रविवार, 21 अगस्त 2016

टोरंटो की वैश्विक संस्कृति : सपनों की रानी से .... डोला रे डोला तक Multicultural City of Toronto, Canada

टोरंटो के होटल रामदा प्लाजा की वो सुबह बड़ी प्यारी थी। धूप में हल्की सी ठसक थी जिससे बाहर का तापमान बीस से ऊपर चला गया था। हवा भी धीमी रफ्तार से मंद मंद बह रही थी। वापसी की उड़ान भरने के पहले जो चार पाँच घंटे का समय शेष था उसमें इस शहर को कदमों से नापने का अनुकूल वातावरण था।

टोरंटो का मुख्य केंद्र इटन सेंटर

सुबह नौ बजे जब हम होटल के रेस्ट्रां में पहुँचे तो वो खाली पड़ा था। हमें देख कर स्थूल काया और मध्यम ऊँचाई वाला एक वेटर हमारी ओर लपका और बड़ी गर्मजोशी से उसने हमारा अभिवादन किया। उसकी छोटी छोटी आँखों से ये तो स्पष्ट था कि वो एशियाई मूल का है पर चीन, वियतनाम, कोरिया, थाईलैंड, फिलीपींस जैसे दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में वो किस देश से ताल्लुक रखता होगा ये क़यास लगाने लायक महारत हमारे समूह में किसी को नहीं थी।

इससे पहले कि हम उसे बताते कि नाश्ते में क्या लेना है वो पहले ही  उत्साह से पूछ बैठा कि क्या आप भारत से आये हैं ? हमारे हाँ कहते ही वो कहने लगा कि मैं समझ गया कि आप को क्या चाहिए। हम एक क्षण तो चौंके पर जिस तत्परता से उसने हमारी टेबुल पर फल, दूध, जूस, बटर टोस्ट,आलू फ्राई परोसनी शुरु की उससे हम समझ गए कि आज हम सही शख़्स की मेजबानी में हैं।

नाश्ता करते समय तक उसने हमें नहीं टोंका। पर जब हम चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे वो फिर हमारे पास आया और पूछने लगा कि क्या आप सबने राजेश खन्ना की फिल्में देखी हैं? मुझसे नहीं रहा गया और मैं पूछ बैठा कि आप कहाँ से हो? वो बताने लगा कि वो बर्मा से है और अपने कॉलेज के दिनों से राजेश खन्ना का बहुत बड़ा फैन रहा है। उसने आराधना का जिक्र करते हुए मेरे सपनों की रानी.... गुनगुना कर  राजेश खन्ना के प्रति अपने प्रेम का इज़हार किया। मैंने उसे बड़े भारी मन से बताया कि वो तो कुछ साल पहले गुजर गए पर जब मैं उससे ये कह रहा था मेरे दिल में उनकी कालजयी फिल्म आनंद का वो संवाद गूँज रहा था . आनंद मरा नहीं.. आनंद मरते नहीं।

मुझे वो व्यक्ति बहुत दिलचस्प लगा इसलिए मैंनें उसकी बीती हुई ज़िदगी के बारे में पूछना शुरु किया। पता चला कि वो लगभग तीन दशक पहले रोज़गार की खोज में कनाडा पहुँचा था। कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई थी तो यहाँ होटल में बर्तन साफ करने की नौकरी मिली। धीरे धीरे उसने तरह तरह के पकवान बनाना सीखा, अंग्रेजी में प्रवीणता हासिल की और छोटे मोटे होटल बदलते हुए रामदा आ पहुँचा। पिछले कुछ सालों से वो यहीं है। एक बेटा है तो वो इंजीनियरिंग कर नार्वे में नौकरी कर रहा है। पत्नी भी नौकरी कर रही है ।
 

अपनी कथा कहते कहते वो भावुक हो गया और कहने लगा मैंने जहाँ से शुरुआत की थी उस हिसाब से मैंने वो सब कुछ हासिल कर लिया जिस आशा में मैं कनाडा आया था  टोरंटो में मेरा अपना घर है, बच्चे नौकरी कर रहे हैं, बुढ़ापे के लिए अच्छी खासी बचत कर ली है पर मेरा मन करता है अपने साथियों के लिए कुछ करूँ जो म्यानमार में अभी भी गरीबी और आभाव की ज़िदगी जी रहे हैं। पत्नी कहती है तुम वापस क्यूँ जाना चाहते हो? मैं जानता हूँ वो नहीं समझेगी पर मैं एक दिन निकल जाऊँगा उसे बिना बताए अपने देश में, अपने लोगों के पास..

उसकी आँखें उस स्वप्न पे अटकी थीं और उनकी स्वीकारोक्ति के लिए ही शायद उसने हमसे अपने दिल का दर्द  बाँटा था। हमने उसे बताया कि भारत के बड़े शहरों में तो आजकल विश्व के कई देशों के व्यंजनों का स्वाद चखने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। आप म्यानमार में भी कुछ वैसा ही करो। वो मुस्कुराते हुए बोला, मैंने भी वही सोचा है। आप सब तो भारतीय हैं, समझ सकते हैं। भारत की ही तरह मेरे देश में कोई नया व्यापार शुरु करने से पहले जेबें भरने पड़ती हैं। अब मुस्कुराने की बारी हमारी थी।

चलते चलते मैंने उससे यही कहा कि मित्रों के साथ मिलकर  अनुभव के सहारे अपने वतन में काम करने की सोच बहुत अच्छी है। आपको अपने देश जरूर जाना चाहिए ये देखने कि वहाँ  आप का काम सँवर सकता है या नहीं। पर एक बार काम की नींव मजबूत हो जाए तो अपनी पत्नी को भी आप आश्वस्त कर सकते हैं स्वदेश लौटने के लिए। मुझे पता नहीं कि वो अपने देश जा पाया या नहीं पर ऐसे जीवट इंसान मन में अमिट छाप छोड़ जाते हैं।


टोरंटो की डबलडेकर बस
नाश्ता कर मैं शहर के मुख्य केंद्र इटन सेन्टर की तरफ चल पड़ा। यूरोपीय शहरों की तरह टोरंटो में भी Hop On Hop Off बसों की सुविधा है। यहाँ आप 35 US डॉलर में पूरे शहर का चक्कर लगा सकते हैं। अगर रास्ते में कोई जगह आपको पसंद आ गई तो वहीं उतर जाइए और फिर जब मर्जी इस डबल डेकर बस में वापस चढ़ जाइए। अपने टिकट का प्रयोग आपको एक दिन नहीं बल्कि तीन दिन इन बसों में चढ़ने की इजाज़त देता है। अगर आप के पास समय कम है तो यहाँ के सिटी पास का इस्तेमाल कर यहाँ के मुख्य आकर्षणों का बिना लंबी लााइन में लगे आप आनंद उठा सकते हैं।

योंगे स्ट्रीट Yonge Street, Toronto
टोरंटो में छुट्टी का दिन होने के बावजूद रास्तों पर ज्यादा गहमागहमी नहीं थी। इसकी एक वजह ये भी थी कि बाजार अभी खुलने शुरु हुए थे। पंद्रह बीस मिनट की चहलकदमी के बाद हम इटन सेन्टर के सामने थे। ये सेंटर   अपने में एक डिपार्टमेंटल स्टोर के अभूतपूर्व उत्थान और फिर पतन की कहानी समेटे हुए है।

1869 ई में जब टिमोथी इटन ने इसकी स्थापना की थी तो शायद ये नहीं सोचा होगा कि एक समय उनके उत्तराधिकारी डिपार्टमेंटल स्टोर को ब्रिटिश उपनिवेश के सबसे बड़े रिटेलर की उपाधि दे पाएँगे। अपना ये रुतबा हासिल करने के लिए इस डिपार्टमेंटल स्टोर ने  बहुत सारे ऐसे काम किये जो  उस ज़माने में  आम जनता के लिए अनूठे थे...  मसलन रात में स्टोर में बिजली का प्रयोग, पहली बार किसी स्टोर से संपर्क के लिए टेलीफोन का होना, कई तल्लों में बनी दुकानें, दुकान के अंदर लिफ्ट की व्यवस्था और अपने सारे सामान के लिए कैटलॉग। टोरंटो से बढ़ते बढ़ते इटन स्टोर कनाडा के सारे मुख्य शहरों में फैल गया। एक समय तो ऐसा आया कि लोग मजाक मजाक में कहने लगे कि कनाडा के प्रधानमंत्री के बाद वहाँ के लोग जिस शख़्स को जानते हैं वो हैं टिमोथी इटन।

इटन सेंटर का केंद्रीय हॉल
सत्तर के दशक के बाद इटन परिवार के उत्तराधिकारियों ने कुछ ऐसे व्यावसायिक निर्णय लिए जो बाजार की बढ़ती प्रतिस्पर्धा में गलत साबित हुए। नब्बे के दशक में इटन का साम्राज्य सिकुड़ने लगा और दशक के आखिर  में ये कंपनी कर्जे में डूब दिवालिया घोषित की गई। आज इस पूरे बाजार में इटन नाम के आलावा कुछ भी मूल कंपनी का नहीं रह गया है।

दुकानों के अंदर घुसने की तो हमारी हैसियत ही नहीं थी पर इटन सेंटर के लंबे भव्य हॉल की रौनक को बाहर से जरूर देखी। हिम्मत करके एक एप्पल कंप्यूटर स्टोर  में घुसे तो देखा कि आइ फोन भारतीय मूल्यों के हिसाब से भी सस्ते दामों में मिल रहा है। पर बाद में पता चला कि ये योजना सिर्फ कनाडा के लोगों के लिए ही है  और ये भारी छूट वहाँ की किसी टेलीकॉम सेवा की ओर से प्रायोजित है। पूरा अहाता देखने के बाद बाहर निकले तो सड़कों पर भीड़ बढ़ चुकी थी। कुछ जाने पहचाने संगीत की स्वरलहरी सुनकर हमारे कदम उस दिशा में मुड़ गए।

इटन सेंटर

सबसे पहले कॉलेज के युवकों को सड़क के किनारे ट्रम्पेट परिवार के वाद्यों को बजाते देखा। इन वाद्यों का पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत व जाज़ में अच्छा खासा इस्तेमाल किया जाता है। जैसा नाम वैसा काम की कहावत को चरितार्थ करते हुए इन बच्चों ने अपने बैंड का नाम The Sidewalk Crusaders रखा था। वे सड़क पर अपनी कला का प्रदर्शन कर अपनी ट्यूशन फी के लिए पैसे जमा कर रहे थे। पश्चिमी संस्कृतियों में कॉलेज के दिनों से ही आत्मनिर्भर बनने की सीख दी जाती है इसलिए युवा इस दौरान पार्ट टाइम छोटी मोटी नौकरी कर पैसे जुटाते हैं।



इस संगीत  को सुन ही रहे थे कि अचानक हिंदी फिल्मी गानों को सुनकर हमारा ध्यान भटका।  गाने की आवाज़ इटन सेंटर के सामने बने स्टेज से आ रही थी। स्टेज के आगे इतनी भीड़ थी कि पता ही नहीं चल रहा था कि हो क्या रहा है। स्टेज के सामने आए तो देखा कि एक अधेड़ कनाडियन जोड़ा भारतीय परिधानों में हिंदी फिल्मी गाने पर ठुमके लगा रहा है। ऐसा तो हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे। भारतीय मूल के लोगों से तो ये अपेक्षित है पर इस बात ने ये दर्शा दिया कि बॉलीवुड का संगीत अब देश और दुनिया की सीमाएँ पार कर रहा है। वैसे इस बार तो रियो ओलंपिक में भी मेक्सिकन जोड़ी ने Synchronised swimming प्रतिस्पर्धा में बॉलीवुड की धुन पर नृत्य किया।




देवदास के मशहूर गीत डोला रे डोला का पूरी तरह आनंद लेते हुए इस जोड़ी ने इस  तरह नृत्य किया कि देख के मन गदगद हो गया। अपनी यात्राओं में वीडियो मैं कम ही लेता हूँ पर यहाँ के माहौल को आप तक पहुँचाने के लिए मैंने ये वीडियो लिया। 200 MB के वीडियो को 20 MB बनाने में इसकी गुणवत्ता असर पड़ा है । फिर भी उन पलों को आप तक पहुँचाने की कोशिश कर रहा हूँ ।



पीछे खड़ी जनता में भारतीय भी थे और उनसे ज्यादा संख्या में थे विश्व के तमाम अन्य देशों के लोग जो दोपहर की धूप में खड़े होकर भारतीय संगीत का आनंद ले रहे थे। टोरंटो मे हमें साथ घुमाने वाला चीनी था और वापस एयरपोर्ट छोड़ने वाला श्रीलंका का। सोविनियर की दुकान को चलाने वाली महिला जापानी थी और होटल की परिचारिका अफ्रीकी। इसके आलावा इतने कम दिनों में हमें रूस, यूक्रेन, इटली के लोग भी मिले। सब मिल जुल कर एक साथ काम करते हुए।

इस आलेख की पिछली कड़ी में मैंने आपसे कहा था कि कनाडा के इस शहर की सबसे बड़ी विशेषता यहाँ की सर्वदेशीय संस्कृति है जिसे हमने कुछ ही दिनों में करीब से महसूस किया। भले ही हमारी भाषाएँ अलग हों, खान पान और पहनावे के तरीके भिन्न हों पर जब आप अलग अलग देशों के लोगों से मिलते जुलते हैं तो समझ आता है कि उनकी चिंताएँ के कारण, उनकी खुशियों की वज़हें हमसे अलग नहीं हैं। 

टोरंटो का हवाई अड्डा
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12 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे तो ये भी लगता है कि बॉलीवुड ने हमें बहुत दूर तक लोगों से बांधा है। अपने ही देश में अपनी हिंदी को गैर—हिंदी इलाकों में पहचान दिलायी है और विदेशों में अभी राजकपूर तो कभी राजेश खन्ना के बहाने अपार प्यार भी दिलाया है

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    1. सहमत हूँ आपसे अलका। राज कपूर की आवारा की लोकप्रियता के किस्से तो पुराने सोवियत संघ मे आम थे। अमिताभ व राजकपूर मिश्र में भी काफी लोकप्रिय रहे। पर आजकल का संगीत भी विदेशियों को रुच रहा है तभी तो मेक्सिको वाले उस पर पानी में ठुमके लगा रहे हैं और कनाडा वाले स्टेज पर। ख़ैर मूल बात यही कि ऐसे शहर ना केवल भारतीय बल्कि विश्व की तमाम संस्कृतियों को खुले मन से आत्मसात कर रहे हैं जो कि काबिलेतारीफ़ है।

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  2. बहुत सुंदर वर्णन 👌👌👌

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    1. पोस्ट आपको पसंद आइ जानकर प्रसन्नता हुई।

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  3. Mujhe bada shauk hai duniya ko pairo se nappyu. Aap k blog ki niyamit paathuk hun.

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    1. जानकर खुशी हुई। दुनिया बहुत बड़ी है और हमारे पास साधन सीमित पर जहाँ मौका मिले पास या दूर उस मौके का इस्तेमाल करें।

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  4. मनभावन होने के साथ अनेक अनुभवों और जानकारियों से रूबरू कराता है यह वृत्तान्त . बहुत खूब मनीष जी .

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  5. आपने बिन पैसे खर्च किये हमें टोरंटो घुमा दिया। वाह वाह।।

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    1. यात्रा आलेख का मकसद ही है पढ़ने वाले को अपने सफ़र का साझी बना लेना :)

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