पोखरा के सूर्योदय के बारे में लिखते समय मैंने कहा था कि इस श्रृंखला की अगली पोस्ट में चर्चा एक ऍसे सूर्योदय की होगी जिस अपनी आँखों के सामने हमेशा हमेशा के लिए क़ैद करने के लिए मेरा क़ैमरा मेरे पास था। ये
एक ऐसा सूर्योदय था जिस में मुझे सूर्य तो नहीं दिखा पर सूर्य किरणों की पर्वत चोटियों के साथ अठखेलियों को नजदीक से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
बात उत्तरी सिक्किम की है। राजधानी गंगटोक से करीब १२९ किमी दूर एक जगह है
लाचुंग (Lachung) जहाँ लोग
यूमथांग घाटी (Yumthang Valley) की ओर जाने के लिए रात्रि पड़ाव करते हैं। इसी लाचुंग में हम एक बारिश भरी शाम को पहुँचे थे। रात भर गरजते बादलों का शोर पौ फटने के कुछ पहले ही थम चुका था। सुबह का नज़ारा लेने के लिए करीब सुबह के सवा पाँच बजे मैं होटल की छत पर पहुँच गया। बारिश में भीगी सड़क और आस पास के घरों में सन्नाटा अभी तक पसरा हुआ था।

सड़क के पीछे निगाह दौड़ाई तो अपनी पतली धार के साथ लाचुंग चू अलसायी सी चाल में बह रहा था। लाचुंग की यही जलधारा चूंगथांग में लाचेन चू से मिलकर तीस्ता नदी (River Teesta) का निर्माण करती है।वहीं दूर पहाड़ की ढलान पर बसे छोटे छोटे घरों से निकलता धुँआ घाटी में फैल रहा था।

पर ये तो था सिर्फ एक ओर का नज़ारा। जैसे ही दूसरी तरफ मैंने नज़र घुमाई मन एकदम से सहम गया। लाचुंग का एक प्रचंड पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था । पहाड़ के बीचों बीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी।

इस पहाड़ के दाँयी ओर की पर्वत श्रृंखला अभी भी अंधकार में डूबी थी। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाये खड़ा था।

उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं।

थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यूं प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवन ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक ये दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे।

तो कैसा लगा आपको ये नज़ारा? भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से की एक सुबह तो आपने मेरे साथ बिता ली। अब चलियेगा मेरे साथ ऍसी ही एक सुबह का आनंद लेने भारत के दक्षिणी कोने में...
(सभी चित्र मेरे कैमरे सोनी W5 से)
और हाँ पिछली पहेली जब हाथी भूल जाएँ जंगल का रास्ता का उत्तर आप यहाँ देख सकते हैं।