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बुधवार, 18 जनवरी 2012

रंगीलो राजस्थान चित्तौड़गढ़ : जयमल का शौर्य और पद्मिनी की त्रासदी !

राजस्थान से जुड़े पिछले आलेख में मैं आपको चित्तौड़गढ़ के किले की यात्रा पर ले गया था। मीरा की भक्ति और राणा कुंभ की शौर्य गाथाएँ तो आपने पढ़ लीं। पर कुंभ और मीरा के एक शताब्दी पहले इस गढ़ में एक और महागाथा का सृजन हो रहा था ..

बात चौदहवीं शताब्दी की है। दिल्ली का सुल्तान तब अलाउद्दीन खिलजी हुआ करता था। सन 1303 में अलाउद्दिन ने किले के चारों ओर फैले  मैदान में अपनी सेनाओं के साथ धावा बोल दिया। पहाड़ी पर बसे चित्तौड़गढ़ को उस समय तक अभेद्य दुर्ग माना जाता था। कहते हैं कि अलाउद्दीन के आक्रमण का मुख्य उद्देश्य राणा रतन सिंह की खूबसूरत पत्नी महारानी पद्मिनी को हासिल करना था। राणा ने युद्ध को टालने के लिए अलाउद्दीन खिलजी को रानी की झलक दिखलाने का प्रस्ताव मान भी लिया। रानी उस वक़्त अपने तिमंजले जल महल में रहा करती थीं।

रानी के महल के ठीक सामने की इमारत में अलग अलग कोणों पर शीशे लगवाए गए। शीशों का कोण ऐसा रखा गया कि शीशे में महल की सीढ़ियों पर बैठी रानी का चेहरा दिख सके पर अगर सुलतान पीछे पलटे तो भी रानी ना दिखाई पड़े।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

चित्तौड़गढ़ :जिसकी दीवारों में कभी गूँजे थे मीरा के भजन और राणा कुंभ के जयघोष !

उदयपुर से दूसरे दिन हम जब चित्तौड़ की ओर निकले तो सुबह खुशनुमा थी। आकाश में हल्के हल्ले बादल जरूर थे पर बारिश नहीं हो रही थी। राष्ट्रीय राजमार्ग 76 के शानदार रास्ते पर चित्तौड़गढ़ की करीब 115 किमी की दूरी डेढ़ घंटे में कैसे कट गई पता ही नहीं चला।

 करीब डेढ़ दो सौ मीटर ऊँची पहाड़ी पर बने इस तीन मील लंबे और पाँच सौ फीट ऊँचे किले पर जब हम चढ़ रहे थे तो दिन के बारह बज चुके थे। किले तक पहुँचने के लिए इसके सात गेटों (पदन ,भैरों, हनुमान, गणेश, जोदला लक्ष्मण और राम) को पार करना पड़ता है। गेटों की नुकीली मेहराबें ऐसी कि ना हाथी को आसानी से घुसने दें और ना ही तोप के गोलों को ही अंदर जाने दें।