0यात्रा के दौरान कई बार ऐसा होता है कि आपके मोबाइल में सिगनल तो रहता है पर इंटरनेट कनेक्शन की रफ्तार कछुए से भी बदतर होती है। ऐसी अवस्था में कई बार समय पर जरूरी जानकारियों से हम वंचित रह जाते हैं। आपने पहले भी ट्रैवेल वेब साइट Make My Trip का प्रयोग Indian Airlines, Indigo Airlines, Jet, Go आदि एयरलाइन कंपनियों से जुड़ी जानकारी के लिए किया होगा।हाल ही में मेक माई ट्रिप डॉट कॉम (Make My Trip) ने एक नई सेवा शुरु की है जिसमें SMS पर ही यात्रा संबंधी उपयोगी जानकारियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। यात्रा से जुड़ी इस सेवा का नाम @mmt है जिसे txtweb platform पर तैयार किया गया है।
हिंदी का एक यात्रा चिट्ठा (An Indian Travel Blog in Hindi)
बुधवार, 26 दिसंबर 2012
सोमवार, 24 दिसंबर 2012
टिहरी बाँध : इंजीनियरिंग कार्यकुशलता का अद्भुत नमूना ! (Tehri Dam : An engineering Marvel !)
अगर आपके समक्ष ये प्रश्न करूँ कि टिहरी (Tehri) किस लिए मशहूर है तो शायद दो बातें एक साथ आपके मन में उभरें। एक तो सुंदरलाल बहुगुणा का टिहरी बाँध (Tehri Dam) के खिलाफ़ संघर्ष तो दूसरी ओर कुछ साल पहले बाँध बन जाने के बाद पूरे टिहरी शहर का जलमग्न हो जाना।
टिहरी एक ऐसा शहर था जो अब इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया है। आज उसकी छाती पर भारत का सबसे विशाल बाँध खड़ा है। पर जिसने वो शहर नहीं देखा हो वो क्या उन बाशिंदों का दर्द समझ पाएगा जिन्हें वहाँ से विस्थापित होना पड़ा। एक नवआंगुतक तो टिहरी बाँध पर आकर देशी इंजीनियरिंग कार्यकुशलता की इस अद्भुत मिसाल देखकर दंग रह जाता है। 260.5 मीटर ऊँचे इस भव्य बाँध को पास से देखना अपने आप में एक अनुभव हैं। इससे पहले मैं आपको हीराकुड बाँध (Hirakud Dam) पर ले जा चुका हूँ पर तकनीकी दृष्टि से 2400 MW बिजली और तीन लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा बड़े इलाके को सिंचित करने वाली ये परियोजना अपेक्षाकृत वृहत और आधुनिक है। पर अगर ये परियोजना इतनी लाभदायक है तो फिर इसका विरोध क्यूँ?
दरअसल बड़े बाँधों के निर्माण में पर्यावरणविदों और इंजीनियरों में शुरु से ही वैचारिक मतभेद रहे हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि हिमालय प्लेट से जुड़े क्षेत्रों में इतने विशाल बाँध बनाना भूकंप को न्योता दे कर बुलाने के समान है। वही इंजीनियर ये कहते हैं कि उन्होंने बाँध का निर्माण इस तरह किया है कि रेक्टर स्केल पर 8.4 तक के जबरदस्त भूकंप के आने पर भी बाँध का बाल भी बाँका नहीं होगा। जापान के इंजीनियर भी अपने परमाणु संयंत्र के लिए यही कहा करते थे पर सुनामी के बाद हुई फ्यूकीशीमा की दुर्घटना ने वहाँ की जनता का विश्वास अपने संयंत्रों से ऐसा बैठा कि आज वहाँ के सारे परमाणु संयंत्र ही बंद हैं। भगवान करे कि मेरे साथी इंजीनियरों का दावा सच निकले और गंगोत्री और यमुनोत्री को अपनी गोद में समाए इस पवित्र इलाके में विकास की ये बगिया फलती फूलती रहे।
टिहरी एक ऐसा शहर था जो अब इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया है। आज उसकी छाती पर भारत का सबसे विशाल बाँध खड़ा है। पर जिसने वो शहर नहीं देखा हो वो क्या उन बाशिंदों का दर्द समझ पाएगा जिन्हें वहाँ से विस्थापित होना पड़ा। एक नवआंगुतक तो टिहरी बाँध पर आकर देशी इंजीनियरिंग कार्यकुशलता की इस अद्भुत मिसाल देखकर दंग रह जाता है। 260.5 मीटर ऊँचे इस भव्य बाँध को पास से देखना अपने आप में एक अनुभव हैं। इससे पहले मैं आपको हीराकुड बाँध (Hirakud Dam) पर ले जा चुका हूँ पर तकनीकी दृष्टि से 2400 MW बिजली और तीन लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा बड़े इलाके को सिंचित करने वाली ये परियोजना अपेक्षाकृत वृहत और आधुनिक है। पर अगर ये परियोजना इतनी लाभदायक है तो फिर इसका विरोध क्यूँ?
दरअसल बड़े बाँधों के निर्माण में पर्यावरणविदों और इंजीनियरों में शुरु से ही वैचारिक मतभेद रहे हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि हिमालय प्लेट से जुड़े क्षेत्रों में इतने विशाल बाँध बनाना भूकंप को न्योता दे कर बुलाने के समान है। वही इंजीनियर ये कहते हैं कि उन्होंने बाँध का निर्माण इस तरह किया है कि रेक्टर स्केल पर 8.4 तक के जबरदस्त भूकंप के आने पर भी बाँध का बाल भी बाँका नहीं होगा। जापान के इंजीनियर भी अपने परमाणु संयंत्र के लिए यही कहा करते थे पर सुनामी के बाद हुई फ्यूकीशीमा की दुर्घटना ने वहाँ की जनता का विश्वास अपने संयंत्रों से ऐसा बैठा कि आज वहाँ के सारे परमाणु संयंत्र ही बंद हैं। भगवान करे कि मेरे साथी इंजीनियरों का दावा सच निकले और गंगोत्री और यमुनोत्री को अपनी गोद में समाए इस पवित्र इलाके में विकास की ये बगिया फलती फूलती रहे।
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गुरुवार, 13 दिसंबर 2012
कानाताल की वो खूबसूरत सुबह !
कानाताल में हमारा कमरा पश्चिम दिशा की ओर खुलता था। इसलिए हमारी हर सुबह की शुरुआत होती थी चंद्र देव के दर्शन से। पर्वतों पर फैलती सूर्य किरणों की लालिमा हमारे चंदा को संकेत कर देती थीं कि अब तुम्हारी रुखसती का वक़्त आ गया है और चंदा जी भी इशारा समझ धीरे धीरे नीचे खिसकना शुरु कर देते।
अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में पूर्णिमा पास ही पड़ी थी इसलिए चाँद अपनी पूर्णता के साथ हमें रिझा रहा था। हम भी सुबह की ठंड की परवाह किए बिना बॉलकोनी में खड़े होकर चंद्रमा के इस अद्भुत रूप को निहारा करते थे।
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शनिवार, 8 दिसंबर 2012
पिछले हफ़्ते इक रात गुरु वृहस्पति यानि Jupiter मिलने आए थे हम सबसे !
ज़मीनी दुनिया की तो यात्राएँ हम करते ही रहते हैं। पर इस दुनिया के ऊपर भी एक रहस्यमय दुनिया है इस आकाशगंगा की, जिसे समझने और देखने के लिए खगोलशास्त्री और बड़ी ताकतवर दूरबीनों की जरूरत पड़ती है। अब आम आदमी करे भी तो क्या करे बेचारा चाह कर भी वो इन चाँद सितारों की दुनिया के किरदारों को खगोलशास्त्रियों की मिल्कियत मान किनारा कर लेता है।
पर ये जो आकाशगंगा का मालिक है ना उसने भले ही इन खगोलविदों को सीधी हॉटलाइन दे रखी हो पर वो भी समझता है कि अपने मंत्रियों को बीच बीच में दूर से ही सही, पर आम प्रजा को दर्शन के लिए भेजना जरूरी है। नहीं तो Out of sight out of mind की तर्ज पर ग्रहों की लीला से उसकी प्रजा का विश्वास कहीं डगमगा ना जाए।
तो इसी क़वायद के तहत प्रभु ने अपने प्रधानमंत्री ग्रहों में सबसे बड़े वृहस्पति यानि जुपिटर को हमारी पृथ्वी के निकट से चक्कर लगाने को कहा। वो तो भला हो Times of India को तीन दिसंबर को छपी खबर का जिस पर पहली नज़र आफिस से आकर चाय की चुस्कियाँ लेते पड़ी। ख़बर में लिखा था कि वृहस्पति, सूर्य के डूबते ही अपनी शानदार चमक के साथ आकाशगंगा में अवतरित होंगे। वैसे वृहस्पति से पृथ्वी की न्यूनतम दूरी 588 मिलियन किमी तथा अधिकतम दूरी 967 मिलियन किमी है पर तीन दिसंबर को ये दूरी घट कर 608 मिलियन किमी हो गई।
सांझ तो पहले ही ढल चुकी थी घड़ी की सुइयाँ साढ़े सात का वक़्त दिखला रही थीं। दो घंटे का विलंब हो चुका था पर गुरु की विशाल काया का कुछ भाग शायद अब भी दृष्टिगोचर हो यही सोच मैंने तुरंत कैमरा निकाला और चल पड़ा छत पर इस दिव्य दर्शन के लिए।
सांझ तो पहले ही ढल चुकी थी घड़ी की सुइयाँ साढ़े सात का वक़्त दिखला रही थीं। दो घंटे का विलंब हो चुका था पर गुरु की विशाल काया का कुछ भाग शायद अब भी दृष्टिगोचर हो यही सोच मैंने तुरंत कैमरा निकाला और चल पड़ा छत पर इस दिव्य दर्शन के लिए।
अखबार में जिस दिशा में देखने को कहा गया था उसी दिशा में एक बड़ा चमकता तारा दिखा। अब अपने Point and Shoot कैमरे की जूम से जब फोकस किया तब बिना tripod के चार पाँच प्रयासों के बाद महामंत्री वृहस्पति की छवि क़ैद हो पाई.
सोमवार, 3 दिसंबर 2012
जापान दर्पण : फुकुओका (Fukuoka, Japan) के कंक्रीट जंगल
पिछली दो प्रविष्टियों में आपने पहले जापान की और फिर अपने छत्तीसगढ़ की हरियाली देखी। पर जैसा मैंने पहले लिखा था कि जैसे ही अंदरुनी इलाकों से आप जापान के किसी बड़े शहर के पास पहुँचते हैं कंक्रीट के घने जंगलों से आपका सामना होता है। अन्य देशों से उलट जापान में ऐतिहासिक इमारतें बिड़ले ही दिखाई पड़ती हैं। प्राकृतिक और युद्ध से जुड़ी त्रासदियाँ इसकी मुख्य वज़ह रही हैं। जापान में आने के बाद सबसे पहला महानगर जो मेरी नज़रों के सामने से गुजरा वो था फुकुओका।
फुकुओका (Fukuoka) जापान के चार प्रमुख द्वीपों में से एक क्यूशू द्वीप का सबसे बड़ा शहर है और इसके उत्तर पश्चिम में समुद्र तट के किनारे बसा हुआ है। अगर आप मानचित्र में देखें तो आप पाएँगे कि टोक्यो से कहीं ज्यादा ये दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल के करीब है। पुरातन काल से ये शहर चीन और कोरिया की ओर से जापान का प्रवेशद्वार कहा जाता था। तेरहवीं शताब्दी में चीन पर मंगोलों का कब्जा हो गया। चीन के बाद मंगोलों की नज़र जापान पर पड़ी। मंगोलों ने तो पहले जापानी कामकूरा शासकों को धमकी भरे पत्र लिखे। जब जापानियों पर इसका असर नहीं हुआ तो मंगोलों ने 1274 ई में क्यूशू द्वीप के इसी प्रवेशद्वार से जापान पर हमला बोल दिया।
आइए चलें गढ़वाल हिमालय की गंगोत्री समूह की चोटियों की सैर पर!
कानाताल में बिताया गया तीसरा दिन सुबह से ही काफी व्यस्त रहा। सवा तीन किमी की मार्निंग वॉक और नाश्ते को निबटाने के बाद हम टिहरी बाँध (Tehri Dam) गए और फिर वहाँ से लौटकर दोपहर में धनौल्टी (Dhanaulti) होते हुए मसूरी के लिए निकल गए। कानाताल, टिहरी और फिर धनौल्टी जाते समय हमें गढ़वाल हिमालय की अलग अलग चोटियों के दर्शन हुए। इसमें वो चोटी भी शामिल थी जिसे पहचानने के लिए एक प्रश्न आपसे मैंने पिछली पोस्ट में पूछा था। जैसा कि आपको पिछली पोस्ट में बताया था कि मैंने इन चोटियों का नाम पता करने के लिए नेट पर उपलब्ध नक़्शों और चित्रों की मदद ली। दो तीन रातों की मेहनत से मैं अपने कैमरे द्वारा खींचे अधिकांश चित्रों में दिख रही चोटियों को पहचान सका। सच पूछिए तो जैसे जैसे ये अबूझ पहेली परत दर परत खुल रही थी, मन आनंदित हुए बिना नहीं रह पा रहा था। तो चलिए आज की पोस्ट में आपको ले चलता हूँ गढ़वाल हिमालय की गंगोत्री समूह की चोटियों के अवलोकन पर ।
कानाताल (Kanatal) के क्लब महिंद्रा रिसार्ट के ठीक सामने जंगल के बीच से जाता ट्रेकिंग मार्ग है। जैसे ही आप जंगलों के बीच चलना शुरु करते हैं लंबे वृक्षों के बीच से गढ़वाल हिमालय की चोटियाँ दिखने लगती हैं। पर घने जंगलों की वजह से आपको क़ैमरे में क़ैद करने के लिए करीब सवा किमी तक चलना पड़ता है। इस जगह पर सामने कोई वृक्ष नहीं हैं। कानाताल से सबसे पहले जिस पर्वत चोटी का दीदार होता है उसका नाम है बंदरपूँछ ! वैसे लोग कहते हैं कि बंदर की पूँछ के आकार का होने के कारण इसका ये नाम पड़ा। मुझे तो इस चोटी के ऊपरी स्वरूप को देखकर ऐसा नहीं लगा पर वो कहते हैं ना कि सही पहचान करने के लिए वो नज़र होनी चाहिए जो शायद विधाता ने मुझे नहीं बख्शी।:)
कानाताल (Kanatal) के क्लब महिंद्रा रिसार्ट के ठीक सामने जंगल के बीच से जाता ट्रेकिंग मार्ग है। जैसे ही आप जंगलों के बीच चलना शुरु करते हैं लंबे वृक्षों के बीच से गढ़वाल हिमालय की चोटियाँ दिखने लगती हैं। पर घने जंगलों की वजह से आपको क़ैमरे में क़ैद करने के लिए करीब सवा किमी तक चलना पड़ता है। इस जगह पर सामने कोई वृक्ष नहीं हैं। कानाताल से सबसे पहले जिस पर्वत चोटी का दीदार होता है उसका नाम है बंदरपूँछ ! वैसे लोग कहते हैं कि बंदर की पूँछ के आकार का होने के कारण इसका ये नाम पड़ा। मुझे तो इस चोटी के ऊपरी स्वरूप को देखकर ऐसा नहीं लगा पर वो कहते हैं ना कि सही पहचान करने के लिए वो नज़र होनी चाहिए जो शायद विधाता ने मुझे नहीं बख्शी।:)
तीन चोटियों के ऊपर गर्व से आसन जमाए बैठी बंदरपूँछ की जुड़वाँ चोटियाँ
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