आज आपको ले चल रहा हूँ रणकपुर के जैन मंदिरों के दर्शन के लिए। वैसे अंग्रेजी का Ranakpur, हिंदी में कैसे लिखा जाए इस पर मेरा संशय इस यात्रा के इतने दिनों बाद भी ज्यों का त्यों हैं। मील के पत्थरों पर, मंदिर में घुसने के पूर्व लगने वाले टिकट पर और बाद में अंतरजाल के विभिन्न जाल पृष्ठों पर मैंने रनकपुर, रणकपुर और राणकपुर तीनों नाम देखे हैं। इनमें सबसे प्रचलित नाम कौन सा है ये तो मेरे राजस्थानी मित्र बता पाएँगे। बहरहाल मैंने कहीं पढ़ा था कि है कि चूंकि ये मंदिर राणा कुंभ के शासनकाल में उनकी दी गई ज़मीन पर बनाया गया इसलिए इसका नाम राणकपुर पड़ा ।
बाल दिवस यानि चौदह नवंबर को कुंभलगढ़ पर की गई चढ़ाई ने हमें वैसे ही थका दिया था। फिर खाली पेट पहाड़ी रास्तों के गढ़्ढ़ों को बचते बचाते हुए 50 किमी का सफ़र हमने कैसे काटा होगा वो आप भली भांति समझ सकते हैं। पर दो बातें हमारी इस दुर्गम यात्रा के लिए अनुकूल साबित हुईं। एक तो बरसात के बाद मंद मंद बहती ठंडी हवा और दूसरे हर दो तीन किमी पर हाथ से गाड़ी रुकवाता बच्चों का झुंड। जैसे ही हमारी गाड़ी धीमी होती ढेर सारे बच्चे छोटी छोटी टोकरियों में शरीफा लिए दौड़े चले आते। दाम भी कितना..पाँच रुपये में बारह शरीफे ! ना ना करते हुए भी बच्चों के अनुरोध को हम टाल ना सके। शरीफों की बिक्री के इस तरीके से हमें अगले दिन माउंट आबू जाते हुए भी दो चार होना पड़ा।
बाल दिवस यानि चौदह नवंबर को कुंभलगढ़ पर की गई चढ़ाई ने हमें वैसे ही थका दिया था। फिर खाली पेट पहाड़ी रास्तों के गढ़्ढ़ों को बचते बचाते हुए 50 किमी का सफ़र हमने कैसे काटा होगा वो आप भली भांति समझ सकते हैं। पर दो बातें हमारी इस दुर्गम यात्रा के लिए अनुकूल साबित हुईं। एक तो बरसात के बाद मंद मंद बहती ठंडी हवा और दूसरे हर दो तीन किमी पर हाथ से गाड़ी रुकवाता बच्चों का झुंड। जैसे ही हमारी गाड़ी धीमी होती ढेर सारे बच्चे छोटी छोटी टोकरियों में शरीफा लिए दौड़े चले आते। दाम भी कितना..पाँच रुपये में बारह शरीफे ! ना ना करते हुए भी बच्चों के अनुरोध को हम टाल ना सके। शरीफों की बिक्री के इस तरीके से हमें अगले दिन माउंट आबू जाते हुए भी दो चार होना पड़ा।