Lucknow लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Lucknow लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 30 मार्च 2017

बड़ा इमामबाड़ा परिसर : जहाँ अकाल ने रखवायी लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों की नींव ! Bara Imambara, Lucknow

बचपन में जब भी दोस्तों के साथ लखनऊ शहर का जिक्र होता तो एक ही बात चर्चा में आती और वो थी यहाँ की भूलभुलैया की। जो भी यहाँ से हो कर आता इसकी तंग सीढ़ियों और रहस्यमयी गलियारों की बात जरूर करता। आज से करीब 28 साल पहले एक प्रतियोगिता परीक्षा देने मैं सन 89 में जब लखनऊ पहुँचा तो इरादा ये था कि परीक्षा जैसी भी जाए इस भूलभुलैया के तिलिस्म से गुजर कर ही लौटूँगा । 

बड़ा इमामबाड़ा का बाहरी द्वार और उद्यान
एक आटो से परीक्षा केंद्र से सीधे भूलभुलैया तक तो पहुँच गया पर पर होनी को कुछ और मंजूर था। उसी दिन शियाओं के सर्वोच्च नेता आयोतुल्लाह खोमैनी का इंतकाल हो गया था। पूरा परिसर ही आम जनता के लिए बंद था। तभी मुझे ये सत्य उद्घाटित हुआ कि भूलभुलैया कोई अलग सी जगह नहीं पर बड़ा इमामबाड़ा का ही एक हिस्सा है। लगभग तीन दशकों बाद जब मैं इस इलाके में पहुँचा तो इमामबाड़े की आसपास की छटा बिल्कुल बदली बदली नज़र आयी। पर इससे पहले कि मैं आपको इस इमामबाड़े में ले चलूँ, कुछ बातें उस शख़्स के बारे में जिसकी बदौलत ये इमारत अपने वज़ूद में आई।
बड़ा इमामबाड़ा सहित लखनऊ की तमाम ऐतिहासिक इमारतों की नींव अवध के चौथे नवाब आसफ़ उद दौला ने रखी थी । आसफ़ उद दौला के पहले नवाबों की राजधानी फैज़ाबाद हुआ करती थी। वे 26 साल की उम्र में नवाब बने पर माँ की राजकाज में दखलंदाज़ी से तंग आकर उन्होंने फैज़ाबाद से राजधानी को लखनऊ में बसाने का निर्णय लिया।
पहले द्वार से घुसते ही दूसरे द्वार की झलक कुछ यूँ दिखाई देती है
बड़े इमामबाड़े का निर्माण एक अच्छे उद्देश्य को पूरा करने के लिए हुआ। 1785 में अवध में भीषण अकाल  पड़ा। क्या अमीर क्या गरीब सभी दाने दाने को मुहताज हो गए। लोगों को रोजगार देने के लिए नवाब ने ये बड़ी परियोजना शुरु की। वे आम जनता से दिन के वक़्त काम लेते। वहीं रियासत के अमीर उमरा रात के वक़्त काम करते ताकि उनकी तथाकथित रईस की छवि पर कोई दाग न लगने पाए । जब तक अकाल रहा इमामबाड़े पर काम चलता रहा। इमामबाड़े, मस्जिद और बाउली के साथ लगे मेहमानख़ाने को पूरा होने में छः साल लग गए।

दूसरा द्वार और इसके पीछे दिखता बड़ा इमामबाड़ा
बड़े इमामबाड़े तक पहुँचने के लिए आप को दो विशाल द्वार पार करने पड़ते हैं। इन द्वारों के बीच की जगह फिलहाल एक खूबसूरत बागीचे ने ले रखी है। इमारत के गुंबद हों, मेहराबें हों या मीनार इन सब पर मुगल स्थापत्य का स्पष्ट  प्रभाव दिखता है।  इमामबाड़े की दीवारों के बारे में यहाँ का हर गाइड बड़े शान से ये बताना नहीं भूलता कि "दीवारों के भी कान होते हैं " ये मुहावरा यहाँ हक़ीकत बन जाता है।

रविवार, 19 मार्च 2017

छोटा इमामबाड़ा : जिसकी सफेद आभा कर देती है मंत्रमुग्ध ! Chota Imambara, Lucknow

लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों का जिक्र वहाँ के इमामबाड़ों के बिना अधूरा है। अवध के नवाब लगभग 130 सालों तक इस इलाके में काबिज़ रहे। पहले मुगल सम्राट के सूबेदार की हैसियत से और बाद में मुगलों की ताकत कम होते ही स्वघोषित स्वतंत्र नवाबों के रूप में। पर उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही सत्ता की असली चाभी परोक्ष रूप से अंग्रेजों ने हथिया ली थी। लगभग पचास सालों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के रहमोकरम पर अवध के ये नवाब शासन करते रहे पर सिपाही विद्रोह के दमन के साथ नवाबी हुकूमत का पूर्णतः अंत हो गया।

अवध सूबे की राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी बाद में लखनऊ को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया । अवध के नवाब मूलतः ईरानी मूल के शिया थे और आज भी लखनऊ की आबादी एक हिस्सा इस संप्रदाय से ताल्लुक रखता है। शिया संप्रदाय में वैसे तो बारह इमाम यानि धर्मगुरु माने गए हैं पर इनमें उनके तीसरे इमाम हुसैन का विशेष स्थान है। हज़रत हुसैन कर्बला की लड़ाई में अपने परिवार के साथ शहीद हुए थे। शिया मुसलमान उसी तकलीफ़देह घटना के मातम में हर साल मुहर्रम का पर्व मनाते हैं। 

छोटे इमामबाड़े के मुख्य द्वार का अंदरुनी दृश्य
मुहर्रम में जो दस दिन का शोक मनाया जाता है उससे जुड़ी धार्मिक गतिविधियों के लिए बनाया गया स्थल इमामबाड़े के नाम से जाना जाता है। अपनी लखनऊ यात्रा में मैंने छोटे और बड़े दोनों इमामबाड़ों को करीब से देखा और आज मैं आपको ले चल रहा हूँ छोटे इमामबाड़े यानि हुसैनाबाद इमामबाड़े की पवित्रता और खूबसूरती से आपको रूबरू कराने के लिए।

बाहर से ऐसा दिखता है इमामबाड़े का प्रवेश द्वार !
बड़े इमामबाड़े से रूमी दरवाजे होते हुए छोटे इमामबाड़े तक पहुँचने में ज्यादा वक़्त नहीं लगता। जब आप सड़क से सटे इमामबाड़े का रुख करते हो तो मुख्य द्वार के नीचे बने कमरों में लखनवी चिकन दस्तकारी के साथ कई और दुकानें दिखाई देती हैं।  धार्मिक महत्त्व की इस ऍतिहासिक इमारत के सामने इन दुकानों का होना अजीब लगता है। पता नहीं इन्हें वहाँ रहने की इजाजत किसने दी?

जैसे ही इमामबाड़े के अंदर कदम पड़ते हैं परिदृश्य एकदम से बदल जाता है। नीले आकाश तले फैली सर्वत्र सफेदी देख मन को शांत कर देती हैं। द्वार का अंदर का हिस्सा बेहद आकर्षक है। इस पट और बगल की मीनारों के शीर्ष से तारों का एक जाल एक स्त्री की प्रतिमा के हाथों में आकर ख़त्म होता है। थोड़ी देर में ही सही हमें समझ आ गया कि ये मूर्ति तड़ित चालक का काम कर रही है।
मुख्य द्वार के पास की सुनहरी मछली जो बताती है हवा का रुख

इमामबाड़े में घुसते ही बाँए तरफ़ शाही हमाम की ओर रास्ता जाता है वहीं दाहिनी ओर हुसैनाबाद मस्जिद  नज़र आती  है। द्वार के ठीक सामने हवा में लटकी एक सुनहरी मछली आपका स्वागत करती दिखती है। वास्तव में ये मछली की शक्ल में हवा का  रुख जानने का एक यंत्र है। मछली के नीचे बनी दीवारों में इस्लामी कलमकारी का खूबसूरत नमूना दिखता है। वैसे अगर आपको ख़्याल हो तो अवध नवाबों के झंडों में भी मुकुट एक साथ सुनहरी मछली दिखाई देती है।

हुसैनाबाद इमामबाड़ा जिसे प्रचलन में छोटा इमामबाड़ा भी  कहा जाता है।
इसके ठीक पीछे इमामबाड़े की इमारत अपने भव्य गुंबद के साथ नज़र आती है। ताजमहल में जिस तरह मुख्य इमारत की तरफ़ जाने वाले रास्ते के मध्य में फव्वारे लगे हैं वैसे ही यहाँ भी मध्य में फव्वारों के साथ नहरनुमा हौज और उसके ऊपर एक छोटा सा पुल है। कहते हैं एक ज़माने में वहाँ एक कश्ती भी लगी रहती थी जो बाद में रखरखाव के आभाव में नष्ट हो गयी।
हुसैनाबाद इमामबाड़े के सामने बनी नहर और बाग
इमामबाड़े की मुख्य इमारत में घुसने के पहले हमारे गाइड ने मुझे शाही हमाम को पहले देखने का आग्रह किया। तुर्की, जापान और रोम में सामूहिक स्नानागारों का जिक्र तो आपने सुना होगा पर भारत में विशिष्ट स्नानागार कभी आम लोगों के लिए नहीं बनाए गए। हाँ, नवाबों की बात कुछ और थी।

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

ताज़ के आगे का आगरा Agra Beyond Taj : Uttar Pradesh Travel Writers Conclave 2015

अक्टूबर के पहले हफ्ते में उत्तर प्रदेश पर्यटन की तरफ़ से एक न्योता आया आगरा, लखनऊ और बनारस के आस पास के इलाकों में उनके साथ घूमने का। सफ़र का समापन यात्रा लेखकों के सम्मेलन से लखनऊ में होना था। सम्मेलन में भारत और विदेशों से करीब चालीस पत्रकार, ब्लॉगर और फोटोग्राफर बुलाए गए थे।

उत्तर प्रदेश मेरे माता पिता का घर रहा है। बनारस, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद व आगरा जैसे शहरों में मैं पहले भी कई बार जा चुका हूँ।  बनारस के घाट की स्मृतियाँ तो एकदम नई थीं क्यूँकि वहाँ पिछले साल ही गया था पर आगरा गए पन्द्रह साल से ऊपर हो चुके थे। सो मैंने आगरा वाले समूह के साथ जाने की हामी भर दी।

उत्तर प्रदेश पर्यटन ने अपने इस कार्यक्रम को दि हेरिटेज आर्क (The Heritage Arc) का नाम दिया था। इस परिधि में आगरा, लखनऊ व बनारस के आस पास के वो सारे इलाके शामिल किए गए थे जहाँ पर्यटन की असीम संभावनाएँ हैं। यानि उद्देश्य ये कि इनमें से पर्यटक किसी भी जगह जाए तो उसके करीब के सारे आकर्षणों को देखते हुए ही लौटे। ज़ाहिर था उत्तर प्रदेश पर्यटन  हमें भी ताज़ के आगे का आगरा (Agra beyond Taj) दिखाने को उत्सुक था। सफ़र के ठीक पहले जब पूरे कार्यक्रम को देखा तो मन आनंदित हुए बिना नहीं रह सका। ऐतिहासिक धरोहरों, वन्य जीवन, प्रकृति, कला, संस्कृति व खान पान का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण बिड़ले ही किसी कार्यक्रम में देखने को मिलता है।

First ray of the Sun falling on the Taj
तीन अक्टूबर को पौ फटते ही हमारे सफ़र की शुरुआत हुई ताज दर्शन से। ताज के दरवाजे सवा छः बजे के लगभग खुलते हैं। पर जब हम वहाँ पहुँचे तो पर्यटकों की भारी संख्या सूर्योदय के समय के ताज़ के दर्शन के लिए आतुर थी। इधर सूरज की किरणों ने संगमरमर की दीवारों का पहला स्पर्श किया और उधर ढेर सारे कैमरे इस दृश्य को अपने दिल में क़ैद करने की जुगत में जुट गए। हमारे गाइड इमरान और आदिल ताज़ महल परिसर की इमारतों के शिल्प की बारीकियों के बारे में बताते रहे और उधर  तब तक   सूर्य देव  ने  सुनहरी रौशनी से पूरे ताज को अपने आगोश में ले लिया ।

The Taj in all its glory !