रविवार, 23 फ़रवरी 2014

बनारस की घाट परिक्रमा...Ghats of Varanasi !

गंगा मेरे लिए कभी अपरिचित नहीं रही। पटना के जिस स्कूल में मैं पढ़ता था, गंगा ठीक उसके पीछे से बहा करती। सामान्यतः स्कूल की चारदीवारी से गंगा की दूरी पचास मीटर के करीब होती पर बरसात के दिनों में नदी का पानी स्कूल तक पहुँच जाता। नदी के प्रति हमारी दिलचस्पी इन्हीं दिनों बढ़ती। रोज़ चारदीवारी में बने दरवाजे से झाँककर देखते कि नदी का पानी कितना पास आया है। थोड़ी बारिश और स्कूल का तीन चार दिन बंद होना तय क्यूँकि तब पानी हमारे खेल के मैदान में भर जाता और कोई छुट्टी बिना किसी पर्व के मिल जाए तो उससे आनंद की बात और क्या हो सकती है?। पर पटना में एक दशक से भी ज्यादा व्यतीत करने के बाद भी इस नदी के तट पर ज्यादा समय बिताने का मौका नहीं मिला। इसलिए पिछली बार जब बनारस गया तो ये मन बना लिया था कि इस बार वहाँ की महिमामयी गंगा के पास कुछ वक़्त जरूर बिताऊँगा। 

विश्वनाथ मंदिर और दशाश्वमेध घाट की ओर जाती सड़क

दिन के चार बजे दुर्गा कुंड से घाट की ओर जाने वाले आटोरिक्शा में बैठा पर बनारस की व्यस्त सड़कों और बेतरतीब ट्राफिक के बीच घाट तक पहुँचने में आधे घंटे के बजाए पूरा एक घंटा लग गया। घाट की ओर जाने वाली सड़क पर भीड़ भाड़ की वजह से पैदल ही जाना पड़ता है। इस मार्ग में एक रास्ता बनारस के प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर की ओर कटता है जबकि अगर आप सीधे चलते रहें तो यहाँ के प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट तक पहुँच जाते हैं।
 दशाश्वमेध घाट (River Ganges near Dashaswamedh Ghat)

दशाश्वमेध घाट तक पहुँचते पहुँचते शाम के पाँच बज चुके थे। आरती का समय नहीं हुआ था इसलिए घाट पर अभी ज्यादा भीड़ नहीं थी। घाट पर दो तरह की नावें लगी थी् एक जो लोगों को नदी से निकली उथली ज़मीन के पास की मुख्य धारा की तरफ़ ले जा रही थीं। बाहर से आने वाले ज्यादातर लोग उधर ही स्नान के लिए जाते दिखाई पड़े। वैसे भी घाटों के पास हम जैसे मनुष्यों ने 'गंगा' को गंगा जैसा पवित्र रहने ही कहाँ दिया है? 


 धर्म और व्यापार आज के बनारस की पहचान बस इस चित्र जैसी ही रह गई है।


रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कैसे होते हैं कस्बाई मेले ? : आइए देखें एक झलक सोनपुर यानि हरिहर क्षेत्र के मेले की! (Sonepur Fair, Bihar)

एक ज़माना था जब शहर या कस्बे में मेले का आना किसी पारंपरिक त्योहार से कम खुशियाँ देने वाला नहीं होता था। हम बच्चों में छोटे बड़े झूले देखने और नए खिलौने खरीदने की जिद होती। छोटे मोटे सामानों को कम दामों पर खरीद कर गृहणियाँ गर्व का अनुभव करतीं। साथ ही रोज़ रोज़ के चौका बर्तन से अलग चाट पकौड़े खाने का मज़ा कुछ और होता। तब इतने फोटो स्टूडियो भी नहीं हुआ करते थे और कैमरा रखना अपने आप में धनाढ़य होने का सबूत हुआ करता था। ऐसे में मेले के स्टूडियो में सस्ते में पूरे परिवार की फोटुएँ निकल जाया करती थीं। और तो और पूरा परिवार फोटो के पीछे की बैकग्राउंड की बदौलत अपने शहर बैठे बैठे कश्मीर की वादियों, आगरे के ताजमहल या ऐसी ही खूबसूरत जगहों का आनंद लेते दिखाई पड़ सकता था। 

वक़्त का पहिया घूमा , महानगरों व बड़े शहरों में एम्यूजमेंट पार्क, शापिंग मॉल्स, मल्टीप्लेक्स, फूड कोर्ट के आगमन से वहाँ रहने वाले मध्यम वर्गीय समाज में इन मेलों का आकर्षण कम हो गया। गाँवों और कस्बों से युवाओं के पलायन से मेले की रौनक घटी। पर क्या इस वज़ह से कस्बों और गाँवों में भी मेलों के प्रति उदासीनता बढ़ी है? आइए इस प्रश्न का जवाब देने के लिए आज आपको ले चलते हैं उत्तर बिहार में नवंबर के महिने में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में जिसकी ख्याति एक समय पूरे एशिया में थी। 

मेला गए और महाकाल बाबू का खेला नहीं देखा तो क्या देखा !

बिहार की राजधानी पटना से मात्र पच्चीस किमी दूर लगने वाले सोनपुर के इस मेले को हरिहर क्षेत्र का मेला भी कहा जाता है और एशिया में इसकी ख्याति मवेशियों के सबसे बड़े मेले के रूप में की जाती है। मेले में मेरा जाना अकस्मात ही हुआ था। नवंबर के महिने में उत्तर बिहार में एक शादी के समारोह में शिरक़त कर वापस पटना लौट रहा था कि रास्ते में याद आया कि हमलोग जिस मार्ग से जा रहे हैं उसमें सोनपुर भी पड़ेगा। पर मैं जिस समय मेले में पहुँचा  उस वक़्त एक महिने चलने वाला मेला अपने अंतिम चरण में था और इसी वज़ह से हाथियों, घोड़ों, पक्षियों और अन्य मवेशियों के क्रय विक्रय के लिए मशहूर इस मेले का मुख्य आकर्षण देखने से वंचित रह गया। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि विगत कुछ सालों से मवेशियों के व्यापार में यहाँ कमी आती गई है और अभी तो सारे मवेशी मेला स्थल से जा चुके हैं।

 मेले में भीड़ ना हो तो वो पुरानी फिल्मों में भाई भाई के बिछड़ने की कहानियाँ झूठी ना पड़ जाएँ :)

ये सुनकर मन में मायूसी तो छाई पर मेले में जा रही भीड़ को देख के ये भी लगा कि चलो सजे धजे मवेशियों को नहीं देखा पर यहाँ आ गए हैं तो हरिहर नाथ के मंदिर और इस कस्बाई मेले की रंगत तो देख लें।