शुक्रवार, 29 मई 2015

यादें सिक्किम की चोपटा से लाचुंग और फिर यूमथांग घाटी तक का सफ़र Yumthang Valley

गुरुडांगमार (Gurudongmaar) से वापस अब हमें लाचुंग की ओर लौटना था । सुबह से 70 कि.मी.की यात्रा कर ही चुके थे । अब 120 कि.मी की दुर्गम यात्रा के बारे में सोचकर ही मन में थकावट हो रही थी। इस पूरी सिक्किम यात्रा में दोपहर के बाद शायद ही कही धूप के दर्शन हुये थे। हवा ने फिर जोर पकड़ लिया था। सामने दिख रहे एक पर्वत पर बारिश के बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था ।



वापसी में हम थान्गू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिये रुके । दो विशाल पर्वतों के बीच की इस घाटी में इक पतली नदी बहती है जो जाड़ों के दिनों में पूरी जम जाती है ।



लाचेन पहुँचते पहुँचते बारिश शुरू हो चुकी थी । हमारे ट्रैवल एजेन्ट का इरादा लाचेन में भोजन करा के तुरंत लाचुंग ले जाने का था । पर बिना हाथ पैर सीधा किये कोई आगे जाने को तत्पर ना था । नतीजन 3 बजे के बजाए 4.30 में हम लाचेन से निकले । जैसे जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी । गजब का नजारा था...थोड़ी‍-थोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से टकराती बारिश की मोटी मोटी बूँदे, सड़क की काली लकीर की अगल बगल चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली... सफर के कुछ अदभुत दृश्यों में से ये भी एक था। 

चुन्गथांग करीब 6 बजे तक पहुँच चुके थे। यही से लाचुंग के लिये रास्ता कटता है। चुंगथांग से लाचुंग का सफर डरे सहमे बीता। पूरा रास्ता चढ़ाई ही चढ़ाई थी। एक ओर बढ़ता हुआ अँधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से पैदा हुई सफेद धुंध ! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक 60-70 कि.मी प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हांक रहा था । अब वो कितना भी चुस्त कयूँ ना हो रास्ते का हर एक यू ‍टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा रहा था । निगाहें मील के हर एक बीतते पत्थर पर अटकी पड़ीं थी....आतुरता से इस बात की प्रतीक्षा करते हुये कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य की संख्या दिखाई दे जाये ।



बुधवार, 20 मई 2015

चलिए 17800 फीट ऊँचाई पर स्थित गुरुडोंगमर झील तक.. Gurudangmar Lake, North Sikkim

गंगटोक से चुन्गथांग तक के सफ़र से आज आगे बढ़ते हुए आपको लिए चलते हैं हिमालय पर्वतमाला में स्थित सबसे ऊँची झीलों मे से एक गुरुडांगमार तक की रोमांचकारी यात्रा पर।
Gurudongmar Lake
चुन्गथांग की हसीन वादियों और चाय की चुस्कियों के साथ सफर की थकान जाती रही। शाम ढ़लने लगी थी और मौसम का मिज़ाज भी कुछ बदलता सा दिख रहा था। यहाँ से हम शीघ्र ही लाचेन के लिये निकल पड़े जो कि हमारा अगला रात्रि पड़ाव था। लाचेन तक के रास्ते में रिहाइशी इलाके कम ही दिखे । रास्ता सुनसान था, बीच-बीच में एक आध गाड़ियों की आवाजाही हमें ये विश्वास दिला जाती थी कि सही मार्ग पर ही जा रहे हैं । लाचेन के करीब 10 किमी पहले मौसम बदल चुका था । लाचेन घाटी (Lachen Valley) पूरी तरह गाढ़ी सफेद धुंध की गिरफ्त में थी और वाहन की खिड़की से आती हल्की फुहारें मन को शीतल कर रहीं थीं।

6 बजने से कुछ समय पहले हम लगभग 9000 फीट ऊँचाई पर स्थित इस गांव में प्रवेश कर चुके थे !पर हम तो मन ही मन रोमांचित हो रहे थे उस अगली सुबह के इंतजार में जो शायद हमें उस नीले आकाश के और पास ले जा सके !

Early Morning in Lachen


लाचेन (Lachen) की वो रात हमने एक छोटे से लॉज में गुजारी । रात्रि भोज के समय हमारे ट्रैवल एजेन्ट ने सूचना दी (या यूँ कहें कि बम फोड़ा )कि सुबह 5.30 बजे तक हमें निकल जाना है । अब उसे किस मुँह से बताते कि यहाँ तो 9 बजे कार्यालय पहुँचने में भी हमें कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। सो 10 बजते ही सब रजाई में घुस लिये। अब इस नयी जगह और कंपकंपाने वाली ठंड में जैसे तैसे थोड़ी नींद पूरी की और सुबह 6 बजे तक हम सब इस सफर की कठिनतम यात्रा पर निकल पड़े।

शनिवार, 9 मई 2015

गंगटोक से उत्तरी सिक्किम का वो सफ़र (Gangtok to North Sikkim )

गर्मियाँ अपने पूरे शबाब पर हैं । आखिर क्यूँ ना हों, मई का महिना जो ठहरा । अगर ऐसे में भी सूर्य देव अपना रौद्र रूप हम सबको ना दिखा पायें तो फिर लोग उन्हें देवताओं की श्रेणी से ही हटा दें :)। अब आपके शहर की गर्मी तो मैं कम कर नहीं सकता, कम से कम इस चिट्ठे पर ही ले चलता हूँ एक ऐसी जगह जहाँ तमाम ऊनी कपड़े भी हमारी ठंड से कपकपीं कम करने में पूर्णतः असमर्थ थे।

Orchids of Sikkim

बात कुछ साल पहले अप्रैल की है जब हमारा कुनबा रांची से रवाना हुआ । अगली दोपहर हम न्यू जलपाईगुड़ी पहुँचे । हमारा पहला पड़ाव गंगतोक था जो कि सड़क मार्ग से सिलीगुड़ी से 4 घंटे की दूरी पर है । सिलीगुड़ी से ३० किलोमीटर दूर चलते ही सड़क के दोनों ओर का परिदृश्य बदलने लगता है पहले आती है हरे भरे वृक्षों की कतारें जिनके खत्म होते ही ऊपर की चढ़ाई शुरू हो जाती है। 

सोमवार, 4 मई 2015

यादें नेपाल की : बेतिया से काठमांडू तक की वो जीप यात्रा !

काठमांडू गए करीब पच्चीस वर्ष बीत चुके हैं। पिछले हफ्ते आए भूकंप ने मीडिया के माध्यम से इस भयावह त्रासदी की जो तसवीरें दिखायीं वो दिल को दहला गयीं। कई साथी जो हाल ही में वहाँ गए थे उन्हें वहाँ की हालत देखकर गहरा आघात लगा। दरअसल जब हम किसी जगह जाते हैं तो वहाँ बितायी सुखद स्मृतियाँ हमें वहाँ की प्रकृति, धरोहरों और लोगों से जोड़ देती हैं। उस जगह बिताए उन प्यारे लमहों को जब हम  टूटते और बिखरते देखते हैं तब हमारा हृदय व्यथित हो जाता है। ठीक ऐसा ही अनुभव मुझे उत्तर सिक्किम में चार साल पहले आए भूकंप के पहले भी हुआ था क्यूँकि उसके ठीक कुछ साल पहले मैं मंगन बाजार, लाचेन और लाचुंग की गलियों से गुजरा था, वहाँ के प्यारे, कर्मठ लोगों से मिला था।



आज पता नहीं लोग नेपाल जाने को विदेश यात्रा मानते भी हैं या नहीं पर बिहार में रहने वालों के लिए तब नेपाल जाना भाग्य की उस रेखा की आधारशिला रख देना हुआ करता था जो परदेश जाने के मार्ग खोलती है। पटना का हवाई अड्डा तब भी इसी वज़ह से अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा कहलाने का दम भरता था। वैसे आज भी एयर इंडिया और जेट की विमानसेवाएँ पटना से काठमांडू की उड़ान भरती हैं पर मुझे अच्छी तरह याद है कि हवाई अड्डे की छत पर जाकर रॉयल नेपाल एयरलाइंस के रंग बिरंगे वायुयान को उड़ता देखने के लिए मैंने कई बार पिताजी की जेब ढीली की थी।

अस्सी के दशक में जो भी नाते रिश्तेदार नेपाल जाते उनसे दो तीन सामान लाने का अनुरोध करना बिहार में रहने वालों के रिवाज़ में ही शामिल हो गया था। जानते हैं ना वो कौन सी वस्तुएँ थी? चलिए मैं ही बता देता हूँ टेपरिकार्डर, कैमरा और इमरजेंसी लाइट। उत्तर पूर्वी बिहार से नेपाल का शहर फॉरबिसगंज और उत्तर पश्चिमी बिहार से नेपाल के वीरगंज में तब हमेशा ऐसी खरीददारी आम हुआ करती थी। मुझे सबसे पहले नेपाल जाने का मौका तब मिला जब पिताजी की पोस्टिंग बेतिया में हुई और हम ऐसी ही एक खरीददारी के लिए वीरगंज तक गए। सीमा पर ज्यादा रोक टोक ना होना और सरहद के दूसरी ओर हिंदी भाषियों के प्रचुर मात्रा में होने की वज़ह से तब ये भान ही नहीं हो पाता था कि हम किसी दूसरे देश में हैं।

पर 1991 में बेतिया से सड़क मार्ग से काठमांडू जाने का कार्यक्रम बना था। अभी का तो पता नहीं पर तब बीरगंज से काठमांडू जाने के दो रास्ते हुआ करते थे । एक जो नदी के किनारे किनारे घाटी से होकर जाता था और दूसरा घुमावदार पहाड़ी मार्ग से। जब हम उस दोराहे पर पहुँचे तो हमने देखा कि जहाँ पहाड़ी मार्ग से काठमांडू की दूरी सौ से कुछ ही ज्यादा किमी दिख रही हैं वहीं दूसरी ओर घाटी वाला रास्ता उससे करीब दुगना लंबा है। हमारे समूह ने सोचा कि छोटे रास्ते से जाने से समय कम लगेगा और ऊँचाई से नयनाभिराम दृश्य दिखेंगे सो अलग। माउंट एवरेस्ट को देख पाने की ललक भी अंदर ही अंदर स्कूली मन में कुलाँचे मार रही थी।। ख़ैर एवरेस्ट तो उस रास्ते से नहीं दिखा पर तीखी चढ़ाई चढ़ने की वज़ह से हमारी महिंद्रा की जीप का बाजा बज गया । थोड़ी थोड़ी दूर में इतनी गर्म हो जाती कि उसे अगल बगल से खोज कर पानी पिलाने की आवश्यकता पड़ जाती।

नतीजा ये हुआ कि सौ किमी से थोड़ी ज्यादा दूरी तय करने में हमें छः घंटे से ज्यादा वक़्त लग गया। पहाड़ की ऊँचाइयों से हम अक्टूबर के महीने में जब काठमांडू घाटी में उतरने लगे तो अँधेरा हो चला था। रात जिस होटल में बितानी थी वहाँ रूम की कमी हो गई। पिताजी के साथ मुझे भी तब ज़मीन पर बेड बिछाकर सोना पड़ा। रात में माँ ने कहा कि पलंग हिला रहे हो क्या? पर हम लोग माँ की बात को अनसुना कर चुपचाप सोते रहे। सुबह उठे तो पता चला कि भारत में उत्तरकाशी में उसी रात जबरदस्त भूकंप आया था जिसके हल्के झटके नेपाल में भी महसूस किए गए थे। सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त वो केंद्र नेपाल होता तो शायद हम भी वहीं कहीं समा गए होते।

दरबार स्कवायर तो मैं तब नहीं गया था पर पशुपतिनाथ मंदिर और बौद्ध स्तूप की  रील वाले कैमरे से खींची तसवीरें आज भी घर में पड़े पुराने एलबम की शोभा बढ़ा रही हैं। एक मज़ेदार वाक़या ये जरूर हुआ था कि जब हम काठमाडू की चौड़ी सड़कों पर रास्ता ढूँढ रहे थे तब गोरखा ने रास्ता तो राइट बताया पर हाथ बाँया वाला दिखाया था। हम लोग अंदाज से आगे बढ़ते हुए इस बात पर काफी हँसे थे। तब की उस नेपाल यात्रा में मेरा सबसे यादगार क्षण काठमांडू में नहीं बल्कि पोखरा में बीता था जहाँ हमें सारंगकोट से माउंट फिशटेल के अद्भुत दर्शन हुए थे

नेपाल के लोगों के लिए ये कठिन समय है। वहाँ के लोगों की ज़िंदगी में जो भूचाल आया है उससे उबरने में उन्हें वक़्त लगेगा। भारत और विश्व के अन्य देश आज तन मन धन से नेपाल के साथ खड़े हैं और उनकी ये एकजुटता हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश को जल्द ही अपने पैरों पर फिर से खड़ा कर देगी ऐसी उम्मीद है।