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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

रंगीलो राजस्थान : कैसे दिखते हैं रात में उदयपुर के महल ?

सज्जनगढ़ से लौटने वक़्त शाम ढल आयी थी। नवंबर का महिना होने के बाद भी सर्दी ना के बराबर थी। हमने जिस होटल विनायक में पनाह ले रखी थी वो भी ऍसा ना था जिसमें चुपचाप वक़्त गुजारने का मन करे। वैसे भी आप प्रतिदिन मात्र पाँच -छः सौ रुपये देकर उदयपुर जैसे शहर में पीक सीजन में उम्मीद भी क्या रख सकते हैं। इसलिए  ज्यादा समय बगैर गँवाए हम रात के उदयपुर की सैर पर निकल गए।

अब रात के उदयपुर की जगमगाहट देखनी हो तो करणी माता मंदिर तक पहुँचाने वाले रोपवे से अच्छी जगह हो ही नहीं सकती। दूधतलाई स्थित इस रोपवे के जब हम पास पहुँचे तो आशा के विपरीत वहाँ जरा भी भीड़ नहीं थी। वैसे ये रोपवे सुबह नौ बजे से रात्रि के नौ बजे तक खुला रहता है। प्रति व्यक्ति तिरसठ रुपये का टिकट आम आदमी पर भारी जरूर पड़ता है पर उदयपुर के जो नज़ारे इसकी सवारी करने के बाद मिलते हैं उससे पूरा पैसा वसूल समझिए।
रोपवे के ठीक ऊपर एक रेस्टोरेन्ट है और साथ ही एक बरामदा भी जहाँ चाय की चुस्कियों के साथ पिछोला झील में चमकते दमकते महलों का दृश्य आप आसानी से क़ैद कर सकते हैं। थोड़ी चढ़ाई और चढ़ने पर यहाँ करणी माता का एक मंदिर भी है।
अगर आपके कैमरे में रात के दृश्यों को क़ैद करने की क्षमता है तो यहाँ उसकी परीक्षा हो जाएगी। ये बताना आवश्यक होगा कि रात के चित्रों को लेने के लिए कैमरे के आलावा त्रिपाद (ट्राइपॉड) का होना बहुत जरूरी है। मैं ट्राइपॉड लेकर यहाँ नहीं आया था जिसका अफ़सोस हुआ फिर भी उसके बिना भी हाथ स्थिर कर कुछ चित्र ठीक ठाक आ गए। तो चलिए देखें तो रात में पिछोला किन रंगों में रँगी रहती है?

अँधेरे में डूबी झील में सबसे पहले नज़र ठहरती है झील के मध्य में स्थित होटल लेक पैलेस पर।



सोमवार, 14 नवंबर 2011

रंगीलो राजस्थान : कैसा दिखता है उदयपुर, सिटी पैलेस, मोती मगरी और सज्जनगढ़ से ?

पिछली पोस्ट में मैंने आपको सिटी पैलेस के चक्कर लगवाए थे। पर सिटी पैलेस में  सिर्फ अंदर के संग्रहालय को देखकर ही मन विस्मित नहीं होता बल्कि ऊपर के तल्लों से दिखने वाले दृश्य भी स्मृतिपटल पर हमेशा हमेशा के लिए क़ैद हो जाते हैं। तो आइए आज आपको ले चलें उदयपुर की उन जगहों पर जहाँ से पूरे शहर के कई अद्भुत नज़ारों का दीदार होता है।
जैसे ही हम सिटी पैलेस की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं सबसे पहले हमें झरोखों से बड़ी पोल
और त्रिपोलिया गेट के दर्शन होते हैं और उसके पीछे दिखता है आज का उदयपुर....कंक्रीट के उन्हीं जंगलों के बीच, जो भारत के बढ़ते शहरों के पहचान चिन्ह बन गए हैं। फर्क बस इतना है कि इन जंगलों को आज भी अरावली की पहाड़ियाँ अपनी गोद में समेटे हुए हैं। चाहे जिस दिशा में भी देखें यही पहाड़ियाँ चारों ओर दिखाई पड़ती हैं। दरअसल इस शहर की पहचान भी यही हैं क्यूँकि ये पहाड़ियाँ ज्यादा हरी भरी ना भी हों पर इनका अस्तित्व यहाँ की झीलों की तरह मानसूनी बारिश पर निर्भर नहीं है।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

रंगीलो राजस्थान : आइए चलें उदयपुर के सिटी पैलेस में !

'उदयपुर का सिटी पैलेस', इसी महल को दिखाने का वादा किया था ना पिछली बार। पर कार्यालय की व्यस्तताओं और दीपावली की छुट्टियों के बीच लिखना संभव नहीं हो पाया। पर आज आपको मैं शिशोदिया राजपूत घराने के महाराणा उदय सिंह द्वारा बनवाए गए इस महल की सैर अवश्य कराऊँगा। 
चित्तौड़गढ़ के होते हुए आख़िर महाराणा उदय सिंह को इस महल को बनवाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? 1537 में महाराणा ने जब चित्तौड़गढ़ का किला सँभाला तो दो परेशानियों से उनका सामना हुआ। दरअसल पहाड़ी पर स्थित चित्तौड़गढ़ के चारों ओर मैदानी इलाका है। मुगल सेनाओं द्वारा युद्ध में इस किले की घेराबंदी कर रसद पानी के मार्ग को अक्सर अवरुद्ध कर दिया जाता। दूसरे चित्तौड़ में पानी की बड़ी समस्या थी। कहते हैं कि महाराणा 1559 में अपने सैनिकों के साथ अरावली से लगे जंगलों में शिकार करने आए। पिछोला झील से सटी पहाड़ी पर उन्हें एक महात्मा मिले जिन्होंने उन्हें उसी इलाके में राजधनी बनाने का मशवरा दिया। राणा को महात्मा की बात जँच गयी क्यूँकि ये जगह चारों ओर से पहाड़ियों , घने जंगलों और झील से घिरी हुई थी। सन 1559 में उदयपुर के सिटी पैलेस की नींव पड़ी। फिर अगले तीन सौ सालों तक शिशौदिया घराने के सूर्यवंशी नरेशों  ने इस महल का विस्तार किया।


गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

रंगीलो राजस्थान: राँची से उदयपुर तक का सफ़र !

अपनी उम्र के बच्चों के विपरीत स्कूल में इतिहास और भूगोल मेरा प्रिय विषय रहे थे। अक्सर लोग इतिहास के नाम से इसलिए घबराते थे कि एक तो इस विषय में महत्त्वपूर्ण तारीख़ों को याद रखने के लिए अच्छी खासी क़वायद करनी पड़ती थी और दूसरे इम्तिहान में चाहे जितना जोर लगाओ, सारे सवालों का हल पूरा करने के पहले कॉपी भी छिन जाती थी। हाथ की उँगलियों में जो दर्द कई दिनों तक नुमाया रहता था, सो अलग। ऐसा नहीं कि मुझे इन सब बातों से चिढ़ नहीं होती थी। पर परीक्षा के माहौल से गुजरने और तारीखों के जंजालों से इतर भी मुझे ये विषय बड़ा प्रिय लगता था। शायद इसमें मेरी शिक्षिका का योगदान हो या अपने अतीत में झाँकने की मेरी स्वभावगत उत्सुकता, पर ये प्रेम कॉलेज के बाद तकनीकी क्षेत्र में जाने के बाद भी बना रहा।

और भारत के किसी एक प्रदेश में आज भी अगर ऐतिहासिक इमारतें उसी बुलंदी से खड़ी हैं तो वो है राजस्थान। इसी लिए मेरे घुमक्कड़ी मन में राजस्थान जाने के लिए काफ़ी उत्साह था। ऐसा नहीं कि इससे पहले मैंने राजस्थान की धरती पर कदम नहीं रखा था। एक बार कार्यालय के काम से और एक बार घूमने के लिए जयपुर जा चुका था। पर जयपुर देख कर राजस्थान की मिट्टी, वहाँ के रहन सहन , बोल चाल को महसूस कर पाना मुमकिन नहीं है।

दो साल पहले काफी कोशिशों के बाद भी ऐन वक़्त पर वहाँ जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा था पर पिछले साल दीपावली के तुरंत बाद नवंबर में जब राजस्थान जाने का कार्यक्रम बनाना शुरु किया तो दिल्ली के बाद अपना पहला पड़ाव मैंने उदयपुर रखा। ग्यारह दिनों के इस कार्यक्रम में उदयपुर, को केंद्र बनाकर हम चित्तौड़गढ़ , रनकपुर और कुंभलगढ़ गए और फिर माउंट आबू होते हुए, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर की तरफ निकल गए। अगर मानचित्र में देखें तो मेवाड़ से लेकर मारवाड़ तक के दक्षिण पश्चिमी राजस्थान को हमने अपनी इस यात्रा में देखने की कोशिश की।