अपनी उम्र के बच्चों के विपरीत स्कूल में इतिहास और भूगोल मेरा प्रिय विषय रहे थे। अक्सर लोग इतिहास के नाम से इसलिए घबराते थे कि एक तो इस विषय में महत्त्वपूर्ण तारीख़ों को याद रखने के लिए अच्छी खासी क़वायद करनी पड़ती थी और दूसरे इम्तिहान में चाहे जितना जोर लगाओ, सारे सवालों का हल पूरा करने के पहले कॉपी भी छिन जाती थी। हाथ की उँगलियों में जो दर्द कई दिनों तक नुमाया रहता था, सो अलग। ऐसा नहीं कि मुझे इन सब बातों से चिढ़ नहीं होती थी। पर परीक्षा के माहौल से गुजरने और तारीखों के जंजालों से इतर भी मुझे ये विषय बड़ा प्रिय लगता था। शायद इसमें मेरी शिक्षिका का योगदान हो या अपने अतीत में झाँकने की मेरी स्वभावगत उत्सुकता, पर ये प्रेम कॉलेज के बाद तकनीकी क्षेत्र में जाने के बाद भी बना रहा।
और भारत के किसी एक प्रदेश में आज भी अगर ऐतिहासिक इमारतें उसी बुलंदी से खड़ी हैं तो वो है राजस्थान। इसी लिए मेरे घुमक्कड़ी मन में राजस्थान जाने के लिए काफ़ी उत्साह था। ऐसा नहीं कि इससे पहले मैंने राजस्थान की धरती पर कदम नहीं रखा था। एक बार कार्यालय के काम से और एक बार घूमने के लिए जयपुर जा चुका था। पर जयपुर देख कर राजस्थान की मिट्टी, वहाँ के रहन सहन , बोल चाल को महसूस कर पाना मुमकिन नहीं है।
दो साल पहले काफी कोशिशों के बाद भी ऐन वक़्त पर वहाँ जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा था पर पिछले साल दीपावली के तुरंत बाद नवंबर में जब राजस्थान जाने का कार्यक्रम बनाना शुरु किया तो दिल्ली के बाद अपना पहला पड़ाव मैंने उदयपुर रखा। ग्यारह दिनों के इस कार्यक्रम में उदयपुर, को केंद्र बनाकर हम चित्तौड़गढ़ , रनकपुर और कुंभलगढ़ गए और फिर माउंट आबू होते हुए, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर की तरफ निकल गए। अगर मानचित्र में देखें तो मेवाड़ से लेकर मारवाड़ तक के दक्षिण पश्चिमी राजस्थान को हमने अपनी इस यात्रा में देखने की कोशिश की।