शांतिनिकेतन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शांतिनिकेतन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

सृजनी शिल्पग्राम, शांतिनिकेतन : जहाँ का हर घर आपसे कुछ कहता है.. Srijani Shilpagram, Shantiniketan

देश के पूर्व और उत्तर पूर्व में अगर आप गए हों तो आपने देखा होगा कि इन इलाकों में कई जनजातियाँ निवास करती हैं। इनकी अपनी एक जीवन शैली है। एक अलग संस्कृति है जिसके बारे में देश के बाकी हिस्सों के लोग ज्यादा नहीं जानते। देश के विभिन्न भागों की सांस्कृतिक धरोहरों को आम जनता से परिचित कराने के लिए आरंभ में सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना की गयी जो आज बढ़कर आठ हो गयी है। पूर्वी क्षेत्र के लिए इसका गठन अस्सी के दशक में शांतिनिकेतन की ज़मीन पर किया गया था। बाद में ये कार्यालय कोलकाता में स्थानांतरित हो गया पर पूर्वी और उत्तर पूर्वी राज्यों की संस्कृति को झलकाता सृजनी शिल्प ग्राम तब तक यहाँ आकार ले चुका था।

इस रथचक्र से ये तो समझ ही गए होंगे कि किस प्रदेश का आशियाना है?

26 बीघे जमीन में फैले इस केंद्र में असम, सिक्किम, मणिपुर, झारखंड, ओड़ीसा, बिहार, बंगाल, अंडमान निकोबार और त्रिपुरा जैसे राज्यों की सहभागिता है। इन राज्यों के ग्रामीण परिवेश की झलक दिखलाने के लिए यहाँ नौ झोपड़ीनुमा घर बनाए गए हैं जिसके अंदर इन इलाकों में प्रयुक्त होने वाली करीब एक हजार से ज़्यादा जरुरत की सामग्रियाँ और शिल्प यहाँ प्रदर्शित हैं। 

सृजनी शिल्पग्राम जो शांतिनिकेतन जाने वाली सड़क पर आश्रम आने के दो तीन किमी पहले ही आ जाता है।

शांतिनिकेतन की यात्रा के बाद जब मैं इस परिसर में घुसा तो अंदर का वातावरण मन को मंत्रमुग्ध कर गया। यहाँ का हर घर आपसे कुछ कहता है। तो आइए आपको लिए चलते हैं इन झोपड़ीनुमा कमरों के अंदर अपनी विरासत की एक झलक दिखाने आज के इस फोटोफीचर में..


ओड़ीसा की झोपड़ी.. दीवारों की चित्रकला मेरा तो मन मोह गयी !

ये हैं घर के अंदर का दृश्य : चूल्हा, टोकरी और लटकती मटकी
ओड़ीसा में भी अलग अलग जनजातीय समूह पूरे राज्य में बिखरे हैं। वहाँ की सबसे जानी मानी चित्रकला है सौरा चित्रकला। छोटी छोटी ज्यामितीय आकृतियों से बनी ओड़ीसा की ये कला आज इतनी लोकप्रिय हो गयी है कि इसे आप हर हस्तशिल्प मेले का अभिन्न अंग पाएँगे। सौरा  भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक हैं। मुख्यतः ओड़ीसा के दक्षिणी जिलों गंजाम, रायगढ़ा और कोरापुट में निवास करने वाली ये जनजाति पुरातन समय से अपने घर की मिट्टी की दीवारों पर बाँस की मुलायम कूचियों से इस कला को अंजाम देती रही है।

ओड़ीसा आदिवासी चित्रकला
इस चित्रकला के मूल भाव में आम जनमानस और उनके क्रियाकलाप और प्रकृति के विविध रूपों जैसे सूरज, चाँद, हाथी घोड़ों का अक्सर  चित्रण होता है।  इन चित्रों को आप भूरे या मिट्टी के रंग की पृष्ठभूमि में सफेद रंग से बना पाएँगे।

खपड़ैल के घर और पल पल थिरकने का माहौल ये है मेरे प्रदेश झारखंड की एक कुटिया।
अब बात झारखंड की जिसकी संस्कृति पूरी तरह प्रकृति से जुड़ी है। आप ही बताइए कि जिस प्रदेश का नाम ही जंगलों से पड़ा हो उसके रहन सहन का तरीका, खान पान और उद्यम भी तो हर तरह से अपने आस पास के वातावरण से जुड़े होंगे। अब प्रकृति पर्व सरहुल को ही लीजिए जो झारखण्ड का सबसे लोकप्रिय पर्व है।  ये पर्व यहाँ जंगल में साल वृक्षों पर पहले फूल आने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।


ढोल, नगाड़े और मांडर की थाप के बिना झारखंड का कोई त्योहार पूरा नहीं होता। लोग नाचते भी हैं तो समूह में। बहुत कुछ दीवाल पर प्रदर्शित इस चित्रकला की तरह।
ऊपर चित्र में झोपड़ी के ऊपर जिस मुद्रा में स्त्रियाँ  दिख रही हैं उसी में नृत्य होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नृत्य के दौरान सफेद रंग और लाल पाड़ की साड़ी पहनी जाती है और स्त्रियाँ एक दूसरे की कमर में बाहें डाल कर खड़ी होती हैं । पुरुष भी भांति भांति के ताल वाद्यों और बाँसुरी को बजाते  हुए  साथ साथ ही थिरकते हैं।

और ये है  त्रिपुरा में पहने जाने वाले वस्त्रों की झांकी
त्रिपुरा और मणिपुर में अभी तक मेरे कदम नहीं पड़े हैं। इसलिए इन राज्यों में पहने जाने वाले वस्त्रों और संस्कृति को पास से देखने समझे की उत्कंठा यहाँ आने के बाद बढ़ गयी। मणिपुर की संस्कृति में प्राचीन काल से भगवान विष्णु की पूजा की जानकारी मुझे चौंकाने वाली थी। बाद में इस बारे में पढ़ा तो पता चला कि पन्द्रहवीं शताब्दी में मणिपुर के राजाओं के प्रश्रय से वैष्णव मतावलंबियों का यहाँ प्रचार  प्रसार हुआ। फिर चैतन्य महाप्रभु के भक्त नरोत्तम दास ठाकुर और उनके अनुयायिओं ने अठारहवीं शताब्दी में लोकगायन से इस परंपरा को और मजबूत किया।

मणिपुर में कृष्ण की स्तुति में गाए जाने वाले गीत लोक संस्कृति का हिस्सा हैं।
झारखंड के बाद अगली कुटिया थी बिहार की जिसका मुख्य आकर्षण था मिथिला की चित्रकला।
बिहार का जिक्र आए और यहाँ की मधुबनी वाली चित्रकला की बात ना हो ऐसा हो सकता है क्या?
आज इस चित्रकला को मधुबनी पेंटिग्स के नाम से जाना जाता है। इसका प्रसार भारत और नेपाल के मिथिला भाषी इलाकों में हुआ। पर मुख्य केंद्र बिहार का मधुबनी इलाका रहा। पारंपरिक रूप से इन्हें घर पर मिट्टी की दीवारों पर बनाया जाता रहा पर अब कपड़ों और कैनवास पे भी ये कला उकेरी जा रही है ।

इस चित्रकला की मुख्य थीम मानव और प्रकृति के साथ उसका संबंध रहा है। सामाजिक समारोह और देवी देवता भी इस तरह की पेंटिग का प्रायः हिस्सा रहे हैं। इस चित्रकला की एक खासियत ये भी है कि इसमें कोई  जगह खाली नहीं छोड़ी जाती। अक्सर खाली हिस्सों को फूलों व बेल बूटों से भर दिया जाता है।

और ये है पूजा घर और सूप में रखा प्रसाद। छठ पर्व में भी ये सूप पूजा के केंद्र में होता है बिहार में.

अंडमान की एक झोपड़ी
अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में आदिम जनजातियों के अनेक समूह हैं। पोर्ट ब्लेयर में जब मैं गया था तो इनके रहन सहन की विविधता को विस्तार से देख पाया था। सृजनी शिल्पग्राम में अंडमान निकोबार से जुड़ी जनजातियों के रहन सहन का ज्यादा विस्तार से चित्रण नहीं हुआ है। आशा है इस संबंध में यहाँ का प्रशासन जरूरी कदम उठाएगा।
पानी की मार से बचने के लिए निकोबार में ऐसे बनाए जाते हैं घर..
अब बंगाल में हों और वहीं के घर आँगन की झाँकी नहीं देखी ऐसा कैसे हो सकता है?
और ये है एक बंगाली आहाता

कठपुतली का नाच तो ख़ैर राजस्थान की विशेषता है पर गुड्डे गुड़िया बनाना तो पूरे भारत में ही लोकप्रिय है। बंगाल में इन पुतलों को "पुतुल घर" में रखा जाता है।

बंगाल, ओड़ीसा और झारखंड के सटे हुए इलाके संथाल, मुंडा और उराँव जन जातियों के गढ़ रहे हैं। इनके वीर बांकुड़ों की प्रतिमाएँ भी लगी हैं शिल्पग्राम में।

सृजनी शिल्पग्राम, शांतिनिकेतन का मुख्य द्वार
अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram  पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

शांतिनिकेतन : जहाँ प्रकृति की गोद में बहती है शिक्षा की सरिता ! Shantiniketan, Bengal

रवींद्रनाथ टैगोर के रचे संगीत और साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय तो पहले से था पर उनकी कर्मभूमि  शांतिनिकेतन को देखने की इच्छा कई दिनों से थी। कार्यालय के काम से दुर्गापुर तो कई बार जाता रहा पर कभी शांतिनिकेतन जाने का सुखद संयोग नहीं बन पाया। इसलिए दशहरे की छुट्टियों में जब दुर्गापुर जाने का कार्यक्रम बनाया तो साथ ही एक दिन शांतिनिकेतन के लिए भी रख दिया। शांतिनिकेतन दुर्गापुर  से करीब पचपन किमी की दूरी पर स्थित है। दुर्गापुर से कोलकाता की ओर जाते हुए एक रास्ता बोलपुर की ओर कटता है। ये सड़क बेहतरीन है। इलमबाजार को छोड़ दें तो राह में कोई और घनी बस्ती भी नहीं है। अक्टूबर के महीने में धान की हरियाली भी आपके साथ होती है। शंतिनिकेतन का ये सफ़र आसानी से डेढ दो घंटे में पूरा हो जाता है।

बोलपुर के रास्ते में मिलती है अजय नदी। सच बताऊँ तो इस सफ़र के पहले मैंने इस नदी का नाम नहीं सुना था। झारखंड के देवघर की पहाड़ियों से निकली इस नदी का ज्यादा हिस्सा बंगाल में पड़ता है। अजय नदी  के तट पर दो नामी हस्तियों ने जन्म लिया। एक तो गीत गोविंद के रचयिता जयदेव जिनके जन्म स्थल जयदेव कोंदुली से होते हुए भी आप शांतिनिकेतन जा सकते हैं और दूसरे विचारक और क्रांतिकारी काजी नजरूल इस्लाम जो बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि के रूप में जाने जाते हैं।

अजय नदी का 'कासमय' पाट
पुल के पास पहुँचे ही थे कि कास के फूलों से सजा नदी का पाट नज़र आया। पुल पर गाड़ी रोक के छवि लेने के लिए जैसी ही कदम बढ़ाया, किसी भारी वाहन के गुजरते ही पुल डोलता महसूस हुआ। अब भारत के कई पुराने पड़ते पुलों पर ऐसे अनुभव हो चुके हैं सो इस कंपन को नज़रअंदाज करते हुए ध्यान नीचे बहती अजय नदी की ओर चला गया। किसी नदी के पाट पर कास के फूलों की ऐसी छटा इससे पहले मैंने नहीं देखी थी। पर ये फूल अभी यहाँ खिले हों ऐसा नहीं है। ये यहाँ सदियों से ऐसे ही फूल रहे हैं। इसका पता मुझे टैगोर की इस कविता को पढ़कर हुआ जो उन्होंने अपनी इसी अजय नदी के लिए लिखी थी।

आमादेर छोटो नोदी चोले बाँके बाँके
बोइसाख मासे तार हाथू जोल थाके
पार होए जाय गोरू, पार होए गाड़ी
दुइ धार ऊँचू तार ढालू तार पाड़ी

चिक चिक कोरे बाली कोथा नई कादा
एकधारे कास बोन फूले फूले सादा


यानि हमारी ये छोटी सी नदी अनेक घुमाव लेते हुए बहती है। वैशाख के महीने में तो इसमें हाथ भर की गहराई जितना ही पानी रहता है जिसमें जानवर और गाड़ी दोनों पार हो जाते हैं। नदी के किनारे तो ऊँचाई पर हैं पर बीचो बीच नदी बेहद कम गहरी है। पानी कम रहने पर इसका तल कीचड़ से सना नहीं रहता बल्कि बालू के कणों से चमकता रहता है और इसके किनारे सादे सादे कास के फूलों से भरे रहते हैं।
साल के खूबसूरत जंगल
इलमबाजार का कस्बा पार होते ही साल के जंगल यात्री को अपने बाहुपाश में बाँध लेते हैं। कहते हैं कि नब्बे के दशक में ये हरे भरे जंगल नष्ट होने की कगार पर थे। पर वन विभाग की कोशिशों से यहाँ रहने वाले बाशिंदों ने जंगल के महत्त्व को समझा और उसे संरक्षित करने का प्रयास किया। आज साल के पत्तों से बनने वाली पत्तलों और जंगल में उगने वाले मशरूम को बेचना यहाँ के लोगों की जीविका चलाने में मददगार साबित हो रहा है। साल के इन जंगलों के बीच से गुजरना इस यात्रा के सबसे खुशनुमा पलों में से एक था।

 देवेंद्रनाथ टैगोर का बनाया प्रार्थना केंद्र : काँचघर

शांतिनिकेतन के पास पहुँचकर नहीं लगा कि हम किसी बड़े विश्वविद्यालय के पास पहुँच गए हों। ऐसा भान हुआ मानो इतनी हरियाली के बीच इधर उधर छितराई कुछ इमारतें अपनी आसपास की प्रकृति के साथ एकाकार हो गयी हों। शांतिनिकेतन के ऐतिहासिक स्थलों में रवीन्दनाथ टैगोर के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर का बनाया आश्रम और गुरुदेव को समर्पित संग्रहालय प्रमुख है। संग्रहालय तो पूजा की छुट्टियों की वजह से बंद था इसलिए मैंने अपना ज्यादा समय यहाँ के आश्रम में बिताया।

कुछ दूर यूँ ही घूमने के बाद लगा कि यहाँ गाइड लेना फायदेमंद है। गाइड भी ऐसा मिला जो एक बात बताने के पहले चार प्रश्न हम से ही पूछता था। उसके प्रश्नों का सिलसिला तब तक खत्म नहीं होता था जब तक हम जवाब देते देते धाराशायी ना हो जाते। सवाल भी मजेदार होते थे उसके। मसलन इंदिरा यहाँ अपनी किस शानदार गाड़ी से आयी थीं? सत्यजीत रे ने यहाँ किस विषय में पढ़ाई की? कई बार जब हमारा तुक्का चल जाता तो वो और भी कठिन प्रश्न पूछता जैसे अमर्त्य सेन के बचपन का नाम क्या था? जब हमने इस सवाल के लिए संकेत की माँग की तो उसने मुस्कुराते हुए कहा कि अमिताभ बच्चन के बेटे का घर का भी वही नाम था। ऐसा 'क्लू' सुन कर हम तो नतमस्तक ही हो गए कि प्रभु अब और संकेत नहीं चाहिए आप ही उत्तर बता दो इसका..