बुधवार, 26 दिसंबर 2012

Make My Trip की नई SMS सेवा (New SMS service from Make My Trip)......

0यात्रा के दौरान कई बार ऐसा होता है कि आपके मोबाइल में सिगनल तो रहता है पर इंटरनेट कनेक्शन की रफ्तार कछुए से भी बदतर होती है। ऐसी अवस्था में कई बार समय पर जरूरी जानकारियों से हम वंचित रह जाते हैं। आपने पहले भी ट्रैवेल वेब साइट Make My Trip का प्रयोग Indian Airlines, Indigo Airlines, Jet, Go  आदि एयरलाइन कंपनियों से जुड़ी जानकारी के लिए किया होगा।हाल ही में मेक माई ट्रिप डॉट कॉम (Make My Trip) ने एक नई सेवा शुरु की है जिसमें SMS पर ही यात्रा संबंधी उपयोगी जानकारियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। यात्रा से जुड़ी इस सेवा का नाम @mmt है जिसे txtweb platform पर तैयार किया गया है।



सोमवार, 24 दिसंबर 2012

टिहरी बाँध : इंजीनियरिंग कार्यकुशलता का अद्भुत नमूना ! (Tehri Dam : An engineering Marvel !)

अगर आपके समक्ष ये प्रश्न करूँ कि टिहरी (Tehri) किस लिए मशहूर है तो शायद दो बातें एक साथ आपके मन में उभरें। एक तो सुंदरलाल बहुगुणा का टिहरी बाँध (Tehri Dam) के खिलाफ़ संघर्ष तो दूसरी ओर कुछ साल पहले बाँध बन जाने के बाद पूरे टिहरी शहर का जलमग्न हो जाना।

टिहरी एक ऐसा शहर था जो अब इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया है। आज उसकी छाती पर भारत का सबसे विशाल बाँध खड़ा है। पर जिसने वो शहर नहीं देखा हो वो क्या उन बाशिंदों का दर्द समझ पाएगा जिन्हें वहाँ से विस्थापित होना पड़ा। एक नवआंगुतक तो टिहरी बाँध पर आकर देशी इंजीनियरिंग कार्यकुशलता की इस अद्भुत मिसाल देखकर दंग रह जाता है। 260.5 मीटर ऊँचे इस भव्य बाँध को पास से देखना अपने आप में एक अनुभव हैं। इससे पहले मैं आपको हीराकुड बाँध  (Hirakud Dam) पर ले जा चुका हूँ पर तकनीकी दृष्टि से  2400 MW बिजली और तीन लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा बड़े इलाके को सिंचित करने वाली ये परियोजना अपेक्षाकृत वृहत और आधुनिक है। पर अगर ये परियोजना इतनी लाभदायक है तो फिर इसका विरोध क्यूँ?



दरअसल बड़े बाँधों के निर्माण में पर्यावरणविदों और इंजीनियरों में शुरु से ही वैचारिक मतभेद रहे हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि हिमालय प्लेट से जुड़े क्षेत्रों में इतने विशाल बाँध बनाना भूकंप को न्योता दे कर बुलाने के समान है। वही इंजीनियर ये कहते हैं कि उन्होंने बाँध का निर्माण इस तरह किया है कि रेक्टर स्केल पर 8.4 तक के जबरदस्त भूकंप के आने पर भी बाँध का बाल भी बाँका  नहीं होगा। जापान के इंजीनियर भी अपने परमाणु संयंत्र के लिए यही कहा करते थे पर सुनामी के बाद हुई फ्यूकीशीमा की दुर्घटना ने वहाँ की जनता का विश्वास अपने  संयंत्रों से ऐसा बैठा कि आज वहाँ के  सारे परमाणु संयंत्र ही  बंद हैं। भगवान करे कि मेरे साथी इंजीनियरों का दावा सच निकले और गंगोत्री और यमुनोत्री को अपनी गोद में समाए इस पवित्र इलाके में विकास की ये बगिया फलती फूलती रहे।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

कानाताल की वो खूबसूरत सुबह !


कानाताल में हमारा कमरा पश्चिम दिशा की ओर खुलता था। इसलिए हमारी हर सुबह की शुरुआत होती थी चंद्र देव के दर्शन से। पर्वतों पर फैलती सूर्य किरणों की लालिमा हमारे चंदा को संकेत कर देती थीं कि अब तुम्हारी रुखसती का वक़्त आ गया है और चंदा जी भी इशारा समझ धीरे धीरे नीचे खिसकना शुरु कर देते।


अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में पूर्णिमा पास ही पड़ी थी इसलिए चाँद अपनी पूर्णता के साथ हमें रिझा रहा था। हम भी सुबह की ठंड की परवाह किए बिना बॉलकोनी में खड़े होकर चंद्रमा के इस अद्भुत रूप को निहारा करते थे।  



शनिवार, 8 दिसंबर 2012

पिछले हफ़्ते इक रात गुरु वृहस्पति यानि Jupiter मिलने आए थे हम सबसे !

ज़मीनी दुनिया की तो यात्राएँ हम करते ही रहते हैं। पर इस दुनिया के ऊपर भी एक रहस्यमय दुनिया है इस आकाशगंगा की, जिसे समझने और देखने के लिए खगोलशास्त्री और बड़ी ताकतवर दूरबीनों की जरूरत पड़ती है। अब आम आदमी करे भी तो क्या करे बेचारा चाह कर भी वो इन चाँद सितारों की दुनिया के किरदारों को खगोलशास्त्रियों की मिल्कियत मान किनारा कर लेता है।

पर ये जो आकाशगंगा का मालिक है ना उसने भले ही इन खगोलविदों को सीधी हॉटलाइन दे रखी हो पर वो भी समझता है कि अपने मंत्रियों को बीच बीच में दूर से ही सही, पर आम प्रजा को दर्शन के लिए भेजना जरूरी है। नहीं तो  Out of sight out of mind की तर्ज पर ग्रहों की लीला से उसकी प्रजा का विश्वास कहीं डगमगा ना जाए।

तो इसी क़वायद के तहत प्रभु ने अपने प्रधानमंत्री ग्रहों में सबसे बड़े वृहस्पति यानि जुपिटर को हमारी पृथ्वी के निकट से चक्कर लगाने को कहा। वो तो भला हो Times of India को तीन दिसंबर को छपी खबर का जिस पर पहली नज़र आफिस से आकर चाय की चुस्कियाँ लेते पड़ी। ख़बर में लिखा था कि वृहस्पति, सूर्य के डूबते ही अपनी शानदार चमक के साथ आकाशगंगा में अवतरित होंगे। वैसे वृहस्पति से पृथ्वी की न्यूनतम दूरी 588 मिलियन किमी तथा अधिकतम दूरी 967 मिलियन किमी है पर तीन दिसंबर को ये दूरी घट कर 608 मिलियन किमी हो गई।

सांझ तो पहले ही ढल चुकी थी घड़ी की सुइयाँ साढ़े सात का वक़्त दिखला रही थीं। दो घंटे का विलंब हो चुका था पर गुरु की विशाल काया का कुछ भाग शायद अब भी दृष्टिगोचर हो यही सोच मैंने तुरंत कैमरा निकाला और चल पड़ा छत पर इस दिव्य दर्शन के लिए।


अखबार में जिस दिशा में देखने को कहा गया था उसी दिशा में एक बड़ा चमकता तारा दिखा। अब अपने Point and Shoot कैमरे की जूम से जब फोकस किया तब बिना tripod के चार पाँच प्रयासों के बाद महामंत्री वृहस्पति की छवि क़ैद हो पाई.


सोमवार, 3 दिसंबर 2012

जापान दर्पण : फुकुओका (Fukuoka, Japan) के कंक्रीट जंगल

पिछली दो प्रविष्टियों में आपने पहले जापान की और फिर अपने छत्तीसगढ़ की हरियाली देखी। पर जैसा मैंने पहले लिखा था कि जैसे ही अंदरुनी इलाकों से आप जापान के किसी बड़े शहर के पास पहुँचते हैं कंक्रीट के घने जंगलों से आपका सामना होता है। अन्य देशों से उलट जापान में ऐतिहासिक इमारतें बिड़ले ही दिखाई पड़ती हैं। प्राकृतिक और युद्ध से जुड़ी त्रासदियाँ इसकी मुख्य वज़ह रही हैं। जापान में आने के बाद सबसे पहला महानगर जो मेरी नज़रों के सामने से गुजरा वो था फुकुओका।



फुकुओका (Fukuoka) जापान के चार प्रमुख द्वीपों में से एक क्यूशू द्वीप का सबसे बड़ा शहर है और इसके उत्तर पश्चिम में समुद्र तट के किनारे बसा हुआ है। अगर आप मानचित्र में देखें तो आप पाएँगे कि टोक्यो से कहीं ज्यादा ये दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल के करीब है। पुरातन काल से ये शहर चीन और कोरिया की ओर से जापान का प्रवेशद्वार कहा जाता था। तेरहवीं शताब्दी में चीन पर मंगोलों का कब्जा हो गया। चीन के बाद मंगोलों की नज़र जापान पर पड़ी। मंगोलों ने तो पहले जापानी कामकूरा शासकों को धमकी भरे पत्र लिखे। जब जापानियों पर इसका असर नहीं हुआ तो मंगोलों ने 1274 ई में क्यूशू द्वीप के इसी प्रवेशद्वार से जापान पर हमला बोल दिया। 

आइए चलें गढ़वाल हिमालय की गंगोत्री समूह की चोटियों की सैर पर!

कानाताल में बिताया गया तीसरा दिन सुबह से ही काफी व्यस्त रहा। सवा तीन किमी की मार्निंग वॉक और नाश्ते को निबटाने के बाद हम टिहरी बाँध (Tehri Dam) गए और फिर वहाँ से लौटकर दोपहर में धनौल्टी (Dhanaulti) होते हुए मसूरी के लिए निकल गए।  कानाताल, टिहरी और फिर धनौल्टी जाते समय हमें गढ़वाल हिमालय की अलग अलग चोटियों के दर्शन हुए। इसमें वो चोटी भी शामिल थी जिसे पहचानने के लिए एक प्रश्न आपसे मैंने पिछली पोस्ट में पूछा था। जैसा कि आपको पिछली पोस्ट में बताया था कि मैंने इन चोटियों का नाम पता करने के लिए नेट पर उपलब्ध नक़्शों और चित्रों की मदद ली। दो तीन रातों की मेहनत से मैं अपने कैमरे द्वारा खींचे अधिकांश चित्रों में दिख रही चोटियों को पहचान सका। सच पूछिए तो जैसे जैसे ये अबूझ पहेली परत दर परत खुल रही थी, मन आनंदित हुए बिना नहीं रह पा रहा था।  तो चलिए आज की पोस्ट में आपको ले चलता हूँ गढ़वाल हिमालय  की गंगोत्री समूह की चोटियों के अवलोकन पर ।

कानाताल (Kanatal) के क्लब महिंद्रा रिसार्ट के ठीक सामने जंगल के बीच से जाता ट्रेकिंग मार्ग है। जैसे ही आप जंगलों के बीच चलना शुरु करते हैं लंबे वृक्षों के बीच से गढ़वाल हिमालय की चोटियाँ दिखने लगती हैं। पर घने जंगलों की वजह से आपको क़ैमरे में क़ैद करने के लिए करीब सवा किमी तक चलना पड़ता है। इस जगह पर सामने कोई वृक्ष नहीं हैं। कानाताल से सबसे पहले जिस पर्वत चोटी का दीदार होता है उसका नाम है बंदरपूँछ ! वैसे लोग कहते हैं कि बंदर की पूँछ के आकार का होने के कारण इसका ये नाम पड़ा।  मुझे तो इस चोटी के ऊपरी स्वरूप को देखकर ऐसा नहीं लगा पर वो कहते हैं ना कि सही पहचान करने के लिए वो नज़र होनी चाहिए जो शायद विधाता ने मुझे नहीं बख्शी।:)
 तीन चोटियों के ऊपर गर्व से आसन जमाए बैठी बंदरपूँछ की जुड़वाँ चोटियाँ

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

चित्र पहेली 21 : क्या आप हिमालय प्रेमी हैं? तो फिर पहचानिए इस चोटी को !

हिल स्टेशन तो हम सभी कभी ना कभी जाते ही रहते हैं। किसी भी पर्वतीय स्थल में जाइए वहाँ आपको देखने की जगहों की सूची में भांति भांति के View Points जरूर मिल जाते हैं। कम ऊँचाई वाली जगहों में अक्सर इन विशेष बिंदुओं से उस जगह का सूर्योदय (Sunrise Point) या सूर्यास्त (Sunset Point) देखा जा सकता है। 

पर ज्यादा ऊँचाई वाले पर्वतीय स्थलों में हमारी रुचि सूर्योदय या सूर्यास्त देखने के आलावा हिमआच्छादित पर्वतीय शिखरों को देखने की भी होती है। और अगर आपकी जानकारी इतनी हो कि आप बर्फ से ढकी इन चोटियों को देख कर ही पहचान लें तो बात ही क्या ! वैसे हिमालय पर्वत श्रृंखला से सबसे करीबी सामना तो उत्तरी सिक्किम की ओर जाते वक़्त हुआ था। पर पर्वतीय चोटियों को पहचानने का चस्का पिछले साल कौसानी जाने पर हुआ। इसलिए पिछले महिने जब Blogger's Conference के सिलसिले में   मसूरी के निकट कानाताल गया तो इस बार भी ये कोशिश जारी रही। कानाताल (Kanatal) और फिर टिहरी ( Tihri) जाते वक़्त चोटियाँ तो खूब दिखीं पर उनके नाम जानने में ज्यादा सफलता हाथ नहीं लगी। कई बार तो स्थानीय लोगों ने एक ही चोटी के अलग अलग नाम बता कर और संशय में डाल दिया।

ख़ैर मैंने चित्र खूब खींचे और वापस लौटकर नेट पर छानबीन की तो एक एक कर सारे खींचे चित्रों में दिख रहे पर्वत शिखरों के नाम के पीछे से पर्दा उठता गया। 

गढ़वाल हिमालय की इन खूबसूरत चोटियों के बारे में तो अगली पोस्ट में आप सबको विस्तार से बताऊँगा पर यदि आप अपने आप को हिमालय प्रेमी मानते हों तो ज़रा ये तो बताइए कि नीचे दिख रहे तीखी ढाल और घुमावदार आकार वाले शिखर का नाम क्या है ? विस्तार से उत्तर जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।


मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का एक यात्रा ब्लॉग

बुधवार, 21 नवंबर 2012

Unconference @ Kanatal : कानाताल में बिताया वो अविस्मरणीय दूसरा दिन !

पहले दिन की यात्रा के बाद थकान काफी हो गई थी। अगली सुबह जल्दी उठने का मन नहीं होते हुए भी हिमालय पर्वत श्रृंखला की चोटियों पर पड़ती धूप की पहली किरणों को देखने की उत्सुकता ने हमें छः बजे ही जगा दिया था। मेरे रूम पार्टनर दीपक  भी तैयार थे इस सुबह की सैर के लिए। सो करीब साढ़े छः बजे हम अपने रिसार्ट से बाहर आ गए। सड़क की दूसरी तरफ़ ही एक ट्रैकिंग मार्ग था। हम तेज कदमों से उस पर चल पड़े। थोड़ी दूर चलने के बाद ही पेड़ की झुरमुटों से हिमालय पर्वत श्रृंखला दिखने लगी। 



पर ये क्या ! कैमरे को चालू करते ही उसमें मेमोरी कार्ड एरर (Memory Card Error) दिखने लगा।। रात तक अच्छा भला कैमरा सुबह जल्दी उठाने पर एक बच्चे की तरह नाराज़ हो गया था। मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरें देख कर दीपक ने कार्ड को निकाल कर फिर से कैमरा चालू करने की सलाह दी। पर कार्ड किसी भी तरह मानने को तैयार ही नहीं था। नतीजन जॉली ग्रांट से लेकर शाम और फिर रात के कानाताल की तसवीरें कार्ड में ही दफ़न हो गयीं। बेवकूफी ये की थी कि अतिरिक्त कार्ड ले कर भी नहीं चला था। मायूस मन से मैं चुपचाप दीपक के साथ हो लिया। पगडंडी के एक ओर चीड़ और देवदार के वृक्षों से भरा पूरा घना जंगल था।

कभी कभी इनके बीच से बर्फ से ढकी चोटियों की झलक मिल जाती थी। पर एक किमी तक चलने के बाद भी पर्वतश्रृंखला का अबाधित दृश्य हम नहीं देख पा रहे थे। Unconference के लिए तैयार भी होना था इसलिए अगली सुबह फिर इसी मार्ग पर दूर तक जाने का निश्चय कर हम वापस लौट चले।


शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

Conclay @ Kanatal : साथी यात्रा ब्लागरों के साथ बिताया वो खुशनुमा पहला दिन !

पिछली बार सिक्किम में ट्रैवेल ब्लॉगर कांफ्रेस में ना जाने का अफ़सोस था पर जापान की यात्रा ऐसे अवसर पर आ गई थी कि मेरे पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं बचा था। पर अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में जब CLAY की ओर से दूसरी बार ऐसी ही एक कांफ्रेस में शामिल होने की गुजारिश की गई तो मेरे मुँह से पहले ना ही निकला क्यूँकि जिन तिथियों पर CONCLAY का आयोजन हो रहा था उस अंतराल में मैं पहले ही दक्षिण महाराष्ट्र के लिए अपना सपरिवार घूमने का कार्यक्रम बना चुका था। 29 को मुंबई से राँची वापसी की टिकट भी हो चुकी थी। पर अचानक ही ये ख्याल आया कि दक्षिण महाराष्ट्र की यात्रा तो 26 रात तक  खत्म हो रही है। बाकी दिन तो रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलने के लिए रखे थे। अगर श्रीमतीजी को वापस अकेले लौटने को तैयार कर लिया जाए और क्लब महिंद्रा वाले मुंबई से मुझे पिक अप कर लें तो कानाताल जाना संभव हो सकता है।


जब मैंने घुमक्कड़ ब्लॉगरों की इस कांफ्रेंस के बारे में पत्नी को बताया तो वो अनिच्छा से ही सही राजी हो गयीं। क्लब महिंद्रा वाले मेरे मुंबई से यात्रा करने के लिए पहले ही हामी भर चुके थे। गणपतिपूले, सिंधुदुर्ग, कोल्हापुर, पुणे होते हुए हम 26 अक्टूबर की आधी रात को मुंबई से करीब अपने अड्डे अंबरनाथ पहुँचे। मेल चेक करने पर पता लगा कि मुझे अपने साथियों से 28 की सुबह पाँच बजे मुंबई हवाई अड्डे पर मिलना है। पाँच बजे का मतलब था कि अंबरनाथ से रात तीन बजे ही निकल चलूँ। अब जहाँ छुट्टियों के लिए भाई बहनों के सारे परिवार एक जगह वर्षों बाद इकठ्ठा हों वहाँ रात के बारह एक बजे से पहले कहाँ सोना हो पाता है। रात डेढ़ बजे से एक घंटे के लिए बस आँखें भर बंद कीं। नींद ना आनी थी, ना आई। करीब सवा तीन बजे मैं सबसे विदा ले कर घर से निकल पड़ा। यूँ तो अंबरनाथ (जो कि कल्याण से लगभग दस किमी दूर है) से मुंबई हवाईअड्डे का सफ़र आम तौर पर ट्रैफिक की वज़ह से दो ढाई घंटे में पूरा होता है पर सुबह का वक़्त होने की वज़ह से मैं सवा घंटे में ही पहुँच गया। बीच में अँधेरी में सड़क किनारे गाड़ी रुकवा चाय की चुस्कियाँ भी लीं। सुबह के साढ़े चार बजे जब हवाई अड्डे पर पहुँचा तो वहाँ कोई जाना पहचाना चेहरा दिख नहीं रहा था। वैसे भी मुंबई से जिन चार लोगों को जाना था उनमें से किसी से पहले मैं मिला भी नहीं था। पर ये जरूर था कि अपनी मुखपुस्तिका यानि फेसबुक की बदौलत इनमें से कुछ की शक़्लों का खाका दिमाग में था।



गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

मेरी जापान यात्रा : माउंट साराकुरा बारिश और वो रात की जगमगाहट

जैसा कि पिछली पोस्ट में आपको बताया स्लोप कॉर से उतरते ही मौसम में आई तब्दीली साफ नज़र आ रही थी। शाम के छः बजने में अभी भी पन्द्रह मिनट बाकी थे। माउंट साराकूरा के शिखर पर एक रेस्ट्राँ भी था पर उसमें हमारे काम लायक ज्यादा कुछ था नहीं। इससे पहले कि मौसम और बिगड़ जाए हमने शिखर के आस पास फैले उद्यान से अलग अलग दिशा से दिखते दृश्यों को देख लेना उचित समझा। 

अभी हम शिखर से नीचे जाती सीढ़ियों से पास के उद्यान में बने व्यू प्वाइंट की ओर जा ही रहे थे कि बूँदा बाँदी शुरु हो गई। हम भाग कर उद्यान के दूसरे कोने में बनी छतरी के अंदर जमा हो गए। छतरी तक पहुँचते पहुँचते बारिश तेज़ हो चुकी थी। छतरी से दूसरे कोने का दृश्य तो दूर कुछ ही देर में हमें चारों ओर से बरसाती मेघों ने यूँ घेर लिया कि पचास मीटर ऊपर बना भोजनालय भी आँखों से ओझल हो गया। सबके कैमरे तुरत फुरत जेबों के अंदर आ गए। कुछ देर गपशप चली, गाने गाए गए पर बाहर ना बारिश थम रही थी ना धु्ध छटने का नाम ले रही थी। एक घंटे बिताने के बाद भी जब बारिश कम नहीं हुई तो हम सबने अनमने मन से भींगकर ही वापस भोजनालय तक जाने का निश्चय किया।

कुछ लोग तो बादलों की आवाजाही देखकर वापस लौटने का भी मन बनाने लगे पर मुझे पूरा यकीं था कि तेज़ हवा क साथ ये बादल भी छँट जाएँगे। ऐसा बीच बीच में कई बार हो भी रहा था पर जैसे ही बादलों का एक रेला कीटाक्यूशू शहर को पार करता उसके पीछे उसकी जगह भरने के लिए बादलों के और झुंड वापस आ जाते। बस बीच बीच में हमें शाम की परछाइयों में डूबते कीटाक्यूशू की कुछ झलकें नसीब हो जाती थीं।



इधर हम सब माउंट साराकुरा से दिखने वाले रात के दृश्य की आस लगाए बैठे थे उधर सूरज महाराज डूबने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे। शाम के सात बजे इनके कुछ ऐसे मिज़ाज थे। बादलों के पीछे से निकल कर जब मन करता मुँह चिढ़ाकर वापस चले जाते।
 


मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

मेरी जापान यात्रा : चलिए आज माउंट साराकुरा (Mount Sarakura) के शिखर पर !

जापान के सफ़र में अब तक आपने पढ़ा कि कैसे हम दिल्ली के टर्मिनल तीन से से टोक्यो और फुकुओका होते हुए कीटाक्यूशू पहुँचे और कैसा बीता हमारा जापान में पहला दिन? जापान में रहते हुए पहला सप्ताहांत करीब आ रहा था। सुबह नौ बजे से शाम साढ़े पाँच तो ट्रेनिंग कोर्स में ही निकल जाते थे। शाम का समय कीटाक्यूशू (Kitakyushu) की अनजान खाली सड़कों पर चहलकदमी करने और आस पास की दुकानों का मुआयना करने में ही निकला जा रहा था। इसीलिए पन्द्रह लोगों के हमारे भारतीय समूह को सप्ताहांत का बेसब्री से इंतजार था। आपस की बातचीत के बाद तय हुआ कि शनिवार यानि तीस जून को इस इलाके की रेट्रो सिटी मोज़िको (Moziko) का भ्रमण किया जाए और रविवार यानि एक जुलाई को माउंट साराकुरा (Mount Sarakura) की चोटी पर धावा बोला जाए। पर मोज़िको की यात्रा के बारे में चर्चा करने से पहले मैं आपको माउंट साराकुरा ले चलना चाहता हूँ।

जब भी हम अपने प्रशिक्षण केंद्र से निकलते थे सामने यही चोटी हम पर आँखे जमाए मिलती थी। तो दिल किया कि क्यूँ ना जापान में सैर सपाटे की बात 621 मीटर ऊँची इस पहाड़ी माउंट साराकुरा से शुरु करूँ। आप सोच रहे होंगे कि इस छोटी सी पहाड़ी में ऐसी कौन सी बात है जिसकी वज़ह से लोग इसकी चोटी पर जाते हैं? दरअसल कीटाक्यूशू शहर की सबसे ऊँची पहाड़ी होने के नाते यहाँ से आप शहर के पाँचों कस्बो यहाता, तोबाता, मोज़ी, वाकामात्सू और कोकुरा का दृश्य देख सकते हैं। Kanmon Strait के पास बसे इन कस्बों को रात्रि बेला में माउंट साराकुरा से देखना एक नयनाभिराम दृश्य उपस्थित करता है और इसीलिए इस दृश्य की गणना जापान के तीन प्रमुख नाइट व्यूस (Three best night views of Japan) में की जाती है।

माउंट साराकुरा की चोटी पर जाने के लिए तीन अलग प्रकृति के वाहनों का सहारा लेना पड़ता है बस, केबल कार (Cable Car) और फिर स्लोप कार (Slope Car)।  नीचे चित्र में आप देख सकते हैं कि कैसे पहले केबल कार  की सफेद धारी और फिर स्लोप कार  की नीली धारी वाले मार्ग से चोटी पर पहुँचते हैं।



बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

जापान दर्पण : जापान और विकलांगता

याद है आपको कुछ महिने पहले ही टीवी पर एक कार्यक्रम आया था सत्यमेव जयते इस कार्यक्रम में भारत में विकलांगों को दी जाने वाली सहूलियतों को चर्चा का विषय बनाया गया था। उस बहस से जो बात बाहर निकल कर आई थी वो ये कि अगर एक विकलांग अपनी मानसिक क्षमता के बल बूते पर इस समाज में अपनी पहचान बनाना चाहे तो उसे रोजमर्रा की जिंदगी में उसे पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। बस, ट्रेन या आफिस की सीढ़ियों पर चलने के लिए रैम्प नहीं और जो हैं उनका रखरखाव नहीं। सड़क, स्कूल या कॉलेजों में अंधे लोगों को चलने के ना ढ़ंग के रास्ते बने हैं ना सीढ़ियों पर रेलिंग। छोटे कस्बों और शहरों की कौन कहे दिल्ली जैसे महानगर में भी ऐसी सुविधाओं से युक्त गिने चुने स्कूल ही हैं।

दरअसल आम भारतीयों की चेतना में ये बात है ही नहीं कि जब हम कोई भी सड़क या इमारत बना रहे हों तो उसके डिजाइन में विकलांगों के लिए क्या परिवर्तन करने चाहिए?

इसलिए जब मैंने तीन महिले पहले जापान की धरती पर कदम रखा तो वहाँ विकलांगों के लिए दी जाने वाली सहूलियत को देख कर आँखें फटी की फटी रह गयी। पिछली प्रविष्टि में मैंने आपको बताया था कि किस तरह एक आम आदमी जापान में शान से सड़क पार करता है। पर विकलांग को अगर सड़क पार करनी है तो वो ट्रैफिक सिग्नल को एक बटन दबा कर हरा से लाल कर सकता है।

जापान की पौने तेरह करोड़ की आबादी में  पैंतीस लाख शारीरिक रूप से अपंग हैं, पच्चीस लाख मानसिक रूप से बीमार है और पाँच लाख मानसिक अपंगता से पीड़ित हैं। जापान ने अपने इन पैंसठ लाख लोगों की जरूरतों का ध्यान रखने के लिए सारे सार्वजनिक स्थलों पर सुविधाएँ मुहैया करायी हैं। स्टेशनों पर लिफ्ट, बस के दरवाजों पर व्हीलचेयर को लिफ्ट से उठाने की सुविधा और ट्रेनों में सीधे प्लेटफार्म से बिना किसी पॉयदान के ट्रेन के अंदर घुसने की सुविधा तो आम है। इनमें से कुछ सहूलियतों को अपने जापान भ्रमण के दौरान कैमरे में क़ैद करने में कामयाब रहा तो आइए देखें इन सुविधाओं की कुछ झलकियाँ



बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

मेरी जापान यात्रा : कीटाक्यूशू (Kitakyushu) का वो पहला दिन!

जापानी समय के अनुसार दोपहर बारह बजे हम फुकुओका पहुँच चुके थे। फुकुओका से हमारा अगला पड़ाव था कीटाक्यूशू शहर (Kitakyushu City) था जो क्षेत्रफल के हिसाब से फुकुओका प्रीफेक्चर का सबसे बड़ा शहर है। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही हल्की बूँदा बादी शुरु हो गई थी । मौसम सुहावना था । तापमान यही कोई 26 डिग्री के आसपास। विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि राँची से हजारों मील दूर आने के बावजूद भी मौसम वही का वही निकलेगा जैसा हम उसे अपने शहर छोड़ आए थे। एक जापानी महिला हमें अपनी गाड़ियों तक पहुँचाने के लिए बाहर खड़ी थीं। हमारा समूह यूँ तो पन्द्रह लोगों का था पर दिल्ली से हम दस लोग जो कि भारत के अलग अलग राज्यों से थे, साथ साथ आए थे। दस लोगों के लिए तीन वैन मँगाई गयी थीं। 


इतने सुहावने मौसम के बावजूद ड्राइवर ने एसी चला रखा था। अब बाहर का मौसम इतना सुहाना हो तो भला विदेशी हवा में साँस लेने का मौका हम क्यूँ छोड़ते ? सो ड्राइवर से नज़रें बचा कर चुपके से मैंने एक शीशा खोल लिया। पर वैन की गति इतनी तीव्र थी कि हवा के तेज थपेड़ों ने मुझे शीशा बंद करने पर मजबूर कर दिया।


फुकुओका से कीटाक्यूशू की दूरी मात्र अस्सी किमी है। इस रफ्तार से हम एक घंटे से कम में कीटाक्यूशू पहुँचने वाले थे। बाहर भीड़ का कोई नामोनिशान नहीं था। सड़कों पर तरह तरह की कारें दौड़ रही थीं। सुजुकी की कई गाड़ियाँ दिखीं जो हमारी यहाँ की गाड़ियों जैसी ही थीं। रास्ते में कुछ रंग बिरंगी इमारतें नज़र आयीं उनमें से एक ये रही..



बुधवार, 19 सितंबर 2012

जादू मानसून का : जब छत्तीसगढ़ ने ओढ़ी धानी चुनरिया ! Chhatisgath : Monsoon Magic !

जापान की हरियाली दिखाने के बाद वैसे तो मेरा इरादा आपको वहाँ के कंक्रीट जंगल दिखाने का था पर पिछले हफ्ते भिलाई के दौरे में कुछ ऐसे कमाल के दृश्य देखने को मिले कि वो कहते हैं ना कि "जी हरिया गया"। जिन दृश्यों को मैंने चलती ट्रेन से अपने मोबाइल कैमरे में क़ैद किया वो रेल से सफ़र के कुछ यादगार लमहों में से रहेंगे।

वैसे सामान्य व स्लीपर क्लॉस में यात्रा करते करते मेरा पूरा बचपन और छात्र जीवन बीता पर कार्यालय और पारिवारिक यात्राओं की वज़ह से विगत कई वर्षों से इन दर्जों में यात्रा ना के बराबर हो गई थी। पर भिलाई से राँची आते वक़्त जब किसी भी वातानुकूल दर्जे में आरक्षण नहीं मिला तो मैंने तत्काल की सुविधा को त्यागते हुए स्लीपर में आरक्षण करवा लिया। वैसे भी बचपन से खिड़की के बगल में बैठ कर चेहरे से टकराती तेज़ हवा के बीच खेत खलिहानों, नदी नालों, गाँवों कस्बों और छोटे बड़े स्टेशनों को गुजरता देखना मेरा प्रिय शगल रहता था। आज इतने दशकों बाद भी अपने इस खिड़की प्रेम से खुद को मुक्त नहीं कर पाया। भरी दोपहरी में जब हमारी ट्रेन दुर्ग स्टेशन पर पहुँची तो हल्की हल्की बूँदा बाँदी ज़ारी थी। साइड अपर बर्थ होने से खिड़की पर तब तक मेरी दावेदारी बनती थी जब तक रात ना हो जाए।



भिलाई से रायपुर होती हुई जैसे ही ट्रेन बिलासपुर की ओर बढ़ी बारिश में भीगे छत्तीसगढ़ के हरे भरे नज़ारों को देखकर सच कहूँ तो मन तृप्त हो गया। मानसून के समय चित्र लेने में सबसे ज्यादा आनंद तब आता है जब हरे भरे धान के खेतों के ऊपर काले मेघों का साया ऍसा हो कि उसके बीच से सूरज की रोशनी छन छन कर हरी भरी वनस्पति पर पड़ रही हो। यक़ीन मानिए जब ये तीनों बातें साथ होती हैं तो मानसूनी चित्र , चित्र नहीं रह जाते बल्कि मानसूनी मैजिक (Monsoon Magic) हो जाते हैं। तो चलिए जनाब आपको ले चलते हैं मानसून के इस जादुई तिलिस्मी संसार में । ज़रा देखूँ तो आप इसके जादू से सम्मोहित होने से कैसे बच पाते हैं ?


गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मेरी जापान यात्रा : माउंट फूजी व हरे भरे खेत खलिहान !

चीन , अमेरिका, ब्राजील और भारत की तुलना में जापान एक छोटा सा देश है। एक ऐसा देश जहाँ की शहरी आबादी भारत के महानगरों को भी टक्कर दे सके। पर जापान के टोक्यो (Tokyo) और ओसाका (Osaka) जैसे महानगरों में दूर दूर तक दिखते कंक्रीट के जंगलों के परे भी एक दुनिया है जो दिखती तब है जब आप  इन शहरों से इतर जापान के अंदरुनी भागों का सफ़र करते है। अब आप ही बताइए जिस देश का अस्सी फीसदी इलाका छोटे बड़े पहाड़ों से घिरा हो वो भला प्रकृति की अनमोल छटा से कैसे विलग हो सकता है? हाँ ये जरूर है कि चार हजार द्वीपों के इस देश में विकास और नगरीकरण ने यहाँ की नैसर्गिक सुंदरता को चोट जरूर पहुँचाई है। पर पहाड़ों के रहने की वज़ह से अभी भी जापान के बहुत सारे इलाके इस प्रभाव से मुक्त रह पाए हैं।

पहाड़ों से सटी इन हरी भरी वादियों के बगल से जब भी हम गुजरे एक दृश्य हमें अपने मुल्क की याद बार बार दिलाता रहा । ये दृश्य था धान के लहलहाते खेतों का। दरअसल जून का महिना जापान में बारिश का होता है। ये बारिश मध्य जुलाई तक चलती है और इसी समय में धान की फसल भी बोई जाती है। 

दक्षिण और पूर्वी भारत की तरह ही जापान में चावल भोजन का अभिन्न अंग माना जाता है। चावल का शाब्दिक जापानी अनुवाद कोमे है। वैसे जापानी इसे ओ कोमे (o kome) और पकाने के बाद गो हान (go han) भी कहते हैं। वेसे 'ओ' और 'गो' उपसर्ग सम्मानसूचक हैं जिससे ये पता चलता है कि जापानी संस्कृति में शुरु से चावल को कितना महत्त्व दिया जाता रहा है। 

हवाई जहाज से जापान की इस हरियाली को देखने का अपना ही आनंद है। तोक्यो से जापान के दक्षिणी प्रदेश फुकोका की ओर जब हमारे विमान ने उड़ान भरी तो कंक्रीट के जंगलों की जगह जो दृश्य सबसे पहले दिखा था वो था हरे भरे जंगलों और धान के इन खूबसूरत खेतों का। तो चलिए ना आखिर इस हरियाली का आनंद उठाने से आप क्यूँ वंचित रहेंगे? 


बादल के पुलिंदे , बलखाती नदी , नदी के किनारे छोटे छोटे मकान और उनके पीछे  हरे भरे खेतों का काफ़िला... दिल नहीं करता आपका पंछी की तरह इन बादलों की संगत में मँडराने का...


बुधवार, 29 अगस्त 2012

मेरी जापान यात्रा : सफ़र नई दिल्ली से टोक्यो का ! ( My visit to Japan : Newdelhi to Tokyo)

पहली बार अंडमान जाते वक़्त हवाई जहाज़ पर चढ़ना हुआ था। वैसे उस जैसी रोचक हवाई यात्रा फिर नहीं हुई। अब प्रथम क्रश कह लीजिए या आसमान में उड़ान, पहली बार का रोमांच कुछ अलग होता है। विगत कुछ वर्षों में हवाई यात्राओं में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बैंगलोर, भुवनेश्वर और हैदराबाद जाना होता रहा है पर अंतरराष्ट्रीय उड़ान पर तो चढ़ने का मौका अब तक नहीं मिला था। छोटे थे तो पिताजी एक बार पटना के हवाई अड्डे पर ले गए थे। दस रुपये के टिकट में तब सीढ़ी चढ़ कर इमारत की छत से विमान को उड़ता और लैंड करते हुए देखा जा सकता था। तब पटना से काठमांडू के लिए रॉयल नेपाल एयरलाइंस (Royal Nepal Airlines) के विमान चला करते थे। उनका वृहत आकार और बाहरी साज सज्जा तब बाल मन को बहुत भाए थे। ख़ैर उस ज़माने में हम बच्चों के लिए हवाई जहाज़ बस देखने की चीज हुआ करता था। इसीलिए तीन दशकों बाद जब एक लंबी अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्रा का अवसर मिला तो मुझे बेहद उत्साहित होना चाहिए था। पर क्या ऐसा हो सका था ? 

यात्रा के दो दिन पहले तक मनःस्थिति वैसी नहीं थी। होती भी कैसे वीसा एप्लीकेशन से ले कर बाकी की काग़ज़ी कार्यवाही से जुड़ी भागदौड़ ने हमारे पसीने छुड़ा दिये थे। ऊपर से दिल्ली का उमस भरा मौसम भी कोई राहत नहीं पहुँचा रहा था। काग़ज़ी काम तो जाने के एक दिन पहले खत्म हो गया था पर चिंताएँ अभी थमी नहीं थी। सबसे बड़ी चिंता पापी पेट की थी। चालिस दिनों का सफ़र और वो भी ऐसे शाकाहारी के लिए जिसने आमलेट के आलावा किसी सामिष भोजन को कभी हाथ ना लगाया हो, निश्चित ही चुनौतीपूर्ण था :)। जापान जा चुके अपने जिन सहकर्मियों से वहाँ के भोजन के बारे में बात होती पहला सवाल यही दागा जाता क्या आप शाकाहारी हैं? हमारी हाँ सुनकर सामने वाले के चेहरे पर तुरंत चिंता की लकीरें उभर आती और फिर ठहरकर जवाब मिलता Then you are going to have problem. 

उनकी बातों की सत्यता परखने के लिए गूगल का सहारा लिया । पता चला जापानियों के लिए शाकाहार को समझ पाना ही बड़ा मुश्किल है,प्रचलन की बात तो दूर की है। जिस देश में खेती के लिए ज़मीन ना के बराबर हो और जो चारों ओर समुद्र से घिरा हो वहाँ के लोग शाकाहारी रह भी कैसे सकते हैं?

अब समस्या हो तो अपने देश में समाधान बताने वालों की कमी तो होती नहीं है। सो चावल, दाल, सत्तू , ओट्स से लेकर प्री कुक्ड फूड ले जाने के मशवरे मिले। अपने ट्रेनिंग कार्यक्रम के लिए जहाँ हमें जाना था वहाँ सख़्त हिदायत थी कि कमरे में ख़ुद खाना बनाना मना है। सो पहला सुझाव तो रद्द कर दिया। रही सत्तू की बात तो सत्तू की लिट्टी और पराठे तो खूब खाए थे पर लोगों ने कहा भाई सत्तू घोर कर भी पी लोगे तो भूखे नहीं मरोगे। दिल्ली पहुँचे तो वहाँ कुछ और सलाह दी गई। नतीजन अपने बड़े से बैग को मैंने सत्तू, भांति भांति प्रकार के मिक्सचर / बिस्किट्स, मैगी और प्री कुक्ड फूड के ढेर सारे पैकेट, घर में बने पकवानों से इतना भर लिया कि उसका वज़न पच्चीस के आस पास जा पहुँचा। ख़ैर भला हो जापान एयर लाइंस (Japan Air Lines) वालों का कि वे विदेश यात्रा में 23 kg  के दो बैग ले जाने की इजाज़त देते हैं सो चेक इन में दिक्कत नहीं हुई।

दिल्ली से हमारे समूह के सात लोग जाने वाले थे। पर सब  बाहर का नज़ारा लेने के लिए अलग अलग खिड़कियों के पास जा बैठे। अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में 2+2 के आलावा 4 सीटें बीच में होती हैं।



रविवार, 19 अगस्त 2012

चित्रों में दिल्ली का अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डा T3 !

दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के T3 टर्मिनल में पहले भी जाना होता रहा है और इसके घरेलू टर्मिनल की झलकें मैं पिछले साल आपको दिखा ही चुका हूँ। पर पिछले महिने जापान जाने के दौरान T3 के अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल को देखने का मौका मिला। वैसे अगर आपके मन में ये भ्रांति हो कि अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल दिखने में घरेलू टर्मिनल से बहुत अलग होगा, तो उसे दूर कर लें। दिखने में टर्मिनल के दोनों हिस्से एक से ही हैं। हाँ अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल होने की वज़ह से कुछ बातें आपको नयी जरूर लगेंगी। मसलन सुरक्षा जाँच के पहले Immigration Check काउंटर से गुजरना। खरीददारी के लिए ढेर सारी ड्यूटी फ्री दुकानें और भारत से वापस लौटने वाले विदेशियों के लिए सोवेनियर शॉप्स। 

जापान की इस यात्रा में मुझे टोकियो (तोक्यो) का नारिटा (Narita Terminal, Tokyo) और बैंकाक का स्वर्णभूमि हवाई अड्डा (Swarnabhoomi Airport, Banglok) भी देखने को मिला। पर उनके मुकाबले हमारा T3 कहीं ज्यादा सुंदर और विस्तृत है। यानि आप गर्व से ये कह सकते हैं कि हमारी राजधानी का हवाई अड्डा विश्वस्तरीय है। तो चलिए आपको दिल्ली के हवाईअड्डे के इस हिस्से के कुछ दृश्य दिखाता चलूँ। 

अंतरराष्ट्रीय प्रस्थान के ठीक सामने एक प्रतिमा लगी है जो इस हिस्से की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है। दूर से इसे देखने पर गौतम बुद्ध की मूर्ति सा आभास होता है। पर पास आने से पता लगता है कि ये प्रतिमा भगवान बुद्ध की ना होकर भगवान सूर्य की है। इसे बनाने वाले शिल्पी का नाम है सुरेश गुप्ता। सुरेश गुप्ता ने इस शिल्प को गढ़ने में ग्यारह वीं सदी में दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य की कांस्य प्रतिमाओं से प्रेरणा ली है। 


शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

चलिए जापान..पर पहले सुनिए जापान रेडिओ पर दिया गया मेरा साक्षात्कार !

पिछले डेढ़ महिने से ये ब्लॉग सुसुप्तावस्था में पड़ा है। अब करें भी तो क्या पहली बार विदेश यात्रा पर गए थे और वो भी जापान जहाँ सप्ताहांत के दो दिन छोड़कर जापानियों ने हमारा बाकी समय इस तरह सुनोयोजित तरीके से बाँटा हुआ था कि आप ब्लॉग लिखने के समय के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। और हफ्ते में शनिवार व रविवार को सुबह से ही हम कूच कर देते थे एक नए मुकाम के लिए, एक नए अनुभव की खोज़ में।

(चित्र में टोकियो टॉवर जो कुछ  महिनों पहले तक टोकियो की पहचान माना जाता था।)

इतनी लंबी अवधि का ट्रेंनिंग कार्यक्रम होने की वज़ह से मुझे जापानी लोगों की कार्यशैली, उनके तौर तरीके को करीब से देखने का मौका मिला। सच मानिए घुमक्कड़ी का मज़ा सिर्फ नई जगहों को देखने भर का नहीं होता। पूर्ण आनंद तो तब आता है जब आप जहाँ गए हैं उनकी संस्कृति को समझ पाते हैं। देखिए मैंने अपने इस ब्लॉग पर शुरुआत से घुमक्कड़ रिक स्टीवस की जो पंक्तियाँ साइड बार में लगाई हैं उन्हें आज फिर से दोहराने का मन कर रहा है..

यात्रा एक लत की तरह है, यह आपको खुशमिज़ाज और किसी एक जगह का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का नागरिक बना देती है। इसी की बदौलत जाना जा सकता है कि पृथ्वी एक घर है, जहाँ छः बिलियन से ज्यादा लोग बिल्कुल हमारी ही तरह महत्त्वपूर्ण व प्रेम, आतिथ्य, सौहार्द, मित्रता, सहानुभुति से सराबोर हैं। यात्रा व्यक्तित्व में बदलाव लाती है, परिपेक्ष्य में विस्तार करती है और जीवन के गुणों को नापने के नए तरीके सिखाती है।

और सच कहूँ तो मेरी इस जापान यात्रा ने रिक स्टीव्स के ये शब्द चरितार्थ कर दिए हैं। इन चालिस दिनों में हम पन्द्रह भारतीयों का समूह अधिकतर जापान के दक्षिणी पश्चिमी औद्योगिक शहर कीटाक्यूशू में रहा पर जापान के विभिन्न संयंत्रों को देखने के लिए हम टोकयो, क्योटो, ओसाका, कोबे और हिरोशिमा जैसे बड़े शहरों से भी गुजरे। जिस प्रेम और आतिथ्य का हमने स्वाद चखा उसे शब्दों में उतारना सरल नहीं है। फिर भी मेरी कोशिश होगी कि अगले कुछ महिनों में अपने अनुभवों को आप तक ईमानदारी तक पहुँचा सकूँ।

अपनी इस यात्रा के दौरान जापान की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा NHK के हिंदी प्रभाग द्वारा मेरा एक साक्षात्कार भी लिया गया। कभी कभी जब बहुत सारे यादगार लमहे आपके ज़ेहन में आ जाते हैं तो मन तुरंत निर्णय नहीं ले पाता कि क्या कहें और क्या ना कहें। इस बातचीत के दौरान मेरी मानसिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही रही।चूंकि ये बातचीत टेलीफोन के माध्यम से हो रही थी और फोन की दूसरी ओर मुनीश भाई थे इसलिए मुझे ऐसा लग रहा था कि ये बातचीत परिचितों की लंबी गप्प का हिस्सा है। बातचीत का आरंभिक भाग जापान में चल रही हमारी ट्रेनिंग के बारे में था जबकि दूसरे भाग में ज्यादा बातें जापान प्रवास के दौरान बटोरे मेरे अनुभवों के बारे में रहीं। ये बातचीत कल और परसों रेडिओ जापान की हिंदी सेवा पर दो भागों में प्रसारित हो चुकी है। तो इससे पहले जापान का विधिवत यात्रा संस्मरण शुरु हो आप पहले इस बकबक को झेल लीजिए।



और हाँ मेरा राजस्थान पर चल रहा यात्रा वृत्तांत माउंट आबू से आगे नहीं बढ़ पाया था। वो सिलसिला भी इस नई श्रृंखला के बाद या साथ साथ जारी रखने की कोशिश करूँगा। मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का यात्रा ब्लॉग

मंगलवार, 26 जून 2012

CONCLAY व जापान .... जब दो अच्छे अवसर मिले एक साथ !

हर साल गर्मियों में हम शायद ही कहीं निकलते हैं। अपनी राँची मुझे गर्मियों के लिहाज़ से सबसे अच्छी लगती रही है। पारा चालिस के ऊपर चढ़ा नहीं कि काली घटाएँ उमड़ घुमड़ कर जमीन और उस पर बने मकानों की गर्मी सोख लेती है। पर इस साल..इस साल तो मामला ही कुछ उलट हो गया  राँची में गर्मी की शुरुआत वैसी ही रही यानि थोड़ी गर्मी और फिर थोड़ी बारिश। पर जनाब दस मई के बाद से मौसम ने ऐसा मिज़ाज बदला कि हम  चालिस दिनों के लिए पानी की एक बूँद को तरस गए। बादल रोज़ तफ़रीह के लिए आते और OK TATA Bye Bye कह कर चले जाते। 

गर्मी की एक ऐसी ही निढ़ाल करने वाली दुपहरी में एक मेल आया कि क्या आप एक ब्लॉगर कैंप में आना चाहेंगे। बड़ी खुशी हुई कि चलो इस गर्मी से निजात मिलेगी। खुशी खुशी हामी भरी तो पता चला कि वो कैंप जून के आखिर में सिक्किम में है। मन ही मन सोचा कि गर्मियाँ तो अबकी भगवन राँची में ही कटवाएँगे। कैंप क्लब महिंद्रा वालों ने आयोजित किया था पूर्वी सिक्किम में पेलिंग के रास्ते में आने वाले अपने रिसार्ट में।


महिन्द्रा ने भारत में यात्रा से जुड़े कुछ खास हस्तियों को अपने खर्चे पर यहाँ आमंत्रित किया था। मुझे जब बाकी लोगों के नाम पता चले तो उनमें से एक तो नेट मित्र निकलीं। वहाँ भिन्न भिन्न परिवेश से जुड़े लोगों को यात्रा संबंधी अनुभवों को साझा करने के लिए क्लब महिंद्रा ने ये मंच प्रदान किया था। मैंने भी अपने लिए हिंदी में यात्रा ब्लागिंग विषय चुन रखा था। पर होनी को कुछ और मंजूर था। 

आफिस में छुट्टियाँ भी मिल गई थीं कि अचानक जून के अंतिम सप्ताह में जापान जाने के लिए सरकारी आदेश आ गया। तारीखें ऐसी कि दो में से एक ही जगह जाना संभव था। सो भरे मन से क्लब महिंद्रा के प्रस्ताव को ठुकराना पड़ा। पर उन्होंने मुझे इस सम्मान के क़ाबिल समझा इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। साथ ही इस बात का अफ़सोस रहेगा कि मैं इस Un conference में शामिल होने वाली विभूतियों से मिलने का अवसर गँवा बैठा।  अब तो शायद मृदुला से ही पता चले कि वहाँ क्या कुछ हुआ। Conclay में शामिल होने वाले सारे साथियों को मेरी तरफ से  यात्रा की अग्रिम शुभकामनाएँ। आशा है ये अनौपचारिक संवाद अपने मकसद में पूर्णतः सफल होगा।




आज मैं राँची की झमाझम बारिश के बीच मैं सिक्किम जाने वाले रास्ते पर सफ़र कर रहा होता। पर इस बार जब राँची में बारिश हो रही है तो दिल्ली में एक हफ्ते से डेरा डाले बैठा हूँ। आज ही जापान के लिए रवाना होना है। पिछले कुछ दिन दिल्ली में बीतने के बाद भी यहाँ अपने मित्रों से बात करने और मिलने का वक़्त नहीं निकाल पाया। कुछ तो  ये तपता झुलसाता मौसम और कुछ आफिस की भागादौड़ी इसकी वज़ह रही। नेपाल को छोड़ दें तो ये मेरी पहली विदेश यात्रा है! एक शाकाहारी जीव जापान में कैसे रह पाएगा ये भी अपने आप में एक समस्या है। ख़ैर नई जगह जाने का रोमांच भी है। देखें कैसी रहती है यात्रा ! अपने अनुभव तो इस ब्लॉग पर शेयर करूँगा ही। मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का यात्रा ब्लॉग

मंगलवार, 5 जून 2012

रंगीलो राजस्थान : आइए करें माउंट आबू के बाजारों की सैर !

माउंट आबू का ये सफ़र अधूरा रहेगा अगर मैं आपको यहाँ के बाजारों की सैर ना कराऊँ। वैसे तो शिमला. मसूरी और दार्जीलिंग जैसे हिल स्टेशनों की तुलना में माउंट आबू के बाजारो में वो चमक दमक नहीं पर यहाँ की दुकानों में महिलाओं की भीड़ को देखकर आप ये जरूर अंदाजा लगा सकते हैं कि यहाँ उनके काम का सामान बहुतायत में  मिलता होगा। 

आबू का मुख्य बाजार यहाँ नक्की झील को जाने वाली सड़क पर लगता है। इसलिए यहाँ रात की चहल पहल का अंदाजा लगाने के लिए और अपनी भार्या का मूड सफ़र के अगले पड़ाव तक दुरुस्त रखने के लिए रोज़ शाम को एक चक्कर मार लिया करते थे। 

दरअसल मुख्य राजस्थान से ज्यादा गुजरात से पास होने का असर यहाँ की दुकानों पर साफ़ दिखाई देता है। यही वज़ह है कि यहाँ कि दुकानों में गुजरात की कढ़ाई और शीशे का काम राजस्थानी कला से कम नहीं दिखाई देता। तो चलिए ले चलते हैं आपको यहाँ के बाजारों में शापिंग कराने..

वैसे खरीददारी की शुरुआत अगर मुन्ना भाई की इस दुकान से की जाए तो कैसा रहे?
माउंट आबू के मुख्य माल पर पर्यटकों की भारी भीड़ रहती  है। लाज़िमी है कि इसमें सबसे ज्यादा हिस्सा गुजराती पर्यटकों का है। भीड़ के केंद्र में है चूड़ियों की दुकानें। ढेर सारी फ्लोरोसेंट लाइटों की जगमाहट के बीच जब किन्हीं हाथों में ये चूड़ियाँ उतरती हैं तो दुकान की चकमकाहट और भी बढ़ जाती है। दुकानदार एक बार जब अपना माल दिखाना शुरु कर दे तो रंग और चमक के इस दोहरे आकर्षण का जादू ऐसा कि शायद ही कोई ग्राहक खाली हाथ लौटे।



बुधवार, 30 मई 2012

रंगीलो राजस्थान : ब्रह्मकुमारी,अचलेश्वर महादेव और माउंट आबू का सूर्यास्त

नक़्की लेक, गुरुशिखर और देलवाड़ा मंदिर की सैर तो आपने पिछली प्रविष्टियों में की। आज के सफ़र की शुरुआत करते हैं माउंट आबू के विश्व प्रसिद्ध ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय से। ब्रह्मकुमारी संप्रदाय के इतिहास पर नज़र डालें तो इसकी उत्पत्ति का श्रोत एक सिंधी, लेखपाल कृपलानी को दिया जाता है । दादा लेखपाल या ब्रह्मा बाबा पेशे से हीरों के व्यापारी थे जिन्होंने ने 1930 के दशक में आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए पाकिस्तान के सिंध प्रांत में ओम मंडली के नाम से एक सत्संग की शुरुआत की। देश के विभाजन के बाद 1950 में उन्होंने अपना मुख्यालय हैदराबाद, सिंध से माउंट आबू बना दिया। 1969 में बाबा के निधन के बाद विदेशों में भी इस संस्था का फैलाव तेजी से हुआ। 


पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए देलवाड़ा मंदिर से गुरुशिखर के रास्ते में ब्रह्मकुमारियों द्वारा एक शांति उद्यान यानि पीस पार्क बनाया गया है। यहाँ पर्यटकों को तीस चालिस की टोलियों में इकठ्ठा कर पहले इस समुदाय की विचारधारा के बारे में बताया जाता है। वैसे अगर आपने कभी ब्रह्मकुमारियों के मूलमंत्र को ना सुना हो तो उसे पहली बार सुनना थोड़ा अजीब जरुर लगेगा।

इस संप्रदाय का मानना है कि मानवता अपने अंतिम चरण में आ पहुँची है। कुछ ही समय बाद पूरे विश्व का विनाश हो जाएगा। और फिर सतयुग का स्वर्णिम काल पुनः लौटेगा। पर इसमें हम और आप नहीं होंगे। होंगे तो वैसे ब्रह्मकुमारी जिन्होंने अपनी आध्यत्मिक शिक्षा से अपने मन का शुद्धिकरण कर लिया है। सभ्यता का ये नया केंद्र भारतीय उपमहाद्वीप होगा जहाँ से संपूर्ण विश्व इन पवित्र आत्माओं द्वारा शासित होगा। ब्रह्मकुमारी, दुनिया में भगवान शिव को सर्वोच्च आत्मा मानते हैं।  


सोमवार, 14 मई 2012

पत्थरों पर बहती कविता : दिलवाड़ा (देलवाड़ा) के जैन मंदिर

याद पड़ता है कि पहली बार माउंट आबू का नाम,  सामान्य ज्ञान की किताबों में  यहाँ दिलवाड़ा मंदिर (Dilwada Temple) होने की वज़ह से ही पढ़ा था । इसलिए मन में इस शहर का नाम सुनते ही पर्वतीय स्थल से ज्यादा  दिलवाड़ा मंदिर की छवि ही उभरती थी। वैसे किताबों में पढ़ा दिलवाड़ा, माउंट आबू में आकर देलवाड़ा (Delwada) हो जाता है।

पर भारत सरकार तो इसे दिलवाड़ा ही मानती है क्यूँकि डाक तार विभाग द्वारा ज़ारी मंदिर के डाक टिकट पर तो यही लिखा है। जैसा कि आपको पहले ही बता चुका हूँ, मैं माउंट आबू जाने के पहले राणकपुर के जैन मंदिरों से हो के आया था। वहाँ की शिल्प कला से अभिभूत हो जाने के बाद मेरे दिमाग में ये प्रश्न उठ रहा था कि जब राणकपुर इतना सुंदर है तो फिर देलवाड़ा कैसा होगा ?

गुरुशिखर से लौटने के बाद तो हम सीधे अचलगढ़ से होते हुए दिन के करीब डेढ़ बजे देलवाड़ा मंदिर पहुँचे। जैन धर्मावलंबियों के लिए ये मंदिर दिन के बारह बजे तक के लिए खुला रहता है। सामान्य पर्यटकों को इसे देखने की सुविधा इसके बाद ही उपलब्ध होती है। इसलिए यहाँ आकर सीधे सुबह में मंदिर के दर्शन का कार्यक्रम ना बना लीजिएगा।  गाड़ी से उतर कर मंदिर की पहली छवि बहुत उत्साहित नहीं करती। मंदिर की ऊँची चारदीवारी के पीछे सफेद रंग से पुते  मंदिर का शिखर ही दिखता है जो स्थापत्य की दृष्टि से कोई खास आकर्षित नहीं करता। मुझे बाद में पता चलता है कि ऐसा संभवतः मुस्लिम आक्रमणकारियों की नज़रों से मंदिर को बचाने के लिए किया गया था। इसके बावज़ूद 1511 ईं में इस मंदिर को अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का शिकार होना पड़ा था।

चमड़े के सामान. मोबाइल और कैमरे को जमा कर हमारा समूह मंदिर के बाहर लगी पर्यटकों की कतार में शामिल हो गया था। मंदिर द्वारा नियुक्त गाइड बारी बारी से बीस पच्चीस के समूह को अंदर ले जा रहे थे। हमें अपनी बारी के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी और शीघ्र ही हम इस मंदिर समूह के अंदर थे। देलवाड़ा मंदिर समूह मुख्यतः पाँच मंदिरों से मिलकर बना है। ये मंदिर हैं विमल वसही, लूण वसही, पीतलहर , पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी मंदिर। इनमें से प्रथम दो गुजरात के सोलंकी शासकों के समय की स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं।


बुधवार, 2 मई 2012

मुसाफ़िर हूँ यारों ने पूरे किये अपने चार साल : क्यूँ जरूरी है हिंदी में यात्रा ब्लागिंग ?

पिछले हफ्ते मुसाफ़िर हूँ यारों का इंटरनेट पर चार साल का सफ़र पूरा हुआ। जब मैंने यात्रा को विषय बनाकर एक अलग ब्लॉग की शुरुआत की थी तब हिंदी के ब्लॉगिंग परिदृश्य में पूरी तरह यात्रा पर आधारित ब्लॉग नहीं के बराबर थे। यात्रा वृत्तांत तब भी लिखे जाते थे पर वो ब्लॉग पर अन्य सामग्रियों के साथ परोसे जाते रहे। पर खुशी की बात ये है कि पिछले चार सालों में यात्रा वृत्तांत संबंधी चिट्ठों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है।


अगर आप ब्लागिंग पर विगत वर्षों में यात्रा लेखन पर नज़र डालना चाहें तो पिछले वर्ष शालिनी पांडे द्वारा इस सिलसिले में किया गया शोध   इसकी एक झलक जरूर देगा।  प्रश्न ये उठता है कि आख़िर इन यात्रा संस्मरणों को लिखने का क्या औचित्य है जबकि किसी स्थान के बारे में जानकारी तमाम ट्रैवेल वेबसाइट्स से मिल जाती हैं?

यूँ तो किसी भी जगह जाने के पहले आज भी एक सामान्य यात्री या तो पत्र पत्रिकाओं के पर्यटन विशेषांकों की मदद लेता है या फिर इंटरनेट की उपलब्धता रही तो यात्रा संबंधी जालपृष्ठों से मिली जानकारी से होटल और घूमने वाली जगहों का निर्धारण करता है। पर ये व्यवसायिक वेब साइट्स पर्यटकों को कई बार तो सतही जानकारी मुहैया कराती हैं और साथ ही उन स्थानों से जुड़े कुछ नकरात्मक पहलुओं को बिल्कुल दरकिनार कर जाती हैं जिसे जानना किसी मुसाफ़िर के लिए बेहद जरूरी होता है। यात्रा ब्लॉग आम यात्री की इसी जरूरत को पूरा करते हैं।

घूमने फिरने की तमन्ना तो शायद सब के दिल में कभी ना कभी उठती होगी। पर रोजमर्रा की ज़द्दोज़हद में अन्य प्राथमिकताओं के नीचे कई बार ऐसी भावनाएँ दबी रह जाती हैं। पर कई दफ़े ऍसा भी होता है जब आप एक यात्री के माध्यम से किसी स्थान पर बिताए गए अनुभवों को पढ़ते हैं तो एकदम से उस स्थान पर जाने की उत्कंठा तीव्र हो जाती है। ऍसे संस्मरण कई बार आपको अपने जड़त्व (Inertia) से मुक्त करते हैं। ये तो हुई यात्रा ब्लागिंग से फ़ायदे की बात ।

अब सवाल है कि यात्रा लेखन हिंदी में क्यूँ किया जाए?  सीधे सीधे आकलन किया जाए तो एक ब्लॉगर के लिए अंग्रेजी में यात्रा लेखन करना ज्यादा फ़ायदेमंद है। अगर आप अंग्रेजी में स्तरीय यात्रा लेखन करते हैं तो ना केवल देश बल्कि विदेशों के पाठक भी आप के ब्लॉग तक पहुँचते हैं। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात ये है कि अंग्रेजी आभिजात्य वर्ग की भाषा है। इस भाषा को जानने वाले पाठकों की क्रय शक्ति हिंदी के आम पाठकों की तुलना में ज्यादा है। लाज़िमी है कि यात्रा से जुड़ी सेवाएँ प्रदान करने वाली कंपनियाँ ऐसे ब्लॉगों पर अपने विज्ञापन करने में ज्यादा रुचि दिखाएँगी। अगर आपका यात्रा ब्लॉग लिखने का उद्देश्य व्यावसायिक है तो हिंदी लेखन से वो उद्देश्य निकट भविष्य में पूरा होने से रहा। 

पर क्या हम सब यहाँ पैसों ले लिए अपना समय ख़पा रहे हैं? नहीं, कम से कम मेरा तो ये प्राथमिक उद्देश्य कभी नहीं रहा। आज भी इस देश में हिंदी पढ़ने और बोलने वालों की तादाद अंग्रेजी की तुलना में कहीं अधिक है। जैसे जैसे समाज के आम वर्ग तक इंटरनेट की पहुँच बढ़ रही है हिंदी में सामग्री ढूँढने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। क्या हमारा दायित्व ये नहीं कि ऐसे लोगों को हिंदी में स्तरीय जानकारी उपलब्ध कराएँ जैसी कि अंग्रेजी में आसानी से सुलभ है।

यात्रा लेखन हिंदी साहित्य की पुरानी परंपरा रही है। अगर आप हिंदी में यात्रा लेखन में रुचि रखते हैं तो अपने संस्मरणों को जरूर सबसे बाँटें। हाँ कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। आपकी लेखन शैली जो भी हो , जो कुछ लिखें शुद्ध लिखने की कोशिश करें। पर शुद्धता से भी ज्यादा एक अच्छे यात्रा लेखक का कर्तव्य है कि अपने पाठकों से अपने अनुभव इस तरह साझा करें कि पढ़ने वाले को लगे कि वो भी साथ साथ घूम रहा है। इस बात का ध्यान रखें कि एक आम पाठक की रुचि आपसे ज्यादा उस स्थान के बारे में है जिसके बारे में आप लिख रहे हैं।

चार सालों में मैंने इस चिट्ठे पर आपको भारत के विभिन्न हिस्सों की सैर कराई है और आपका प्रेम मुझे मिला है। आपको जानकर खुशी होगी कि पिछले हफ्ते राजस्थान पत्रिका और उसके पहले जनसत्ता में भी  इस चिट्ठे को स्थान मिला है।


मेरी ये कोशिश रहेगी कि अपनी यात्राओं से जो आनंद मुझे मिलता रहा है उसे आप तक पहुँचाता रहूँ। आशा है भविष्य में भी आपका साथ इस चिट्ठे को मिलता रहेगा। मुसाफिर हूँ यारों ने पूरे किए चार साल !

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

माउंट आबू : आइए देखें गुरुशिखर का नैसर्गिक सौन्दर्य ...

सोलह नवंबर की सुबह बादलों से भरी थी। सुबह तरो ताज़ा होने के बाद हमारा पहला लक्ष्य गुरुशिखर था। माउंट आबू आने के पहले मैंने गुरुशिखर के बारे में खास सुन नहीं रखा था। पर जो मानचित्र मुझे स्थानीय पर्यटन केंद्र से मिला था उसमें देलवाड़ा मंदिर  के आगे गुरु शिखर की ओर जाती सड़क का उल्लेख अवश्य था। नक़्शे को ध्यान से देखने से स्पष्ट था कि अगर सबसे पहले हम माउंट आबू से पन्द्रह किमी दूर स्थित इस शिखर को देख लें तो वापस लौटते समय इसी रास्ते में पड़ने वाले ब्रह्माकुमारी शांति उद्यान (पीस पार्क) और देलवाड़ा मंदिर को देख सकते हैं। 

पिछला दिन और शाम हमने नक्की झील के आस पास के इलाके में गुजारी थी। सच कहूँ तो शहर का मुख्य हिस्सा आपको इस बात का अहसास नहीं करा पाता कि आप एक सुंदर से हिल स्टेशन में पधारे हैं। पर सुबह हम मुख्य मार्ग छोड़ कर जैसे ही शहर से चार पाँच किमी आगे बढ़े तब जाकर वो खूबसूरती दिखाई दी जिसकी उम्मीद हम पिछले दिन से ही लगाए बैठे थे। अरावली की छोटी छोटी पहाड़ियों के बीच पतली सी सड़क पर बढ़ती हमारी गाड़ी जब इस झील की बगल से गुजरी तो इसे देखकर मन प्रसन्न हो गया। चारों ओर से हरे भरे पेड़ों से घिरी इस झील का जल बिल्कुल शांत था। न पर्यटकों की भीड़ , ना नौकाओं की हलचल। ऐसा लगता था मानो इस हरियाली के बीच वो अपने आप में ही रमी हुई हो।

यहाँ के लोग इसे छोटी नक्की झील (Mini Nakki Lake) या ओरिया झील (Oriya Lake) भी  कहते हैं। ये प्राकृतिक झील नहीं है। दशकों पहले इस इलाके में लगातार आ रहे अकालों से निबटने के लिए यहाँ सरकार ने झील के लिए खुदाई शुरु करायी। मजदूरों को इस खुदाई के बदले निर्माण अवधि में रसद मुहैया कराई गयी। इस झील से थोड़ा आगे बढ़ने पर ओरिया का चेक पोस्ट आ जाता है। यहाँ से दो रास्ते अलग होते हैं एक दाहिनी ओर अचलगढ़ (Achalgarh) को चला जाता है।  

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

रंगीलो राजस्थान : मूली रे मूली तू क्यूँ हुई इतनी रंगीली ?

हमारा देश विविधता से भरा देश है। देश के एक कोने से दूसरे कोने में सफ़र करते वक़्त ना केवल लोगों की भाषा और पहनावे में फर्क आता है बल्कि वहाँ के पशु धन और शाक सब्जी भी विविधता लिए हुए होते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में अगर अपनी गौ माता को देखें तो निरीह सी लगेंगी पर वहीं राजस्थान में इन गायों की कद काठी और नुकीले सींग दोनों जबरदस्त होते हैं। 

जो इस चिट्ठे के पुराने हमसफ़र हैं ‌उन्हें याद होगा कि मुन्नार की यात्रा में हमें कैसी बड़ी बड़ी हरी मिर्चें देखने को मिली थीं। जिस तरह राजस्थान में उदयपुर के ग्रामीण इलाकों में बच्चे शरीफा बेचते नज़र आए वही केरल के मुन्नार में हमें जगह जगह हरे पत्तों के साथ तुरंत तोड़े हुए ताजे गाजर बेचती महिलाएँ नज़र आयीं।

वहीं माउंट आबू में जब हम गुरुशिखर की यात्रा पर निकले तो बीच के नाके पर हमने  इस रंग रंगीली मूली को देखा और एक नज़र में ही हम सभी इस पर फि़दा हो गए। स्वाद भी जनाब अपने तरफ़ मिलने वाली सफेद मूली से कहीं मीठा 


वैसे राजस्थान के रेगस्तानी इलाके में एक बार फिर हमारा ऍसे ही एक रंगीन फल से सामना हुआ। उसका स्वाद हम ले पाए या नहीं वो किस्सा तो बाद में जल्द ही हाज़िर होता हूँ गुरुशिखर की आनंददायक यात्रा का विवरण लेकर..

 मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का एक यात्रा ब्लॉग

 माउंट आबू से जुड़ी इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

दास्तां नक्की झील की : आख़िर क्यूँ याद आए मुझे 'बलम रसिया' ?

पिछली पोस्ट में उदयपुर से चलते हुए हम जा पहुँचे थे माउंट आबू में। शाम का वक़्त था । नक्की झील हमारे सामने थी। एक रास्ता गाँधी घाट को जा रहा था जहाँ बोटिंग करने के लिए भारी भीड़ जुटी थी। नक्की झील कोई बहुत बड़ी झील नहीं है। हमें लगा कि जितना समय कतार में लगकर नौका की प्रतीक्षा में लगेगा उससे अच्छा वक़्त झील के किनारे किसी शांत सी जगह पर काटा जा सकता है। घाट से थोड़ी दूर छोटे छोटे दुकानदार लोक लुभावन  वस्तुओं के साथ पर्यटकों को आकर्षित कर रहे थे। हमने भी थोड़ी मोड़ी खरीददारी की और पास ही पानी में बने जहाजनुमा रेस्टोरेन्ट में चल पड़े। ये भोजनालय झील के दक्षिण पूर्वी किनारे पर स्थित है।


दरअसल रेस्टोरेंट उस वक़्त बिल्कुल खाली था। सारी भीड़ नौका विहार का आनंद लेने में मशगूल थी। चूंकि भीड़ के आने का समय नहीं हुआ था इसलिए बैरे भी इधर उधर थे। पानी के समीप शांति से बैठने का ये अनुकूल अवसर था।

सरोवर रेस्टोरेन्ट के डेक से झील का रमणीक दृश्य दिख रहा था। झील की दूसरी ओर की पहाड़ियों के नीचे उठते श्वेत फ्व्वारे और उन फव्वारों के बीच  चलती भांति भांति आकारों से सुसज्जित छोटी बड़ी नावें। कुछ दिखने में शाही तो कुछ बेहद आम। नावों से थोड़ी दूर  झील का गश्त लगाती प्यारी प्यारी बत्तखों के ढेर सारे परिवार। वैसे देश की कई अन्य झीलों की तरह यहाँ की पहाड़ियों पर के जंगल घने नहीं हैं।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

उदयपुर से माउंट आबू का सफ़र : कैसे बना आबू पर्वत ?

जब हमने अपनी राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बनाया था तो यही सोचा था कि यात्रा की शुरुआत माउंट आबू से करें और उसके बाद उदयपुर होते हुए जोधपुर की ओर बढ़ चलें। पर होटल की अनुपलब्धता की वज़ह से हमें शुरुआत उदयपुर से करनी पड़ी। उदयपुर में रहते हुए हमने चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ और राणकपुर के मंदिरों को देख लिया। पर तीन रातें उदयपुर में बिताने के बाद भी ये मुगालता रह ही गया कि आज के उदयपुर को बाजारों, मोहल्लों, लोगोंके माध्यम से देखने व महसूस करने का मौका कम ही मिल पाया।

सज्जनगढ़ की ओर जाते वक़्त हम जरूर शहर के अंदर से निकले और सिटी पैलेस से नीचे उतरती सड़क पर बनी छोटी बड़ी दुकानों और बेतरतीब ट्राफिक से भी कई बार सामना हुआ। यहाँ के बाजार देखने का मौका ही नहीं मिला और रही खाने की जगहों की बात तो रात का खाना हमने हर दिन एक ही भोजनालय (जोधपुर रेस्ट्राँ) में किया क्यूँकि दिन भर मिर्च के चक्कर में आँसू बहाने वाले पुत्र को वहीं का भोजन रास आया था।

इस पूरी यात्रा में मेरे मन में उदयपुर और जैसलमेर को देखने का बड़ा रोमांच था और उदयपुर मुझे अपनी आशा के अनुरूप ही बेहद सुंदर लगा था। खासकर रात के समय जगमगाते उदयपुर की अद्भुत आभा को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। अपने राजस्थान भ्रमण की चौथी सुबह जब हम उदयपुर को छोड़ रहे थे तो मन में यही भाव उठ रहे थे कि यहाँ दोबारा भी आना अच्छा लगेगा।


माउंट आबू से आने वाले यात्रियों से हमने वहाँ की नक्की झील और दिलवाड़ा मंदिर का जिक्र बारहा सुना था। इसके आलावा पिताजी को वहाँ के ब्रह्मा कुमारी के आध्यात्मिक संगठन के मुख्यालय में जाने की बड़ी उत्सुकता थी। सुबह के करीब दस बजे हमारा समूह उदयपुर छोड़ चला था। शीघ्र ही हम राष्ट्रीय राजमार्ग 27 ( NH 27) पर आ गए थे। चार लेनों वाले इस राजमार्ग पर आप आसानी से 80-90 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से गाड़ी दौड़ा सकते हैं। पर राजस्थान में ये बात आम है कि जितनी अच्छी सड़क होगी उतने ही ज्यादा नाके आएँगे। उदयपुर और माउंट आबू के बीच कम से कम पाँच छः बार टौल लेने देने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। मन ही मन सोचता रहा कि दस, बीस पचास के पत्तों को लाइन में लग कर बार बार सरकाने की बजाए अगर एक या दो बार में ही एकमुश्त पैसे ले लिए जाएँ तो कितना अच्छा रहे। सफ़र में रुकावट भी कम और इतने टौल प्लाजा (Toll Plaza)  की जरूरत भी नहीं रहेगी तब तो।

ख़ैर मौसम साफ था और रास्ते में आबादी बहुत ही कम थी। अरावली की पहाड़ियाँ रह रह कर सड़क के कभी एक तो कभी दोनों तरफ़ आ रही थीं। पहाड़ को तोड़ कर बनाए गए रास्ते का यह दृश्य सफ़र के कई महिने बाद भी मन में अंकित रहा।



शनिवार, 31 मार्च 2012

यूगांडा की क्रेटर लेक्स और एक छायाकार का दर्द...

पूर्वी अफ्रिका का एक छोटा सा देश है यूगांडा। नेपाल की ही तरह चारों तरफ़ से ज़मीनी चादर से घिरा हुआ। विषुवत यानि भूमध्य रेखा इस देश के बीचो बीच से पार करती है। ज़ाहिर है यहाँ की प्रकृति घने जंगलों, घास के मैदानों और भांति भांति के वन्य जीवों से भरी पूरी है। यूगांडा के वन्य प्राणियों में सबसे खास है यहाँ का गोरिल्ला। पर यूगांडा के दक्षिण पश्चिमी इलाके में स्थित क्वीन एलिजाबेथ नेशनल पार्क में लोग सिर्फ गोरिल्ला और अन्य वन्य जीव देखने आते हों ऐसा भी नहीं है। प्रकृति ने यहाँ की भूमि को एक अलग सी भौगोलिक संरचना भी दी है जिसका नाम है रिफ्ट वैली (Rift Valley)

सहज शब्दों में अगर परिभाषित किया जाए तो इतना कहना पर्याप्त होगा कि रिफ्ट वैली का निर्माण तब होता है जब धरती की दो ऊँची ऊँची पट्टियों यानि प्लेट्स के बीच टेक्टोनिक ताकतों की वजह से अलगाव पैदा होता है और इस अलगाव से इनके बीच का भाग एक घाटी का रूप ले लेता है। अफ्रिकन, यूरेशियन व भारतीय प्लेटों के अलगाव की वज़ह से अफ्रिका के पूर्वी भाग में भी एक रिफ्ट वैली का जन्म हुआ और इसके फलस्वरूप हुई ज्वालामुखीय गतिविधियों की वजह से यूगांडा के दक्षिण पश्चिमी हिस्से में अनेक क्रेटर झीलों अस्तित्व में आईं। इन्हीं मे से एक झील का चित्र आपने पिछली पोस्ट में देखा था।

चित्र सौजन्य 

यूगांडा के इस राष्ट्रीय उद्यान में ये क्रेटर 333 वर्ग किमी में फैले हुए हैं। इनमे से अधिकांश का  व्यास सौ मीटर से एक किमी तक है। इस झील समूह में सबसे बड़ी काटवे झील (Lake Katwe) है जिसकी गहराई एक किमी से भी ज्यादा है।

गुरुवार, 22 मार्च 2012

चित्र पहेली 20 : क्या आप इस झील में डुबकी लगाना चाहेंगे ?

चलिए आज राजस्थान की सैर से थोड़ा विराम लेते हैं और दिखाते हैं आपको ऐसा नज़ारा जिसे देखकर आप एकबारगी ठिठक जरूर जाएँगे ? दरअसल संसार में ईश्वर की दी हुई ये प्रकृति इतने विविध रूप रंगों में मौजूद है कि जितना भी इसे खँगाला जाए ये हमें उतना ही विस्मित करती चलती है।

झीलें तो आपने कई देखी होंगी और बहुतों में नौका विहार का भी आनंद उठाया होगा। पर इस झील में नौकाएँ नहीं चलती। और इसके आस पास की हरियाली देखकर कहीं मन इसमें डुबकी लगाने का कर गया तब तो भगवान ही मालिक है आपका। इस झील का ठीक ठीक तो पता नहीं पर ये और इसके पास की ऍसी झीलों की गहराई दो सौ मीटर से एक किमी तक है जनाब।
 
(चित्र के छायाकार का नाम उत्तर के साथ बताया जाएगा )

चित्र तो देख लिया आपने क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि ये नज़ारा किस देश का है और इस तरह की झील बनी कैसे होगी ? प्रश्न को थोड़ा आसान बनाने के लिए एक संकेत हाज़िर है। वो ये कि ये देश अपने एक तानाशाह की वज़ह से वर्षों तक सुर्खियों में रहा था।

तो देखें किसका तीर सबसे पहले निशाने पर लगता है। हमेशा की तरह आपके जवाब माडरेशन में रखें जाएँगे।

गुरुवार, 15 मार्च 2012

रंगीलो राजस्थान : आख़िर क्या ख़ास है रणकपुर (राणकपुर) के जैन मंदिरों में ?

आज आपको ले चल रहा हूँ रणकपुर के जैन मंदिरों के दर्शन के लिए। वैसे अंग्रेजी का Ranakpur, हिंदी में कैसे लिखा जाए इस पर मेरा संशय इस यात्रा के इतने दिनों बाद भी ज्यों का त्यों हैं। मील के पत्थरों पर, मंदिर में घुसने के पूर्व लगने वाले टिकट पर और बाद में अंतरजाल के विभिन्न जाल पृष्ठों पर मैंने रनकपुर, रणकपुर और राणकपुर तीनों नाम देखे हैं। इनमें सबसे प्रचलित नाम कौन सा है ये तो मेरे राजस्थानी मित्र बता पाएँगे। बहरहाल मैंने कहीं पढ़ा था कि है कि चूंकि ये मंदिर राणा कुंभ के शासनकाल में उनकी दी गई ज़मीन पर बनाया गया इसलिए इसका नाम राणकपुर पड़ा ।

बाल दिवस यानि चौदह नवंबर  को कुंभलगढ़ पर की गई चढ़ाई ने हमें वैसे ही थका दिया था। फिर खाली पेट पहाड़ी रास्तों के गढ़्ढ़ों को बचते बचाते हुए 50 किमी का सफ़र हमने कैसे काटा होगा वो आप भली भांति समझ सकते हैं। पर दो बातें हमारी इस दुर्गम यात्रा के लिए अनुकूल साबित हुईं। एक तो बरसात के बाद मंद मंद बहती ठंडी हवा और दूसरे हर दो तीन किमी पर हाथ से गाड़ी रुकवाता बच्चों का झुंड। जैसे ही हमारी गाड़ी धीमी होती ढेर सारे बच्चे छोटी छोटी टोकरियों में शरीफा लिए दौड़े चले आते। दाम भी कितना..पाँच रुपये में बारह शरीफे ! ना ना करते हुए भी बच्चों के अनुरोध को हम टाल ना सके। शरीफों की बिक्री के इस तरीके से हमें अगले दिन माउंट आबू जाते हुए भी दो चार होना पड़ा।

सोमवार, 5 मार्च 2012

रंगीलो राजस्थान : अरावली की पहाड़ियों में बसा कुंभलगढ़ !

कुंभलगढ़ के इतिहास के बारे में तो आप पिछली पोस्ट में जान चुके। आइए आज आपको दिखाते हैं किले के विभिन्न हिस्सों से ली गयीं इस इलाके की कुछ और तसवीरें..

 कुंभलगढ़ की ये विशाल दीवारें सबसे पहले पर्यटक का ध्यान खींचती हैं।


पूरे राजस्थान में हमने किले तो कई देखे पर किले के अंदर फूलों की खूबसूरती को कैमरे में क़ैद करने का मौका सिर्फ कुंभलगढ़ में मिला।



रविवार, 26 फ़रवरी 2012

रंगीलो राजस्थान : मेवाड़ राजाओं की शरणस्थली कुंभलगढ़ !

राजस्थान जाने के पहले ही कुंभलगढ़ के बारे में पढ़ा था कि यही वो किला है जिसकी एक ओर मारवाड़ और दूसरी ओर मेवाड़ की सीमाएँ लगती थीं। राजस्थान के अन्य किलों की अपेक्षा कुंभलगढ़ का आबादी से अलग थलग दुर्गम घाटियों के बीच बसा होना मुझमें इसके प्रति ज्यादा उत्सुकता पैदा कर गया था। यही वज़ह थी कि अपने कार्यक्रम में नाथद्वारा और हल्दीघाटी को ना रख मैंने उदयपुर प्रवास के तीसरे दिन कुंभलगढ़ किले और पास बने रनकपुर के मंदिरों को देखने का कार्यक्रम बनाया था।

हम लोग सुबह के साढ़े नौ बजे सड़क के किनारे ठेलों पर बनते गरमा गरम आलू के पराठों का भोग लगाकर कुंभलगढ़ की ओर चल पड़े । यूँ तो कुंभलगढ़, उदयपुर से करीब अस्सी किमी की दूरी पर है पर अंतिम के एक तिहाई घुमाबदार पहाड़ी रास्तों की वज़ह से यहाँ पहुँचने में दो ढाई घंटे लग ही जाते हैं। उदयपुर से निकलते ही अरावली की पहाड़ियाँ शुरु हो जाती हैं। रास्ते में दिखती हरियाली, कलकल बहती पहाड़ी नदी पश्चिमी राजस्थान की शुष्क जलवायु के ठीक विपरीत छटा बिखेर रही थी।