गुरुवार, 22 सितंबर 2011

सिक्किम त्रासदी : कुछ फुटकर यादें...

एक पर्यटक के तौर पर हम सब किसी ना किसी जगह जाते हैं और  कुछ दिनों के लिए हम उसी फिज़ा और उसी आबोहवा का हिस्सा बन जाते हैं। हफ्ते दस दिन के बाद भले ही हम अपनी दूसरी दुनिया में लौट जाते हैं पर उस जगह की सुंदरता, वहाँ के लोग, वहां बिताए वो यादगार लमहे... सब हमारी स्मृतियों में क़ैद हो जाते है। भले उस जगह हम दोबारा ना जा सकें पर उस जगह से हमारा अप्रकट सा एक रिश्ता जरूर बन जाता है।

यही वज़ह है कि जब कोई प्राकृतिक आपदा उस प्यारी सी जगह को एक झटके में झकझोर देती है, मन बेहद उद्विग्न हो उठता है।हमारे अडमान जाने के ठीक दो महिने बाद आई सुनामी एक ऐसा ही पीड़ादायक अनुभव था। सिक्किम में आए इस भूकंप ने एक बार फिर हृदय की वही दशा कर दी है। हमारा समूह जिस रास्ते से गंगटोक फेनसाँग, मंगन, चूँगथाँग, लाचुंग और लाचेन तक गया था आज वही रास्ता भूकंप के बाद हुए भू स्खलन से बुरी तरह लहुलुहान है।
सेना के जवान लाख कोशिशों के बाद भी कल मंगन तक पहुँच पाए हैं जबकि ये उत्तरी सिक्किम के दुर्गम इलाकों में पहुँचने के पहले का आधा रास्ता ही है। आज से कुछ साल पहले मैं जब गंगटोक से लाचेन जा रहा था तो  इसी मंगन में हम अपने एक पुराने सहकर्मी को ढूँढने निकले थे। सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई और अमेरिका से एम एस कर के लौटने वाले तेनजिंग को सेल (SAIL) की नौकरी ज्यादा रास नहीं आई थी। यहाँ तक कि नौकरी छोड़ने के पहले उसने अपने प्राविडेंड फंड से पैसे भी लेने की ज़हमत नहीं उठाई थी। उसी तेनजिंग को हम पी.एफ. के कागज़ात देने मंगन बाजार से नीचे पहाड़ी ढलान पर बने उसके घर को ढूँढने गए थे।
तेनजिंग घर पर नहीं था पर घर खुला था। पड़ोसियों के आवाज़ लगाने पर वो अपने खेतों से वापस आया। हाँ, तेनज़िंग को इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ कर अपने पैतृक निवास मंगन में इलायची की खेती करना ज्यादा पसंद आया था। तेनज़िंग से वो मेरा पहला परिचय था क्यूंकि वो मेरी कंपनी में मेरे आने से पहले नौकरी छोड़ चुका था। आज जब टीवी की स्क्रीन पर मंगन के तहस नहस घरों को देख रहा हूँ तो यही ख्याल आ रहा है कि क्या तेनजिंग अब भी वहीं रह रहा होगा?


मंगन से तीस किमी दूर ही चूँगथाँग है जहाँ पर लाचेन चू और लाचुंग चू मिलकर तीस्ता नदी का निर्माण करते हैं। यहीं रुककर हमने चाय पी थी। चाय की चुस्कियों के बीच सड़क पर खेलते इन बच्चों को देख सफ़र की थकान काफ़ूर हो गई थी। आज इस रास्ते में हालत इतनी खराब है कि अभी तक चूँगथाँग तक का सड़क संपर्क बहाल नहीं हो सका है।  चूँगथांग में अस्सी फीसदी घर टूट गए हैं। चूमथाँग के आगे का तो पता ही नहीं कि लोग किस हाल में हैं।

चूमथाँग और लाचेन के बीच की जनसंख्या ना के बराबर है। लाचेन वैसे तो एक पर्यटन केंद्र है पर वास्तव में वो एक गाँव ही है। मुझे याद है की हिमालय पर्वत के संकरे रास्तों पर तब भी हमने पहले के भू स्खलन के नज़ारे देखे थे। जब पत्थर नीचे गिरना शुरु होते हैं तो उनकी सीध में पड़ने वाले मकानों और पेड़ों का सफाया हो जाता है। सिर्फ दिखती हैं मिट्टी और इधर उधर बिखरे पत्थर। बाद में उन रास्तों से गुजरने पर ये अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि यहाँ कभी कोई बस्ती रही होगी। सुना है बारिश से उफनते लाचुंग चू ने भू स्खलन की घटनाएँ अब भी हो रही हैं।

इन दूरदराज़ के गाँवों में एक तो घर पास पास नहीं होते, ऍसे में अगर भूकंप जैसी विपत्ति आती है तो किसी से सहायता की उम्मीद रखना भी मुश्किल है। इन तक सहायता पहुंचाने के लिए सड़क मार्ग ही एक सहारा है जिसे पूरी तरह ठीक होने में शायद हफ्तों लग जाएँ। पहाड़ों की यही असहायता विपत्ति की इस बेला में मन को टीसती है। सूचना तकनीक के इस युग में भी हम ऐसी जगहों में प्रकृति के आगे लाचार हैं।
अंडमान, लेह और अब सिक्किम जैसी असीम नैसर्गिक सुंदरता वाले प्रदेशों में प्रकृति समय-समय पर क़हर बर्पाती रही है। आशा है सिक्किम की जनता पूरे देश के सहयोग से इस भयानक त्रासदी का मुकाबला करने में समर्थ होगी।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

आइए जानते हैं क्या था बर्फ के इन अंडों का रहस्य ?

पिछली पहेली में आपसे प्रश्न पूछा था समुद्र तट पर फैली हुई सफेद अंडाकार आकृतियों के बारे में। अगर आप भी इन्हें साक्षात देखना चाहते हैं तो आपको या तो अमेरिका जाना होगा या फिर स्वीडन। पर  इन अंडों जो कि वास्तव में अंडे हैं नहीं, को देखने क्या आप इतनी दूर क्यूँ जाएँगे ? संयुक्त राज्य अमेरिका में वैसे तो बहुत सारी झीलें हैं पर उनमें से लेक मिशिगन ही एक ऐसी झील है जिसकी सीमाएँ पूरी तरह अमेरिका के अंदर हैं। 58000 वर्ग किमी में फैली इस झील के तट पर जाड़ों के मौसम में ऐसे दृश्य बारहा दिखाई दे जाएँगे।

दरअसल ये अंडे किसी जीव के नहीं बल्कि बर्फ के गोले हैं जो विशेष प्राकृतिक परिस्थितियों में समुद्र और झील के किनारे बनते हैं।

अटलांटिक महासागर में स्कैंडेनेविया के देशों जेसे स्वीडन में भी प्रकृति का ये दिलचस्प माज़रा देखने को मिला है। मौसम वैज्ञानिकों के अब तक किए गए शोध से पता चला है कि इन बर्फ के गोलों के बनने के लिए वातावरण में कुछ विशेष परिस्थितियों का होना जरूरी है। मसलन शून्य से नीचे का तापमान, चालिस से पचास किमी तक की गति से चलती तेज हवाएँ और साथ में होता हिमपात।


होता ये है कि तेज चलती हवाओं और उनसे उत्पन्न लहरों की वजह से तापमान शून्य के नीचे होने से भी जम नहीं पाता। गिरती या उड़ती बर्फ, लहरों की लगातार घुमावदार मार से पानी की सतह पर घूमती हुई ,घूमती हुई बहती चली जाती है और अंततः एक गोलाकार रूप ले लेती है। मौसम वैज्ञानिकों के एक दल ने जब इस बर्फ के गोलों को तोड़ा तो देखा कि 2-5 सेंटीमीटर बर्फ की कठोर बाहरी परत के अंदर का भाग नम और ढीली बर्फ से भरा हुआ है।

वैसे ख़ुद ही देखिए इस वीडिओ में कि कैसे लहरों के साथ बर्फ के ये गोले तट पर बिछा दिए जाते हैं ।


इस बार के प्रश्न का सबसे सही और पहले अनुमान लगाया काजल कुमार ने। उन्हें बहुत बधाई। बाकी लोगों का अनुमान लगाने के लिए धन्यवाद।