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सोमवार, 20 अप्रैल 2009

यादें अंडमान की : रंगत में बिताई वो डरावनी रात और मिलना बाराटांग के जारवा समुदाय से

रंगत (Rangat) में बिताई वो रात हमेशा याद रहेगी । यही कोई दस साढ़े दस का वक्त रहा होगा कि एक अजीब सा स्वर दूर से आता सुनाई पड़ा । अभी हल्की नींद ही लगी थी तो सोचा उठ कर देखें माजरा क्या है? पहले लगा ये आवाज शौचालय से आ रही है। पर अंदर कुछ नहीं निकला। बाहर निकले तो घुप्प अँधेरे में ज्यादा खोज बीन करने की हिम्मत नहीं हुई । वापस आ गए तो आवाज का पुनः विश्लेषण किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि हो ना हो हमारी बगल के रूम में भाई लोगों ने शाम के स्नान के बाद गीजर खुला छोड़ दिया है जिसकी वजह से घरघराती सी गरम होते पानी की आवाज आ रही है। बगलगीर को मन ही मन लानत भेजते हुए फिर से सोने की कोशिश की।

थोड़ी देर नींद आ भी गई पर अबकि जो नींद खुली तो वो अजीब तरह का शोर अब बगल के कमरे से ना आते हुए,चारों ओर से दुगने डेसिबल की ध्वन्यात्मक शक्ति से आता सुनाई दिया। इस बार तो हम सब सहम से गए । वहीं से चिल्लाते हुए आस पास के कमरों में ठहरे हुए अपने मित्रों को आवाज दी ।पर उस शोर के बीच उन तक आवाज पहुँचती भी तो कैसे? किसी तरह कान के चारों ओर तौलिया लपेटे और करवटें बदलते हुए रात काटी ।



इस श्रृंखला की पिछली प्रविष्टियों में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अगले दिन रॉस द्वीप की सुंदरता देख और फिर नार्थ बे के पारदर्शक जल में गोते लगाकर मन प्रसन्न हो गया। हैवलॉक तक की गई यात्रा मेरी अब तक की सबसे अविस्मरणीय समुद्री यात्रा रही। हैवलॉक पहुँच कर हमने अलौकिक दृश्यों का रसास्वादन तो किया ही साथ ही साथ समुद्र में भी जम कर गोते लगाए। हैवलॉक से तो ना चाहते हुए भी निकलना पड़ा पर अब हम चल पड़े उत्तरी अंडमान की रोड सफॉरी पर। आज इस श्रृंखला में पढ़िए रंगत और बाराटांग की वो ना भूलने वाली स्मृतियाँ.....

पौ फटते ही शोर एकदम से कम हो गया और 2-3 घंटे चैन से सो पाए । सात बजे जब अपने कमरे से बाहर आए तब रात के उस शोर के रहस्य का पर्दाफाश हुआ। बाहर के गलियारे में प्रेम प्रकट करने के उस अभूतपूर्व महोत्सव के दुखद अवशेष बिखरे पड़े थे। चौंकिये मत जनाब, मैं बकवास नहीं कर रहा । दरअसल ये सारा प्रेम प्रलाप पीले रंग के करीबन तीन सेमी लंबे चौड़े नर कीड़ों का था जो जाड़े के मौसम में मादा जाति के कीड़ों को आकर्षित करने के लिए रात भर बिरहा गाते हुए और रोशनी से टकराते-टकराते सुबह तक अपनी जान दे देते हैं। गलियारे का फर्श सैकड़ों मरे हुए कीड़ों से पटा पड़ा था। मित्रों से बात हुई तो उनकी भी रात की कहानी वही रही जो मेरी थी। वहाँ के लोगों ने बताया कि ऐसा साल में 15-20 दिन तक जरूर होता है।

रंगत के इस अजीबो गरीब अनुभव के बाद हम लोग उसी रास्ते से वापस बाराटांग चल दिये । इस बार दोनों फेरी क्रासिंग में अपनी गाड़ी की बारी आने के लिए काफी इंतजार करना पड़ा। कदमतला की पहली क्रासिंग पर बड़े- बड़े समुद्री केकड़े आलू प्याज की तरह टोकरियों में बिकते दिखे । बाराटांग के रास्ते में ही मड वालकेनो (Mud Volcano, Baratang) जाने का रास्ता है ।जंगलों के बीच दस पन्द्रह मिनट तक पैदल चलने के बाद हम सब उस स्थान पर थे जहाँ एक बेहद छोटे क्रेटर के बीच कीचड़ में से रह- रह के फुदफुदाहट के साथ गैस के बुलबुले निकल रहे थे । अंडमान के मड वालकेनो में 1983 और 2003 में काफी क्रियाशीलता देखी गई थी। 2004 के अंत में हम सब ने जो देखा वो बहुत कुछ इस वीडियो से मिलता जुलता है। करीब दिन के एक बजे तक हम बाराटांग जेटी में थे। यहाँ से हमें छोटी नौका से 5-6 किमी समुद्र के अंदर और फिर पैदल बाराटांग की विख्यात लाइमस्टोन गुफा में जाना था।
इधर हमारे साथी बोट की बुकिंग में व्यस्त थे कि सैलानियों से भरी बाराटांग जेटी के एक ओर हलचल होने लगी । हमलोग तब पास के भोजनालय में मसाला डोसा का आनंद ले रहेथे। फटाफट खा कर बाहर निकले तो देखा कि ये सारी हलचल जारवा जनजाति के दो नरों के बाजार में प्रवेश कर जाने से हो गई है । उनमें से एक व्यस्क था तो दूसरा लड़का। स्वाभाविक रूप से काला रंग, मुड़े मुड़े छोटे बाल और वस्त्र के नाम पर लाल रंग की तीन चार धारियों वाली पट्टी । जैसे ही बंगाल से आए एक समूह ने उनके साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश की, व्यस्क जारवा ने सामने खड़े व्यक्ति की जेब में अचानक तेजी से हाथ डाला और बोला दस रुपिया । अब दादा तो ऐसे घबराए कि चले भाग:) पीछे कुछ दूर वो जारवा भी भागा फिर ठहर गया। खैर, कुछेक चित्र पैसे देकर मेरे साथ आए मित्र ने भी लिये। बाद में मेंने देखा कि जारवा इन पैसों का प्रयोग बाजार में बिस्कुट और प्लास्टिक की बोतलें खरीदनें में करते हैं।

कुछ ही देर में हमारी नौका भी आ गई थी । अब तक अंडमान में छोटे जहाज पर सफर करते आए थे। नौका में बैठते ही सब की हवा उड़ गई। कहाँ चारों ओर समुद्र का अथाह जल और छोटे से डीजल इंजन से चलती ये नौका । एक तो थोड़ा सा वजन का असंतुलन होते ही दूसरी ओर झुक जाती थी तो लगता था कि अब तो गए। दूसरे उस पुराने से इंजन की धकधक हमारे हृदय की धकधक के विपरीत अनुपात (inversly proportional) में चल रही थी, यानि एक बार डीजल इंजन का धड़कना बीच समुद्र में रुका नहीं कि हम सब के हृदय की धड़कन दूगनी हो गईं।

समुद्र के पार्श्वजल के दोनों ओर अपनी कतार बाँधे चल रहे थे। इन वृक्षों की विशेषता है कि ये खारे पानी के प्रति सहनशील होते हैं। अक्सर ये वहाँ पाए जाते हैं जहाँ समुद्री तट के बगल का हिस्सा दलदली हो । भाटे की अवस्था में इनकी निचली जड़ें साफ दिखती हैं। बीस मिनट के इस समुद्र विहार के बाद हमारी नौका बायें मुड़ने को हुई। अब हम मैनग्रोव के जंगलों के बगल -बगल नहीं वरन उनके झुरमुटों के ठीक नीचे जमीन को काट कर बनाई गई पतले जल मार्ग से होकर जा रहे थे। मैनग्रोव के जंगलों के इतने करीब से होकर जाना एक रोमांचक अनुभव था ।

आगे के करीब दो तीन किमी का रास्ता पैदल तय करना था। चूना पत्थर की गुफाओं तक पहुँचते-पहुँचते हम सब पसीने से बुरी तरह तर बतर हो गए थे। पूरी यात्रा में जितना पसीना नहीं निकला था वो गुफा के अंदर से वापस आने में निकल गया। गुफा के अंदर पहुँचते हुए नवीं कक्षा की भूगोल की किताब आँखों के सामने तैर गई जब मैंने चूनापत्थर के ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर बढ़ने से बढ़ने वाली चट्टानों को स्टैलेकटाइट और स्टैलेगमाइट के नाम से रटा था। क्या जानते थे कि वो सब पढ़ने के करीब बीस वर्षों बाद वो मंजर खुद अपनी आँखों से देखने को मिलेगा।

बाराटांग से आगे के सफर में हमें जारवा समुदाय की कई टोलियाँ दिखाईं दीं । आते समय के शून्य का आंकड़ा वापस लौटते समय बारह तक पहुँच गया। एक जारवा ने तो हाथ देकर गाड़ी को रोकने का भी प्रयास किया। ड्राइवर ने बताया कि वो जारवा अक्सर गाड़ी को रोककर खैनी की मांग करता है। ये तो स्पष्ट है कि सैलानियों की संगत में जारवा की खान पान की शैली में बदलाव आया है। नृविज्ञानियों को डर इसी बात का रहता है कि कहीं ये सम्पर्क उन्हें नयी बीमारियाँ ना प्रदान कर दे जिससे वो लड़ने को समर्थ नहीं हैं। वापसी में हम रबर के पेड़ों के जंगलों में भी गए। प्राकृतिक रबर के बनने की विधि का जायजा लिया और रात वापस पोर्ट ब्लेयर पहुँच गए।

इस तरह एक और दिन समाप्त हुआ। यात्रा के आखिरी चरण में ले चलेंगे आपको माउंट हैरियट और सिपीघाट के सफर पर। साथ ही इस बात का खुलासा भी होगा कि आखिर अंडमान से जुड़ी कौन सी वस्तु आप अक्सर अपनी जेब में लिये घूमते हैं :)
मैनग्रोव के जंगल (Mangrove Forest)

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

यादें अंडमान की : अंडमान ट्रंक रोड सफारी और जारवा से रूबरू होने का खौफ़

इस श्रृंखला की पिछली प्रविष्टियों में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अगले दिन रॉस द्वीप की सुंदरता देख और फिर नार्थ बे के पारदर्शक जल में गोते लगाकर मन प्रसन्न हो गया। हैवलॉक तक की गई यात्रा मेरी अब तक की सबसे अविस्मरणीय समुद्री यात्रा रही।
हैवलॉक पहुँच कर हमने अलौकिक दृश्यों का रसास्वादन तो किया ही साथ ही साथ समुद्र में भी जम कर गोते लगाए। हैवलॉक से तो ना चाहते हुए भी निकलना पड़ा पर अब हम चल पड़े उत्तरी अंडमान की रोड सफॉरी पर। आज इस श्रृंखला में पढ़िए इस सफॉरी के दौरान मेरे अनुभवों का लेखा जोखा.....


वैसे तो घर पर शायद ही कभी सात बजे से पहले उठते हों पर अगली सुबह साढ़े पाँच तक सूर्योदय देखने समुद्र तट की ओर चल पड़े। बाहर मौसम सुहावना था। आकाश में हल्के-फुल्के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। बादलों की इस चहलकदमी ने सूरज को अपना चेहरा दिखा पाने का मौका नहीं दिया था। समुद्र तट शांत था। लहरें भी सूर्य किरणों के लिए प्रतीक्षारत थीं कि कब उनकी झलक मिले और वो उछल-उछल कर अपनी खुशी का इजहार कर सकें। पर सूरज की इस वादाखिलाफी पर एक ठंडी साँस छोड़ते हुए यही तो कह सकते थे

हमसे वादा था एक सवेरे का
हाए कैसे मुकर गया सूरज !

मछुआरे अपनी नाव को समुद्र में ले जाने की तैयारी में व्यस्त दिखे। हम तट के किनारे-किनारे इन दृश्यों को देखते और शांत स्वच्छ वातावरण का आनंद लेते हुए घंटे भर चलते रहे।

हैवलॉक से वापस लौटने का मन जरा सा भी नहीं हो रहा था। पर साढ़े आठ की फेरी से वापस पोर्ट ब्लेयर की राह पकड़नी थी। वैसे तो हैवलॉक से मध्य अंडमान जाने के लिए लोग यहीं से जहाज में रंगत तक चले जाते हैं और फिर वहाँ से सड़क मार्ग से मायाबन्दर (Mayabundar) और दिगलीपुर (Diglipur) का रुख करते हैं। हम सब जब अंडमान के लिए चले थे तो रंगत (Rangat) का कार्यक्रम निश्चित नहीं था । इसी वजह से हमें वापस पोर्ट ब्लेयर लौटना पड़ रहा था। इस बार भी हमारा जहाज नील द्वीप से होते हुए ही जा रहा था।

वापस आते समय वातानुकूलित कक्ष में ही बैठे रहे क्यूंकि डेक पर तीखी धूप थी। बाहर समुद्र अशांत था और लहरें काफी ऊँची उठ रही थीं। नील तक जहाज को लहरों की दिशा के लम्बवत बढ़ना था। लहरों की तीव्र मार से जहाज कभी बायीं तो कभी दाहिनी ओर झुक रहा था। थोड़ी ही देर में मेरा सिर चकराने लगा। मैं भागते हुए जहाज की एक छोर की रेलिंग के पास जा पहुँचा । ऊँची उठती लहरों का पानी जहाज के अंदर तक आ रहा था। मेरी जैसी स्थिति कई और सहयात्रियों की भी थी। एक घंटे के भीतर मैं उदर के अंदर के सारे पदार्थ समुद्र में विलीन कर चुका था। नील के आगे जब जहाज ने अपनी दिशा बदल ली और लहरों के साथ हो लिया तब मैंने राहत की साँस ली।
दिन का दूसरा भाग हमने सेलुलर जेल में बिताया । उसकी चर्चा मैं पहले ही कर चुका हूँ।


समुद्र तो अब तक काफी देख चुके थे इसलिए अगले दिन हमने मध्य अंडमान के जंगलों की ओर रुख करने का निश्चय किया। हमें अंडमान ट्रंक रोड से मध्य अंडमान में रंगत तक जाना था। भौगोलिक रूप से अंडमान द्वीप तीन भागों में बँटा है...उत्तरी अंडमान, मध्य अंडमान और दक्षिणी अंडमान। पोर्ट ब्लेयर, दक्षिणी अंडमान का मुख्य केंद्र है। इसके दक्षिण में लिटिल अंडमान और निकोबार द्वीप समूह हैं जिन्होंने सुनामी में भारी तबाही सही थी।


तो इससे पहले कि इस रोड सफारी पर आप को ले चलूँ एक नजर इस सड़क के इतिहास की ओर। जैसा कि आप बगल के नक्शे में देख सकते हैं कि ३४० किमी लंबी अंडमान ट्रंक रोड, पोर्ट ब्लेयर को अंडमान के उत्तरी सिरे से जोड़ती है । अंडमान ट्रंक रोड का निर्माण और अब इस पर आवागमन शुरु से ही विवादों के घेरे में रहा है। विवाद का केंद्र रहा है इसका 129 किमी लंबा वो हिस्सा जो जारवा जनजाति के लिए सुरक्षित जंगलों से होकर गुजरता है। सत्तर के दशक में तमाम विरोधों के बाद इस पर काम शुरु हुआ और अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में इस पर यातायात संभव हो सका। जारवा समुदाय के लोगों ने ने शुरुआत में इस सड़क से अपने आप को दूर रखा पर 1998 में वे पहली बार इस सड़क पर बाहरी दुनिया के अनजान लोगों से मिलने के लिए बाहर निकले। अन्यथा उसके पहले तक बाहरी दुनिया के लोगों के मिलने पर ये सीधे अपने तीर कमान से हमला बोल देते थे। आजकल तो ये सरकार के स्वास्थ केंद्रों पर खुद पहुँच जाते हैं और सैलानियों से भी बिस्कुट, केले आदि सहर्ष ले लेते हैं। पर ये दोस्ताना रवैया उनके भोजन,रहन सहन को गलत ढ़ंग से प्रभावित कर रहा है, ऍसा NGO और नृविज्ञानी मानते हैं। इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने २००२ में अंडमान ट्रंक रोड के इस हिस्से को बंद करने का आदेश दिया था। पर इस फैसले को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है ।


हमारी रोड सफारी करीब आठ बजे शुरु हुई। जारवा इलाकों में घुसने के पहले ट्रैवल एजेन्ट को परमिट लेनी पड़ती है। छोटे-छोटे गांवों को पार करते हम जिरकाटांग के पहले चेकपोस्ट के पास पहुंचे। चेकपोस्ट से जारवा क्षेत्र में गाड़ियाँ पुलिस बंदोबस्त के साथ काफिले में चलती हैं। चेकपोस्ट कुछ कुछ समय के बाद खुलता है। रास्ते में जारवा अगर दिख भी जाएँ तो गाड़ी रोकना मना है। पर कभी-कभी कारवां लंबा हो जाता है तो जारवा हाथ देकर गाड़ियों को रुकवा लेते हैं और खाद्य पदार्थ और प्लॉस्टिक की बोतलों की मांग करते हैं। जिरकाटांग से आगे हमारी नजरें और चौकस हो गईं । जंगल से हो रही कोई भी सरसराहट हमें उधर आँखें फाड़ने को विवश कर देती थी । पर मुझे जारवा नहीं दिखे, अलबत्ता हमारे दो साथियों को वन विभाग की खड़ी गाड़ी में एक जारवा महिला और
बच्चे के क्षणिक दर्शन जरूर किये।


जिरकाटांग से बाराटांग (Baratang) के बीच का रास्ता शीतोष्ण वनों से आच्छादित मिला। दोनों ओर घने जंगल और बीचों बीच पतली सर्पीलाकार सड़क एक ऐसा मंजर प्रस्तुत करते हैं जो किसी भी समुद्री तटीय पर्यटन स्थल में दुर्लभ है। रोड के किनारे किनारे जारवा के अस्थायी निवास दिखाई पड़े।


तीर-धनुष के साथ जारवा जब भोजन की तालाश में घूमते हैं तो छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बनाते चलते हैं। पर जंगलों के बहुत अंदर जहाँ बहुत सारे जारवा परिवार एक साथ रहते हैं वहाँ इनके घर बड़े आकार के होते हैं। इस जाति के लोग मछली ,जंगली सुअर का शिकार करना जानते हैं।इसके आलावा भोजन के लिए जंगल में ये कन्द मूल और शहद बटोरते हैं।

अंडमान ट्रंक रोड की एक और विशेषता है कि ये लगातार नहीं है । यानि अगर समुद्र का पार्श्वजल आपके रास्ते में आ जाए तो कोई सेतु नहीं मिलेगा आपको जिस पर आप अपनी गाड़ी सरपट दौड़ा सकें। आपको इंतजार करना पड़ेगा एक बड़ी सी फेरी का जो बस,कॉर, जीप सब को अपने पर लादकर दूसरी तरफ पहुँचाती है और उसके बाद सड़क यात्रा फिर से शुरु हो जाती है। पोर्ट ब्लेयर से रंगत के 170 किमी के फासले में ऐसी फेरी क्रासिंग दो बार मिलती है। बाराटांग के बाद हम जारवा सुरक्षित क्षेत्र से बाहर निकल गए । पर पुनः कदमतला के बाद एक दूसरे सुरक्षित क्षेत्र में प्रवेश कर गए। मानचित्र में अगर देखें तो पाएँगे कि इस इलाके में सड़क सुरक्षित क्षेत्र को बाहर-बाहर ही छूती है इसलिए यहाँ जारवा के दिखने की प्रायिकता बेहद कम होती है।

रंगत में सरकारी गेस्ट हाउस रंगत बाजार से 25 किमी आगे है। शाम तक हम सब रंगत के सरकारी गेस्ट हाउस, हॉकबिल नेस्ट (Hawkbill Nest) में थे। गेस्ट हाउस की हालत को देख कर ऐसा लगा कि वहाँ ठहरने के लिए ज्यादा लोग आते नहीं। एक बेड शीट से लेकर खाने के इंतजाम में हर जगह बदहाली नजर आई। गेस्ट हाउस के सामने ही कटबर्ट बे (Cutburt Bay) समुद्री तट है पर वहाँ पहुँचने के लिए मछुआरों की बस्ती के ठीक मध्य से जाना होता है। कहा जाता है कि रंगत के कटबर्ट बे समुद्री तट पर कछुए दिसंबर से फरवरी के बीच अंडे देने आते हैं। हम चूंकि नवंबर में आए थे ये दृश्य भी देखने को नहीं मिल सका। हैवलॉक के समुद्र तट के विपरीत यहाँ का तट काफी गंदा था। इसलिए सब लोग तुरंत गेस्ट हाउस में पहुँच गए।

अगले दिन हमें पुनः उसी रास्ते से वापस बाराटांग जाना था। क्या रंगत में बिताए हुई वो रात कुछ अप्रत्याशित लेकर नहीं आई थी ? वापस लौटते समय क्या जारवा जाति के लोगों से आमना सामना हो सका ? इन सवालों का जवाब लेकर उपस्थित हूँगा इस विवरण की अगली किश्त में।

(जारवा चित्र सौजन्य : Society for Andaman and Nicobar Ecology, Port Blair)