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रविवार, 5 मई 2019

कैसी थी अंतिम मुगल शासकों की जीवन शैली ? Book Review : City of my Heart !

अगर आप एक अच्छे यात्री या यात्रा लेखक बनना चाहते हैं तो आपको अपने इतिहास से भी लगाव होना चाहिए क्यूँकि तभी आप ऐतिहासिक इमारतों, संग्रहालयों और अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के उद्गम से जुड़ी बहुत सी बातों को एक अलग नज़रिए से देख सकेंगे। यूँ तो किसी भी ऐतिहासिक इमारत में जाते वक़्त हमारा पुरातत्व विभाग उनके बारे में जरूरी जानकारी मुहैया कराता है पर जब वही बात  किसी किताब में आप एक प्रसंग या किस्से के तहत पढ़ते हैं तो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है।

पुस्तक आवरण 

इसलिए मुझे जब कुछ महीने पहले राणा सफ़वी द्वारा आख़िरी मुगलों की जीवन शैली, किले के अंदर लोगों के रहन सहन और गदर के बाद शाही खानदान पर आई मुसीबतों पर लिखी किताबों के अंग्रेजी अनुवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देने का अवसर मिला तो मैंने झट से अपनी हामी भर दी। 247 पन्नों की इस किताब को पढ़ने में मुझे करीब दो महीने का वक़्त लग गया। उसकी एक वज़ह ये भी रही किताब का अधिकांश हिस्सा किसी सफ़र के दौरान पढ़ा गया। 

City of my Heart चार पुस्तकों बज़्म ए आखिर, दिल्ली का आखिरी दीदार, किला ए मुआल्ला की झलकियाँ और बेगमात के आँसू का एक संग्रह है। इसमें पहली दो किताबें मुख्यतः उस दौरान किले में मनाए जाने वाले उत्सवों, रीति रिवाज़ और खान पान की बातें करती हैं जबकि तीसरी किताब में किले के अंदर की झलकियों के साथ सत्ता के लिए चलते संघर्ष का भी विवरण मिलता है। बेगमात के आँसू में शाही खानदान के उन चिरागों का जिक्र है जो अंग्रेजी हुकूमत के कत्ले आम से बच तो गए पर जिनके लिए शाही जीवन से आम व्यक्ति सा जीवन जीना बड़ा तकलीफ़देह रहा।

इन किताबों के कुछ लेखक इन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी रहे तो कुछ ने उस समय के किस्से कहानियाँ अपनी पिछली पीढ़ियों के हवाले से सुनी। अब किताब चूँकि दिल्ली के बारे में है इसलिए प्रस्तावना में राणा सफवी ने बड़े रोचक तरीके से दिल्ली के नामकरण और सम्राट अशोक के ज़माने सो होते हुए तोमर, खिलजी, तुगलक और मुगलों के समय में अलग अलग हिस्सों में बढ़ती और निखरती दिल्ली का खाका खींचा है। लाल किले के विभिन्न हिस्सों का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए होता रहा इसका उल्लेख भी किताब में है।

राणा सफ़वी 
इस पुस्तक में जिस दौर की बात की गयी है तब मुगल साम्राज्य का अस्ताचल काल था। बादशाह अंग्रेजों की बँधी बँधाई पेंशन का मोहताज था और उसका राज काज में दखल, किले के बाशिंदों से जुड़े मामलों व सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सवों के आयोजन तक ही सीमित था। इन हालातों के बावज़ूद जिस शान शौकत का वर्णन बज़्म ए आखिर और दिल्ली का आखिरी दीदार में मिलता है उससे सिर्फ अंदाज़ ही लगाया जा सकता है कि अकबर से औरंगजेब के शासन काल तक किले के अंदर क्या रईसी रही होगी। 

किले में मनाये जाने वाले हर त्योहार से जुड़ी कुछ रवायतें रहीं जो आज तक हमारी मान्यताओं में शामिल हैं। मसलन दशहरे के समय नीलकंठ का दिखना आज भी इतना ही शुभ माना जाता है। पुस्तक में इस बात का जिक्र है कि हर दशहरे में नीलकंठ को लाकर उड़ाने का दस्तूर था। ईद, बकरीद, फूलवालों की सैर व उर्स के मेलों के साथ तब होली दीवाली भी धूमधाम से मनती थी जो कि किले के अंदर के सामाजिक सौहार्द का परिचायक था।  ईद में खेले जाने वाले खेल का एक दिलचस्प विवरण किला ए मुआल्ला की झलकियाँ में कुछ यूँ बयान होता है....
"ईद ए नवरोज़ के दिन राजकुमारों व कुलीन जनों के बीच अंडों से लड़ाई होती थी। इसले लिए एक विशेष तरह की मुर्गियों का इस्तेमाल होता था जिन्हें सब्जवार कहते थे।  इसके छोटे नुकीले अंडों की ऊपरी परत कठोर हुआ करती थी। त्योहार के कुछ महीने पहले तीन सौ रुपए जोड़े में ये मुर्गियाँ खरीदी जाती थीं और इनसे पाँच से छः अंडे तैयार हो जाया करते थे। प्रतियोगिता के दिन लोग नुकीले सिरे को सामने रखते हुए एक दूसरे के अंडों पर निशाना लगाते थे। जिसका अंडा पहले टूटता था उसकी हार होती थी. हजारों रुपयों की बाजियाँ लगती थीं। आम जनता सामान्य अंडों से बाद में यही खेल खेला करती थी।"

मुगलयी खान पान में जिसकी रुचि है और जो उस वक़्त के पकवानों के बारे में शोध करने में दिलचस्पी रखते हैं उनके लिए शाही मेनू से गुजरना बेहद उपयोगी रहेगा। बज़्म ए आखिर में खानपान के पहले की गतिविधियों का जिक्र कुछ यूँ होता है

"परिचारिकाएँ अपने सर पर टोकरियों में भोजन बैठक में लाती हैं।  पंक्ति में खड़े होकर खाना एक दूसरे से होते हुए शाही मेज तक पहुँचता है। सात गज लंबे और तीन गज चौड़े दस्तरखान के ऊपर सफेद रंग का कपड़ा बिछता है। इसके बीच में दो गज लंबी और डेढ़ गज चौड़ी और छः उँगली ऊँची एक मेज लगायी जाती है जिस पर तरह सील किए हुए पकवान रखे जाते हैं। रसोई प्रबंधक बादशाह के सामने बैठता है और खाना परोसता है।"

अब खाने में रोज़ क्या क्या परोसा जाता था उसकी फेरहिस्त देखेंगे तो लगेगा कि बादशाह और शाही परिवार ऐसा भोजन रोज़ रोज़ खा कर अपना हाजमा कैसे दुरुस्त रखते होंगे? स्टार्टर से लेकर मीठे तक विविध पकवानों का मास्टर मेनू देख के आप सभी चकित रह जाएँगे। सिर्फ पुलाव की बात करूँ तो मोती पुलाव, नूर महली पुलाव. नुक्ती पुलाव, नरगिसी पुलाव, किशमिशी पुलाव, लाल पुलाव , मुजफ्फरी पुलाव, आबी पुलाव, सुनहरी पुलाव, रुपहली पुलाव, अनानास पुलाव, कोफ्ता पुलाव... अंतहीन सूची है कितनी लिखी जाए। मेनू के कुछ हिस्से की बानगी चित्र में आप ख़ुद ही देख लीजिए।

शाही व्यंजनों की फेरहिस्त का कुछ हिस्सा

खान पान के बाद बात कुछ मौसम की। किताब में अलग अलग मौसम में शाही परिवार के क्रियाकलापों का विस्तार से वर्णन किया गया है।  दिल्ली में रहने वाले तो आजकल थोड़ी देर की बारिश और उमस से परेशान रहा करते हैं। उस ज़माने में दिल्ली के मानसून का मिज़ाज देखिए
"जब बारिश आठ से दस दिनों तक होती थी और मानसूनी बादल टस से मस होने का नाम नहीं लेते। कभी पानी की फुहारें आतीं तो कभी  मूसलाधार बारिश होती। लोग खुले आसमान और सूखे दिन के लिए तरसते। कभी कभी सूरज अपनी झलक दिखला जाता। रात में बादलों के झुरमुट से तारे नीचे ताकते तो ऐसा लगता कि जुगनू चमक रहे हों।"

किले के अंदर सत्ता के संघर्ष की छोटी छोटी घटनाओं का ऊपरी जिक्र यदा कदा किताब में मिलता है पर ऐसे विवरणों में वो गहराई नहीं है जिससे इतिहास के छात्र लाभान्वित हो सकें। इतना तो साफ है कि मुगल साम्राज्य का नैतिक पतन औरंगजेब के बाद ही होना शुरु हो गया था। मुगल साम्राज्य के अंतिम पचास सालों में ज्यादातर बादशाह और शहजादे अय्याश और अकर्मण्य थे और मंत्रियों और सरदारों के इशारों पर खून के रिश्ते को दागदार बनाने का मौका नहीं चूकते थे। भाई भाई को, रानियाँ अपने सौतेले पुत्रों को और पुत्र पिता को अपने रास्ते से हटाने के लिए किसी भी हद जाने को तैयार हो जाते थे। बहादुर शाह जफर से जुड़ी ऐसी ही एक घटना का उल्लेख पुस्तक में कुछ इस तरह से आता है
"एक बार बहादुर शाह जफर के स्वागत के लिए जश्न के साथ किले में एक दावत का आयोजन था। दावत के बाद संगीत की महफिल जमी तो बहादुर शाह उसमें तल्लीन हो गए। उनको मारने के लिए उनके एक पुत्र की ओर से पान का बीड़ा भिजवाया गया जिसमें बाघ की मूँछों के बाल भी डाल दिए गए थे। पान खाने के तुरंत बाद ही बादशाह की तबियत खराब हो गयी। पान  में कुछ मिलावट की आशंका से हकीमों ने उनको उल्टियाँ कराने की दवा दी जिसमें खून के साथ वो बाल भी बाहर निकल आया। 
तफ्तीश के दौरान शहज़ादे की इस साजिश का पता लग गया। तबियत ठीक होने की खुशी में एक उत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उस शहज़ादे को भी बुलाया गया। बादशाह ने उसके लिए जहर भरा शर्बत भी तैयार कर रखा था। शहज़ादे को पता था कि अब उसके साथ क्या होने वाला है, फिर भी वो वहाँ सर झुकाए हाथ जोड़ते हुए पहुँच गया। बादशाह ने शर्बत का गिलास हाथ में लेकर कहा, बेटा तुमने जो मुझे बाघ के मूँछ का बाल दिया था उसके बदले में मैंने तुम्हारे लिए जहर भरा शर्बत बनवाया है। 
शहज़ादे ने कुछ कहना चाहा पर बादशाह उससे पहले ही बोल उठे मेरा बुरा चाहने वाले मनहूस तुम अब मेरे हुक्म ना मानने की भी गलती करना चाहते हो? 
शहज़ादे ने जहर मिला शर्बत पिया और वहीं तड़पते हुए जान दे दी।"

किताब को पढ़ने के बाद दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि किले के बाहर और नजदीकी क्षेत्रों में रह रही रियाया की हालत से शाही खानदान को शायद ही कोई लेना देना था। किले के अंदर रहने वाले उनके टुकड़ों पर पलते थे इसलिए उनके वफादार रहे। शाही खानदान को जिन नाज़ नखरों से पाला जाता रहा यही उनकी दुर्दशा का कारण बना। जब वे अंग्रेजों से डरकर भागे तो शहर से बाहर गाँवों में रहने वालों ने भी उन पर तरस नहीं खाया। आपको पढ़कर ताज्जुब होगा कि शाही युवा अपनी ज़िन्दगी में दौड़ना तो दूर कुछ दूर पैदल भी नहीं चले थे। उन्होंने जीवन भर हुक्म चलाना सीखा था, कुछ काम करना नहीं। इसलिए शाही खानदान से जुड़े कई लोगों को बाद में भीख माँगकर गुजर बसर करनी पड़ी। उनमें से जो थोड़े बहुत खुद्दार थे उन्होंने जरूर मेहनत मजदूरी कर अपना स्वाभिमान बचाए रखा।

शुरुआत की दो किताबों का मूल विषय एक ही है। हर रस्म की अदाएगी में होने वाले ताम झाम का विवरण पढ़कर पाठकों की किताब में रुचि बनाए रखना बेहद मुश्किल हो जाता है। यही इस पुस्तक का सबसे कमजोर पक्ष है। हालांकि किले से जुड़ी झलकियाँ और गदर के बाद शाही खानदान से जुड़ी कहानियाँ पहले भाग से अपेक्षाकृत अधिक रोचक हैं। 

ये पुस्तक उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो मुगलकालीन धार्मिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों, उस समय के पहनावे व खान पान में विशेष रुचि रखते हों या उन पर शोध करने के अभिलाषी हों । किताब में जिन व्यंजनों और पहनावों का जिक्र हुआ है उस पर जहाँ तक संभव हो सका है अनुवादिका ने पुस्तक के परिशिष्ट में उनके बारे में अतिरिक्त जानकारी देने की कोशिश की है जो कि काबिलेतारीफ़ है।

आमेजन पर ये किताब यहाँ उपलब्ध है

सोमवार, 24 मार्च 2014

दिल्ली दर्शन : हुमायूँ का मकबरा - बदकिस्मत बादशाह खूबसूरत मकबरा ! (Humayun's Tomb)

पिछले हफ्ते  दिल्ली दर्शन की इस श्रंखला में आपको कुतुब मीनार की सैर पर ले गया था। आज चलिए दिल्ली की एक और मशहूर इमारत 'हुमायूँ के मकबरे' की यात्रा पर। पर इससे पहले आपको मकबरे का दर्शन कराऊँ कुछ बाते उस बादशाह के बारे में जिसकी याद में ये मकबरा बनाया गया है।

मुगल साम्राज्य के दो बदकिस्मत बादशाहों को अगर आप याद करें तो शायद आपके होठों पर हुमायूँ और बहादुर शाह ज़फर का नाम सबसे पहले आए। ख़ैर बहादुर शाह ज़फर तो मुगलिया सल्तनत के बुझते चिराग थे। रही बात हुमायूँ की तो उन्होंने जब 1530 ईं में राजसिंहासन सँभाला तो उनकी पहली चुनौती हिंदुस्तान में अपने पिता बाबर द्वारा मुगल साम्राज्य की रखी नींव का विस्तार करने की थी। पर विस्तार तो दूर दस साल की अवधि पूरी होते ही शेर शाह सूरी ने उसे देश से बाहर खदेड़ दिया।




मुगल काल की अनजानी महिला को समर्पित : बू हलीमा द्वार

1555 में राजगद्दी पर हुमायूँ पुनः काबिज़ तो हो गए पर सिंहासन का ये सुख वो ज्यादा दिन नहीं भोग पाए और 1556 में सीढ़ियों से गिरने की वज़ह से वो चल बसे। अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा हुमायूँ को इधर उधर भाग कर बिताना पड़ा। जितने साल तख्तो ताज़ हाथ में रहा किसी ख़ास काम के लिए जाने नहीं गए। अफ़ीम की लत की वज़ह से बदनामी हुई सो अलग। पर मुकद्दर देखिए इस बादशाह का ! जो जीते जी दर दर की ठोकरें खाता रहा उस के मरने के बाद उसकी याद में जो मकबरा बना, वो किसी भी अन्य मुगल बादशाह के लिए बनाए मकबरों में सबसे आलीशान था। 

पश्चिमी दरवाजा, हुमायूँ का मकबरा 

अक्टूबर के दूसरे हफ्ते की एक खुशगवार शाम को मैं हजरत निजामुद्दीन  इलाके के पास बने इस मकबरे के पास पहुँचा। हुमायूँ के मकबरे में वैसे तो दो द्वार हैं पर आज की तारीख़ में  इस मकबरे का दक्षिणी द्वार बंद कर दिया गया है। साढ़े पन्द्रह मीटर ऊँचे इस मुख्य द्वार की तुलना में इसका पश्चिमी दरवाजा अपने स्वरूप में उतना भव्य नहीं है। पश्चिमी दरवाज़े तक पहुंचने के पहले आपको बू हलीमा द्वार से गुजरना पड़ता है। बू हलीमा का मकबरा वहाँ कैसे आया और हुमायूँ से उनका क्या संबंध था ये आज भी इतिहासकारों को ज्ञात नहीं है। बू हलीमा द्वार के पहले हरे भरे वृक्षों की कतारें मन को मोहती हैं और यहीं से पहली बार हुमायूँ के मकबरे के आलीशान गुम्बद के प्रथम दर्शन होते हैं।

हुमायूँ के मकबरे का आलीशान दोहरा गुंबद (Double Dome of Humayun's Tomb)

दिल्ली में बनी मुगलिया इमारतों पर गौर करें तो पाएँगे कि इन पर षष्ठकोणीय तारों का अलंकरण अवश्य बना रहता है। बू हलीमा, पश्चिमी द्वार या फिर मकबरे का मुख्य द्वार आप चित्र में दरवाजे पर बनी इन आकृतियों को देख सकते हैं। दरअसल मुगल इन सितारों का प्रयोग सजावटी अंतरिक्ष संकेत के रूप में किया करते थे। 

पश्चिमी दरवाजे से घुसते ही हुमायूँ का मकबरा अपनी खूबसरती से अचंभित कर देता है। इसके शिल्प की दो खूबियाँ जो सबसे पहले ध्यान खींचती है वो है इसका विशाल गुंबद और हर तरफ से दिखने वाली समरूपता। हाँलाकि मुगलिया काल के पहले भी भारत में दोहरे गुम्बद का शिल्प कुछ इमारतों में प्रयुक्त हुआ था पर इस मकबरे में ये पहली बार इतने भव्य रूप में दिखा । जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि ऐसी संरचनाओं में बाहरी गु्बद के नीचे एक छोटा गुंबद भी विद्यमान रहता है। जहाँ बाहरी गुंबद पूरी इमारत की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है, वहीं अंदर के गुंबद की ऊँचाई भीतरी कक्ष की दीवारों की ऊँचाई को ध्यान में रखकर बनाई जाती है।

हुमायूँ का मकबरा : इसे कहते हैं बेहतरीन समरूपता ! (Enchanting Symmetry of Humayun's Tomb))


मंगलवार, 11 मार्च 2014

दिल्ली दर्शन : कुतुब मीनार और उसके आस पास की इमारतें Qutub Minar

देश की राजधानी में विगत कुछ सालों से आना जाना होता रहा है। इन यात्राओं में जब भी वक़्त मिला है दिल्ली की ऍतिहासिक इमारतों के दर्शन करने का मैंने कोई मौका छोड़ा नहीं है। मुझे याद है कि जब मुझे पिताजी पहली बार 1982 में दिल्ली ले गए थे तो सबसे पहले मैंने कुतुब मीनार को देखने की इच्छा ज़ाहिर की थी। दुर्भाग्यवश उसके ठीक एक साल पूर्व ही कुतुब मीनार में हुई त्रासदी की वज़ह से इस पर चढ़ने की मनाही हो गई थी जो आज तक क़ायम है। तबसे से आज तक कुतुब मीनार को करीब से तीन बार देखने का मौका मिला है। 

पिछली बार अक्टूबर महीने में दिल्ली जाना हुआ। जाड़ा पड़ना अभी शुरु नहीं हुआ था। ऐसे ही एक चमकते दिन को मैं यहाँ पहुँचा। गेट से टिकटें ली और चल पड़ा 72.5 मीटर ऊँची कुतुब मीनार की ओर। आडियो गाइड के आलावा भारतीय पुरातत्व विभाग ने यहाँ पत्थरों से बने साइन बोर्डों पर इतनी जानकारी मुहैया कराई है कि आपको अलग से गाइड लेने की कोई खास आवश्यकता नहीं है। 

 कुतुब मीनार (Qutub Minar)

स्कूल में ये प्रश्न शिक्षकों का बड़ा प्रिय हुआ करता था कि कुतुब मीनार का निर्माण किसने करवाया था ? अब नाम ही कुतुब है तो ये श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक के आलावा किसको दिया जा सकता था सो अधिकांश लड़के वही लिखते। अब इस बात को कौन याद रखता कि जनाब कुतुबुद्दीन पहली मंजिल के निर्माण के बाद ही अल्लाह मियाँ को प्यारे हो गए और बाकी की तीन मंजिलें उनके दामाद इल्तुतमिश ने पूरी करवायीं।

फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में ऊपर की मंजिल को नुकसान पहुँचने पर उसकी जगह दो मंजिलें बनायी गयीं। इन मंजिलों में बलुआ पत्थर की जगह संगमरमर का इस्तेमाल हुआ। इसीलिए मीनार का ये हिस्सा आज भी सफेद दिखता है। आज जहाँ कुतुब मीनार और कुव्वतुल इसलाम मस्जिद है उसी के पास एक समय चौहान राजाओं का किला राय पिथौरा हुआ करता था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने इलाके में स्थित 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तहस नहस कर उन्हीं पत्थरों का इस्तेमाल करते हुए 1192 ई में यहाँ इस मस्जिद का निर्माण कराना शुरु किया। सात साल बाद बतौर विजय स्तंभ मस्जिद के आहाते में ही इस मीनार का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।
  कुतुब मीनार की पहली मंजिल की बालकोनी 
 (1981 की दुर्घटना इसी बॉलकोनी के नीचे भगदड़ मचने से हुई थी)

रविवार, 19 अगस्त 2012

चित्रों में दिल्ली का अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डा T3 !

दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के T3 टर्मिनल में पहले भी जाना होता रहा है और इसके घरेलू टर्मिनल की झलकें मैं पिछले साल आपको दिखा ही चुका हूँ। पर पिछले महिने जापान जाने के दौरान T3 के अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल को देखने का मौका मिला। वैसे अगर आपके मन में ये भ्रांति हो कि अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल दिखने में घरेलू टर्मिनल से बहुत अलग होगा, तो उसे दूर कर लें। दिखने में टर्मिनल के दोनों हिस्से एक से ही हैं। हाँ अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल होने की वज़ह से कुछ बातें आपको नयी जरूर लगेंगी। मसलन सुरक्षा जाँच के पहले Immigration Check काउंटर से गुजरना। खरीददारी के लिए ढेर सारी ड्यूटी फ्री दुकानें और भारत से वापस लौटने वाले विदेशियों के लिए सोवेनियर शॉप्स। 

जापान की इस यात्रा में मुझे टोकियो (तोक्यो) का नारिटा (Narita Terminal, Tokyo) और बैंकाक का स्वर्णभूमि हवाई अड्डा (Swarnabhoomi Airport, Banglok) भी देखने को मिला। पर उनके मुकाबले हमारा T3 कहीं ज्यादा सुंदर और विस्तृत है। यानि आप गर्व से ये कह सकते हैं कि हमारी राजधानी का हवाई अड्डा विश्वस्तरीय है। तो चलिए आपको दिल्ली के हवाईअड्डे के इस हिस्से के कुछ दृश्य दिखाता चलूँ। 

अंतरराष्ट्रीय प्रस्थान के ठीक सामने एक प्रतिमा लगी है जो इस हिस्से की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है। दूर से इसे देखने पर गौतम बुद्ध की मूर्ति सा आभास होता है। पर पास आने से पता लगता है कि ये प्रतिमा भगवान बुद्ध की ना होकर भगवान सूर्य की है। इसे बनाने वाले शिल्पी का नाम है सुरेश गुप्ता। सुरेश गुप्ता ने इस शिल्प को गढ़ने में ग्यारह वीं सदी में दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य की कांस्य प्रतिमाओं से प्रेरणा ली है। 


मंगलवार, 11 जनवरी 2011

आइए आज आपको ले चलें दिल्ली हवाई अड्डे के टर्मिनल 3 के सफ़र पर...

पिछले हफ्ते ठिठुरा देने वाली ठंड में दिल्ली जाना पड़ गया। तीन रातें ठंड के मारे आधी सोती और आधी जागती कटीं। कार्यालय से वापस आने के बाद चुपचाप अपने कमरे में दुबक जाने के आलावा कुछ और करने की इच्छा ही नहीं होती थी। ख़ैर ना कहीं निकल सके और ना मित्रों से बातें हुई पर इस बार की हवाई यात्रा में दिल्ली के विख्यात टर्मिनल तीन को देखने का अवसर मिल गया। इससे पहले भी अपनी एक निजी यात्रा में बड़ी रोमांचक परिस्थियों में इस टर्मिनल से गुजरने का मौका मिला था पर वो किस्सा फिर कभी। आज आपको दिखाते हैं कि क्या खास है दिल्ली हवाई अड्डे के इस नए टर्मिनल में...


टर्मिनल की विशालता और भव्यता को देख कर ये यक़ीन करना मुश्किल होता है कि इसे महज तीन साल में बनाया गया होगा। चौसठ लाख वर्ग फीट में फैले इस टर्मिनल में करीब 78 एयरोब्रिज और 92 स्वचालित वॉकवे हैं यानि अब जहाज से निकल कर बस में सवारी करने की जरूरत नहीं। तो चलिए आज आपको दिखाते हैं इसी टर्मिनल की कुछ झलकियाँ मेरे कैमरे की नज़र से...

ये दृश्य दिखता है जब आप हवाईजहाज से निकल कर दिल्ली एयरपोर्ट में कदम रखते हैं। हाथों की विभिन्न भंगिमाएँ सहज ही मन को मोह लेती हैं..


चमकते फर्श, शीशे की दीवारों के बीच अचानक ही बीच बीच में हरियाली के छोटे छोटे टुकड़े मन को बेहद सुकून देते हैं...


और ये है क्रिसमस और नव वर्ष के लिए की गई विशेष सजावट...

भारत की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक विरासत को चित्रकला के जरिए बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है...

भारत में रहकर ही लीजिए इटली के मजे...

शरीर के हर अंग को ढकने के लिए अगर मँहगे जुगाड़ की तलाश में हों तो यहाँ पधारें..

धूम्रपान कक्ष और प्रार्थना कक्ष अलग अलग। कौतूहलवश मैं प्रार्थना कक्ष में गया तो देखा वहाँ सिर्फ बाइबिल और कुरान पड़ी है। बाहर वालों को प्रार्थना की सहूलियत तो हो गई पर पता नहीं 'गीता' या 'रामचरितमानस' रखने की जरूरत क्यूँ नहीं समझी गई।


एक तल्ले ऊपर चढ़ेंगे तो पहुँचेगे फूड कोर्ट में। सामने का ये गोलाकार टीवी बच्चों को बेहद आकर्षित कर रहा था..

और चलते चलते अगर गला सूख जाए तो उसे तर करने का भी इंतजाम है...

वैसे आपको ज्यादा ना चलना पड़े उसके लिए विशेष ट्रेवेलेटर की व्यवस्था है। यानि एक बार इस पर सवार हो जाइए और अपने निर्धारित गेट पर उतर जाइए।


अब सब मैं ही दिखा दूँगा कि ख़ुद से भी 'EXPLORE' करने की ज़हमत उठाएँगे आप..:)



तो कैसा लगा आपको ये सफ़र बताना ना भूलिएगा...

बुधवार, 7 जुलाई 2010

दिल्ली डॉयरी : सूखे दिन... रंगीन शामें

पिछले दो महिनों में दिल्ली के ऊपर से तीन बार गुजरना हुआ और दो बार रहना। इन यात्राओं में कभी गर्मी से निचुड़ती कभी दौड़ती भागती तो कभी रात के अँधेरों में जगमगाती दिल्ली के बदले बदले नज़ारे दिखे। इन्हीं का सार है दिल्ली की ये डॉयरी।

दिल्लीवासियों को बारिश से इतना प्यार क्यूँ है ये माज़रा ऊपर से देख कर ही समझ आ गया। पिछली पोस्ट में जब पुणे की हरियाली से आपको रूबरू कराया था तो ये भी कहा था कि घंटे भर में नीचे का दृश्य यूँ बदलता है कि आँखों पर विश्वास नहीं होता।

राजस्थान के उत्तरी इलाकों से दिल्ली ज्यूँ ज्यूँ पास आने लगती है हरियाली तो दूर पानी का इक कतरा भी नहीं दिखाई देता है। दिखती हैं तो बस सूखी नदियाँ, बिंदी के समान यदा कदा दिखते पेड़ ...

..और अरावली की नंगी पहाड़ियाँ।ऊपर से धूल से लिपटी चादर अलग से जिसमें सब धुँधला सा दिखता है


आखिरकार दिल्ली आ ही जाती है। मंज़र वैसा ही है। बस सूखी धरती की जगह कंक्रीट के जंगल दिखते हैं।


हरियाली दिल्ली वालों की नसीब में नहीं है ऐसा भी नहीं है। पर भगवान की दी हुई हरी भरी प्रकृति सिर्फ नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली के हिस्से में आई लगती है। अचानक से ये कुछ अलग सा पार्क दिखता है। मैं पहचान नहीं पाता।


पर इस बहाई मंदिर यानि लोटस टेंपल को तो एक ही झलक में पहचाना जा सकता है। कितने सुकूनदेह था यहाँ की शांति में अपने आप को डुबा लेना जब दस बारह साल पहले मैं यहाँ गया था। ऊपर से ये मंदिर भी उतना ही सलोना दिखता है।


यूँ तो पिछली दफ़े करोलबाग की गहमागहमी में रहना हुआ था। सोमवार के पटरी बाजार में खरीददारी करने में आनंद भी बहुत आया था।

पर इस बार कौसाबी की बहुमंजिला इमारत के सबसे ऊपरी तल्ले पर हूँ। मौसम अपेक्षाकृत ठंडा है। लोग बता रहे हैं कि आज दिन में बारिश हुई है। बालकोनी पर जाते ही हवा के ठंडे रेले से टकराता हूँ और सफ़र की सारी थकान काफ़ूर हो जाती है। बहुत देर तक तेज हवा के बीच छत पर टहलता रहता हूँ। वापस कमरे में जाने का दिल नहीं करता। छत पर घूमते घूमते आँखें ठिठक जाती हैं। सामने के पैसिफिक माल की जगमगाहट सहज ही आकर्षित करती है।

अंदर जाता हूँ तो चमक दमक अपेक्षाकृत ज्यादा ही मालूम पड़ती है। इन बड़े ब्रांडों कि दुकानों से लेना देना तो कुछ है नहीं हाँ चक्कर जरूर लगाया जा सकता है। सो उसी में अपना वक़्त ज़ाया करता हूँ।


वैसे भी छोटे शहर में आने वाले जब ऐसे दृश्य देखते हैं तो उन्हें लगता है ये है असल ज़िंदगी। घूमो फिरो ऐश करो। पर दो तीन दिनों में ही उन्हें इस ऍश की असलियत मालूम हो जाती है। सुबह छः बजे से आफिस की तैयारी, ट्राफिक जाम और इस निष्ठुर गर्मी से निबटते आफिस पहुँचना और फिर छः सात से वापसी की वही प्रक्रिया दोहराते दोहराते रात के नौ बज जाते हैं। फिर क्या मल्टीप्लेक्स क्या मॉल ! दिखता है तो बस टीवी और उसके सामने का बिछौना।

सुबह आँखे मलते बाहर निकलता हूँ तो बाहर ये मेट्रो खड़ी दिखाई देती है। मेट्रो आने से दिल्ली सचमुच एक महानगर जैसी दिखने लगी है। दौड़ कर कैमरा लाने जाता हूँ और ये दृश्य हमेशा के लिए मेरे पास क़ैद हो जाता है।


माल के पास अभी सन्नाटा पसरा है। पर रात में वही रौनक लौटेगी यही भरोसा है।


रात फिर सैर सपाटे में बीतती है। ज़िंदगी मे पहली बार रात के दो बजे सिनेमा के शो को देख कर निकल रहा हूँ। सप्ताहांत नहीं है फिर भी शो में सौ के करीब लोग आए दिख रहे हैं। आखिर दिन में वक़्त कहाँ है लोगों के पास।

अगला दिन वापसी का है । गर्मी उफान पर है। पारा 45 डिग्री छू रहा है। जल्द से जल्द मन कर रहा है कि वापस राँची की आबो हवा में लौट जाऊँ। राँची उतरते ही ज़िंदगी की सुई वापस अपनी सुकूनदेह चाल पर आ जाती है। यहाँ वक़्त आदमी को नहीं, आदमी वक़्त को दौड़ाता नज़र आता है।