शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

साइकिल सवारों का शहर एम्स्टर्डम Amsterdam : Bicycle capital of the world !

एम्स्टर्डम को लोग दुनिया की साइकिल राजधानी के नाम से भी जानते हैं और जैसे ही आप इस शहर में प्रवेश करते हैं आपको शहर की ये पहचान उसके हर गली कूचे से निकलती दिखाई देती है। मुझे अपनी यूरोप यात्रा में यहाँ एक दिन बिताने का मौका मिला और आज मेरी कोशिश होगी कि उन चंद घंटों में ये शहर जिस रूप में मिला उसकी एक झांकी आपके भी दिखाऊँ। 

हर बड़े शहर का एक प्रतीक चिन्ह होता है और एम्स्टर्डम का प्रतीक है Iamsterdam ! शायद ही एम्स्टर्डम में जाने वालों को आपने इस चिन्ह के साथ बिना तस्वीर लिए लौटे देखा होगा। पर इस प्रतीक की पूर्व जानकारी बहुत काम आई और अचानक ही हमारी मुलाकात इससे हो गयी। हुआ यूँ कि दोपहर के आस पास जब हम क्यूकेनहॉफ से एम्स्टर्डम पहुँचे तो बस ने हमें यहाँ के मशहूर राइक्स म्यूजियम के पिछले हिस्से की ओर उतारा। हमारे पास समय म्यूजियम देखने का तो था नहीं तो हम थोड़ा समय गुजारने के लिए इसके अगल बोल डोल ही रहे थे कि सफेद लाल रंग से रँगे दो मीटर ऊँचे इन अक्षरों की झलक दूर से दिखी। फिर तो हमारे कदमों में पंख लग गए और कुछ ही क्षणों में हम इन अक्षरों की छाँव में तस्वीरें खिंचा रहे थे।

एमस्टर्डम का प्रतीक है Iamsterdam
आप सोच रहे होंगे कि आख़िर ये निशान शहर का प्रतीक कैसे बन गया? साल 2005 में एम्स्टर्डम को एक अपनी पहचान देने की मुहिम के तौर पर राइक्स म्यूजियम के पास इसे लगाया गया। इस जुमले की शुरुआत वहाँ के कारोबारियों ने की जिसे वहाँ के नागरिकों ने हाथों हाथ लिया और ये इतना लोकप्रिय हुआ कि इसे शहर का प्रतीक बना दिया गया। आज एम्स्टर्डम में तीन जगहों पर आप इस 23.5 मीटर चौड़े प्रतीक चिन्ह को देख सकते हैं। पहला राइक्स म्यूजियम के सामने, दूसरा एयरपोर्ट के पास और तीसरा कहीं भी आपको दिख सकता है। मतलब शहर में हो रही व्यावसायिक व सांस्केतिक गतिविधियों के हिसाब से इसकी जगह बदलती रहती है। दुनिया के विभिन्न भागों से आए यात्रियों का आदि काल से स्वागत करने वाला इस शहर का ये प्रतीक यही कहना चाहता है कि एम्स्टर्डम हम सबका है।



वैसे इन अक्षरों के साथ exclusive तसवीर खिंचवाना एक टेढ़ी खीर है। किसी भी अक्षर के किनारे, अंदर या यहाँ तक कि कूद फाँद करते हुए इसके ऊपर भी भिन्न भिन्न मुद्राओं में आपको लोग अपनी तसवीर खिंचवाते मिलेंगे। यहाँ पर खड़े होकर लोगों की गतिविधियों को देखते हुए मुझे यही महसूस हुआ कि आप विश्व के चाहे किसी कोने से ताल्लुक रखते हों, कितने भी उम्रदराज़ हों, हम सबके अंदर एक बच्चा मौजूद है।

राइक्स म्यूजियम एमस्टर्डम Rijksmuseum

फ्रांस को यूँ ही यूरोपीय सोच और कला में अग्रणी नहीं माना जाता। अब देखिए ना, जब वहाँ एफिल टॉवर  बना तो लंदन में Giant Wheel के नाम से फेरीज़ व्हील बनी। पेरिस ने अपने सांस्कृतिक दमखम को सहेजने के लिए लूव्रे म्यूजियम बनाया तो अन्य यूरोपीय देशों में भी ये जरूरत महसूस की जाने लगी और हॉलैंड भी इससे अछूता नहीं रहा । सत्रहवीं शताब्दी के आख़िर में हेग में राइक्स म्यूजियम की शुरुआत हुई। वहाँ से इसका स्थानंतरण एमस्टर्डम हुआ और फिर 1885 में ये संग्रहालय इस रूप में आया। इस इमारत की संरचना में गोथिक और यूरोप के पुनर्जागरण कालीन शैलियों का मिश्रण है। ये संग्रहालय डच इतिहास के आठ सौ सालों का विभिन्न रूपों में समेटे है जिसमें यहाँ की चित्रकला व स्थापत्य का विशेष स्थान है।

राइक्सम्यूजियम सामने से

चार साल पहले राइक्स म्यूजियम के सामने के उद्यान को एक नए रूप में सँवारा गया। सुबह से शाम छः बजे तक आप यहाँ लोगों की गहमागहमी देख सकते हैं। यहाँ खुले में ही शिल्पकला का प्रदर्शन किया जाता है जिसे देखने के लिए टिकट भी नहीं लगता।

राइक्सम्यूजियम उद्यान Rijksmuseum's garden


बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

वसंत के रंग फूलों के संग : राजभवन उद्यान राँची Raj Bhawan Gardens, Ranchi

हर साल जनवरी या फरवरी महीने में राँची के राजभवन से जुड़ा उद्यान आम जनता के लिए खोला जाता है। इस बार फरवरी की शुरुआत में जब ये उद्यान खुला तो  मैंने सोचा की जो काम पिछले दो दशकों से रांची में रहते हुए नहीं किया वो इस साल कर लिया जाए । 62 एकड़ में फैले इस परिसर में गुलाब, पिटूनिया, डालिया सहित तमाम वासंती रंग बिरंगे फूलों का जमावड़ा लगा था। फूलों कि इस खुली प्रदर्शनी को देखने के लिए भारी भीड़ भी उमड़ी थी। सेल्फी के इस ज़माने में किसी खूबसूरत फूल के साथ अकेले की मुलाकात के लिए लंबी कतारें लगी पड़ी थीं। 

राजभवन उद्यान राँची  Raj Bhawan Gardens, Ranchi
तो आइए वसंत के इस मौसम में फूलों की इस बगिया को देखें मेरे कैमरे की नज़र से..

राज भवन का एक हिस्सा, ये इमारत 1930 में बनी थी


इस सादगी में भी गजब की सुंदरता है नहीं ?


डालिया का दिल तो बड़ा है ही और रंगत भी एक से एक




मुझे नारंगी से ज्यादा पीले गेंदे रुचते हैं और आपको ?

जाने रे जाने मन जाने है, रंग गुलाबी है प्रीत रो


ये रंग मेरा पसंदीदा है !


पिटूनिया में रंग संयोजन कमाल का है !







मैं भी गुलाबी, तू है गुलाबी, दिन भी गुलाबी, गुलाबी ये पहर

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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

एक सुबह बांद्रा की गलियों में ! Bandra Street Art & Bollywood Art Project

अगर पिछले महीने कच्छ की यात्रा पर नहीं गया होता तो शायद आपको आज बांद्रा ना ले जा रहा होता। दरअसल राँची से मुंबई की हवाई यात्रा के बाद जब वहाँ से कच्छ के लिए रेल का टिकट लेने लगा तो देखा कि कच्छ के लिए सभी रेलगाड़ियाँ  बांद्रा टर्मिनस से ही रवाना होती हैं।  

पेट्रोल को मारो गोली रख लो चप्पलों की जोड़ी :)
मुंबई पहले भी कई बार जा चुका हूँ और पुरानी यादों में जूहू और बांद्रा का इलाका फिल्मी कलाकारों का घोसला माना जाता था। पर हाल फिलहाल में बांद्रा , बांद्रा वर्ली सी लिंक के बनने से भी बराबर चर्चा में आता रहा था। पर अपनी आभासी  ज़िंदगी में यात्रा लेखकों की सोहबत में रहते हुए इस जगह के बारे में जो एक नई बात मालूम हुई वो थी चैपल रोड के आसपास दीवारों पर जहाँ तहाँ फैली चित्रकला जिसे पश्चिमी जगत में स्ट्रीट आर्ट भी कहा जाता है। तभी इसे देखने की इच्छा मन में घर कर गयी थी।

चैपल रोड में सबसे पहले दिखनी वाली चित्रकारी थी ये ट्रिपल आप्टिक्स : अब इन त्रिनेत्र की नज़रों से कौन बचेगा?
कच्छ से लौटते वक़त मेरे पास सुबह छः से दस बजे का वक़्त था सो मैंने मन ही मन अपनी एक सुबह बांद्रा की गलियों में देने का निश्चय कर लिया। जाते समय ही क्लोक रूम की स्थिति की जानकारी ले ली थी ताकि साथ का सामान सुबह सुबह ठिकाने लगाने में सुविधा रहे।


तेरह जनवरी की सुबह जब हमारी ट्रेन बांद्रा स्टेशन पर पहुँची तो बाहर घुप्प अँधेरा था। सात बजे जब हल्की हल्की लालिमा क्षितिज पर  उभरी तो मैं अपने मित्र के साथ मुंबई के चैपल रोड की ओर निकला। सूरज से पहले हमें मुंबई की सड़कों से पूर्णिमा के चाँद के दर्शन जरूर हो गए।

बांद्रा टर्मिनस के आस पास के इलाके से गुजरते ये आभास ही नहीं होता कि हम उसी मायानगरी में हैं जहाँ बनी फिल्में अथाह सपनों के जाल बुन हमें लुभाती हैं। ऐसा लगा मानों हम एक कस्बे  से गुज़र रहे हों। छोटे मँझोले घर जिनमें बरसों से रंग रोगन ना हुआ हो। घरों के सामने बेतरतीबी से रखे वाहन और बाजारों के निकट यत्र तत्र सर्वत्र फैली गंदगी।


सुबह की उस बेला में दफ्तर जाने की तैयारी में लोग जुटे थे। कुछ दुकानें खुल गयी थीं। पर माहौल अब भी अलसाया हुआ था और हम थे कि चैपल रोड के किनारे बसे हर घर की दीवारों को घूरते और गलियों में झाँकते गुजर रहे थे। शुरु के पाँच दस मिनटों में हमें इक्का दुक्का ही कलाकृतियाँ नज़र आयीं और तब समझ आया कि इन गली कूचों के अंदर से झाँकते इन कार्टून सदृश चरित्रों को देख पाना इतना आसान नहीं है।


अब दीवार पर बनी हरी शर्ट पहने ये जनाब तो नज़र आए पर इनके ठीक बगल में बिल्डिंग की ऊँचाई पर बाल्टी से पानी गिराती महिला का चित्र हमारी नज़रों के दायरे में आया ही नहीं। यहाँ तक कि हम इस इलाके की सबसे विख्यात मधुबाला की पेटिंग के नीचे से निकल गए और हमें पता ही नहीं चला। बाद में उसी सड़क पर लौटते हुए वो मुस्कुराती दिखाई दीं तो उनके खूबसूरत चेहरे से नज़रें हटाना मुश्किल हो गया।


स्ट्रीट आर्ट के केंद्र की तरह बांद्रा का उभरना अपने आप में आश्चर्य से कम नहीं हैं। चैपल रोड में घर की दीवारों पर बने ये चित्र ज्यादातर विदेशी मूल के कलाकारों ने बनाए हैं। ये कलाकार छुट्टियों में भारत आते हैं और इन बेनाम गलियों की इन दीवारों को अपनी कूचियों से रोशन कर देते हैं।



पर एक बात यहाँ आकर स्पष्ट हो जाती है कि जिन घर की दीवारों पर ये चित्रकारी है वहाँ या उसके आस पास के लोग इनसे कोई जुड़ाव नहीं महसूस करते। यही वज़ह है कि यहाँ की अनेक कलाकृतियाँ घर की गाड़ियों के बीच अपना मुँह छुपाती फिरती हैं। कला को कला दीर्घाओं से निकालकर आम जनमानस के बीच ले जाने का विचार तो अनुकरणीय है पर कला का विषय ऐसा हो कि स्थानीय संस्कृति उसे अपनी धरोहर समझे तभी ऐसे प्रयोग पूरी तरह सफल हो सकते हैं।

बांद्रा की अनारकली

चैपल रोड. हिल रोड और फिर बांद्रा बैंडस्टैंड के रास्ते से गुजरते हुए स्ट्रीट आर्ट का जो सबसे रोचक पहलू सामने आया वो था बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट ( BAP)। मुंबई के बाहर सारा देश इसे फिल्मनगरी समझता आँकता आया है। पर अपनी इस छवि को निखारना तो दूर इस शहर ने तो अपनी पहचान को समझने की ढंग से कोशिश ही नहीं की है। तभी तो हरियाणा के सोनीपत से ताल्लुक रखने वाले एक अदने से पेंटर को ये काम अपने जिम्मे लेना पड़ा।

हम्म, कभी इन नज़रों की पूरी पीढ़ी दीवानी हुआ करती थी !

ग्यारहवीं में पढ़ाई छोड़ पुताई के काम में लगे रंजीत दहिया  को स्कूल की दीवार रँगते समय माँ सरस्वती की पेटिंग बनाने का मौका मिला और तभी से उनकी रुचि चित्रकारी में बृढ़ गयी। बाद में उन्होंने चित्रकला की विधिवत पढ़ाई पूरी की और मुंबई में इंटरफेस डिजाइनर बन गए। बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट के तहत शहर की दीवारों को बॉलीवुड के ऐतिहासिक लमहों को क़ैद करने का विचार उन्हें 2013 में आया। तबसे वो अमिताभ, मधुबाला, राजेश खन्ना  व नादिरा जैसे कलाकारों को अपनी कूची से दीवारों पर ढ़ाल चुके हैं।

दादा साहब फालके
बांद्रा रिक्लेमेशन के पास MTNL की इमारत पर मशहूर निर्माता निर्देशक दादा साहब फालके का चित्र BAP का नवीनतम प्रयास है। कहा जाता है कि 125 फीट लंबी और 150 फीट चौड़ी इस पेंटिंग पर तकरीबन चार सौ लीटर का पीला पेंट इस्तेमाल किया गया। अब आप ही बताइए जिसके नाम पर फिल्म उद्योग का इतना बड़ा पुरस्कार हो उसके चित्र को मुंबई के कितने लोग पहचानते थे अब तक ? फिलहाल BAP दिलीप कुमार की तस्वीर पर काम कर रहा है। वहीं का स्टूडियो गुरुदत्त की पेटिंग से गुलज़ार है। जरूरत है कि ऐसे प्रयासों की गति तेज़ करने की।  मुंबई के रईस कलाकारों का फ़र्ज़ बनता है की वो इस मुहिम में अहम भूमिका निभायें ।

दीवार पर टिका दीवार का हीरो
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