रविवार, 30 जून 2013

ये है जापान का रेलवे प्रतीक्षालय ! ( Railway Waiting Room, Japan)

शायद ही कोई भारतीय हो जिसने  रेल पर सफ़र करते वक़्त स्टेशन के प्रतीक्षालय यानि वेटिंग रूम (Waiting Room) का प्रयोग ना किया हो। ट्रेन बदलने में तो प्रतीक्षालय की आवश्यकता होती ही है पर हम भारतीयों को  विलंबित ट्रेन की प्रतीक्षा करने का हुनर तो बचपन से ही सिखा दिया जाता है। वैसे अगर जगह मिल जाए तो हमारे देशवासी प्लेटफार्म पर ही समय बिताना श्रेयस्कर समझते हैं। कारण स्पष्ट है। वातानुकूल श्रेणी में यात्रा करने वालों के लिए बने प्रतीक्षालयों को छोड़ दिया जाए तो सामान्य श्रेणी के प्रतीक्षालयों के जो आंतरिक हालात होते हैं उससे बेहतर विकल्प तो खुली हवा से जुड़े प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा करना ही है।

जापान में बिताए डेढ़ महिनों में हमने ट्रेन से तो कई छोटी बड़ी यात्राएँ कीं पर कभी वेटिंग रूम की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। अव्वल तो ट्रेन के देर से आने का प्रश्न ही नहीं उठता और अगर कोई ट्रेन छूट गई तो उसके बाद वाली ट्रेन मिनटों में हाज़िर हो जाती थी। यही वज़ह है कि जापान में स्टेशनों पर अमूमन बड़े बड़े प्रतीक्षालय नहीं बनाए जाते क्यूँकि उनकी जरूरत ही नहीं पड़ती। जापान के जिन रेलवे स्टेशनो से हम गुजरे वहाँ  भारतीय और जापानी प्रतीक्षालयों में एक फर्क और दिखा। वहाँ आप धीमी ट्रेन में सफ़र करें या फिर एक्सप्रेस में प्रतीक्षालय में घुसने के लिए श्रेणियों वाला कोई भेदभाव नहीं है।



शीशे की दीवारों से घिरे ये छोटे वेटिंग रूप वातानुकूलित होते हैं ।  हिरोशिमा की गर्मी से बचने के लिए पूरे जापान प्रवास में एक बार मुझे इसी वज़ह से प्रतीक्षालय का उपयोग करना पड़ा। प्रतीक्षालय की बात चली है तो साथ साथ आपको जापानी स्टेशनों पर धूम्रपान निषेध के तौर तरीकों के बारे में भी बताता चलूँ। 


भारत में सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान कानूनी रूप से निषेध हो चुका है फिर भी उसे हमारे यहाँ किस तरह लागू किया जाता है और हम खुद कितने सजग हैं इस गलती को ना करने के प्रति, वो जगज़ाहिर है। पहली बार हम जापानी बुलेट ट्रेन में चढ़े तो कंडक्टर ने घुसते ही प्रश्न किया कि आप में से कितने लोग सिगरेट के शौकीन हैं?  कुल लोगों ने हामी भरी तो वो उन्हें अपने पीछे आने का इशारा कर दूसरी बोगी की ओर ले गया। कुछ देर बाद हमारे मित्र लौटे तो उन्होंने बताया कि वो उन्हें ट्रेन में बने स्मोकिंग रूम को दिखाने ले गया था। किसी किसी ट्रेन में तो स्मोकिंग बोगी ही अलग से बना दी गई है। ऐसी ही व्यवस्था जापान के प्लेटफार्मों पर भी है। यानि सिगरेट फूँकिए, अपना फेफड़ा भले जलाइए पर दूसरों की कीमत पर नहीं।

अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

रविवार, 23 जून 2013

उत्तराखंड की इस त्रासदी से क्या कुछ सीख लेंगे हम? ( The man made tragedy of Uttarakhand !)

पिछली कुछ प्रविष्टियों में उत्तराखंड के कुमाऊँ इलाके के बारे में मैंने लिखना शुरु ही किया था कि उत्तराखंड में ये भीषण त्रासदी घटित हो गई।  रुड़की में अपने छात्र जीवन के दो साल बिताने के बावज़ूद मैं कभी केदारनाथ या बद्रीनाथ नहीं गया। मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि ईश्वर अगर हैं तो हर जगह हैं और अगर आप किसी भी कोने में मन में कोई कलुषित भाव लाए बिना उनकी भक्ति करेंगे तो उनका आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहेगा। आज तक सिर्फ वैसे मंदिरों में ही मैंने अपना चित्त स्थिर और भक्तिमय पाया है जहाँ ईश्वर और मेरे बीच किसी तरह का कोलाहल ना हो और शायद इसी वज़ह से उत्तराखंड की पिछली कुछ यात्राओं में सिर्फ घूमने के ख्याल से इन धामों में जाना मुझे कभी उचित नहीं लगा।


कुछ सालों पहले जब उत्तरी सिक्कम में भूकंप आया था तो मन बेहद व्यथित हुआ था क्यूंकि वहाँ जाने के बाद मैं समझ सकता था कि उन निर्जन स्थानों में रहने वाले लोग अगर किसी आपदा में फँस जाएँ तो उन तक समय रहते पहुँचना किसी भी मानवीय शक्ति के लिए कितना दुसाध्य है। आज उत्तराखंड के निवासी और तीर्थयात्री भी अपने आप को उसी स्थिति में फँसा पा रहे हैं। ऐसे हालातों में हमारी सरकारें जैसा काम करने के लिए जानी जाती हैं, उत्तराखंड सरकार ने बस उसी पर फिर से मुहर लगाई है या यूँ कहें कि उससे भी बदतर उदाहरण पेश किया है। आज फँसे हुए लोगों और उनके नाते रिश्तेदारों में जो रोष है वो अकारण नहीं हैं। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखते हुए एक यात्री और भारत के आम नागरिक की हैसियत से बहुत सारी बातें मन को कचोट रही हैं जिसे मैंने यहाँ अपने शब्द देने की कोशिश की है।



सरकार के पास साधन सीमित हैं। चलिए मान लिया। अगर ऐसी परिस्थितियों में वो इतनी विशाल संख्या में फँसे तीर्थयात्रियों को बुनियादी सुविधाएँ को मुहैया कराने की व्यवस्था नहीं कर सकती है तो फिर इतने पर्यावरण संवेदनशील इलाके में भारी संख्या में भक्तों को जाने की अनुमति कैसे दे सकती है? बरसात के दिनों में विगत कुछ वर्षों में पहाड़ी क्षेत्रों में बादल फटने की घटना हमेशा होती रहीं हैं। सर्वविदित है कि पहाड़ी क्षेत्रों में संपर्क और आवागमन की सुविधाएँ मौसम की ऐसी कठोर मार से कभी भी छिन्न भिन्न हो सकती हैं। ये भी स्पष्ट है कि जब भी ऐसा होगा खराब मौसम की वजह से उन्हें दुरुस्त करने में समय लगेगा। ऐसी हालत में इन यात्राओं के दौरान रास्ते में पड़ने वाले कस्बों गाँवों में पहले से स्थानीय आपदा केंद्रों की स्थापना और उसमें पीने के पानी, बिस्किट या क्षय ना होने वाली भोजन सामग्री रखने की बात क्यूँ नहीं सोची गई ?

गुरुवार, 20 जून 2013

आओ यारों तुम्हे सुनाएँ एक कहानी कोसी की ! (Story of River Kosi, Uttarakhand)

कोसी का नाम सुनते ही उस नदी का ख्याल आ जाता है जिसे बिहार का शोक माना जाता है। नेपाल से बहकर बिहार में आने वाली ये नदी बारिश के मौसम में अपनी राहें बदल बदल कर आबादी के बड़े हिस्से के लिए तबाही बन कर आती रही है। इसलिए मुझे खासा आश्चर्य तब हुआ जब भोवाली से अल्मोड़ा और फिर कौसानी जाते हुए साथ साथ बहती नदी का नाम भी किसी ने कोसी बताया। 

वैसे नदियों के बगल बगल सड़क पर साथ चलने कै मौके बहुत मिले हैं। सिलीगुड़ी से गंगतोक तक साथ साथ इठलाती, बलखाती तीस्ता हो या फिर कुलु से मनाली के रास्ते में अपनी खूबसूरती से मन मोहने वाली व्यास, ये नदियाँ पूरी राह को यादगार बना देती हैं। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के पट्टी बोरारू पल्ला (Patti Borarau Palla) के प्राकृतिक झरनों से निकलने वाली कोसी, तीस्ता और व्यास जैसी वृहद तो नहीं पर ये पतली दुबली नदी संकीर्ण घाटियों के घुमावदार रास्तों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए एक यात्री को कई खूबसूरत मंज़र जरूर दिखा देती है।



गुरुवार, 13 जून 2013

आइए आपकी मुलाकात कराएँ गरमपानी के इस विशालकाय मेढक से ! (Meet the large frog of Garampani, Nainital !)

गत वर्ष नैनीताल से अल्मौड़ा के घुमावदार रास्ते में जब इस जगह के साइनबोर्ड के साथ बगल में बहती कोसी नदी का प्रवाह सुनाई दिया तो गाड़ी रुकवाए बिना रहा नहीं गया। नाम था गरमपानी। गरम पानी भी किसी जगह का नाम हो सकता है ये मेरी सोच के परे था। बाद में पता चला कि ऐसा ही एक गरमपानी हिमाचल में भी हैजो कि गाड़ी से शिमला से दो घंटे की दूरी पर है। इस जगह का नाम वैसे तत्तापानी है। पंजाबी में तत्ता का मतलब गरम से लिया जाता है। इसके आलावा असम के कार्बी एंगलांग जिले में गोलाघाट के पास गरमपानी नाम का एक अभ्यारण्य भी है। पर मैं जिस गरमपानी की बात कर रहा हूँ वो नैनीताल से करीबन तीस किमी की दूरी पर है और नैनीताल से रानीखेत (Ranikhet) या अल्मोड़ा (Almora) के रास्ते में भोवाली (Bhowali)  और कैंची धाम (Kainchi Dham) पार करने के बाद आता है।

नदी पर एक छोटा सा पुल बना था। पुल पर चढ़ते ही एक अजीब सी चट्टान नदी के ठीक बीचो बीच विराज़मान दिखाई दी। तत्काल मुझे इस छोटे से कस्बे गरमपानी की लोकप्रियता का राज समझ आ गया। दरअसल वो चट्टान एक विशालकाय मेढ़क का आकार लिए हुई थी। रही सही कसर ग्राम सभा सिल्टूनी वालों ने चट्टान में सफेद रंग की आँख बना कर, कर दी थी ताकि इस चट्टानी मेढक को ना देख पाने की भूल कोई ना कर सके।



शुक्रवार, 7 जून 2013

क्यूँ है जापान स्ट्रीट फैशन इतना भड़कीला? (Why is Japanese Street Fashion so gaudy ?)

पिछली पोस्ट की आख़िर में मैंने आपको बताया था कि स्पेस वर्ल्ड की इस यात्रा में जापानी समाज के एक नए चलन का पता चला जिसके बारे में जानकर हमें बड़ी हैरानी हुई। पता नहीं आपने ध्यान दिया या नहीं पर उस प्रविष्टि के दूसरे चित्र में एक युवा लड़की बड़े से सूटकेस को लेकर स्पेस वर्ल्ड के अंदर जा रही है। अब भला इतने बड़े सूटकेस का इस थीम पार्क में क्या काम?

दरअसल हर सप्ताहांत जापानी किशोर व किशोरियाँ आपको ट्रेन में एक बड़े सूटकेस के साथ सफ़र करते दिख जाएँगे। उनका गन्तव्य स्थल कोई ऐसी जगह होती है जहाँ पर्यटकों और आम लोग सप्ताहांत में अक्सर जाते हैं। आख़िर इस सूटकेस में होता क्या है? इसमें होते हैं रंगबिरंगे अजीबोगरीब परिधान और मेक अप का साजो सामान।