यूं तो कांस के फूल शरद ऋतु के आगमन का संकेत देते हैं पर इस बार संपूर्ण भारत में इंद्र ने अपनी सेनाएं रावण के जलने तक वापस नहीं बुलाई। नतीजन बेचारा रावण इस साल आधा आग और आधे पानी की बौछार से सिमट सिकुड़ कर गिरने को मजबूर हो गया और उधर मां दुर्गा तक पहुंचने के लिए भक्तों को पानी के साथ गलियों में छपाछप करनी पड़ी।
शायद इंद्र का व्यवहार पहले भी ऐसा ही रहता होगा तभी ऋषि मुनियों के साथ देवताओं से भी उनकी खटपट चलती रहती थी। इसलिए इस साल कांस के फूलों को बारिश की फुहारों के बीच लहराते रहना पड़ा। वो तो अपने समय से फूले पर इस बार बारिश की विदाई के लिए नहीं पर उनके द्वारा लाई हरितिमा के साथ कदम ताल करने के लिए।
बारिश की इस तेजी पर तो कम से कम इस साल महाकवि तुलसीदास को रामचरितमानस की अपनी वो चौपाई वापस लेनी ही पड़ती जिसमें उन्होंने लिखा था
लक्ष्मण देखहीं परम सुहाई,
फुले कांस सकल मही छाई,
जनु वर्षा कृत प्रकट बुढ़ाई”
रेल मार्ग से ये रास्ता कई सुरंगों और मनोरम घाटियों के बीच से निकलता है। सुरंगों के अंधकार से निकलते हुए अनायास पहाड़ की ढलानों पर कांस की सैकड़ों मीटर तक फैली सफ़ेद चादर देखने लायक थी।
ट्रेन की खिड़की से एक घंटे मैं यूं ही चिपके बैठे रहा ढलते सूरज के साथ कांस की छटा को देखता हुआ और मन ही मन पंकज उधास की गाई वो मशहूर पंक्तियां होठों पर चली आई कि
एक तू ही धनवान है "कांसी" बाकी सब कंगाल 😊
मनोहारी प्रस्तुति!! आपको प्रकृति की सुंदरता को शब्दों में पिरोने की अद्भुत कला आती है, आगे भी ऐसे ही लेखन से हमें समृद्ध करते रहें🙏🏻
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद। मेरी ये कोशिश जारी रहेगी।
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