बुधवार, 31 जुलाई 2019

क्यूँ यादगार थी फ्लोरेंस और वेनिस की वो यात्रा? A trip to Venice via Florence

इटली की वो शाम मुझे कभी नहीं भूलती। हमारी बस रोम से निकलने के बाद केन्द्रीय इटली के किसी रिसार्ट की ओर जा रही थी। गर्मी के मौसम में यूरोप में अँधेरा नौ बजे से पहले नहीं होता और ऐसी उम्मीद थी कि बस हमें उससे पहले वहाँ पहुँचा देगी। पहले राजमार्ग और फिर कस्बों की ओर निकलती सड़कों को निहारते हुए हम सभी बेफिक्री से चले जा रहे थे।

विदेश में राह चलते किसी से रास्ता पूछने का रिवाज़ नहीं है। सारी गाड़ियाँ जीपीस (GPS) की सुविधा से परिपूर्ण रहती हैं और वाहन चालक रास्ते गूगल देव की कृपा से तय करते हैं। अब गूगल देव कई बार खुद चकमे में आ जाते हैं ये तो आप भी कई बार अनुभव कर चुके होंगे। वहाँ भी यही हुआ। जीपीस ने हमारी बस को ऐसे जगह ले जाकर खड़ा कर दिया जहाँ आगे दिखते रास्ते पर भारी वाहनों का प्रवेश निषेध था। 


जहाँ बस रुकी थी वहाँ आदमी तो क्या परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। किसी तरह होटल वाले से संपर्क कर बस को दूसरी राह में मोड़ा गया पर पन्द्रह बीस मिनट चलने के बाद संशय बरकरार रहा। अँधेरा बढ़ चला था। हमारा ड्राइवर और गाइड गाड़ी रोक कर अँधेरे में आने जाने वाली गाड़ियों को रोकने का प्रयास करने लगे। वैसे तो माफिया द्वारा किए गए अपराधों के के लिए दक्षिणी इटली बदनाम रहा है पर रोम के आसपास का वो इलाका भी माफिया  का क्षेत्र हुआ करता था और इसीलिए वहाँ रात के वक़्त अँधेरे में किसी इशारे को लोग संदेह की नज़रों से देखते हुए बिना रुके निकले जा रहे थे। वैसे भी हमारा चालक जर्मन था और उसकी आवाज़ और इशारे काम नहीं कर पा रहे थे।  


इतनी देर में सहयात्रियों के ज़ेहन में अंग्रेजी फिल्मों में विदेशी बंधक बनाए जाने वाले कई दृश्य कौंध गए। सुनसान रात में हमारे साथ क्या क्या हो सकता है इस पर चर्चा होने लगी। वो बातें तो मजाक के तौर पर माहौल को हल्का फुल्का बनाने के लिए कही जा रही थीं पर दिल के किसी कोने में एक डर भी साथ ही आकार ले रहा था।  पौन घंटे की ज़द्दोजहद और अंदाज़ से आगे बढ़ते बढ़ते हम सही रास्ते तक पहुँचने में कामयाब रहे। होटल पहुँच कर सबने चैन की साँस ली।

अगली सुबह इटली के ऐतिहासिक शहर फ्लोरेंस को छूते हुए हमें वेनिस की राह पकड़नी थी।  इटली में कई बार बिलबोर्ड पढ़ते वक़्त आप उसके शहरों के अंग्रेजी नामों को नहीं ढूँढ पाएँगे। पर चिंता मत करिए उस शहर का इटालवी नाम भी मिलता जुलता ही होगा। मसलन रोम का रोमा, मिलान का मिलानो, नेपल्स का नेपोली, वेनिस का वेन्ज़िया और फ्लोरेंस का फीरेंज़े। इटली से लौटने के बाद अब तो इन नामों को प्रचलित अंग्रेजी के नाम से ज्यादा उनके इटालवी स्वरूप में बुलाना वहाँ की फीलिंग ला देता है।

माइकलएंजेलो द्वारा बनाए मशहूर शिल्प डेविड का प्रतिरूप

रोम से फ्लोरेंस की दूरी लगभग पौने तीन सौ किमी है और वेनिस की सवा पाँच सौ। इसीलिए हमारी टोली ने यहाँ एक विराम लिया।  यात्रा में सुस्ताने के लिए जगह चुनी गयी पियत्ज़ाले माइकल एंजेलो (Piazzale Michelangelo की। इटालवी भाषा में पियत्ज़ा का मतलब चौक से है और ये चौक फ्लोरेंस के दक्षिणी किनारे पर एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इस चौक से फ्लोरेंस शहर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है और इसलिए फ्लोरेंस आने वाला हर शख्स यहाँ जरूर आता है।

स्कूल के समय आप सबने इतिहास की किताब में यूरोप के पुनर्जागरण पर एक अध्याय जरूर पढ़ा होगा। उस अध्याय के हीरो माइकल एंजेलो व लिओनार्दो दा विंची इसी फ्लोरेंस शहर की पैदाइश थे। ज़ाहिर है कि कलाप्रेमियों का ये शहर मध्यकालीन युग यानी चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच खूब फला फूला। अपने सबसे बड़े नायक के सम्मान में इस शहर ने ये चौक उन्नीसवीं शताब्दी में बनवाया।

चौक पर माइकल एंजेलो की याद दिलाती उनकी कृति डेविड लगाई गयी है। पास ही एक उस समय की इमारत है जिसे माइकल एंजेलो से जुड़े संग्रहालय के रूप में विकसित किया जाना था। आज उस जगह पर बने रेस्त्रां में लोग फ्लोरेंस शहर को देखते हुए अपनी शामें गुलज़ार करते हैं। 


यूरोप के सारे बड़े शहर अपनी अपनी नदियों पर इतराते हैं तो भला इस मामले में फ्लोरेंस कैसे पीछे रहे? फ्लोरेंस की इस नायिका का नाम ऐरनो है। रात के वक़्त इस पर बने जगमगाते पुलों के साथ फ्लोरेंस की खूबसूरती देखते बनती है। ऐरनो केंद्रीय इटली से निकल कर फ्लोरेंस से होते हुए पीसा के पास समुद्र में मिल जाती है। साठ के दशक में एरनो ने बाढ़ से फ्लोरेंस शहर की कई ऐतिहासिक इमारतों को नुकसान पहुँचाया था पर उसके बाद से ऐसी स्थिति दोबारा पैदा नहीं हुई।

यहूदियों का उपासना गृह Great Synagogue of Florence  
फ्लोरेंस पहुँचने के पहले ही बारिश की एक झड़ी शहर को भिंगो चुकी थी। सामने की पहाड़ी से उतरते बादल ऐरनो तक के इलाके को घेरे हुए थे। सारा शहर गेरुए भूरे खपरैल की छतों से अटा पड़ा था पर उन सब के बीच ये हरे गुंबद वाली इमारत कुछ अलग सी दिखी। पूछने पर पता लगा कि ये यहूदियों का मंदिर यानी सिनागॉग है। कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मन की नाज़ी सेना जब यहाँ से लौटने लगी तो उसने इसे उड़ाने की योजना बनाई पर स्थानीय योद्धाओं ने यहाँ रखे विस्फोटकों का ज्यादातर हिस्सा समय रहते हटा दिया।

फ्लोरेंस कैथेड्रल  Duomo di Firenze
फ्लोरेंस की सबसे मशहूर इमारत यहाँ का  बड़ा गिरिजाघर Duomo di Firenze है जिसमें पीसा की ही तरह गिरिजा के आलावा बैपटिस्ट्री और घंटा घर है। नाम के अनुरूप इसका गोथिक स्थापत्य शैली में बना गुंबद शहर को अपनी पहचान देता है।यूनेस्को ने इन इमारतों और उसके आस पास हिस्सों को विश्व की अमूल्य धरोहरों में शामिल किया है। फ्लोरेंस को दूर से ही टाटा बॉय बॉय करते हुए हम अपने अगले पड़ाव पाडुवा की ओर चल पड़े।


जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि इटली के ग्रामीण इलाके बेहद खूबसूरत हैं। इन रास्तों में कभी आप पहाड़ों से होकर गुजरेंगे तो कभी अंगूर, जैतून और अन्य फलों के लंबे चौड़े बाग आपका मन मोह लेंगे। गाँव कस्बों के रंग बिरंगे छोटे छोटे मकान इस हरी भरी छटा में चार चाँद लगा देते हैं।


खिड़की से इन मनमोहक नज़ारों का आनंद लेते हुए कब हम पाडुवा पहुँच गए ये पता ही नहीं चला। यहीं से फेरी पर चढ़कर हमें वेनिस तक जाना था। वेनिस शहर को अपनी नौका से पास आते देखना इटली यात्रा के सबसे खूबसूरत लमहों में था। मुझे ये विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये वही वेनिस है जिसके सौदागरों को शेक्सपियर ने अपने नाटक मर्चेंट आफ वेनिस से मशहूर कर रखा था ।

पाडुवा के दक्षिणी छोर से वेनिस जाता जलमार्ग
इटली के उत्तर पूर्वी सिरे पर बसा ये शहर मध्यकालीन युग में यूरोप का सबसे समृद्ध शहर हुआ करता था। वेनिस तब ख़ुद एक गणतंत्र था। अपनी सामरिक स्थिति व शानदार नौ सेना के बलबूते इस शहर का एक समय में पश्चिमी यूरोप और एशिया से होने वाले व्यापार मार्ग पर वर्चस्व था। पुनर्जागरण काल में इस समृद्धि की वजह से यहाँ की कला और संगीत भी फले फूले। हालांकि उसके बाद कई नए व्यापार मार्ग के पता चलने से वेनिस का महत्त्व धीरे धीरे कम होता चला गया।

संत मार्क गिरिजे का बेल टॉवर
वेनिस पहुँचते ही सबसे पहले जिस इमारत पर नज़र पड़ती है वो है संत मार्क गिरिजे का बेल टॉवर। नवीं शताब्दी में शुरुआती निर्माण के बाद इसे लाइटहाउस की तरह इस्तेमाल किया जाता था। हालांकि अगले तीन सौ सालों में ये सौ मीटर ऊँचे घंटा घर में तब्दील हो गया। इसके बाद कभी बिजली गिरने और कभी आग लगने से इसे कई बार नुकसान पहुँचा और इसका पुनर्निर्माण किया जाता रहा । बेल टॉवर के पीछे यहाँ का मुख्य धार्मिक स्थल  है जिस के चारों ओर पर्यटकों की भारी भीड़ हमेशा जमी रहती है।

संत मार्क बज़िलिका की गिनती वेनिस के खूबसूरत भवनों में होती है। बज़िलिका का मतलब भी गिरिजा ही है पर ऐसे चर्च को पोप द्वारा कुछ विशिष्ट अधिकार दिए जाते हैं। बाइजेंटाइन स्थापत्य से प्रभावित ये चर्च अपने खूबसूरत गुंबदों और सुनहरे रंग से सजी दीवारों की वज़ह से जाना जाता है। 

संत मार्क बज़िलिका  St Mark's Basilica
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि वेनिस सौ से भी छोटे छोटे ज्यादा द्वीपों से मिलकर बना है। इसका नतीजा ये है कि शहर को गलियाँ नहीं बल्कि पतली नहरें बाँटती है। सौ दो सौ कदम चले नहीं कि एक नहर हाज़िर। अब उन्हें पार करना है तो पुल की जरूरत पड़ेगी है। वेनिस में ऍसे चार सौ पुल हैं। जेटी से उतरते हुए जब इस शहर को अपने कदमों से नाप रहे थे तो ऐसे कई पुलों से पार हुए। इसमें एक खास पुल था Bridge of Sigh !

ये पुल यहाँ की जेल को अपराधियों की पूछताछ के लिए बनाए गए कमरों से जोड़ता था और नज़रबंद होने के पहले यहीं से वो वेनिस का गहरी साँस भरते हुए अंतिम बार देख पाते थे इसीलिए इसका ऐसा नाम दिया गया। अब इस सफेद चूनापत्थर से बने पुल के जालीदार झरोखों से उन्हें क्या दृश्य दिखाई देता होगा ये भी सोचने का विषय है☺

पुल जिसे पार करते हुए अपराधी वेनिस को आखिरी बार देखते थे। Bridge of Sigh
कोई भारतीय जब वेनिस आता है तो सबसे पहले वो यहाँ गॉनडोला नौका को खोजता है। ये भला कौन भूल सकता है कि फिल्म ग्रेट गैंबलर में अमिताभ व जीनत दो लफ़्जों की मेरी कहानी... को गाते हुए एक ऐसी ही नाव पर बैठे थे। हाँ, ये बता दूँ कि उस गाने से प्रभावित होकर ये मत समझ लीजिएगा कि सारे कश्ती चलाने वाले रोमांटिक होते हैं। अपनी सहयात्रियों का अनुभव सुन कर पता लगा कि उन्हें बेहद खूसट सा बंदा मिल गया था जो गाना तो दूर बात करना भी पसंद नहीं कर रहा था।

गॉनडोला नाव की सवारी 

पर चालीस मिनट की नौका की सवारी करने में अगर छः हजार रुपये लग जाएँ तो आधे लोग तो मन मसोस के ही रह जाएँ। सवारी का मन तो मेरा भी था पर नाव तक पहुँच कर अपनी बारी का इंतजार कर ही रहे थे कि भारी बारिश की वज़ह से मुझे अपनी इच्छा पर अंकुश लगाना पड़ा। 

सोमवार, 8 जुलाई 2019

आइए चलें दुनिया के सबसे छोटे देश वैटिकन सिटी में Smallest country of the World : Vatican City

Top post on IndiBlogger, the biggest community of Indian Bloggers
वैटिकन सिटी का शुमार विश्व के सबसे छोटे देश में होता है। अगर आप पूछें कि इस छोटे का मतलब कितना छोटा तो समझ लीजिए कि उतना ही जितना की छः सौ मीटर लम्बा और सात सौ मीटर चौड़ा कोई इलाका हो। मतलब ये कि आप मजे से तफरीह करते हुए घंटे भर में इस देश की चोहद्दी नाप लेंगे। इस देश की जनसंख्या भी कितनी?  सिर्फ एक हजार ! इतने को तो हमारी एक गली की आबादी सँभाल ले।

संत पीटर बाज़िलिका
मजे की बात है कि इतने छोटे से इलाके में एक रेलवे स्टेशन भी है जिसके स्वामित्व में सिर्फ तीन सौ मीटर की रेलवे है। कभी वैटिकन जाइए तो यहाँ के बैंक वाले ATM से पैसे निकालने की जुर्रत ना कीजिएगा। इस बैंक का ATM दुनिया का एकमात्र ऐसा ATM है जहाँ पैसे निकालने के लिए निर्देश लैटिन भाषा में दिए गए हैं। इसी छोटे से देश को देखने के लिए हर दिन संसार के कोने कोने से हजारों लोग आते हैं। आए भी क्यूँ ना आखिर यही तो रोमन कैथलिक चर्च का मुख्य केंद्र है।

रोम की संगिनी टाइबर नदी

रोम के संग संग बहने वाली टाइबर नदी को पार करके जब मैं वैटिकन सिटी जाने वाली सड़क पर पहुँचा तो सबसे पहले इस झंडे ने मेरा स्वागत किया। बड़ा कमाल का झंडा है वैटिकन का। शक्ल से वर्गाकार आधा पीला और आधा सफेद। पीला वाला हिस्सा तो बिल्कुल सादा पर सफेद हिस्से में दो चाभियाँ दिखती हैं। एक सुनहरी और दूसरी चाँदी के रंग की एक दूसरे के ऊपर क्रास का आकार बनाती हुईं। इन दोनों चाभियों को जोड़ती है इक लाल डोरी। 

चाभियों को देखकर मन ही मन सोचा जरूर ये स्वर्ग तक पहुँचाने वाली चाभियाँ होंगी और बाद में पता चला कि मेरा तुक्का बिल्कुल सही निकला। ऐसी मान्यता है कि  ये स्वर्गारोहणी चाभियाँ ईसा मसीह ने खुद संत पीटर को दी थीं। सुनहरी चाभी आध्यात्मिक शक्ति जबकि चाँदी के रंग की चाभी संसारिक शक्ति का प्रतीक है।

विश्व के सबसे छोटे देश का ध्वज
बहरहाल अब हमें पत्थरों से बनी एक पतली सी सड़क संत पीटर बाज़िलिका ( बाज़िलिका दरअसल किसी बड़े महत्त्वपूर्ण गिरिजाघर को कहते हैं । ) की ओर ले जा रही थी। यूरोप की प्राचीन जगहों की पहली पहचान वहाँ की कॉबलस्टोन सड़कें है जिनका इस्तेमाल मध्यकालीन यूरोप में होना शुरु हुआ था।

संत पीटर स्कवायर की ओर जाती सड़क
बाज़िलिका तक पहुँचने के ठीक पहले एक विशाल सी खुली जगह मिलती है जिसे रोमन स्थापत्य की पहचान माने जाने वाले गोलाकार स्तंभों के गलियारे से दोनों ओर से घेरा गया है। इस के ठीक मध्य में रोमन सम्राट कालिगुला द्वारा मिश्र से लाया गया पिरामिडनुमा स्तंभ है जिसे अंग्रेजी में ओबेलिस्क के नाम से जाना जाता है। रोमन सम्राट कालिगुला से मेरा परिचय तो सुरेंद्र वर्मा के प्रसिद्ध उपन्यास "मुझे चाँद चाहिए" की प्रस्तावना में हुआ था पर जूलियस सीज़र के इस परपोते को रोमन इतिहास एक क्रूर आतातायी की तरह जानता है। अब सोचता हूँ कि असंभव की आशा जगाने के लिए वर्मा जी को यही सनकी प्रतीक मिले।

 याद कीजिए ऐसे ही एक स्तम्भ के बारे में विस्तार से पहली बार मैंने आपको अपनी पेरिस यात्रा में बताया था


संत पीटर बाज़िलिका के सामने खड़ा मिश्र से लाया गया स्तंभ

संत पीटर स्कवायर
ओबेलिस्क के दोनों ओर छोटे छोटे फव्वारे हैं। पोप जब बाज़िलिका की खिड़की से अपने दर्शन देते हैं तो ये पूरा स्कवायर लोगों से खचाखच भर जाता है। धार्मिक उत्सवों में लोग के इकठ्ठा होने के लिए ये जगह इतनी खुली बनाई गयी।

गोलंबर के चारों ओर फैला गोलाकार गलियारा
संत पीटर स्कवायर में आ तो गए पर आधा किमी लंबी पंक्ति देख लगा कि अब तो हो गए  पीटर साहब के दर्शन। पूरा वृताकार गलियारा कैथलिक चर्च के इस पवित्र स्थान को देखने के लिए पंक्तिबद्ध खड़ा था। थोड़ी ही देर में पंक्ति का अनुशासन देख के समझ आ गया कि यहाँ देर है पर अँधेर नहीं। पंक्ति लगातार आगे चल रही थी और दस पन्द्रह मिनट में तेज़ी से खिसकते हम इमारत की दाँयी ओर से चर्च में दाखिल हो गए। मुख्य परिसर में प्रविष्टि के ठीक पहले दाहिनी ओर संत पाल की सफेद मूर्ति लगी है जबकि चर्च की बाँयी ओर संत पीटर विराजमान हैं।  
Add caption
संत पीटर का ये विशाल गिरिजाघर अंदर घुसते ही अपनी प्रसिद्धि का कारण बता देता है। गिरिजे की आंतरिक दीवारों और छत को इतनी खूबसूरती से सजाया गया है कि आँखें फटी की फटी रह जाती है। मुख्य गुंबद की छत तीन हिस्सों में बँटी है। एल्टर की ओर जाने से ठीक पहले दोनों ओर दो खूबसूरत गलियारे कटते हैं जिनकी छतों के अलग अलग रूप मन को मोहित करते हैं। दीवारों के किनारे किनारे भिन्न भंगिमाओं में कई संतों की प्रतिमाएं लगी हैं। माइकल एंजेलो के कुछ खूबसूरत शिल्प भी हैं और तमाम पेटिंग्स भी। 

गिरिजाघर का शानदार गुम्बद


ऐसा नहीं कि वैटिकन ईसाई धर्म आने के पहले नहीं था। टाइबर नदी के पश्चिमी किनारे का ये इलाका पहले दलदली हुआ करता था। आम लोगों को यहाँ बसने की मनाही थी क्यूँकि इस हिस्से को पवित्र समझा जाता था। कालिगुला ने दलदली ज़मीन से पानी निकालकर इस क्षेत्र में उद्यान बना दिया। बाहरी सेनाओं ने यदा कदा वैटिकन के इलाके में अपनी अस्थायी छावनी बनाई पर  खराब पानी ने उनका यहाँ के जीना दूभर कर दिया।

इटली की प्राचीन सभ्यता में उपवन को वैटिकम कहा जाता था जो कि कालांतर में वैटिकन हो गया। कितनी अचरज की बात है कि संस्कृत में भी बाग बगीचे के लिए इससे मिलते जुलते शब्द वाटिका का इस्तेमाल होता रहा है। 

यूरोपीय चित्रकला का एक नमूना

छत पर की गई बेहतरीन नक्काशी 
इस शृंखला की पिछली कड़ी में मैंने आपको बताया था कि रोम की भीषण आग के लगने के बाद किस तरह नीरो ने शक की सुई अपनी ओर से हटाने के लिए ये अपराध ईसाई अनुयायिओं पर मढ़ दिया था। इस घटना के फलस्वरूप ईसाई मत मानने वाले तमाम लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया । ईसा मसीह के बारह प्रमुख अनुयायिओं में सर्वोच्च स्थान रखने वाले संत पीटर उस समय रोम के पहले बिशप थे। ऐसा माना जाता है कि उन्हें उलटा लटकाकर यहाँ सूली पर चढ़ा दिया गया था।

जब रोम के सम्राट कांस्टेन्टाइन में ईसाई धर्म स्वीकारा तो उन्होंने संत पीटर के सम्मान में उसी जगह गिरिजाघर की नींव रखी जहाँ उनकी हत्या कर उन्हें दफनाया गया था।

मुख्य पूजा स्थल

देखिए कैसे गुंबद से सूरज की रोशनी अंदर छन कर आने की व्यवस्था की गयी है
संत पीटर के उत्तराधिकारियों को ही बाद में पोप का दर्जा मिला। इटली के शासकों से संधि के फलस्वरूप एक देश के रूप में वैटिकन आज से नब्बे साल पहले अस्तित्व में आया। आज वैटिकन की अपनी एक सेना है। भले ही उसमें दो सौ से कम जवान हों।

पोप के निवास की सुरक्षा में मुस्तैद जवान
जिस तरह फ्रांस के सम्राट की सुरक्षा का जिम्मा एक स्विस बटालियन पर था उसी तरह पोप की सुरक्षा का दारोमदार स्विट्ज़रलैंड के सैनिक सँभालते हैं। इनकी रंगीन वेशभूषा पर मत जाइए। इन्हें रणक्षेत्र के सारे कौशल आते हैं।

संत पीटर
वैटिकन के बाद इटली प्रवास का आख़िरी पड़ाव था वेनिस। इस शृंखला के अगले कदम में आपको ले चलेंगे फ्लोरेंस होते हुए वेनिस की ओर..

इटली यात्रा में अब तक
अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram  पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें।