बुधवार, 29 अगस्त 2012

मेरी जापान यात्रा : सफ़र नई दिल्ली से टोक्यो का ! ( My visit to Japan : Newdelhi to Tokyo)

पहली बार अंडमान जाते वक़्त हवाई जहाज़ पर चढ़ना हुआ था। वैसे उस जैसी रोचक हवाई यात्रा फिर नहीं हुई। अब प्रथम क्रश कह लीजिए या आसमान में उड़ान, पहली बार का रोमांच कुछ अलग होता है। विगत कुछ वर्षों में हवाई यात्राओं में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बैंगलोर, भुवनेश्वर और हैदराबाद जाना होता रहा है पर अंतरराष्ट्रीय उड़ान पर तो चढ़ने का मौका अब तक नहीं मिला था। छोटे थे तो पिताजी एक बार पटना के हवाई अड्डे पर ले गए थे। दस रुपये के टिकट में तब सीढ़ी चढ़ कर इमारत की छत से विमान को उड़ता और लैंड करते हुए देखा जा सकता था। तब पटना से काठमांडू के लिए रॉयल नेपाल एयरलाइंस (Royal Nepal Airlines) के विमान चला करते थे। उनका वृहत आकार और बाहरी साज सज्जा तब बाल मन को बहुत भाए थे। ख़ैर उस ज़माने में हम बच्चों के लिए हवाई जहाज़ बस देखने की चीज हुआ करता था। इसीलिए तीन दशकों बाद जब एक लंबी अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्रा का अवसर मिला तो मुझे बेहद उत्साहित होना चाहिए था। पर क्या ऐसा हो सका था ? 

यात्रा के दो दिन पहले तक मनःस्थिति वैसी नहीं थी। होती भी कैसे वीसा एप्लीकेशन से ले कर बाकी की काग़ज़ी कार्यवाही से जुड़ी भागदौड़ ने हमारे पसीने छुड़ा दिये थे। ऊपर से दिल्ली का उमस भरा मौसम भी कोई राहत नहीं पहुँचा रहा था। काग़ज़ी काम तो जाने के एक दिन पहले खत्म हो गया था पर चिंताएँ अभी थमी नहीं थी। सबसे बड़ी चिंता पापी पेट की थी। चालिस दिनों का सफ़र और वो भी ऐसे शाकाहारी के लिए जिसने आमलेट के आलावा किसी सामिष भोजन को कभी हाथ ना लगाया हो, निश्चित ही चुनौतीपूर्ण था :)। जापान जा चुके अपने जिन सहकर्मियों से वहाँ के भोजन के बारे में बात होती पहला सवाल यही दागा जाता क्या आप शाकाहारी हैं? हमारी हाँ सुनकर सामने वाले के चेहरे पर तुरंत चिंता की लकीरें उभर आती और फिर ठहरकर जवाब मिलता Then you are going to have problem. 

उनकी बातों की सत्यता परखने के लिए गूगल का सहारा लिया । पता चला जापानियों के लिए शाकाहार को समझ पाना ही बड़ा मुश्किल है,प्रचलन की बात तो दूर की है। जिस देश में खेती के लिए ज़मीन ना के बराबर हो और जो चारों ओर समुद्र से घिरा हो वहाँ के लोग शाकाहारी रह भी कैसे सकते हैं?

अब समस्या हो तो अपने देश में समाधान बताने वालों की कमी तो होती नहीं है। सो चावल, दाल, सत्तू , ओट्स से लेकर प्री कुक्ड फूड ले जाने के मशवरे मिले। अपने ट्रेनिंग कार्यक्रम के लिए जहाँ हमें जाना था वहाँ सख़्त हिदायत थी कि कमरे में ख़ुद खाना बनाना मना है। सो पहला सुझाव तो रद्द कर दिया। रही सत्तू की बात तो सत्तू की लिट्टी और पराठे तो खूब खाए थे पर लोगों ने कहा भाई सत्तू घोर कर भी पी लोगे तो भूखे नहीं मरोगे। दिल्ली पहुँचे तो वहाँ कुछ और सलाह दी गई। नतीजन अपने बड़े से बैग को मैंने सत्तू, भांति भांति प्रकार के मिक्सचर / बिस्किट्स, मैगी और प्री कुक्ड फूड के ढेर सारे पैकेट, घर में बने पकवानों से इतना भर लिया कि उसका वज़न पच्चीस के आस पास जा पहुँचा। ख़ैर भला हो जापान एयर लाइंस (Japan Air Lines) वालों का कि वे विदेश यात्रा में 23 kg  के दो बैग ले जाने की इजाज़त देते हैं सो चेक इन में दिक्कत नहीं हुई।

दिल्ली से हमारे समूह के सात लोग जाने वाले थे। पर सब  बाहर का नज़ारा लेने के लिए अलग अलग खिड़कियों के पास जा बैठे। अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में 2+2 के आलावा 4 सीटें बीच में होती हैं।



रविवार, 19 अगस्त 2012

चित्रों में दिल्ली का अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डा T3 !

दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के T3 टर्मिनल में पहले भी जाना होता रहा है और इसके घरेलू टर्मिनल की झलकें मैं पिछले साल आपको दिखा ही चुका हूँ। पर पिछले महिने जापान जाने के दौरान T3 के अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल को देखने का मौका मिला। वैसे अगर आपके मन में ये भ्रांति हो कि अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल दिखने में घरेलू टर्मिनल से बहुत अलग होगा, तो उसे दूर कर लें। दिखने में टर्मिनल के दोनों हिस्से एक से ही हैं। हाँ अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल होने की वज़ह से कुछ बातें आपको नयी जरूर लगेंगी। मसलन सुरक्षा जाँच के पहले Immigration Check काउंटर से गुजरना। खरीददारी के लिए ढेर सारी ड्यूटी फ्री दुकानें और भारत से वापस लौटने वाले विदेशियों के लिए सोवेनियर शॉप्स। 

जापान की इस यात्रा में मुझे टोकियो (तोक्यो) का नारिटा (Narita Terminal, Tokyo) और बैंकाक का स्वर्णभूमि हवाई अड्डा (Swarnabhoomi Airport, Banglok) भी देखने को मिला। पर उनके मुकाबले हमारा T3 कहीं ज्यादा सुंदर और विस्तृत है। यानि आप गर्व से ये कह सकते हैं कि हमारी राजधानी का हवाई अड्डा विश्वस्तरीय है। तो चलिए आपको दिल्ली के हवाईअड्डे के इस हिस्से के कुछ दृश्य दिखाता चलूँ। 

अंतरराष्ट्रीय प्रस्थान के ठीक सामने एक प्रतिमा लगी है जो इस हिस्से की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है। दूर से इसे देखने पर गौतम बुद्ध की मूर्ति सा आभास होता है। पर पास आने से पता लगता है कि ये प्रतिमा भगवान बुद्ध की ना होकर भगवान सूर्य की है। इसे बनाने वाले शिल्पी का नाम है सुरेश गुप्ता। सुरेश गुप्ता ने इस शिल्प को गढ़ने में ग्यारह वीं सदी में दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य की कांस्य प्रतिमाओं से प्रेरणा ली है। 


शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

चलिए जापान..पर पहले सुनिए जापान रेडिओ पर दिया गया मेरा साक्षात्कार !

पिछले डेढ़ महिने से ये ब्लॉग सुसुप्तावस्था में पड़ा है। अब करें भी तो क्या पहली बार विदेश यात्रा पर गए थे और वो भी जापान जहाँ सप्ताहांत के दो दिन छोड़कर जापानियों ने हमारा बाकी समय इस तरह सुनोयोजित तरीके से बाँटा हुआ था कि आप ब्लॉग लिखने के समय के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। और हफ्ते में शनिवार व रविवार को सुबह से ही हम कूच कर देते थे एक नए मुकाम के लिए, एक नए अनुभव की खोज़ में।

(चित्र में टोकियो टॉवर जो कुछ  महिनों पहले तक टोकियो की पहचान माना जाता था।)

इतनी लंबी अवधि का ट्रेंनिंग कार्यक्रम होने की वज़ह से मुझे जापानी लोगों की कार्यशैली, उनके तौर तरीके को करीब से देखने का मौका मिला। सच मानिए घुमक्कड़ी का मज़ा सिर्फ नई जगहों को देखने भर का नहीं होता। पूर्ण आनंद तो तब आता है जब आप जहाँ गए हैं उनकी संस्कृति को समझ पाते हैं। देखिए मैंने अपने इस ब्लॉग पर शुरुआत से घुमक्कड़ रिक स्टीवस की जो पंक्तियाँ साइड बार में लगाई हैं उन्हें आज फिर से दोहराने का मन कर रहा है..

यात्रा एक लत की तरह है, यह आपको खुशमिज़ाज और किसी एक जगह का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का नागरिक बना देती है। इसी की बदौलत जाना जा सकता है कि पृथ्वी एक घर है, जहाँ छः बिलियन से ज्यादा लोग बिल्कुल हमारी ही तरह महत्त्वपूर्ण व प्रेम, आतिथ्य, सौहार्द, मित्रता, सहानुभुति से सराबोर हैं। यात्रा व्यक्तित्व में बदलाव लाती है, परिपेक्ष्य में विस्तार करती है और जीवन के गुणों को नापने के नए तरीके सिखाती है।

और सच कहूँ तो मेरी इस जापान यात्रा ने रिक स्टीव्स के ये शब्द चरितार्थ कर दिए हैं। इन चालिस दिनों में हम पन्द्रह भारतीयों का समूह अधिकतर जापान के दक्षिणी पश्चिमी औद्योगिक शहर कीटाक्यूशू में रहा पर जापान के विभिन्न संयंत्रों को देखने के लिए हम टोकयो, क्योटो, ओसाका, कोबे और हिरोशिमा जैसे बड़े शहरों से भी गुजरे। जिस प्रेम और आतिथ्य का हमने स्वाद चखा उसे शब्दों में उतारना सरल नहीं है। फिर भी मेरी कोशिश होगी कि अगले कुछ महिनों में अपने अनुभवों को आप तक ईमानदारी तक पहुँचा सकूँ।

अपनी इस यात्रा के दौरान जापान की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा NHK के हिंदी प्रभाग द्वारा मेरा एक साक्षात्कार भी लिया गया। कभी कभी जब बहुत सारे यादगार लमहे आपके ज़ेहन में आ जाते हैं तो मन तुरंत निर्णय नहीं ले पाता कि क्या कहें और क्या ना कहें। इस बातचीत के दौरान मेरी मानसिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही रही।चूंकि ये बातचीत टेलीफोन के माध्यम से हो रही थी और फोन की दूसरी ओर मुनीश भाई थे इसलिए मुझे ऐसा लग रहा था कि ये बातचीत परिचितों की लंबी गप्प का हिस्सा है। बातचीत का आरंभिक भाग जापान में चल रही हमारी ट्रेनिंग के बारे में था जबकि दूसरे भाग में ज्यादा बातें जापान प्रवास के दौरान बटोरे मेरे अनुभवों के बारे में रहीं। ये बातचीत कल और परसों रेडिओ जापान की हिंदी सेवा पर दो भागों में प्रसारित हो चुकी है। तो इससे पहले जापान का विधिवत यात्रा संस्मरण शुरु हो आप पहले इस बकबक को झेल लीजिए।



और हाँ मेरा राजस्थान पर चल रहा यात्रा वृत्तांत माउंट आबू से आगे नहीं बढ़ पाया था। वो सिलसिला भी इस नई श्रृंखला के बाद या साथ साथ जारी रखने की कोशिश करूँगा। मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का यात्रा ब्लॉग