मेहरानगढ़ किले से निकलने के बाद हमारा अगला पड़ाव था जसवंत थड़ा (Jaswant Thada) यानि राजा जसवंत सिंह का समाधि स्थल। पर इससे पहले कि हम किले से बाहर निकलते, किले के प्रांगण में एक महिला कठपुतलियों को गढ़ती नज़र आई। चटक रंग के परिधानों से सजी इन कठपुतलियों को अगर ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि स्त्रियों की बड़ी बड़ी आँखों और पुरुषों की लहरीदार मूँछों से सुसज्जित इन कठपुतलियों के पैर नहीं होते। राजस्थामी संस्कृति में कठपुतलियों का इतिहास हजार वर्ष पुराना बताया जाता है। कठपुतलियों के इस खेल को आरंभ करने का श्रेय राजस्थानी भट्ट समुदाय को दिया जाता है। राजपूत राजाओं ने भी इस कला को संरक्षण दिया। इसी वज़ह से लोक कथाओं , किवदंतियों के साथ साथ राजपूत राजाओं के पराक्रम की कहानियाँ भी इस खेल का हिस्सा बन गयीं।
मेहरानगढ़ से निकल कर थोड़ी दूर बायीं दिशा में चलने पर ही जसवंत थड़ा का मुख्य द्वार आ जाता है। पर यहाँ से समाधि स्थल हरे भरे पेड़ों की सघनता की वज़ह से दिखाई नहीं देता। मुख्य इमारत तक पहुँचने के पहले फिर राजस्थानी लोकगायक अतिथियों का मनोरंजन करते दिखे। राजस्थानी संगीत का आनंद लेने के बाद जब मैं राजा सरदार सिंह द्वारा अपने पिता की स्मृति में बनाए गए इस समाधि स्थल के सामने पहुँचा तो दोपहर की धूप में नहाई संगमरमर की इस इमारत को देख कर मन प्रसन्न हो गया। सफेद संगमरमर की चमक बारह बजे की धूप और पार्श्व के गहरे नीले आसमान के परिदृश्य में बेहद भव्य प्रतीत हो रही थी।