रविवार, 23 अगस्त 2015

चलिए देखते हैं सागर के बीच बने सिधुदुर्ग के इस 'किल्ले' को ! Sindhudurg Fort.. Malvan

कुछ ही दिनों पहले आपको कोंकण के समुद्रतटों की यात्रा पर मालवण ले गया था। मालवण के डांडी समुद्र तट से सिंधुदुर्ग मोटरबोट से दस पन्द्रह मिनट की दूरी पर है। दूर से सिंधुदुर्ग का किला राजस्थान के किसी किले सा दिखाई देता है। चार किमी तक टेढ़ी मेढ़ी फैली इसकी परिधि के साथ नौ मीटर ऊँची और लगभग तीन मीटर चौड़ी दीवारें इसकी अभेद्यता के दावे को मजबूत करती हैं। पर सिंधुदुर्ग  की राजस्थानी किलों से समानता यहीं खत्म भी हो जाती है। जहाँ पहाड़ियों पर स्थित राजस्थानी किले दूर से ही अपनी मजबूत दीवारों के साथ ऊँचाई पर बने भव्य महलों का दर्शन कराते हैं वहीं इस जलदुर्ग की दीवारों के पीछे नारियल वृक्षों की कतारों के आलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता।


इतना ही नहीं एक और खास बात है सिंधुदुर्ग में जो इसे अन्य किसी राजस्थानी किले से अलग करती है। वो ये कि एकदम पास जाने पर भी आप इसके मुख्य द्वार की स्थिति का पता नहीं लगा पाते।



शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

लीजिए ओड़िशा झारखंड की इस बरसाती रुत में मानसूनी यात्रा का आनंद ! Magic of Monsoons in Odisha and Jharkhand

मानसून के समय में भारत के खेत खलिहानों की हरियाली देखते ही बनती है। यही  वो वक़्त होता है जब ग्रामीण अपने पूरे कुनबे के साथ धान की रोपाई में जुटे दिखते हैं। चाहे वो झारखंड हो या बंगाल, उड़ीसा हो या छत्तीसगढ़, भारत के इन पूर्वी राज्य में कहीं भी निकल जाइए बादल, पानी, धान और हरियाली इन का समागम कुछ इस तरह होता है कि तन मन हरिया उठता है। पिछले हफ्ते ट्रेन से राउरकेला से राँची आते हुए ऐसे ही कुछ बेहद मोहक दृश्य आँखों के सामने से गुजरे। इनमें से कुछ को अपने कैमरे में क़ैद कर पाया। तो आइए आज देखते हैं इस मानसूनी यात्रा की हरी भरी काव्यात्मक झांकी..



आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में
अब आप पूछेंगे कि यहाँ आग कहाँ है जनाब..तो मेरा जवाब तो यही होगा कि ऐसे सुहाने मौसम में अकेले सफ़र करते हुए आग तो दिल में जल रही होगी ना बाकी सब तो फोटू में है ही :) :)

शनिवार, 8 अगस्त 2015

यादें हिरोशिमा की : क्या हुआ था वहाँ सत्तर वर्ष पहले ? Hiroshima Peace Memorial

सत्तर साल पहले विश्व में पहला परमाणु बम जापान में हिरोशिमा की धरती पर गिराया गया था। इस बम ने इस फलते फूलते शहर को अपने एक वार से ही उजाड़ कर रख दिया था। सत्तर हजार लोगों  ने तुरंत और इतनी ही संख्या में घायलों ने भी छः महीनों के भीतर दम तोड़ दिया था। इनमें जापान के सामान्य नागरिकों के आलावा कोरिया और चीन से लाए गए मजदूर भी शामिल थे।

आज भी इतनी भयंकर त्रासदी के बावज़ूद परमाणु युद्ध का ख़तरा संसार से टला नहीं है। किसी का कुछ नहीं जाता ये कह कर कि यहाँ बम गिरा देंगे वहाँ तबाही मचा देंगे। कम से कम मानसिक रूप से विक्षिप्त ऐसे लोगों को हिरोशिमा के उस म्यूजियम की राह जरूर लेनी चाहिए जहाँ सत्तर साल बाद भी विध्वंस के कुछ अवशेष ज्यूँ के त्यूँ बचा के रखे गए हैं। तो चलिए आज मैं आपको ले चलता हूँ उस शहर में जहाँ की निर्दोष जनता को इस परमाणु बम की मार झेलनी पड़ी थी।


आज से तीन साल पूर्व जब मैंने हिरोशिमा की धरती पर कदम रखा था तो वो शहर मुझे किसी दूसरे जापानी शहर से भिन्न नहीं लगा था। बुलेट ट्रेन से उतरकर हम वहाँ की स्थानीय ट्रेन से पहले मियाजीमा स्थित शिंटो धर्मस्थल इत्सुकुशिमा गए थे और वहाँ से लौट कर हिरोशिमा के विख्यात पीस मेमोरियल को देखने का मौका मिला था। हिरोशिमा के मुख्य स्टेशन से पीस मेमोरियल की यात्रा करने का सबसे आसान तरीका ट्राम से सफ़र करने का है। पन्द्रह मिनट के सफ़र के बाद हम Genbaku स्टेशन से चंद कदमों के फ़ासले पर स्थित इन A Bomb dome के भग्नावशेषों के सामने थे।

बीसवी शताब्दी के आरंभ (1915) में एक चेक वास्तुकार द्वारा बनाई गई इस इमारत को  Hiroshima Prefectural Industrial Promotion Hall के नाम से जाना जाता था और अपने हरे गुंबद के लिए शहर में दूर से ही इस  भवन  को पहचाना जाता था । द्वितीय विश्व युद्ध के समय इसे जापानी सरकार के आंतरिक सुरक्षा विभाग ने अपने कार्य हेतु ले लिया था। सन 1945 में यु्द्ध अपने समापन दौर में था। जर्मनी आत्मसमर्पण कर चुका था पर जापानी सम्राट हिरोहितो संधि के मूड में नहीं थे। युद्ध को जल्द खत्म करने के उद्देश्य से अमेरिका ने परमाणु बम का पहला इस्तेमाल 6 अगस्त 1945 को सुबह सवा आठ बजे अपने B 29 लड़ाकू विमानों से किया।