शनिवार, 22 दिसंबर 2018

दिस्कित के बौद्ध मठ से हुंडर के ठंडे रेगिस्तान तक... A journey to Diskit and Hundar !

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अपनी लद्दाख यात्रा से जुड़ी पिछली कड़ी में मैंने आपको बताया था कि कैसे खारदोंग ला व श्योक और नुब्रा नदियों का संगम देखते हुए नुब्रा के मुख्यालय दिस्कित में प्रवेश किया। यूँ तो दिस्कित का नाम नुब्रा घाटी के साथ लिया जाता है पर वास्तविकता ये है कि ये गाँव नुब्रा नहीं बल्कि श्योक नदी के किनारे बसा है। पनामिक और सुमूर जैसे गाँव के बगल से बहती हुई नुब्रा नदी दिस्कित के पहले ही श्योक नदी में मिल जाती है।

आज के समय में दिस्कित का सबसे बड़ा पहचान चिन्ह यहाँ स्थित 32 मीटर ऊँची मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा है  जो 2010 में बनकर तैयार हुई थी। लेह से हुंडर जाती सड़क पर कई किलोमीटर पहले से ही आपको भगवान बुद्ध की इस ओजमयी प्रतिमा के दर्शन होने लगते हैं। टेढी मेढ़ी राह कभी तो उनकी छवि को आपसे छुपा लेती है तो कभी अचानक ही सामने ले आती है। लुकाछिपी के इस खेल को खेलते हुए आप जब अनायास ही इसके सामने आ पहुँचते हैं तो इसकी  भव्यता को देख मन ठगा सा रह जाता है ।
दिस्कित के मैत्रेयी बुद्ध
कई बार लोगों को भ्रम हो जाता है कि बुद्ध की ये प्रतिमा  बौद्ध मठ के परिसर में स्थित है। लोग इसे देख के ही आगे हुंडर या तुर्तुक के लिए कूच कर जाते हैं जबकि हक़ीकत ये है कि यहाँ का चौदहवीं शताब्दी में बना प्राचीन बौद्ध मठ इस प्रतिमा की बगल में सटी पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है।

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

पक्षियों के संग हजारीबाग के रंग A birding trip to Charwa Dam Hazaribagh

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राँची से हजारीबाग महज़ दो घंटे का रास्ता है। पिछले तीन दशकों में दर्जनों बार इस शहर से होते हुए गुजरा हूँ पर कभी भी ये शहर मेरी मंजिल नहीं रहा। पिछले हफ्ते हजारीबाग के पक्षी प्रेमी और शिक्षक शिव शंकर जी ने नेचर वॉक के एक कार्यक्रम में आमंत्रित किया और फिर राँची के कुछ अन्य प्रकृति और पक्षी प्रेमियों के साथ मिलकर वहाँ जाने का कार्यक्रम बन गया। 

नवंबर के आख़िरी हफ्ते के रविवार की सुबह सवा पाँच बजे घने अँधियारे में हम तीन पक्षी प्रेमी हजारीबाग की ओर कूच कर चुके थे। राँची में ठंड ने अपनी गुलाबी दस्तक दे दी थी। टोपी और जैकेट में सिकुड़े हम सब अपने शौक़ और कामकाज़ की बातों के बीच हँसी मजाक के तड़कों से वातावरण में गर्माहट घोल रहे थे। मेरे पर्वतारोही मित्र प्रवीण सिंह खेतवाल तो मेरी कई यात्राओं के सहभागी रहे हैं पर डॉ. शेखर शर्मा (जो एक शौकिया फोटोग्राफर भी हैं) से ये हम दोनों की पहली मुलाकात थी।


ओरमाँझी पहुँचते पहुँचते अपनी नींद को त्याग कर सूरज अपनी लाल पोशाक में साथ साथ सफ़र करने को तैयार हो गया था और खुशी की बात ये रही कि उसने पूरे दिन और शाम तक कभी भी बादलों को आस पास फटकने भी नहीं दिया ताकि हमारी छाया चित्रकारी निर्विघ्न चलती रहे।

सवा सात बजे हमारी गाड़ी हजारीबाग में प्रवेश कर चुकी थी। हजारीबाग को झारखंड के एक हरे भरे शहर के रूप में जाना जाता है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है कि कालांतर में कभी ये जगह ढेर सारे बाग बागीचों से भरी पूरी रही होगी और तभी इसे हजार बागों के शहर के नाम से जाना गया होगा। हालांकि कि कुछ अंग्रेज लेखक इस नाम को इस इलाके के प्राचीन गाँव हजारी से भी जोड़ते हैं। ख़ैर सच जो भी हो आज इस शहर में बाग तो गिने चुने ही रह गए हैं पर शहर की चौहद्दी को घेरता एक घना जंगल आज भी है जिसे हजारीबाग राष्ट्रीय उद्यान के रूप में संरक्षित किया गया है। शहर से 18 किमी की दूरी पर वन्य जीव आश्रयणी भी है जहाँ का एक चक्कर मैं आप सबको पहले ही लगवा ही चुका हूँ

शिव शंकर जी वहाँ छात्रों के एक समूह के साथ हमारा पहले से इंतज़ार कर रहे थे। वहाँ पहुँचते ही लगभग आधा दर्जन छोटी बड़ी गाड़ियों में पूरा समूह छड़वा बाँध की ओर चल पड़ा। वैसे तो हज़ारीबाग में पक्षियों को देखने के लिए कई हॉटस्पाट हैं पर उनमें कैनरी हिल और छड़वा बाँध सबसे प्रमुख हैं। छड़वा बाँध अभी साइबेरिया, रूस और मंगोलिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों का गढ़ बना हुआ है इसलिए पक्षियों के अवलोकन के लिए वही बिंदु ज्यादा उपयुक्त समझा गया। पन्द्रह बीस मिनटों में ही बाँध के पास पहुँच चुके थे।

अगीया ( Indian  Bush Lark )


बाँध की ओर हम कुछ ही कदम चले थे कि हमें भारतीय अगीया जिसे अंग्रेजी में इंडियन बुश लार्क कहा जाता है एक छोटे से पौधे के शीर्ष पर आसन जमाए बैठा मिला। सूर्य की दमकती पीली रोशनी के बीच इसके हल्के भूरे छोटे शरीर को देख पाना आसान नहीं था। अगीया एक ऐसा पक्षी है जो सूखे स्थानों में झाड़ियों के आस पास मँडराता है। गौरेया की तरह ये आपको शायद ही कभी तार या शाखाओं पर बैठा मिलेगा।

लार्क समुदाय के पक्षी अपने सर, परों और वक्ष पर के चित्तीदार नमूनों से पहचाने जाते हैं। अगीया की एक खासियत ये भी है कि प्रजनन के समय मादा का ध्यान आकर्षित करने के लिए नर ऊँची उड़ाने भरता है और नीचे पैराशूट की तरह उतरने के पहले पंखों से नर्तन करता दिखता है। इसका गीत भी मधुर होता है। बहरहाल मुझे तो ये चुप्पी साधे और हमारी ओर टकटकी लगाए देखता मिला।

अगीया की तस्वीर खींच ही रहा था कि आगे झुंड में लोगों को शिकारी पक्षी शिकरा दिखाई दिया। मैंने उस पर एक नज़र डाली ही थी कि वो मुँह घुमाकर दूसरी ओर देखने लगा। मैं भी धीरे धीरे उस पेड़ के समीप आ गया पर वो चित्र लेने के लिए एप्वाइंटमेंट देन के मूड में नहीं था, सो मन मार के मुझे आगे बढ़ना पड़ा। 

लंबी पूँछ वाला तिरंगा लहटोरा( Long Tailed Shrike Tricolour) जिसे कहीं कही लटोरा भी कहा जाता है।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

लेह से खारदोंग ला होते हुए दिस्कित तक का सफ़र In Pictures : Route of Leh to Diskit via Khardung La

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लेह से पांगोंग त्सो की यात्रा की तुलना मे लेह से श्योक या नुब्रा घाटी का मार्ग ना केवल छोटा है बल्कि शरीर को भी कम ही परेशान करता है। लेह से हुंडर तक की दूरी सवा सौ किमी की है जबकि पांगोंग जाने में लगभग सवा दो सौ किमी का सफ़र तय करना पड़ता है। इस सफ़र में आप लद्दाख के खारदोंग ला से रूबरू होते हैं जिसका परिचय गलत ही सही पर विश्व के सबसे ऊँचे दर्रे के रूप में कराया जाता था। हालांकि अब ये स्पष्ट है कि इसकी ऊँचाई बोर्ड पर लिखे 18380 फीट ना हो कर मात्र 17582 फीट है जो कि चांग ला के समकक्ष है। स्थानीय भाषा में खारदोंग ला पुकारे जाने वाले इस दर्रे को कई जगह रोमन में खारदुंग ला भी लिखा दिखाई देता है। यहाँ तक कि दर्रे पर ही आप दोनों तरह के बोर्ड देख सकते हैं।


बहरहाल आज की इस पोस्ट में  मेरा इरादा आपको लेह से दिस्कित तक के इस खूबसूरत रास्ते की कुछ झलकियाँ दिखाने का है। चित्रों का सही आनंद लेने के लिए उस पर क्लिक कर उनको अपने बड़े रूप में देखें।
लेह के दो छोरों पर बाँयी ओर दिखता लेह पैलेस और दाहिनी तरफ शांति स्तूप
दरअसल अगर लेह शहर को संपूर्णता से देखना है तो इसकी उत्तर दिशा में खारदोंग ला या खारदुंग ला की सड़क की ओर बढ़ना चाहिए। लेह से खारदुंग ला जाने वाली सड़क तेजी से ऊँचाई की ओर उठती है। इसके हर घुमाव पर आप हरे भरे पेड़ों के बीच बसे लेह शहर को अलग अलग कोणों से देख सकते हैं। सबसे बेहतर कोण वो होता है जब आप एक ही फ्रेम में इसके दो पहचान चिन्हों शांति स्तूप और लेह पैलेस को एक साथ देख पाते हैं।
पर्वत की रंगत को बदलते बादल

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

पैंगांग झील ( पांगोंग त्सो) और वो मजेदार वाकया ! Beauty of Pangong Tso

इस श्रंखला की पिछली कड़ी में मैंने आपको  लेह के ड्रक वाइट लोटस स्कूल से होते हुए पैंगांग त्सो तक के रास्ते की सैर कराई थी। वैसे बोलचाल में पैंगांग के आलावा इस झील को पेंगांग और पांगोंग के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। तिब्बती भाषा में पांगोंग त्सो शब्द का मतलब ऊँचे चारागाह पर स्थित झील होता है। पैंगांग झील करीब 134 किमी लंबी है और इस लंबाई का लगभग पचास पचपन किमी हिस्सा भारत में पड़ता है। पर कोई भी सड़क फिलहाल झील के किनारे किनारे सीमा तक नहीं जाती। घुसपैठ रोकने के लिए सिर्फ सेना के जवान ही इलाक़े में गश्त लगाते हैं।
पैंगांग ( पांगोंग त्सो) में मस्ती का आलम
मैंने सबसे पहली अत्याधिक ऊँचाई पर स्थित झील उत्तरी सिक्कम में देखी थी। 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस एक चौथाई जमी हुई झील को देखना मेरे लिए बेहद रोमांचक क्षण था। ऍसा इसलिए भी था कि तब तक यानि 2006 में इतनी ऊँचाई पर मैं कभी गया नहीं था। दूसरी बात ये थी कि गुरुडोंगमर झील के बारे में पहले से मुझे कुछ खास पता नहीं था, इसीलिए बिल्कुल किसी अपेक्षा के जा पहुँचा था गुरुडोंगमर तक। पर पैगांग त्सो ! क्या उसके लिए यही बात कही जा सकती थी? यहाँ तो सब उल्टा था। हिंदी फिल्मों और नेट पर लोगों ने शायद ही कोई कोण छोड़ा हो इस खूबसूरत झील का। 

झील ने पूछा आसमान से बोलो सबसे नीला कौन ?

फिर भी लद्दाख जाते समय इस झील का आकर्षण मेरे लिए कम नहीं हुआ था। होता भी कैसे? झील के बदलते रंगों को अपनी आँखों से देखने की उत्कंठा जो थी। वैसे भी पैंगांग (पांगोंग) की विशालता इसे बाकी झीलों से अलग कर देती है। गुरुडोंगमर हो या चंद्रताल या फिर इतनी ऊँचाई पर स्थित कोई अन्य झील, पैंगांग के विस्तृत फैलाव के सामने सब की सब बौनी हैं। अब बताइए जहाँ पैंगांग का क्षेत्रफल सात सौ वर्गकिमी है वही गुरुडोंगमर और चंद्रताल दो वर्ग किमी से भी कम के क्षेत्रफल  में सिमटे हुए हैं।

कितना विस्तृत कितना नीला ...है प्रभु तेरी अनूठी लीला

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

पंडाल परिक्रमा दुर्गा पूजा 2018 बकरी बाजार राँची : तीन स्थापत्य शैलियों के मिश्रण से बना मंदिर Best Pandals of Durga Puja Ranchi 2018 Part - V

राँची के तीन सबसे सुंदर पंडालों को दिखाने के बाद पंडाल परिक्रमा की इस आख़िरी कड़ी में आज बारी है बकरी बाजार और शेष उल्लेखनीय पंडालों की। राँची के सबसे बड़े पंडाल होने का गौरव बकरी बाजार के पंडाल को प्राप्त है। हालांकि मैंने अक्सर देखा है कि यहाँ पंडाल बाहर से  जितना भव्य होता है अंदर से उतना कलात्मक नहीं होता।


इस बार यहाँ का पंडाल तीन मंदिरों को मिलाकर बनाया गया था। पहला मंदिर द्रविड़ शैली में गोपुरम के साथ था। जबकि दूसरा और तीसरा मंदिर गोथिक और नागर शैली में बनाया गया था। 


सफेद रंग के पूरे मंदिर को अगर दिन में देखा जाए तो कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ता पर रात में जिस तरह से प्रकाश की सहायता से इसके रंगों को बदला जा रहा था वो वृंदावान के प्रेम मंदिर वाले माहौल तक पहुँचाने के लिए काफी था।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

पंडाल परिक्रमा दुर्गा पूजा 2018 राँची : कैसे उतर आया बांग्ला स्कूल में स्वप्न लोक? Best Pandals of Durga Puja Ranchi 2018 Part - III

ज़रा सोचिए कि अचानक रातों रात आपको स्वप्न लोक में पहुँचा दिया जाए तो वो दुनिया कैसी होगी? आपका जायज़ सा सवाल होगा कि मैं तो यहाँ आपके साथ दुर्गा पूजा के इस पंडाल की झलक लेने आया था। आप मुझे स्वप्न लोक में क्यूँ ले जा रहे हैं। अब क्या बताएँ जब माँ का मंडप ही स्वप्न लोक के रास्ते में हो तो वहाँ जाना ही पड़ेगा ना।   

स्वप्न लोक का द्वार
इस बार इस स्वप्न लोक की रचना हुई थी ओसीसी क्लब द्वारा बांग्ला स्कूल में निर्मित पंडाल में। अब तक राँची के जितने पंडालों की आपको मैंने सैर कराई वो सब इंद्रषुनषी रंगों से सराबोर थे पर इस बार बिना चटख रंगों के खूबसूरती लाने की चुनौती ली थी ओसीसी क्लब के महारथियों ने। हालांकि जितनी उम्मीद थी उतना तो प्रभाव ये पंडाल नहीं छोड़ पाया पर बँधे बँधाए ढर्रे से कुछ अलग करने का उनका ये प्रयास निश्चय ही सराहनीय था।
राजहंसों का जोड़ा

भीड़ से घिरे पंडाल तक सिर्फ नीली दूधिया रौशनी फैली हुई थी। मुख्य द्वार के ऊपर फैली पतली चादर का डिजाइन ऐसा था मानो काली रात में आसमान में तारे टिमटिमा रहे हों। पंडाल के पास राजहंस का एक जोड़ा हमारा स्वागत कर रहा था। हंस को प्रेम से भरे पूरे पवित्र और विवेकी पक्षी के रूप में जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ये एक बार जब अपने साथी को चुन लेता है तो उसी के साथ सारा जीवन बिताता है। हंस के इन्हीं गुणों के कारण उन्हें इस पंडाल का प्रतीक बनाया गया था।
बहती नदी में तैरते फूलों का निरूपण



शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

पंडाल परिक्रमा दुर्गा पूजा 2018 राँची : जहाँ दुर्गा माँ स्थापित हैं दशानन के दरबार में.. Best Pandals of Durga Puja Ranchi 2018 Part - III

इक ज़माना था जब राँची की दुर्गा पूजा का मतलब था बकरी बाजार, रातू रोड, राजस्थान मित्र मंडल, कोकर और सत्य अमर लोक के पंडालों का विचरण करना। पिछले पाँच सालों में ये स्थिति बदली है। राँची रेलवे स्टेशन, बांग्ला स्कूल और बाँधगाड़ी के पंडाल हर साल कुछ अलग करने के लिए जाने जा रहे हैं और रेलवे स्टेशन पर लगने वाला पंडाल इसमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय हो चुका है। आज सब लोग यही पूछते हैं कि रेलवे स्टेशन का पंडाल देखा क्या ? यानि यहाँ  होकर नहीं आए तो आपकी पंडाल यात्रा अधूरी ही रही।

मुखौटों के साथ होने वाले छऊ नृत्य पर आधारित है रेलवे स्टेशन का पंडाल

पंडाल में घुसते ही दिखता है सूर्य का ये मुखौटा
राँची रेलवे स्टेशन के पंडाल की इस लोकप्रियता की वजह उसका हर साल किसी खास प्रसंग या विषयवस्तु को लेकर बनाया जाना है। इस बार पंडाल को झारखंड, बंगाल और उड़ीसा में किए जाने वाले छऊ नृत्य को केंद्र में रखकर बनाया गया था । इस नृत्य के पारम्परिक केंद्र बंगाल का पुरुलिया, झारखंड का सरायकेला और उड़ीसा का  मयूरभंज जिला रहा है  तीनों इलाकों की शैली थोड़ी अलग है पर इस लोकनृत्य के आवश्यक अंगों में वास्तविक या सांकेतिक मुखौटे, कलाबाजियाँ और रामायण महाभारत की कथाओं को कहने का चलन आम है।

छऊ नृत्य में इस्तेमाल होने वाले पारम्परिक मुखौटे

पंडाल का मुख्य द्वार

रावण के दरबार में स्वागत करते कुंभकरण

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

पंडाल परिक्रमा दुर्गा पूजा 2018 राँची : क्यूँ है रातू रोड इस साल का सबसे सुंदर पंडाल Best Pandals of Durga Puja Ranchi 2018 Part - II

पिछले तीन दिनों में राँची के डेढ़ से दो दर्जन मुख्य पंडालों से गुजरना हुआ। हर साल मैं आपको अपने पसंदीदा पंडालों के बारे में उनकी सचित्र झाँकी के साथ बताता रहा हूँ। इस बार शहर के सबसे सुंदर और कलात्मक पंडाल का तमगा मुझे रातू रोड के इस पंडाल को पहनाते हुए कोई झिझक नहीं है। वैसे तो ओसीसी क्लब, रेलवे स्टेशन, बकरी बाजार और बाँधगाड़ी के पंडालों ने भी मुझे आकर्षित किया पर जो नवीनता औेर रचनात्मकता मुझे इस पंडाल में नज़र आई वो बाकियों में इससे कम रही। हाँ ये बता दूँ इसके आलावा मैंने ऊपर जिन पंडालों का जिक्र किया वो मेरी सूची में दूसरे से पाँचवे क्रम में है। पंडाल परिक्रमा के अगले अंक उनको समर्पित रहेंगे पर आज देखिए कि क्यूँ है रातू रोड का ये पंडाल सबसे सुंदर..

झारखंड की कला संस्कृति को दर्शाता रातू रोड का भव्य पंडाल
दुर्गा पूजा का समय राँची में रंगों की छटा बिखरने का समय होता है। अधिकांश पंडाल इतने चटख रंगों में अचानक आँखों के सामने आते हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि हम वास्तविक दुनिया में विचरण कर रहे हैं। माता के दर्शन के साथ सारे लोग इस खूबसूरती को अपनी आँखों और कैमरे में बटोरने के लिए तत्पर होते हैं। रातू रोड के पंडाल में मैंने लोगों को रंगों की इस इस छटा से चमत्कृत होता पाया। कुछ ही देर के लिए ही सही कारीगरों की मेहनत उनके चेहरे पर खुशियों की रेखाएँ खींचने में सफल रही थी।

मुख्य द्वार पर आम जनमानस को छोटी छोटी आकृतियों में झूमते गाते दिखाया गया है।
इस बार इस पंडाल की थीम थी झारखंड की लोककला के प्रदर्शन की। पंडाल के अंदर और बाहर की सजावट इसी थीम को केंद्र में रखकर की गयी थी।
पंडाल का पूर्ण स्वरूप और उसे देखने उमड़ती भीड़

बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

दुर्गा पूजा 2018 : किस रूप में सजाया गया है माँ दुर्गा को राँची के पंडालों में ? Durga Puja 2018, Ranchi, Part I

अक्टूबर आने के साथ ही राँची में उत्सव का माहौल शुरु हो जाता है। शहर में दुर्गा पूजा की धूम षष्ठी से ही शुरु हो गयी है। इस बार पहले से ही आ गई ठंड से लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। कल रात पाँच घंटे राँची की सड़कों पर घूमते हुए लगा कि सारा शहर सज धज के इस आनंद पर्व की मस्ती में सराबोर हो चुका है। यहाँ एक ओर तो भक्ति और उल्लास का संगम है तो दूसरी ओर पंडालों में कारीगरों की उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन भी..

वैसे तो हर पंडाल ने माता को खूबसूरती से सजाया है पर हरमू, दुर्गाबाड़ी और ओसीसी क्लब में माता की छवि पहले दिन देखे गए इन पंडालों में मन को सबसे ज्यादा मोहने वाली लगी।तो चलिए आपको दिखाएँ कि इस बार दुर्गा माँ किस रूप में राँची के पंडालों में अवतरित हुई हैं।

हरमू पंचमंदिर


यहाँ की छोटी सी प्रतिमा एक बार में ही मन को आक्रषित कर लेती है।
दुर्गा बाड़ी

दुर्गा बाड़ी के भक्तिमय वातावरण को देख के लगता है कि बंगाल एकदम से नजदीक आ गया हो। यहाँ माँ दुर्गा की साज सज्जा भी वहीं के जैसी है

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

ड्रक वाइट लोटस स्कूल से होते हुए पैंगांग त्सो तक का सफ़र Three Idiot's School and Pangong Lake Road

इस श्रंखला की पिछली कड़ियों में आपको श्रीनगर से लेह तक ले के आया था। फिर मानसून यात्राओं में कुछ बेहद रोमांचक अनुभव हुए तो सोचा उन्हें ताज़ा ताज़ा ही साझा कर लूँ और फिर लेह से आगे के सफ़र की दास्तान लिखी जाए। 

जैसा मैंने पहले भी बताया था अक्सर लेह पहुँचने के बाद High Altitude Sickness की समस्या के चलते लोग पहले दिन वहाँ जाकर आराम करते हैं। पर चूँकि हम सब श्रीनगर से आए थे इसलिए हमारा शरीर इस ऊँचाई का अभ्यस्त हो चुका था। इसके बावज़ूद मैंने लेह में अगले दिन स्थानीय आकर्षणों को देखने का कार्यक्रम बनाया था। पर मेरे यात्रा संयोजक से चूक ये हो गई कि फोन पर उसने पैंगांग झील के लिए जो दिन नियत किया वो वहाँ के टेंट वाले ने उल्टा सुन लिया। लिहाजा पैंगांग झील (पांगोंग त्सो )  जहाँ मैंने सबसे अंत में जाने का सोचा था वहाँ सबसे पहले जाना पड़ा। 

मी  इडियट  :)
हमारी यात्रा की शुरुआत ड्रक वाइट लोटस स्कूल जिसे लेह में ड्रक पद्मा कारपो स्कूल कह के भी बुलाया जाता है से हुई। 1998 में बना ये स्कूल उसी रास्ते पर है जिससे लेह से पैंगांग त्सो की ओर जाया जाता है। इतिहास गवाह है कि हिंदी या अंग्रेजी फिल्मों ने विश्व के मानचित्र में कई नयी जगहों को एकदम से लोकप्रिय बना दिया। एक समय था जब कश्मीर से शायद ही कोई बॉबी हाउस देखे बिना लौट कर आता था। कोयला की शूटिंग में माधुरी दीक्षित अरुणाचल प्रदेश गयीं तो फिर वहाँ की एक पूरी झील ही माधुरी झील के नाम से जानी जाने लगी। कहो ना प्यार है में ऋतिक रोशन और अमीशा पटेल ने थाइलैंड की माया बे को हर भारतीय की जुबाँ पर ला दिया।

ओमी वैद्य ने थ्री इडियट्स में चतुर रामलिंगम का किरदार ऐसा निभाया कि उनका फिल्म की आख़िर में इस स्कूल और पैंगांग त्सो में अभिनीत दृश्य दर्शको के मन मस्तिष्क में अजर अमर हो गया।

शनिवार, 29 सितंबर 2018

मानसून में पारसनाथ शिखर से मधुबन तक की रोमांचक पदयात्रा Parasnath Temple Trek

झारखंड की मानसूनी यात्रा में मैं आपको पतरातू घाटी, हजारीबाग वन्य प्राणी अभ्यारण्य और तिलैया बाँध तक ले गया था। तिलैया से पारसनाथ के सफ़र की कहानी पिछले दो हफ्तों की लाहौल स्पीति यात्रा की वज़ह से आगे नहीं बढ़ पाई थी। तो चलिए आज सुनाते हैं इस मानसूनी सफ़र के सबसे रोमांचक हिस्से का लेखा जोखा।

चूँकि मेरा बचपन  बिहार में बीता इसलिए बौद्ध और जैनियों के श्रद्धेय स्थलों नालंदा, राजगीर और पावापुरी में कई बार आना जाना होता रहा। जैसा कि सिखाया गया था जब भी इनकी मूर्तियों के सामने से गुजरता तुरंत दोनों हाथ प्रणाम में जुट जाते थे पर पावापुरी में भगवान महावीर को प्रणाम करने की बात आई तो मन में नमन के साथ संकोच सा उभर आया। बालमन में प्रश्न जागा आख़िर भगवान होकर भी इन्होंने कपड़े क्यूँ नहीं पहन रखे? हम घर में यही करें तो सब  शेम शेम कह कर चिढ़ाते हैं। यहाँ ये हैं की अपने इतने विशाल रूप में भी बड़े मज़े में नंगू फंगू  बने खड़े हैं। मुझे याद है कि  मन में चल रहे इसी उहापोह से मुक्ति पाने के लिए मैंने सबके सामने माँ से ये प्रश्न पूछ लिया था और काफी देर तक सब लोगों की हँसी का पात्र बना था।

पारसनाथ की पहाड़ियों पर बिखरे जैन मंदिर और समाधि स्थल
जैन मंदिरों को नजदीक से देखने का पहला अवसर मुझे फिर राजस्थान में मिला। रणकपुर और दिलवाड़ा मंदिरों के अद्भुत स्थापत्य पर अचंभित हुए बिना मैं नहीं रह पाया था। इसीलिए वहाँ के शिल्पों के बारे में विस्तार से लिखने की कोशिश की थी। जैसलमेर के निकट लोद्रवा  के मंदिर की खूबसूरती भी आज तक भुलाए नहीं भूली है पर पारसनाथ घर के बगल में होकर भी मेरा ध्यान आकर्षित नहीं कर पाया था। वैसे तो पटना और राँची के बीच ट्रेन से आते जाते पारसनाथ स्टेशन हर बार आता था। पर वहाँ से दूर पहाड़ियों के आलावा मंदिर सदृश कुछ नज़र के सामने नहीं होता था। राँची से पारसनाथ की यात्रा की बात सिर्फ जैनियों के मुँह से सुनता आया था। सोशल मीडिया के इस ज़माने में एक मित्र का फेसबुक पर एक यात्रा  संस्मरण पढ़ा कि पारसनाथ की यात्रा प्रकृति को पास से महसूस करने का बेहतरीन ज़रिया है।  तभी से मानसून या जाड़े में इस पहाड़ी की चढ़ाई करने की इच्छा मन में घर कर गयी।

दरअसल पारसनाथ की प्राकृतिक ख़ूबसूरती आज भी गैर जैनियों के लिए अनगढ़ पहेली रही हैऔर इसकी वज़ह है शिखर तक पहुँचने की दुर्गमता।। चोटी तक पहुंचने और उतरने की मेहनत हम तीनों मित्रों के लिए भी एक चुनौती पेश कर रही थी। मैं जानता था कि मानसून के मौसम में ये चुनौती और खूबसूरत होने वाली है। इस मानसून के लिए जब मित्रों ने जगह का चुनाव करने का ज़िम्मा मुझे सौंपा तो मैंने झट से पारसनाथ का नाम आगे कर दिया जिसे सबने आसानी से लपक लिया।

तिलैया से जब हम पारसनाथ के मधुवन में पहुँचे तो रात के नौ बज रहे थे। हम बिना किसी आरक्षण के मधुवन पहुंचे थे। आफ सीजन होने की वजह से विश्वास था कि किसी ना किसी धर्मशाला में रहने का ठिकाना मिल ही जाएगा। मधुबन के जिस बिंदु से ऊपर की चढ़ाई शुरु होती है उसके सबसे नजदीक बीस पंथी धर्मशाला नज़र आई। अंदर गाड़ी लगाने की जगह भी थी। वहाँ कमरा भी आसानी से मिल गया। वैसे मधुवन में दो सौ से लेकर प्रतिदिन पन्द्रह सौ रु के हिसाब से कमरे उपलब्ध हैं। आप जब भी यहाँ आएँ बस ये जरूर देख लें कि उस वक़्त जैन मतावलंबियों का कोई वार्षिक अनुष्ठान तो नहीं है। ऐसा जनवरी में मकर संक्रांति और सावन के महीने में एक बार जरूर होता है। रही भोजन की बात तो सारी धर्मशालाओं में बड़े सस्ते दरों पर शाकाहारी जलपान की व्यवस्था है। एक नमूना नीचे हाज़िर है ।

घबराइए नहीं ये मेरे अकेला का नहीं बल्कि दो लोगों का नाश्ता है। 😆
वैसे पारसनाथ सिर्फ धार्मिक कारणों से ही प्रसिद्ध नहीं है। पारसनाथ अविभाजित बिहार की सबसे ऊँची पहाड़ी थी। विभाजन के बाद ये झारखंड की सर्वोच्च पहाड़ी बन गयी है। इसकी ऊँचाई 4480 फीट है। जैनों के चौबीस धर्मगुरुओं जिन्हें जैन शब्दावली में तीर्थंकर कहा जाता है में से बीस को पारसनाथ में ही निर्वाण प्राप्त हुआ था। ये समाधियां आस पास की हर छोटी बड़ी पहाड़ियों पर फैली  हुयी हैं। हर पूज्य स्थल तक पहुंचने के लिए सीमेंट से  रास्ता भी बना है।  यहाँ  की पहाड़ियों पर दो मुख्य मंदिर और चौबीस समाधि स्थल हैं। 

जैन तीर्थंकर समाधि स्थल
पर पारसनाथ की ये यात्रा आसान नहीं है। मधुवन से पारसनाथ के सम्मेद शिखर तीर्थ यानि मुख्य मंदिर करीब नौ किमी की तीखी चढ़ाई पर है। ऊपर आम जन के रुकने की कोई सुविधा नहीं है यानि आपको उसी दिन वापस भी उतरना होगा। इसका मतलब ये है कि एक दिन में कम से कम अठारह किमी की यात्रा करनी पड़ेगी। कम से कम इसलिए कि अलग अलग पहाड़ों पर बसे सारे समाधि स्थलों और मंदिरों का भ्रमण करने पर आप इसमें आसानी से नौ किमी और जोड़ सकते हैं। हमें तो रात तक वापस आ कर राँची लौटना था तो हमने रात में ही निर्णय ले लिया कि चढ़ाई हम यहाँ मौजूद मोटरसाइकल चालकों की सहायता से करेंगे पर वापसी में जल मंदिर जाते हुए करीब दस से बारह किमी उतरने का काम पैदल करेंगे।

ऊपर जाता हुआ जंगल का रास्ता
सुबह साढ़े आठ बजे तक हमारा चार सदस्यों वाला समूह ऊपर जाने के लिए तैयार हो गया। दिन रक्षा बंधन का था तो हमारे हाथों में राखियाँ चमक रही थीं। मोटरसाइकिल से ऊपर जाने के लिए जंगल के रास्ते में नौ की बजाए करीब अठारह किमी लगते हैं।


घने जंगलों के बीच वन विभाग दवारा बनाया गया ये रास्ता बेहद रमणीक हैं। एक तो ये धीरे धीरे ऊपर उठता है और दूसरे कि आप जंगल के बाहरी किनारे से होते हुए पहाड़ का चक्कर लगाते हैं। इसकी वज़ह से आप जंगल के साथ पहाड़ों और बादलों की चहलकदमी को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। वहीँ पैदल मार्ग घने जंगल और कलकल बहते नालों के बीच से गुज़रता है और तीखी चढ़ाई वाला है ।
सुबह धुंध में डूबा पार्श्वनाथ  मंदिर
जैसे जैसे हम ऊपर चलते गए हवा में नमी और ठंडक बढ़ती गयी। कुछ देर बाद हमारी मोटरसाइकिल बादलों के बीच अपना रास्ता बना कर आगे बढ़ रही थी। पारसनाथ का मंदिर बेहद पास आ गया था पर बादलों ने उसके चारों ओर ऐसा शिकंजा कस रखा था कि पचास सौ मीटर की दूरी से भी मंदिर के आकार के बारे में अनुमान लगा पाना कठिन था। मोटरसाइकिल चालकों ने हमें मुख्य मंदिर से थोड़ा नीचे लाकर छोड़ दिया और फ़िर हमारी पैदल यात्रा शुरु हुई।

पारसनाथ मंदिर से जल मंदिर की ओर जाता रास्ता
पारसनाथ मंदिर में सम्मेद शिखर जी के दर्शन के बाद कुछ देर वहीं धुंध छटने का इंतजार करने लगे। जब धुंध नहीं छटी तो आस पास के समाधि स्थलों की राह ली गई। लगभग सारे समाधि स्थल छोटी बड़ी पहाड़ियों के शीर्ष पर हैं। यानि उन तक पहुँचने के लिए आपको चढ़ाई और ढलान दोनों का सामना करना पड़ता है। इसी रास्ते  में आगे जाकर यहाँ के मशहूर जल मंदिर की भी राह निकलती थी ।


शनिवार, 8 सितंबर 2018

मानसूनी झारखंड : सफ़र हजारीबाग वन्य जीव अभ्यारण्य और तिलैया बाँध का Road Trip to Hazaribagh Wildlife Sanctuary and Tilaiya Dam

झारखंड की इस मानसूनी यात्रा का आख़िरी पड़ाव पारसनाथ तो नियत था पर जैसे जैसे हमारी यात्रा का दिन पास आता गया हमारे बीच के गंतव्य बदलते गए। पहले हमारा इरादा नवादा के ककोलत जलप्रपात तक जाने का था, पर जब हमने वहाँ तक जाने के रास्ते को गौर से देखा तो उसे आबादी बहुल पाया। हमें तो एक ऐसा रास्ता चाहिए था जो हमारी आँखों को मानसूनी हरियाली से तृप्त कर दे। इसलिए ककोलत की बजाए हमने पतरातू से हजारीबाग वन्य प्राणी आश्रयणी की राह पकड़ना उचित समझा।

हजारीबाग वन्य प्राणीआश्रयणी का मुख्य द्वार
हमारा ये निर्णय बिल्कुल सही साबित हुआ क्यूँकि हमें जितनी उम्मीद थी उससे कही शांत और ज्यादा हरी भरी राह हमें देखने को मिली। पतरातू से हम लोग बरकाकाना होते हुए रामगढ़ पहुँचे और वहाँ से आगे वापस राँची पटना राजमार्ग को पकड़ लिया। वैसे रेलवे के स्टेशन की वजह से बड़काकाना से तो कई बार गुजरना हुआ है पर इस बार मुझे पहली बार पता चला कि बड़काकाना की तरह एक छोटकाकाना नाम की भी जगह है। रामगध के बाद मांडू होते हुए ग्यारह बजते बजते हम हजारीबाग पहुँच चुके थे। जिस तरह अच्छे मौसम के लिए राँची का नाम लिया जाता है। वैसा ही मौसम हजारीबाग का भी है। झारखंड का नामी विनोबा भावे विश्वविद्यालय भी यहीं स्थित है।


हजारीबाग वन्य प्राणी आश्रयणी हजारीबाग शहर से करीब 18 किमी दूर स्थित है। राँची पटना राजमार्ग पर हजारीबाग से बरही के रास्ते में इसका एक द्वार सड़क के बाँयी ओर दिखता है। वैसे इस आश्रयणी का एक हिस्सा सड़क के दाहिने भी पड़ता है पर वो अपेक्षाकृत विरल और छोटा है।
साल के घने जंगल
हजारीबाग के इस अभ्यारण्य के दो द्वार हैं। जिस रास्ते से हम इसके अंदर घुसे उसे सालफरनी गेट कहा जाता है। इस द्वार से करीब तीस किमी की दूरी बहिमर गेट आता है। पूरा अभ्यारण्य दो सौ वर्ग किमी से थोड़े कम में फैला हुआ है। छोटानागपुर के पठार पर फैले इस वन में मुख्यतः साल और सखुआ के वृक्ष हैं। एक ज़माने में शायद यहाँ बाघ भी पाए जाते थे। पर अब इसके अंदर जीव जंतुओं की संख्या काफी कम हो गयी है।
रामगढ़ के राजा द्वारा बनाया गया टाइगर ट्रैप
कम नहीं हुई है तो यहाँ की हरियाली। करीब एक किमी अंदर बढ़ने पर रामगढ़ के राजा द्वारा बनवाया गया टाइगर ट्रैप दिखा। बारिश की वजह से ट्रैप की ओर जाने वाले रास्ते में जगह जगह काई जम गयी थी। ट्रैप के रूप में वहाँ एक गहरा कुँआ दिखा जिसमें बाघ के उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। पानी पीने के लिए जब वहाँ बाघ आता होगा तो शायद जाल बिछा के उसे पकड़ लिया जाता हो। पर अब तो यहाँ बाघ बिल्कुल भी नहीं रहे। यदा कदा तेंदुए के होने की संभावना भले ही व्यक्त की जाती हो।

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

मानसूनी झारखंड : देखिए खूबसूरती पतरातू घाटी की In pictures : Patratu Valley

राँची को बाहर से आने वाले अक्सर झरनों के शहर के रूप में ही जानते रहे हैं। हुँडरू, दसम, जोन्हा, सीता और हिरणी के जलप्रपात राँची से अलग अलग दिशा में बिखरे हैं जहाँ महज एक से दो घंटे के बीच पहुँचा जा सकता है। एक ज़माना था जब राँची में दोपहर के बाद लगभग हर दिन बारिश हो जाया करती थी और तब इन झरनों में सालों भर यथेष्ट बहाव रहा करता था। आज की तारीख़ में बारिश के मौसम और उसके तीन चार महीनों बाद तक ही इन झरनों की रौनक बनी रहती है।

पतरातू घाटी
यही वजह है कि आजकल झरनों से ज्यादा लोग पतरातू घाटी की हरी भरी वादियों में विचरना  पसंद करते हैं। राँची से पतरातू घाटी की दूरी मात्र पैंतीस किमी है और यहाँ जाने का रास्ता भी बेहद शानदार है। आप तो जानते ही हैं कि हर साल मैं अपने मित्रों के साथ मानसून के मौसम में झारखंड के अंदरुनी इलाकों में सफ़र के लिए एक बार जरूर निकलता हूँ। पिछली बार हमारा गुमला, नेतरहाट और लोध जलप्रपात का सफ़र बेहद खुशगवार बीता था। 

इस बार मानसून का आनंद लेने के लिए हम लोगों ने पारसनाथ की पहाड़ियों को चुना। अगस्त के आख़िरी सप्ताहांत में शनिवार की सुबह जब हम घर से निकले तो हमारा इरादा राँची हजारीबाग रोड से पहले हजारीबाग पहुँचने का था पर घर से दो तीन किमी आगे निकलने के साथ योजना ये बनी कि क्यूँ ना इस खूबसूरत सुबह को पतरातू की हरी भरी वादियों में गुजारा जाए।

राँची से पतरातू जाने वाला रास्ता यहाँ के मानसिक रोगियों के अस्पताल, रिनपास, काँके की बगल से गुजरता है।
पर इससे पहले की आप पतरातू की इस रमणीक घाटी के दृश्यों को देखें ये बता दूँ कि इस घाटी पर जब ये सड़क नहीं बनी थी तो लोग रामगढ़ हो कर पतरातू आते जाते थे। अस्सी के दशक में रूस की मदद से यहाँ एक ताप विद्युत संयंत्र लगाया गया था। इस संयंत्र और रामगढ़ शहर को पानी पहुँचाने के लिए यहाँ एक डैम का भी निर्माण हुआ था जहाँ पहले मैं आपको ले जा चुका हूँ। आज यहाँ जिंदल की भी एक स्टील मिल है।

रास्ते में उपलों के ढेर

यहीं से शुरु होती हैं पतरातू की पिठौरिया घाटी

मानसून के मौसम में यहाँ की हरी भरी वादियों के बीच खाली खाली सड़क के बीच से गुजरने का लुत्फ़ ही और है।

 पतरातू घाटी को चीरती आड़ी तिरछी सर्पीली सड़कें 

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

भारत के आधुनिकतम संग्रहालयों में से एक : पटना का बिहार संग्रहालय Bihar Museum, Patna

बिहार के साथ आधुनिक शब्द का इस्तेमाल थोड़ा अजीब लगा होगा आपको। भारत के पूर्वी राज्यों बिहार, झारखंड और ओड़ीसा का नाम अक्सर यहाँ के आर्थिक पिछड़ेपन के लिए लिया जाता रहा है पर बिहार के पटना  स्थित इस नव निर्मित संग्रहालय को आप देखेंगे तो निष्पक्ष भाव से ये कहना नहीं भूलेंगे कि ना केवल ये बिहार की ऐतिहासिक एवम सांस्कृतिक धरोहर को सँजोने वाला अनुपम संग्रह केंद्र है बल्कि इसकी रूपरेखा इसे वैश्विक स्तर के संग्रहालय कहलाने का हक़ दिलाती है।

बिहार के गौरवशाली ऍतिहासिक अतीत से तो मेरा नाता स्कूल के दिनों से ही जुड़ गया था जो बाद में नालंदा, राजगीर, वैशाली और पावापुरी जैसी जगहों पर जाने के बाद प्रगाढ़ हुआ पर पिछले महीने की अपनी पटना यात्रा मैं मैं जब इस संग्रहालय में गया तो बिहार की कुछ अनजानी सांस्कृतिक विरासत से भी रूबरू होने का मौका मिला।  

संग्रहालय परिसर में लगा सुबोध गुप्ता का शिल्प "यंत्र"
पाँच सौ करोड़ की लागत से पटना के बेली रोड पर बने इस संग्रहालय की नींव अक्टूबर 2013 में रखी गयी और चार साल में एक जापानी कंपनी की देख रेख में इसका निर्माण हुआ। दरअसल इस विश्व स्तरीय संग्रहालय का निर्माण बिहार के वर्तमान मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह का सपना था। अंजनी जी ख़ुद एक संग्रहकर्ता हैं और आप जब संग्रहालय के विभिन्न कक्षों से गुजरते हैं तो लगता है कि किसी ने दिल लगाकर ही इस जगह को बनवाया होगा।

संग्रहालय का मानचित्र

संग्रहालय में प्रवेश के साथ ओरियेंटेशन गैलरी मिलती है जो संक्षेप में ये परिभाषित करती है कि संग्रहालय के विभिन्न हिस्सों में क्या है? साथ ही ये भी समझाने की कोशिश की गयी है कि एक इतिहासकार के पास इतिहास को जानने के लिए क्या क्या मानक प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं? अगर आपके पास समय हो तो यहाँ पर आप एक फिल्म के ज़रिए बिहार में हो रहे ऐतिहासिक अनुसंधान के बारे में भी जान सकते हैं। 

बिहार बौद्ध और जैन धर्म का उद्गम और इनके धर्मगुरुओं की कर्मभूमि रही है। इसलिए आप यहाँ अलग अलग जगहों पर खुदाई में निकली भगवान बुद्ध ,महावीर और तारा की मूर्तियों को देख पाएँगे। इनमें कुछ की कलात्मकता देखते ही बनती है। आडियो गाइड की सुविधा के साथ साथ यहाँ काफी जानकारी आलेखों में भी प्रदर्शित की गयी है।

संग्रहालय इतिहास की तारीखों के आधार पर तीन अलग अलग दीर्घाओं में बाँटा गया है।
ऐतिहासिक वस्तुओं को प्रदर्शित करते यूँ तो देश में कई नामी संग्रहालय हैं, फिर बिहार संग्रहालय में अलग क्या है? अलग है शिल्पों को दिखाने का तरीका। प्रकाश की अद्भुत व्यवस्था जो कलाकृतियों के रूप लावण्य को उभार देती हैं और इस बात की समझ की एक शिल्प भी अपने चारों ओर एक खाली स्थान चाहता है ताकि जो उसपे नज़रे गड़ाए उसकी कलात्मकता  में बिना ध्यान भटके डूब सके ।
बिहार तो बुद्ध की भूमि रही है। ये संग्रहालय उनकी कई ऐतिहासिक मूर्तियों को सँजोए हुए है।

शनिवार, 11 अगस्त 2018

लेह लद्दाख यात्रा : मैग्नेटिक हिल का तिलिस्म और कथा पत्थर साहिब की Road trip from Alchi to Leh

अलची से लेह की दूरी करीब 66 किमी की है पर इस छोटी सी दूरी के बीच लिकिर मठ, सिन्धु ज़ांस्कर संगम, मैग्नेटिक हिल, और गुरुद्वारा पत्थर साहिब जैसे आकर्षण हैं। पर इन सब आकर्षणों पर भारी पड़ता है इस हिस्से के समतल पठारी हिस्सों के बीच से जाने वाला रास्ता। ये रास्ते देखने में भले भले खाली लगें पर गाड़ी से उतरते ही आपको समझ आ जाएगा कि इन इलाकों में यहाँ बहने वाली सनसनाती हवाएँ राज करती हैं। मजाल है कि इनके सामने आप बाहर बिना टोपी लगाए निकल सकें। अगर गलती से ऍसी जुर्रत कर भी ली तो कुछ ही क्षणों में आपके बाल इन्हें सलाम बजाते हुए कुतुब मीनार की तरह खड़े हो जाएँगे।


इतने बड़े निर्जन ठंडे मरुस्थल को जब आपकी गाड़ी हवा को चीरते हुए निकलती है तो ऐसा लगता है कायनात की सारी खूबसूरती आपके कदमों में बिछ गयी है। मन यूँ खुशी से भर उठता है मानो ज़िदगी के सारे ग़म उस पल में गायब हो गए हों। इसी सीधी जाती सड़क के बीचो बीच मैंने ऐसे ही उल्लासित तीन पीढ़ियों के एक भरे पूरे परिवार को इकठ्ठा सेल्फी लेते देखा।

इन रेशमी राहों में, इक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुँचती हो... 
सरपट भागती गाड़ी अचानक ही लिकिर मठ की ओर जाने वाले रास्ते को छोड़ती हुई आगे बढ़ गयी। अलची में समय बिता लेने के बाद लेह पहुँचने में ज्यादा देर ना हो इसलिए मैंने भी लिकिर में अब और समय बिताना उचित नहीं समझा। वैसे भी रास्ता इतना रमणीक हो चला था कि आँखें इनोवा की खिड़कियों पर टँग सी गयी थीं। सफ़र मैं ऍसे दृश्य मिलते हैं तो बस होठों पर नए नए तराने आते ही रहते हैं। पथरीले मैदान अब सड़क के दोनों ओर थे। बादल यूँ तो अपनी हल्की चादर हर ओर बिछाए थे पर कहीं कहीं चमकते बादलों द्वारा बनाए झरोखों से गहरा नीला आकाश दिखता तो तीन रंगों का ये  समावेश आँखों को सुकून से भर देता था।

कि संग तेरे बादलों सा, बादलों सा, बादलों सा उड़ता रहूँ
तेरे एक इशारे पे तेरी ओर मुड़ता रहूँ

सेना की छावनी के बीच से निकलता एक खूबसूरत मोड़

पीछे के रास्तों की तरह अलची से लेह के बीच के हिस्से में यहाँ नदी साथ साथ नहीं चलती। अलची के पास जो सिंधु नदी मिली थी वो वापस निम्मू के पास फिर से दिखाई देती है। यहीं इसकी मुलाकात जांस्कर नदी से होती है। जैसा कि मैंने आपको बताया था कि जांस्कर घाटी की ओर जाने के लिए एक रास्ता कारगिल से कटता है जो इसके मुख्यालय पदुम तक जाता है। वैसे एक सड़क निम्मू से भी जांस्कर नदी के समानांतर दिखती है पर वो अभी तक पदुम तक नहीं पहुँची है। संगम पर गर्मी के दिनों में आप यहाँ रिवर राफ्टिंग का आनंद उठा सकते हैं जबकी सर्दी के दिनों में जब जांस्कर जम जाती है तो जमी हुई नदी ही जांस्कर और लेह के बीच आवागमन का माध्यम बनती है। जमी हुई जांस्कर नदी पर सौ किमी से ऊपर की हफ्ते भार की ट्रेकिंग चादर ट्रेक के नाम से मशहूर है।