल पूरा करने के पहले कॉपी भी छिन जाती थी। हाथ की उँगलियों में जो दर्द कई दिनों तक नुमाया रहता था, सो अलग। ऐसा नहीं कि मुझे इन सब बातों से चिढ़ नहीं होती थी। पर परीक्षा के माहौल से गुजरने और तारीखों के जंजालों से इतर भी मुझे ये विषय बड़ा प्रिय लगता था। शायद इसमें मेरी शिक्षिका का योगदान हो या अपने अतीत में झाँकने की मेरी स्वभावगत उत्सुकता, पर ये प्रेम कॉलेज के बाद तकनीकी क्षेत्र में जाने के बाद भी बना रहा।

और भारत के किसी एक प्रदेश में आज भी अगर ऐतिहासिक इमारतें उसी बुलंदी से खड़ी हैं तो वो है राजस्थान। इसी लिए मेरे घुमक्कड़ी मन में राजस्थान जाने के लिए काफ़ी उत्साह था। ऐसा नहीं कि इससे पहले मैंने राजस्थान की धरती पर कदम नहीं रखा था। एक बार कार्यालय के काम से और एक बार घूमने के लिए जयपुर जा चुका था। पर जयपुर देख कर राजस्थान की मिट्टी, वहाँ के रहन सहन , बोल चाल को महसूस कर पाना मुमकिन नहीं है।

दो साल पहले काफी कोशिशों के बाद भी ऐन वक़्त पर वहाँ जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा था पर पिछले साल दीपावली के तुरंत बाद नवंबर में जब राजस्थान जाने का कार्यक्रम बनाना शुरु किया तो दिल्ली के बाद अपना पहला पड़ाव मैंने उदयपुर रखा। ग्यारह दिनों के इस कार्यक्रम में उदयपुर, को केंद्र बनाकर हम चित्तौड़गढ़ , रनकपुर और कुंभलगढ़ गए और फिर माउंट आबू होते हुए, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर की तरफ निकल गए। अगर मानचित्र में देखें तो मेवाड़ से लेकर मारवाड़ तक के दक्षिण पश्चिमी राजस्थान को हमने अपनी इस यात्रा में देखने की कोशिश की।

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

सिक्किम त्रासदी : कुछ फुटकर यादें...

एक पर्यटक के तौर पर हम सब किसी ना किसी जगह जाते हैं और  कुछ दिनों के लिए हम उसी फिज़ा और उसी आबोहवा का हिस्सा बन जाते हैं। हफ्ते दस दिन के बाद भले ही हम अपनी दूसरी दुनिया में लौट जाते हैं पर उस जगह की सुंदरता, वहाँ के लोग, वहां बिताए वो यादगार लमहे... सब हमारी स्मृतियों में क़ैद हो जाते है। भले उस जगह हम दोबारा ना जा सकें पर उस जगह से हमारा अप्रकट सा एक रिश्ता जरूर बन जाता है।

यही वज़ह है कि जब कोई प्राकृतिक आपदा उस प्यारी सी जगह को एक झटके में झकझोर देती है, मन बेहद उद्विग्न हो उठता है।हमारे अडमान जाने के ठीक दो महिने बाद आई सुनामी एक ऐसा ही पीड़ादायक अनुभव था। सिक्किम में आए इस भूकंप ने एक बार फिर हृदय की वही दशा कर दी है। हमारा समूह जिस रास्ते से गंगटोक फेनसाँग, मंगन, चूँगथाँग, लाचुंग और लाचेन तक गया था आज वही रास्ता भूकंप के बाद हुए भू स्खलन से बुरी तरह लहुलुहान है।
सेना के जवान लाख कोशिशों के बाद भी कल मंगन तक पहुँच पाए हैं जबकि ये उत्तरी सिक्किम के दुर्गम इलाकों में पहुँचने के पहले का आधा रास्ता ही है। आज से कुछ साल पहले मैं जब गंगटोक से लाचेन जा रहा था तो  इसी मंगन में हम अपने एक पुराने सहकर्मी को ढूँढने निकले थे। सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई और अमेरिका से एम एस कर के लौटने वाले तेनजिंग को सेल (SAIL) की नौकरी ज्यादा रास नहीं आई थी। यहाँ तक कि नौकरी छोड़ने के पहले उसने अपने प्राविडेंड फंड से पैसे भी लेने की ज़हमत नहीं उठाई थी। उसी तेनजिंग को हम पी.एफ. के कागज़ात देने मंगन बाजार से नीचे पहाड़ी ढलान पर बने उसके घर को ढूँढने गए थे।
तेनजिंग घर पर नहीं था पर घर खुला था। पड़ोसियों के आवाज़ लगाने पर वो अपने खेतों से वापस आया। हाँ, तेनज़िंग को इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ कर अपने पैतृक निवास मंगन में इलायची की खेती करना ज्यादा पसंद आया था। तेनज़िंग से वो मेरा पहला परिचय था क्यूंकि वो मेरी कंपनी में मेरे आने से पहले नौकरी छोड़ चुका था। आज जब टीवी की स्क्रीन पर मंगन के तहस नहस घरों को देख रहा हूँ तो यही ख्याल आ रहा है कि क्या तेनजिंग अब भी वहीं रह रहा होगा?


मंगन से तीस किमी दूर ही चूँगथाँग है जहाँ पर लाचेन चू और लाचुंग चू मिलकर तीस्ता नदी का निर्माण करते हैं। यहीं रुककर हमने चाय पी थी। चाय की चुस्कियों के बीच सड़क पर खेलते इन बच्चों को देख सफ़र की थकान काफ़ूर हो गई थी। आज इस रास्ते में हालत इतनी खराब है कि अभी तक चूँगथाँग तक का सड़क संपर्क बहाल नहीं हो सका है।  चूँगथांग में अस्सी फीसदी घर टूट गए हैं। चूमथाँग के आगे का तो पता ही नहीं कि लोग किस हाल में हैं।

चूमथाँग और लाचेन के बीच की जनसंख्या ना के बराबर है। लाचेन वैसे तो एक पर्यटन केंद्र है पर वास्तव में वो एक गाँव ही है। मुझे याद है की हिमालय पर्वत के संकरे रास्तों पर तब भी हमने पहले के भू स्खलन के नज़ारे देखे थे। जब पत्थर नीचे गिरना शुरु होते हैं तो उनकी सीध में पड़ने वाले मकानों और पेड़ों का सफाया हो जाता है। सिर्फ दिखती हैं मिट्टी और इधर उधर बिखरे पत्थर। बाद में उन रास्तों से गुजरने पर ये अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि यहाँ कभी कोई बस्ती रही होगी। सुना है बारिश से उफनते लाचुंग चू ने भू स्खलन की घटनाएँ अब भी हो रही हैं।

इन दूरदराज़ के गाँवों में एक तो घर पास पास नहीं होते, ऍसे में अगर भूकंप जैसी विपत्ति आती है तो किसी से सहायता की उम्मीद रखना भी मुश्किल है। इन तक सहायता पहुंचाने के लिए सड़क मार्ग ही एक सहारा है जिसे पूरी तरह ठीक होने में शायद हफ्तों लग जाएँ। पहाड़ों की यही असहायता विपत्ति की इस बेला में मन को टीसती है। सूचना तकनीक के इस युग में भी हम ऐसी जगहों में प्रकृति के आगे लाचार हैं।
अंडमान, लेह और अब सिक्किम जैसी असीम नैसर्गिक सुंदरता वाले प्रदेशों में प्रकृति समय-समय पर क़हर बर्पाती रही है। आशा है सिक्किम की जनता पूरे देश के सहयोग से इस भयानक त्रासदी का मुकाबला करने में समर्थ होगी।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

आइए जानते हैं क्या था बर्फ के इन अंडों का रहस्य ?

पिछली पहेली में आपसे प्रश्न पूछा था समुद्र तट पर फैली हुई सफेद अंडाकार आकृतियों के बारे में। अगर आप भी इन्हें साक्षात देखना चाहते हैं तो आपको या तो अमेरिका जाना होगा या फिर स्वीडन। पर  इन अंडों जो कि वास्तव में अंडे हैं नहीं, को देखने क्या आप इतनी दूर क्यूँ जाएँगे ? संयुक्त राज्य अमेरिका में वैसे तो बहुत सारी झीलें हैं पर उनमें से लेक मिशिगन ही एक ऐसी झील है जिसकी सीमाएँ पूरी तरह अमेरिका के अंदर हैं। 58000 वर्ग किमी में फैली इस झील के तट पर जाड़ों के मौसम में ऐसे दृश्य बारहा दिखाई दे जाएँगे।

दरअसल ये अंडे किसी जीव के नहीं बल्कि बर्फ के गोले हैं जो विशेष प्राकृतिक परिस्थितियों में समुद्र और झील के किनारे बनते हैं।

अटलांटिक महासागर में स्कैंडेनेविया के देशों जेसे स्वीडन में भी प्रकृति का ये दिलचस्प माज़रा देखने को मिला है। मौसम वैज्ञानिकों के अब तक किए गए शोध से पता चला है कि इन बर्फ के गोलों के बनने के लिए वातावरण में कुछ विशेष परिस्थितियों का होना जरूरी है। मसलन शून्य से नीचे का तापमान, चालिस से पचास किमी तक की गति से चलती तेज हवाएँ और साथ में होता हिमपात।


होता ये है कि तेज चलती हवाओं और उनसे उत्पन्न लहरों की वजह से तापमान शून्य के नीचे होने से भी जम नहीं पाता। गिरती या उड़ती बर्फ, लहरों की लगातार घुमावदार मार से पानी की सतह पर घूमती हुई ,घूमती हुई बहती चली जाती है और अंततः एक गोलाकार रूप ले लेती है। मौसम वैज्ञानिकों के एक दल ने जब इस बर्फ के गोलों को तोड़ा तो देखा कि 2-5 सेंटीमीटर बर्फ की कठोर बाहरी परत के अंदर का भाग नम और ढीली बर्फ से भरा हुआ है।

वैसे ख़ुद ही देखिए इस वीडिओ में कि कैसे लहरों के साथ बर्फ के ये गोले तट पर बिछा दिए जाते हैं ।


इस बार के प्रश्न का सबसे सही और पहले अनुमान लगाया काजल कुमार ने। उन्हें बहुत बधाई। बाकी लोगों का अनुमान लगाने के लिए धन्यवाद।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

चित्र पहेली 19 : ये किस जीव के अंडे हैं ?

चित्र पहेलियों की कड़ियों में बहुत पहले समुद्र तट के किनारे रात के समय होती कछुओं की दौड़ दिखाई थी और पूछा था आप सब से कि ये दौड़ आखिर किस खुशी में है? बाद में आपको बताया था कि भारत के पूर्वी तटों पर ये दौड़ कछुओं के प्रजनन काल में अक्सर देखने को मिलती है। पर आज की पहेली के चित्र में माज़रा कुछ उल्टा है। चित्र में एक समुद्र तट दिख रहा है और उसके साथ दिख रही हैं कुछ अंडाकार आकृतियाँ!



ये आकृतियाँ आगर वास्तव में किसी बड़े जीव के अंडे हैं तो फिर ये समझ नहीं आता कि इस निर्जन से दिखते तट पर उन्हें बिना छुपाए यूँ तट पर क्यूँ छोड़ दिया गया है? आखिर कौन सा जीव ऐसा कर सकता है ? कम से कम कछुए तो ऐसा नहीं करते। हो सकता है कि आप इन्हें अंडे मानने से इनकार दें। फिर भी सवाल तो वही रह जाता है ना कि आखिर ये हैं क्या ? तो दिमागी घोड़े दौड़ाइए या फिर अगर फिर भी जवाब ना समझ आए तो कीजिए अगली पोस्ट का इंतज़ार। तब तक आपके जवाब हमेशा की तरह माडरेशन में रखे जाएँगे।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

चाँदीपुर समुद्र तट भाग 3 : दिन की मौज मस्ती और अलविदा.

दिन के बारह बजे मौसम बिल्कुल साफ हो गया था। इस बार चूँकि हमे पानी मरं छपाके लगाने थे इसलिए सूर्य की रोशनी में चमकते अपने अतिथि गृह सागर दर्शन को छोड़कर हम समुद्र के अंदर एक दूसरे से रेस लगाते हुए भागे।




करीब ढाई किमी चलने के बाद करीब घुटनों भर पानी मिला । वैसे आगर आप एक दो किमी और भी चल लें रो पानी कमर से ऊपर नहीं जाएगा। इसलिए यहाँ के लोग कहते हैं कि इस तट पर चाहे आप कितनी भी कोशिश कर लें आप समुद्र में डूबकर आत्म हत्या नहीं कर सकते।

अगर आपकों इन तटों पर नहानों हों तो पूरे पैर फैलाकर पानी में बैठ जाइए । लहरें फिर आकर आपको तर कर जाएँगी। एक बार पानी में गीले होने के बाद हमारी मौज मस्तियाँ शुरु हो गयीं। इस बार मैं धूप की वजह से काले चश्मे को पहन कर आया था। पानी में दो तीन डुबकियों के बाद ज्यूँ ही सिर बाहर निकाला बेटे ने कहा पापा आपका चश्मा कहाँ गया?  लगा कि हजार दो हजार का चूना तो लग ही गया पर गनीमत थी कि तेज धार ना होने के कारण अगली डुनबकी में चश्मा वहीं सुरक्षित मिल गया।

 समुद्र में दौड़ते भागते यूँ वक़्त गुजर गया कि पता ही नहीं चला...


चाँदीपुर के समुद्र तट का असली आनंद दूसरे समुद्र तटों से हटकर है। आप यकीन मानिए समुद्र के अंदर दो तीन किमी जब आप चल कर चारों ओर देखते हैं तो आपको दूर दूर तक पानी के सिवा और कुछ नज़र नहीं आता। बस वहाँ आप होते हैं और समुद्र होता है। एक ऐसा समुद्र जो आप को डराता नहीं भगाता नहीं। मन होता है कि समुद्र के पानी में शरीर को सहलाती हवाओं के बीच वहीं धूनी रमाकर बैठ जाएँ। इसलिए समुद्र में धमाचौकड़ी मचाते अपने समूह को छोड़कर आधे घंटे के लिए मैं बिल्कुल दूसरी तरफ़ निकल गया। चाँदीपुर  में समुद्र के साथ बिताए हुए वो पल आज भीयात्रा के सबसे यादगार लमहे हैं।




चाँदीपुर में रहने के लिए निजी होटल भी हैं। पर सरकारी पंत निवास में आरक्षण मिल जाए तो सागर दर्शन गेस्ट हाउस की तरह ही आपको तट पर जाने के लिए होटल से बाहर निकलना नहीं पड़ता। इसलिए अगर आप पुरी की यात्रा कर चुके हैं तो अगली बार उड़ीसा जाने पर एक दिन चाँदीपुर का भी चक्कर जरूर लगाएँ।
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चाँदीपुर समुद्र तट भाग 2 : क्या आप समुद्र में मेरे साथ मार्निंग वॉक पर चलेंगे?

चाँदीपुर के समुद्र तट पर शाम बिताने के बाद कुछ देर विश्राम कर हम फिर पेट पूजा के लिए नीचे आए। शाम को समुद्र की तरफ बने लॉन में ही गोल टेबुल व कुर्सियाँ लगा दी जाती हैं। बादल भरी रात होने की वज़ह से समुद्र एक बारगी फिर दूर चला गया था। दूर अँधेरे में कुछ दिख भी नहीं रहा था। फिर भी समुद्र के हर रूप में देखने की इच्छा हमें भोजन के पश्चात एक बार फिर हम समुद्र की ओर बने वॉच टावर की ओर ले गई। 

शांत समुद्र को हम यूँ ही बहुत देर निहारते रहे कि अचानक हमें समुद्र के स्याह जल के बीच थोरी थोड़ी दूर पर सफेद आकृतियाँ दिखाई पड़ीं। आकृति दूर से इतनी छोटी दिखाई दे रही थी कि वो क्या है ये किसी की समझ में नहीं आ रहा था। सफेद रंग की वो आकृति पल भर में अपनी जगहें यूँ बदल रही थी मानों उसकी सतह पर बड़ी तेजी से तैर रही हो। इतने कम पानी में इतनी तेजी से तैरती मछली का अनुमान हमारे गले नहीं उतर रहा था। इसलिए रात के अँधेरे में समूह के सबसे युवा सदस्य को तहकीकात करने के लिए नीचे भेजा गया। थोड़ी देर बाद उसने ऊपर आकर कर उसने रहस्य खोला कि वो सफेद आकृति कोई मछली नहीं पर पानी की सतह के समानांतर उड़ती छोटी सफेद चिड़िया है जो कीड़े मकोड़ों और नन्ही मछलियों को अपना शिकार बना रही है।

थोड़ी दूर और समय बिताने के बाद हम वापस चले गए इस कार्यक्रम के साथ की भोर होते ही फिर समुद्र में वॉक पर निकल पड़ना है। सुबग पाँच बजे जब नींद खुली तो तेज हवा चलने की आवाज़ आई। बालकोनी का दरवाजा खोला तो पाया कि तेज हवा के साथ मूसलाधार बारिश भी हो रही है। घंटे भर की बरिश के बाद  बादल  तितर बितर हो गए।
सात बजते बजते हल्की सी धूप भी निकल आई।  बारिश से धुली ये वाटिका कुछ और हरी भरी महसूस हो रही थी।

पाँच दस मिनट के भीतर ही हम सुबह की सैर पर निकल आए। सबुह हमने समुद्र में पिछली शाम की तरह अंदर ना जा कर उसके समानांतर टहलने का निश्चय किया। अगर गूगल मैप से देखें तो हमारी सुबह की सैर का इलाका कुछ यूँ दिखाई पड़ेगा।

पहले हम अपने अतिथि गृह सागर दर्शन के दाँयी ओर मुड़े। इस इलाके में DRDO के ही कुछ और पुराने बने गेस्ट हाउस हैं। समुद्र के कटाव को रोकने के लिए पूरे तट पर पत्थरों से बाँध बनाया गया है जिसके पीछे नारियल के वृक्षों की कतार दूर तक दिखाई देती है। 

करीब तीन चार सौ मीटर बढ़ने के बाद एक बार फिर से बादल घिर आए तो हमने दूसरी दिशा में चलना शुरु किया। दरअसल चाँदीपुर का मुख्य समुद्र तट इसी दिशा में है। बादलों के आ जाने से समुद्र में टहलना और अच्छा लग रहा था। तट के किनारे पानी लगभग स्थिर था इसलिए हम हल्की लहरों वाले हिस्से में बहते जल में चलने लगे। देखिए दोनों जल राशियाँ कितनी पृथक लग रही हैं...



सागर दर्शन गेस्ट हाउस से चलते चलते हम अब PWD के गेस्ट हाउस तक आ चुके थे। चाँदीपुर तट का बालू वाला किनारा भी पार्श्व में नज़र आने लगा था। इसी तट के आस पास ही यहाँ के होटल अवस्थित हैं। ऊपर चित्र में मेरे पीछे जो बिन्दुनुमा काली आकृतियाँ दिख रही हैं वो मुख्य तट पर आए सैलानियों की हैं।

हल्के नीले सफेद बादलों ने अपना रंग बदलना शुरु कर दिया था। दूर से आते बादलों की कालिमा बारिश के आने का संकेत दे रही थी। हाथों में कैमरे होने की वजह से हम बारिश में भींफने का खतरा नहीं उठा सकते थे सो हम वापस लौटने लगे।

आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते बारिश की रिमझिम शुरु हो गई थी। कारे कारे बदरा किस तरह बारिश की फुहारों को छोड़ रहे थे वो नज़ारा भी देखने लायक था।

तट के बिल्कुल किनारे जहाँ से समुद्र गायब हो चुका था वहाँ ठोस रेत में पानी के कटाव से बड़ी मोहक आकृतियों का निर्माण हो गया था

सुबह की इस सैर तो हो गई पर अब तक हम समुद्र में छपाका नहीं लगा पाए थे। अब समुद्र में आएँ और उसके पानी से अठखेलियाँ ना की जाएँ तो फिर बात अधूरी रह जाएगी। बारह बजे तेज धूप में अंतिम बार हम फिर तट की ओर निकले। क्या किया इस बार हमने ये देखिए इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में..

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

सोमवार, 8 अगस्त 2011

चाँदीपुर समुद्र तट भाग 1 : डूबता सूरज..समुद्र में बदते कदम और वो यादगार शाम...

चाँदीपुर ओडीसा का एक बेहद खूबसूरत समुद्र तट है। दशकों पहले एक बार यहाँ जाना हुआ था और उस यात्रा में समुद्र के रातों रात गायब होने और फिर सुबह में वापस अवतरित होने की कहानी भी आप सब से साझा की थी। पर उस बार चाँदीपुर से समुद्रतट से हुई मुलाकात सुबह के उन चंद घंटों की ही थी और साथ में कैमरा भी नहीं था कि आपको समुद्र के बदलते रूप को प्रत्यक्ष दिखा पाता। पिछले साल जब उड़ीसा गया तो पारादीप के बंदरगाह से लौटते वक़्त बालासोर भी जाना हुआ। 

ओडीसा के उत्तर पूर्वी हिस्से में स्थित इस जिले से चाँदीपुर मात्र पन्द्रह किमी दूर है। इसके तटीय जिले के पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में मयूरभंज का इलाका आता है जबकि इसे उत्तरी सिरे पर बंगाल का मेदनीपुर जिला आ जाता है। बंगाल के सबसे लोकप्रिय समुद्र तट दीघा से बालासोर की दूरी लगभग सौ किमी की है। दीघा से बालासोर का समुद्रतट बेहद छिछला है। यानि आप समुद्र के अंदर मीलों चलते रहें पानी घुटनों से ऊपर नहीं जाएगा। चाँदीपुर के समुद्रतट की यही विशिष्टता इसे बाकी सभी समुद्र तटों से अलग कर देती है। वैसे चाँदीपुर मिसाइल प्रक्षेपण केंद्र के लिए भी मशहूर है। यह केंद्र यहाँ १९८९ में स्थापित किया गया था। भारत में बनी अधिकतर मिसाइल जैसे त्रिशूल, आकाश, नाग व हाल फिलहाल में जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइल पृथ्वी और अग्नि का प्रक्षेपण भी यहीं से किया गया था।



बालेश्वर से चाँदीपुर पहुँचते पहुँचते पौने पाँच बज चुके थे। इस बार चाँदीपुर में किसी होटल में ना ठहरकर हम डीआरडीओ के विश्रामगृह में ठहरे। ये गेस्ट हाउस समुद्र के ठीक किनारे बसा हुआ था। उद्यान को पार करिए और सामने समुद्र हाज़िर। वैसे प्रथम तल्ले की बालकोनी से भी समुद्र की गतिविधियाँ साफ दिखाई देती थीं। रूम में सामान रखकर हम लगभग पाँच बजे समुद्र की ओर चल पड़े। सूर्यास्त अभी नहीं हुआ था। पर सूरज बादलों की ओट में छुपा हुआ था। हमारे आने के पहले ही वहाँ बारिश भी हुई थी। चाँदीपूर में सूर्यास्त के पहले का समुद्र बेहद शांत होता है। जब तक सागर को चाँद ना दिखे उसका दिल हिलोरें लेने को मानता ही नहीं है। गेस्ट हाउस के वाच टॉवर से नीचे उतरकर हम नंगे पाँव समुद्र में चहलकदमी करने चल पड़े। पीछे दिख रहा है डी आर डी ओ का गेस्ट हाउस।



समुद्र के अंदर मैंने करीब दो सौ मीटर का फासला तय कर लिया था पर पानी का स्तर मेरे तलवों से भी ऊपर नहीं आया था।



सूर्यास्त के पहले एक हल्की सी रोशनी बादलों के बीच से आई तो मैंने कैमरे का रुख ऊपर की ओर मोड़ा।



अब तक समुद्र में चलते चलते हमें बीस मिनट हो चले थे। इस इलाके के समुद्र तट कि एक खास बात ये भी है कि यहाँ की सतह ठोस होती है और बालू बेहद  महीन जिससे आपको समुद्र में चलने में जरा भी तकलीफ़ नहीं होती। गेस्ट हाउस से तकरीबन हम लोग एक डेढ़ किमी दूर थे पर हमने चलना जारी रखा।



डूबता सूरज आकाश को लाल नारंगी आभा से दीप्त किए दे रहा था। हमें समुद्र में चलते चलते पैंतीस मिनट हो चुके थे। दाएँ, बाएँ और सामने जहाँ तक नज़र जाती थी दूर दूर तक समुद्र का मटमैला पानी दिख रहा था। पीछे देखने पर गेस्ट हाउस पहले से और बौना प्रतीत हो रहा था। पानी का स्तर तलवों से बढ़ गया था पर दो किमी चलने के बाद भी घुटनों से नीचे था।



पर कुछ ही मिनटों में एकदम से अँधेरा हो गया। जो लहरें शांत दिख रही थीं उनमें एक हलचल सी दिखाई देने लगी। शायद उन्हें चाँद की झलक मिल चुकी थी। हम सब भी वापस गेस्ट हाउस की ओर लौटने लगे। इस इच्छा को मन में दबाए हुए कि अगली सुबह फिर तेरा रूप देखने लौंटेंगे।


कैसा था चाँदीपुर समुद्र तट में शाम का नज़ारा। अगले भाग में आपके साथ की जाएगी समुद्र में मार्निंग वॉक। तैयार रहिएगा !

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

विश्व की सबसे चर्चित हेयरपिन बेंड्स (Hairpin Bends) वाली घुमावदार सड़कें !

पिछले हफ्ते आपसे एक सवाल पूछा था पहाड़ पर बने एक सौ अस्सी डिग्री के घुमाव वाले रास्ते के बारे में। अंग्रेजी में ऍसे घुमावों को हेयरपिन बेंड (Hairpin Bend)  कहते हैं क्यूँकि इनका आकार महिलाओं के केश विन्यास में काम आने वाले हेयरपिन सरीखा  होता है। आज की इस प्रविष्टि में आपसे किए गए सवाल के बारे में तो बात होगी ही साथ ही आपको  ले चलेंगे संसार के सबसे मशहूर Hairpin Bends की सैर पर।
ऊँचे पर्वतीय रास्तों पर एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ को लाँघने के लिए कई दर्रों से होकर गुजरना पड़ता है। अब अगर इन रास्तों की ढाल बढ़ा दी जाए तो भारी और मालवाहक वाहनों के घुमावों पर लुढ़कने की संभावना बढ़ जाती है। इस ढाल को सीमा के अंदर लाने में Hairpin Bends बड़े मददगार होते हैं। Hairpin Bends जहाँ एक ओर दुर्घटना की संभावनाओं को घटाते हैं वहीं दूसरी ओर इनके चलते रास्ते की लंबाई कई गुना बढ़ जाती है।
मनाली लेह रोड जिसे दुनिया के सबसे दुर्गम रास्तों में एक माना जाता है, में भी एक ऐसा ही हेयरपिन बेंड है। मनाली से केलोंग होते हुए जब पर्यटक हिमाचल की सीमा के पास पहुँचते हैं तो सरचू के पठारी मैदान आपका स्वागत करते हैं। सरचू से थोड़ा आगे जाने पर Tsarap नदी मिलती है। इस नदी को पार करते ही अचानक ही एकदम से चढ़ाई आ जाती है और मुसाफ़िरों का सामना होता है 21 चक्करों वाले इस हेयरपिन बेंड से ,जिसे गाटा लूप्स (Gata Loops) के नाम से जाना जाता है। सात किमी लंबे इस लूप के चक्कर काटने में साइकिल व बाइक सवारों के पसीने छूट जाते हैं। गाटा लूप्स को शुरुआत से अंत तक पूरा करते ही आप दो हजार फीट ऊपर आ जाते हैं और पांग की ओर निकल जाते हैं। गाटा लूप्स के ऊपर से तसरप नदी घाटी और  इन घुमावदार सर्पीली लकीरों को देखना कितना अविस्मरणीय अनुभव हो सकता है वो आप  कृष्णनेन्दु सरकार के खींचे हुए इस चित्र को देखकर ही समझ सकते हैं।

ये तो हुई गाटा लूप्स की बात। दक्षिण पूर्वी नार्वे में Lysebotn Road में भी 27 हेयरपिन बेंड हैं। गाटा लूप्स के विपरीत ये बेंड आपको नीचे और नीचे ले जाते हैं। पतली सी सड़क पर 34 किमी का ये सफर तब रोंगटे खड़ा कर देने वाला हो जाता है जब सामने से अचानक बस या लॉरी आपके सामने आ जाए। रोड के अंतिम सिरे पर की सुरंग तीन सौ साठ डिग्री का चक्कर लगा कर घाटी के निचले हिस्से में ला कर छोड़ देती है।

उत्तर पश्चिमी यूरोप से ले चलते हैं आपको मध्य यूरोप में जहाँ आल्पस पर्वत अपने अंदर ऐसे कई हेयरपिन बेंड समाहित किए हुए है। स्विस आल्पस (Swiss Alps) में ऐसी एक सड़क है जो ओबेरआल्प पास तक जाती है। जाड़े के दिनों में 2044 मीटर की ऊंचाई तक जाती ये सड़क बंद रहती है। पर गर्मियों की हरियाली में इसका नज़ारा देखते ही बनता है।


फ्रांस मे फैले आल्पस पर्वत में भी ऐसे घुमावों वाली कई सड़के हैं। 1244 मीटर की ऊँचाई चढ़ने के लिए  Col de Turini पर 34 किमी की यात्रा कर लोग 363 मीटर की ऊँचाई से 1607 मीटर तक पहुँच पाते हैं। मान्टेकार्लो कार रैली के लिए इसी सड़क का इस्तेमाल होता है। वहीं Col de Braus को दुनिया की सबसे आकर्षक सड़कों में एक माना जाता है। यहाँ के हेयरपिन घुमाव साइकिल दौड़ाकों के लिए  बड़ी चुनौती माने जाते हैं। एक नज़ारा आप भी देखिए



पर घुमावों की संख्या में इन सब को मात देता है इटालियन आल्पस का 'स्टेलविओ पास' (Stelvio Pass)। कुल मिलाकार साठ हेयरपिन घुमावों वाला ये दर्रा यूरोप में आल्पस पर्वत का सबसे ऊँचा पास है।  2758 मीटर ऊँचे इस दर्रे पर जाती सड़क को 1820-1825 ई में आस्ट्रियाई शासकों ने बनाया था। प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक जब इटालवी सीमाओं का विस्तार नहीं हुआ था तब ये इलाका स्विस,आस्ट्रिया और इतालवी सीमाओं को एक दूसरे से अलग करता था । ये पहाड़ी दर्रे कई इतालवी और अस्ट्रियाई सेनाओं के आपसी संघर्ष के साक्षी रहे हैं। आज 'स्टेलविओ पास' अपनी दुरुहता की वज़ह से साहसी साइकिल, बाइक व मोटर चालकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती की तरह है।


 पर हेयरपिन बेंड से सजी ये सड़कें सिर्फ यूरोप में हों ऐसा भी नहीं है। एशिया में भारत के आलावा चीन व जापान में भी ऐसी सड़कें हैं। पर उससे कहीं जबरदस्त दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वत पर बनी एक सड़क है जो चिली और अर्जेंटीना को जोड़ती है। वैसे तो चिली व अर्जेंटीना के बीच के पाँच हजार मील की लंबी सीमा है और उसमें कई दर्रे हैं पर इन सबमें सबसे ज्यादा मशहूर  Los Caracoles यानि स्नेल पॉस है। अर्जेंटीना की तरफ ये सड़क एक आम पर्वतीय सड़क की तरह है जो 3,175 मीटर की ऊँचाई पर एक सुरंग में जा मिलती है। इस सुरंग का आधा भाग चिली व आधा अर्जेंटीना में पड़ता है। पर सुरंग से बाहर आते ही चिली के इलाके में ये सड़क तेजी से नीचे की ओर एक सीध में बने कई हेयरपिन बेंड्स के  रूप में उतरती है। ऊपर से देखने पर इस पर चलते ट्रक घोंघों की तरह खिसकते नज़र आते हैं इसीलिए इसे  Snail Pass भी कहा जाता है।


तो अब बताइए जनाब इन सड़कों में किस पर विचरण करने का इरादा है आपका...

सोमवार, 4 जुलाई 2011

चित्र पहेली 18 : क्या आपने कभी लगाए हैं सड़क पर 180 डिग्री के इतने चक्कर?

गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ों पर जाने की चाहत किसे नहीं होती?  शहर की चिल्ल पों से दूर पहाड़ों का शांत स्निग्ध हरा भरा वातावरण किसी भी प्रकृतिप्रेमी को अपनी ओर हमेशा से खींचता रहा है। पर पहाड़ों पर जाने से कुछ लोग हिचकिचाते भी हैं, खासकर वो जिन्हें घुमावदार रास्तों में सिर दर्द और वमन की शिकायत हो। पर अगर पहाड़ों का आनंद लेना है तो इसे बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। वैसे कई पर्वतीय स्थलों पर घुमावदार रास्तों से ज्यादा तकलीफ़ नहीं होती क्यूँकि वहाँ घुमावों का का टर्निंग रेडियस ज्यादा होता है। पर कभी कभी जब सड़क एक सौ अस्सी डिग्री का घुमाव लेती हो तो चलाने वालों और सफ़र करने वालों के लिए मुश्किलें बढ़ जाती है।

मुझे याद आता है देहरादून से मसूरी जाते वक़्त दो तीन जगह ऐसे ही घुमाव मिलते थे ।पर ज़रा सोचिए अगर एकदम से ऊँचाई प्राप्त करने के लिए आपको एक सौ अस्सी डिग्री के इतने सारे चक्कर लगाने पड़े तो क्या आपकी एवोमीन काम करेगी?। आज की चित्र पहेली आपको ऐसी ही एक सड़क का चित्र दिखा रही है जो पाँच सौ मीटर की ऊँचाई पाप्त करने के लिए कई बार घूमती है। आज की इस चित्र पहेली नें आपको बताना है कि ये जगह किस नाम से मशहूर है और नीचे बहती नदी का क्या नाम है ?

(इस चित्र के छायाकार का नाम उत्तर के साथ बताया जाएगा।)
जिन्होंने इस रास्ते से सफ़र किया होगा वो तो सहजता से ये बता पाएँगे। आपके जवाब माडरेशन में रखे जाएँगे। अगली पोस्ट में आपके उत्तर के साथ ऍसी ही कुछ दिलचस्प सड़कों की बात करेंगे। तब तक आपको छोड़ते हैं इस चित्र पहेली के चक्करों में...

पुनःश्च  : सही जवाब दिया गजेन्द्र सिंह जी ने। सबसे पहले और प्रश्न के दोनों भागों का एकदम सही उत्तर बताने के लिए आपको हार्दिक बधाई़ !

सोमवार, 27 जून 2011

रामोजी मूवी मैजिक : जहाँ आप भी बन सकती हैं शोले की बसंती !

हैदराबाद यात्रा से जुड़ी इस आख़िरी पोस्ट में आपको ले चलूँगा कृपालु गुफ़ा, भूकंप क्षेत्र और रामोजी मूवी मैजिक की सैर पर। पर फिल्म सिटी पर लिखी गई ये पोस्ट अन्य पोस्टों से कुछ अलग है। रामोजी फिल्म सिटी के बाकी हिस्सों में मनोरंजन हुआ पर मूवी मेजिक देख कर मुझे इस बात का उत्तर मिला कि एक पर्यटक को यहाँ क्यूँ आना चाहिए ?

रामोजी फिल्म सिटी में यूँ तो बस से एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं। पर फिल्म सिटी वाले इस बात पर नज़र रखते हैं कि आप सही जगह उनके बताए रास्ते से जा रहे हैं या नहीं। बस आपको जहाँ छोड़ती है वहीं से वापस नहीं ले जाती। यानि अगर आप किसी जगह जाने की इच्छा ना रहकर ये सोंचे कि यहीं बैठकर थोड़ा सुस्ता लें तो ऐसा रामोजी फिल्म सिटी वाले होने नहीं देंगे। जहाँ बस के बजाए सिर्फ पैदल जाना है वहाँ भी किसी शो को देखने और देखकर निकलने के निर्दिष्ट रास्ते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि आप घूमने की जगहों के आस पास बने व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के अंदर से होकर गुजरें और अगर गुजरेंगे तो दस बीस फीसदी ही सही कुछ लोग तो अपनी जेबें और हल्की करेंगे ही।
हवा महल से नीचे उतरते ही कुछ खूबसूरत शिल्प आपका इंतज़ार करते हैं।

थोड़ी दूर ढलान पर जापानी उद्यान है। वहाँ नृत्य का कार्यक्रम चल रहा था। पर गर्मी अब अपना असर दिखाने लगी थी। ढलती दोपहरी में पहले प्यास से व्याकुल गले को तर करने की इच्छा हो रही थी इसलिए हमने नृत्य देखने में कोई ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। उद्यान से आगे बढ़ने पर बस स्टाप दिखाई पड़ा और साथ ही शीतल पेय की दुकान भी। दो तीन बोतलें आनन फानन में खत्म कर हम बस में चढ़े। बस की यात्रा बस पाँच मिनट की रही। कृपालु की गुफाओं का रास्ता दिखाकर बस वाला चलता बना। आधा किमी पैदल चलने के बाद इस गुफा के दर्शन हुए। गुफ़ा तक जाने वाले रास्ते में ये दृश्य दिखाई देता है।

अंदर गुफा में चट्टानों को काटकर मुखाकृतियाँ बनाई गयी हैं। अंदर बच्चों को तब मजा आता है जब नाग बाबा अपने कमाल दिखलाते हैं।
गुफ़ा से निकल कर हम एक दूसरे बस पड़ाव तक पहुँचे। पास ही बने इस फव्वारे के साथ घोटकों की ये अदा मन को मोहित कर रही थी।

बस हमें वापस फंडूस्तान के पास ले गई जहाँ से हमने अपनी यात्रा शुरु की थी। भूकंप क्षेत्र (Earthquake Zone)में आखिरी शो चल रहा है। हम डरते डरते घुसते हैं। पर्दे पर एक थ्री डी फिल्म शुरु होती है। ऐसा लगता है कि हम जहाज में बैठे हैं और रामोजी फिल्म सिटी से उठाकर हमें इसकी सबसे ऊँची इमारत में ले जाया जा रहा है। ऊपर से फिल्म सिटी का नयनाभिराम दृश्य दिख ही रहा है कि अचानक हॉल में अँधेरा छा जाता है। तड़तड़ाहट की आवाज़ आती है और ऐसा लगता हे कि जिस इमारत में हमें ले जाया गया था वो भरभराकर गिर रही है। टूटती दीवार के दृश्य, तरह तरह की आवाजैं, अगल बगल से निकलते पानी के छींटे इस अहसास को और पुख्ता करते हैं। कुछ मिनटों  में जब ये तिलिस्म खत्म होता हे तो हम थोड़ी देर पहले की अपनी मनोदशा को सोचकर ठठाकर हँस पाते हैं।

अगला पड़ाव रामोजी मूवी मैजिक भी है जो रामोजी फिल्म सिटी का सबसे यादगार हिस्सा है। यहाँ आपको सबसे पहले फिल्म सिटी के इतिहास के बारे में बताया जाता है। दूसरे हिस्से में फिल्मों के दौरान घोड़ों की टाप, बिजली की गर्जना , डरावना संगीत जैसी सुनाई देने वाली तमाम आवाज़ों को जुगाड़ के माध्यम से चुटकियों में कैसे पैदा किया जाता है, ये दिखाया जाता है। अब इन जुगाड़ों का रहस्य को वहीं जाकर देखिएगा। 

मूवी मैजिक के अगले भाग में दर्शकों में से ही एक लड़के और एक लड़की को चुन  लिया जाता है। लड़की को बताया जाता है कि तुमको शोले की वसंती का रोल करना है। हमें लगा कि लड़के से अब ये धर्मेंद्र वाला रोल कराएँगे। पर पता चला कि उस दृश्य में हीरो का कोई काम ही नहीं है। फिर लड़के को क्यूँ लिया है?

सेट पर एक घोड़ा गाड़ी है पर उसमें घोड़ा नहीं है। लड़की यानि वसंती को घोड़ागाड़ी में बिठाकर एक चाबुक हाथ में पकड़ा दिया जाता है। लड़के का काम है पीछे खड़े होकर घोड़ागाड़ी को जोर जोर से हिलाना। लड़के पर कैमरे का फोकस नहीं है। फोकस है वसंती यानि लडकी पर जिसे सिर्फ थोड़ी थोड़ी देर पर चाबुक लहराते हुए कहना है भाग धन्नो भाग और चिंतित मुद्रा में पीछे की ओर देखना है। यहाँ पीछे ना डाकू हैं ना उनके घोड़े। इसी वज़ह से लड़की घबराने के बजाए हँसती चली जा रही है। उधर लड़के के गाड़ी हिलाते हिलाते पसीने छूट रहे हैं। दृश्य रिकार्ड कर लिया गया है और हम दर्शकों को तीसरे कक्ष की ओर जाने का संकेत दे दिया गया है।

असली मैजिक अब शुरु हो रहा है। यहाँ पहले कक्ष में पहले से रिकार्ड की गई ध्वनियों और दृश्यों को दूसरे कक्ष में रिकार्ड की गई फिल्म पर सुपरइम्पोज कर दिया गया है। आकाश में बिजली चमक रही है। पीछे से बादलों के गरज़ने की जुगाड़ वाली ध्वनि मन को दहला रही है। टक टकाक टक.. टक टकाक टक.. तीन डाकू घोड़ों के साथ धन्नों का पीछा करते दिख रहे हैं पर इस शॉट में वसंती कहीं नहीं  नज़र आ रही है। कुछ क्षणों में दृश्य बदलता है। ये क्या! अब वसंती के रूप में दर्शक दीर्घा में बगल में बैठी लड़की नज़र आ रही है। हाँ यहाँ धन्नो नदारद है पर माहौल शोले जैसा ही बनता दिख रहा है। दृश्य खत्म होता है । तालियों की गड़गड़ाहट स्वतःस्फूर्त है।

दर्शकों में से एक हल्के लहज़े में कहता है कि लड़के के साथ बेहद नाइंसाफ़ी हुई है। सारी मेहनत उस की पर पूरे शॉट में वो कहीं नहीं दिखता। उसकी बात सुनकर दर्शकगण ठहाके लगा रहे हैं। प्रस्तुतकर्ता हँसता है फिर गंभीर मुद्रा में कहता है ये शॉट आप लोगों को कुछ सोच समझकर ही दिखाया गया है। दरअसल हम ये बताना चाहते हैं कि फिल्म जगत की यही त्रासदी है मेहनत सब करते हैं पर उन तमाम कलाकारों कैमरामैन, साउंड इंजीनियर, मेकअप मैन, स्टंटमैन, वादकों ,फिल्म एडीटर की मेहनत छुपी रह जाती है। बात सीधे दिल पर लगती है। लगता है कि हाँ इतने पैसे खर्च कर के भी यहाँ आना सफल हुआ।

फंडूस्तान के पास कई भोजनालय हैं। वहीं जलपान कर हम अब वापसी का मन बना चुके हैं। हमारे साथ आए कुछ लोग अभी भी ओपन थिएटर की ओर जा रहे हैं जहाँ साढ़े सात तक संगीत और नृत्य का कार्यक्रम चलना है। निकलने के पहले अंतिम तस्वीर खींचते वक़्त मेरी तस्वीर या कहें मेरे कैमरे की तस्वीर खींच ली जाती है।
हैदराबाद की मेरी इस यात्रा की ये आखिरी कड़ी थी। आपको मेरे व मेरे कैमरे का साथ बिताया ये सफ़र कैसा लगा बताइएगा?
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