सोमवार, 29 सितंबर 2008

मेरी उड़ीसा यात्रा भाग-३ :पुरी का सूर्योदय और वो सुबह का समुद्री स्नान

अब तक आपने पढ़ा पुरी तक पहुँचने और समुद्र के सानिध्य में बिताए पहले दिन का हाल। आज देखें मेरे साथ पुरी का सूर्योदय और आनंद उठाएँ सुबह के समुद्री स्नान का।
जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में जिक्र किया था मेरे मित्र की कानपुर से आने वाली ट्रेन, दस घंटे विलंबित होते होते रात के करीब दो बजे पहुँची। गेस्ट हाउस में आते ही उसे ताकीद दे दी गई थी कि भाई पुरी के समुद्र तट का आनंद लेना है तो बस तुम्हारे लिए सिर्फ सुबह का समय बचा है। सूर्योदय के साथ अगर पानी बहुत ठंडा ना हुआ तो एक डुबकी भी लगा ली जाएगी।

पर गलती ये हो गई कि इस कार्यक्रम की जानकारी गेस्ट हाउस के चौकीदार को नहीं दी गई। अगली सुबह आँखे मलते-मलते जब किसी तरह हम सवा पाँच बजे तैयार हुए तो पता चला कि हम गेस्टहाउस में क़ैद हैं। नीचे के ग्रिल पर ताला लटका था और चौकीदार पर हमारी और रूम की कर्कश कालिंग बेल की आवाज़ों का कोई असर नहीं हो रहा था। उधर दूर क्षितिज पर सूर्योदय के पहले की हल्की-हल्की लाली नज़र आने लगी थी। हम सब हाथ पर हाथ धरे कुछ देर बैठे रहे। अंत में मेरे कनिष्ठ सहकर्मी ने एक जुगत भिड़ाई। पहले मंजिले के रेलिंग से लटकते हुए वो सामने वाली छत पर पहुँचा और फिर वहाँ से करीब छः सात फीट नीचे कूद गया। इस तरह चौकीदार को जगा के ताला खोला गया और हम करीब छः सवा छः बजे तक तेज़ कदमों से भागते टहलते समुद्र तट के करीब पहुँच गए।

वहाँ पहुँचे तो देखा कि सूर्योदय तो दस मिनट पहले ही हो गया था। पर सूर्य देवता बादलों की ओट में अपनी लाली बिखेरते शायद हमारे ही आने का इंतजार कर रहे थे। हमने तुरत फुरत में उस समय की तसवीरें लीं ।


सामने के नज़ारे को देखते ही सबका मन समुद्र में गोते लगाने का हो गया। पहले दिन की अपेक्षा आज सागर पूरे जोश में था और लहरें सिर की ऊँचाई तक उठ रहीं थीं। कुछ देर तो मैं अपने कैमरे की रखवाली करता रहा पर मित्रों को पानी में मस्ती करता देख रहा नहीं गया और मैं भी उनके साथ हो लिया। समुद्र तट खाली था। हमारे सिवाए इतनी सुबह स्नान को आतुर कोई पर्यटक नहीं दिख रहा था। हाँ सुबह टहलने वाले इक्का दुक्का दिख जाते थे। हम सभी को लहरों के साथ कूद फाँद करने में बेहद मज़ा आ रहा था। ऊँची लहरों के आते ही हमारे आस पास का समुद्री फेनीय जल श्वेत आभा से चमक उठता था। आप खुद ही देखिए..


पर आज का मुहुर्त ही कुछ गड़बड़ था। नहा के वापस लौटे तो देखा कि हमारे वरीय सहयोगी अपने तौलिए की बजाए अपनी छोटी बेटी का तौलिया उठा लाए हैं। ख़ैर जैसे तैसे छुपते छुपाते हमने कपड़े बदले। दूर से दोस्त ये देख हल्ला मचा रहे थे पर उन्हें क्या पता था कि कुछ ही समय बाद उनमें से एक पर क्या विपदा आने वाली है।

हुआ यूँ कि जब समने वस्त्र बदल लिए तो मेरे मित्र को ख़्याल आया कि उसने जल्दबाजी में भीगे कपड़ों पर ही पैंट पहन ली है। सो फिर उसे भी उसी तौलिए की शरण में जाना पड़ा। अब एक झटके में जैसे ही मित्र ने अंदर के कपड़े निकाले, तौलिया जवाब दे गया। अब हमारा तो हँसते-हँसते बुरा हाल था। रास्ते भर वो हमें कोसता गया कि "सर ऍसा तौलिया लाने से अच्छा था कि कुछ ना लाते"

वापस लौट कर हमें चिलका झील की ओर निकलना था जिसका एक सिरा पुरी से करीब ५० किमी दूर है। अगली पोस्ट में आपको ले चलेंगे खुर्दा, गंजाम और पुरी जिलों में करीब ११०० वर्ग किमी तक फैली इस झील के सफ़र पर....

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
  1. सफर राँची से राउरकेला होते हुए पुरी तक का
  2. पुरी का समुद्र तट क्यूँ है इतना खास ?

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

आइए मिलवाएँ आपको पुरी के रेतशिल्पी सुदर्शन पटनायक की कला से

पुरी के समुद्री तट से एक बेहद मशहूर कलाकार का नाम जुड़ा है। समुद्र तट पर बिखरी रेत को अपना कैनवास बनाने वाले इस कलाकार का नाम है सुदर्शन पटनायक। सुदर्शन ने भारत में बालू से शिल्प बनाने की कला को तो प्रतिष्ठा प्रदान की ही है, साथ ही विश्व स्तर की अनेक प्रतियोगिताओं में इनाम भी जीता है।

पुरी में जन्मे सुदर्शन पटनायक ने सात साल की उम्र से ही पुरी के तट पर विभिन्न देवी देवताओं की तसवीरें बनानी शुरु कर दी थीं। अपने जाल पृष्ठ पर वो लिखते हैं कि शुरु शुरु में रेत पर उकेरे इन शक्लों में वो सजीवता नहीं थी। पर किसी गुरु के ना होने के बावजूद निरंतर अभ्यास और अपनी रचनात्मकता के बल पर, अपनी बालू के ऊपर शिल्प बनाने की कला को एक पेशेवर रूप देने में वो सफल रहे। सुदर्शन आज कल देश में घूम-घूम कर इस कला के प्रचार में जुटे हैं।

यूँ तो सुदर्शन ने पहले पहल देवी देवताओं की छवियों को ही बालू पर सजीव रूप प्रदान किया। पर बाद में उन्होंने देश दुनिया में हो रही हर गतिविधि पर अपनी पैनी नज़र रखते हुए अपने विषयों को चुना। पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, रेत पर ताज महल और यहाँ तक कि वर्ष २००६ में हुई विश्व कप फुटबाल का फाइनल पर उनके बनाए रेतशिल्प की चर्चा सारी दुनिया में हुई।


तो आइए देखें उनके रेतशिल्प के नायाब संग्रह से चुनी हुई कुछ झलकियाँ।









(सभी चित्र साभार सुदर्शन पटनायक के जाल पृष्ठ से)

मुझे तो इनमें से माँ दुर्गा का रूप सबसे ज्यादा पसंद आया और आपको?

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

मेरी उड़ीसा यात्रा - भाग २ : पुरी का समुद्र तट क्यूँ है इतना खास ?

पिछले भाग में आपने पढ़ा कि किस तरह राँची से राउरकेला होते हुए हम सुबह दस बजे पुरी पहुँचे। पुरी में उस दिन अच्छी खासी धूप निखरी हुई थी। हम जिस गेस्टहाउस में ठहरे थे वहाँ से समुद्र तट करीब ३०० -४०० मीटर दूर था। एक घंटे में गरमागरम इडलियाँ आ गईं और उन्हें निबटाने के बाद सब सीधे तट के पास पहुँच गए।

पुरी का समुद्री तट करीब एक किमी की लंबाई से थोड़ी अधिक दूर तक फैला है इसके ठीक सामने होटलों की लंबी कतार है। निरंतर नए-नए होटलों के खुलते जाने से बीच का विस्तार पिछले कई सालों में बढ़ता ही गया है। तट और इमारतों के बीच एक सड़क समानान्तर चलती है जिसे यहाँ लोग 'मेरीन ड्राइव' के नाम से जानते हैं। समुद्री तट पर सबसे ज्यादा भीड़ यहाँ के पुराने और मशहूर 'होटल पुरी' के सामने के इलाके में रहती है। सामान्यतः समुद्र की ओर रुख करने वाले कमरों के किराए ज्यादा होते हैं। इसी तरह अगर आपको बजट होटलों की तालाश हो तो समुद्र से थोड़ा दूर खिसकना होता है।



भीड़ से बचने के लिए हम आधा किमी आगे निकल आए। वहाँ समुद्र लहरों की गर्जना के आलावा कोई स्वर और नहीं सुनाई दे रहा था। बालू के ढ़ेर पर हमारे समूह ने अड्डा जमा लिया और हम सब कुछ देर के लिए समुद्र की उठती गिरती लहरों को अपलक निहारते रहे। पुरी का तट भारत के पूर्वीय तटों में सबसे खूबसूरत है। एक तो इसका फैलाव इतनी दूर तक है कि आप अपने लिए पर्याप्त एकांत ढूँढ पाते हैं और दूसरे यहाँ की लहरें जो दिखने में तो आम सी लगती हैं पर आम हैं नहीं। अगर आपने इनके साथ ज्यादा बेतक्कुलफी दिखाई तो ये अपनी जबरदस्त ताकत का अंदाजा कुछ ही घंटों में दिखला देती हैं। पर अगर सावधानी के साथ इन लहरों के साथ कूद फाँद की जाए तो आनंद भी खूब आता है।


नहाने के पहले कुछ देर बच्चे बालू के टीले बनाने में व्यस्त रहे। सच तो ये है कि मुझे भी बालू के बीच मे् बड़ी बड़ी पहाड़ियाँ और नदी नाले बनाने में छुटपन में क्या लुत्फ आया करता था। इसलिए बच्चों को वही करता देख पुरानी यादें ताजा हो गईं। और हमारे सुपुत्र जो उस वक़्त ४ साल के थे बालू में कैसे रमे वो आप इस छवि से ही समझ सकते हैं।




जैसा कि अमूमन सभी तटों पर होता है यहाँ भी बड़ी बड़ी ट्यूबों के साथ समुद्र में गोते लगाने की सुविधा थी। हम लोग इधर समुद्र मे् थोड़े अंदर घुसे तो पता चला कि उधर एक बड़ी लहर के साथ सुपुत्र की टी शर्ट सागर को समर्पित कर दी गई। लहरों को बहुत देर इंतजार किया कि शायद वापस फेंक दें पर वैसा कुछ नहीं हुआ।

मस्ती के दो तीन घंटों के बाद हम वापस विश्राम के लिए चल पड़े पर शाम को पुनः लौटे। शाम को तट का स्वरूप भिन्न था। पर्यटकों की तादाद जिसमें काफी संख्या नवविवाहित जोड़ों की थी एकदम से बढ़ गई थी। अब पर्यटक हों तो वहाँ मूंगफली, पापड़, चाय से लेकर मछली तक का इंतजाम भी आस पास में क्यूँ ना उपलब्ध हो। और जहाँ रेत का ही बोलबाला हो वहाँ ऊँट की सवारी का सुख क्यों नहीं मिले। आखिर इंडिया है भाई..

रात में तट के दूसरी ओर का सिरा भी प्रकाश से जगमगा रहा था। सुबह जल्दी उठने का कार्यक्रम था इसलिए हम जल्द ही वापस लौट गए। वैसे भी हमारे के मित्र जो कानपुर से आने वाले थे ट्रेन के दस बारह घंटे विलंब होने की वज़ह से दिन में दो बजे के बजाए रात्रि के दो बजे पहुँचने वाले थे।

हमने सोचा था कि एक दिन तो उसका ट्रेन की वज़ह से मिस हो गया पर अगली सुबह का सूर्योदय जरूर उसे दिखाएँगे। क्या हम अपनी मुहिम में कामयाब हो पाए ये जानेंगे इस वृत्तांत की अगली कड़ी में...

सोमवार, 15 सितंबर 2008

मेरी उड़ीसा यात्रा - भाग १ : सफर राँची से राउरकेला होते हुए पुरी तक का

'मुसाफ़िर हूँ यारों' पर अब तक मैं आपको उत्तरी सिक्किम और पंचमढ़ी की यात्रा पर ले जा चुका हूँ। इस चिट्ठे पर अब मैं ले चल रहा हूँ आपको पुरी, चिलका, कोणार्क और भुवनेश्वर की यात्रा पर। नवंबर २००५ में की गई इस यात्रा का विवरण मैं अपने चिट्ठे एक शाम मेरे नाम पर नहीं दे पाया था। अब चूंकि अलग यात्रा चिट्ठा अस्तित्व में आ ही गया है तो सोचा क्यूँ ना इस सफ़रनामे की शुरुआत यहीं से हो।
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एक समय था जब राँची से राउरकेला जाने के लिए बस इक झारसूगूड़ा पैसेन्जर (Jharsuguda Passenger) हुआ करती थी। फिर इसी मार्ग से दक्षिण भारत की ओर जाने वाली ट्रेन बोकारो एलेप्पी जो बाद में धनबाद एलेप्पी (Dhanbad Alleppy) हो गई, चली। पर इतना सब होते हुए भी अपने पड़ोसी राज्य उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर तक जाने का कोई सीधा साधन उपलब्ध नहीं था। पर जबसे राउरकेला से भुवनेश्वर जाने वाली तपस्वनी एक्सप्रेस (Tapaswani Express) को राँची तक कर दिया गया, तबसे राँची से पुरी जाने की इच्छा रखने वाले यात्रियों कि मुँह माँगी मुराद पूरी हो गई।


करीब तीन साल पहले की बात है । नवंबर का महिना था। दीपावली के तुरंत बाद हमने पुरी (Puri), चिलका (Chilka Lake), कोणार्क (Konark) और भुवनेश्वर (Bhuvneshwar) जाने का कार्यक्रम बनाया। साढ़े चार बजे के लगबग हमारी ट्रेन हटिया स्टेशन छोड़ चली थी। हल्का हल्का जाड़ा आने लगा था। धूप पाँच बजते-बजते नदारद हो चुकी थी। बाहर खिड़की से सारा माहौल हरियाली से भरा पूरा था। वैसे भी हटिया से राउरकेला तक का इलाका, हल्की आबादी वाला आदिवासी बहुल इलाका है। छोटे-छोटे स्टेशन जिसमें गिनती के ही आदमी दिखेंगे। स्टेशनों के नाम भी ऍसे जो बाहरवाले की स्मरण शक्ति की परीक्षा जरूर लेंगे। अब बालसिरिंग (Balsiring), लोधमा (Lodhma) , कर्रा (Karra) , पोटका (Potka), बानो (Bano) , बांगुरकेला, नुआगाँ जैसे नाम जल्दी जुबाँ पर चढ़ने वाले तो नहीं।

इस रास्ते में वो सब खाने को कुछ नहीं मिलता जो आप आम रेलवे स्टेशनों पर उम्मीद करते हैं। जैसी ही ट्रेन स्टेशन पर रुकेगी छोटी, बड़ी टोकरियाँ लिए आदिवासी बच्चे और महिलाएँ आपकी खिड़की की ओर दौड़ पड़ेंगे। मौसम के हिसाब से कभी शरीफा, कभी जामुन, कभी पपीता या अमरूद या फिर कोई ऍसा फल जिसे आपने पहले ना देखा हो, आपके सामने पेश किया जा सकता है। बेहतरी इसी में है कि फलाहार जहाँ भी उपलब्ध हो करतें चलें क्योंकि राँची से अगले बड़े स्टेशन राउरकेला तक पहूँचने में करीब पौने चार घंटे लगते हैं।
रात्रि के आठ बजे हम राउरकेला (Rourkela) में थे। भुवनेश्वर जाने के लिए हमारी रेलगाड़ी को संभलपुर से दक्षिण जाने वाले मार्ग को छोड़कर पूर्व की ओर घूमना होता है। ये मार्ग तालचेर के रास्ते से उड़ीसा के पश्चिमी से पूर्वी किनारे की ओर जाता है और पूर्वी तटीय रेलवे के स्टेशन 'कटक' से जा मिलता है.

जब सुबह नींद खुली तो गाड़ी कटक स्टेशन पर अटकी पड़ी थी। कटक से भुवनेश्वर और फिर पुरी पहुँचते-पहुँचते हमें साढ़े आठ की बजाए दस बज गए। वैसे एक मजेदार बात ये है कि होटल, बस वाले ट्रैवल एजेंट यहाँ ट्रेन के पुरी पहुँचने के पहले ही ट्रेन में चढ़कर पर्यटकों से बातचीत शुरु कर देते हैं। हमारा पहले दिन का कार्यक्रम गेस्ट हाउस में सुस्ताने के बाद समुद्र तट पर समय काटने का था।

अगले भाग में जानते हैं पुरी के समुद तट की खासियत के बारे में....

सोमवार, 1 सितंबर 2008

कोलकाता : तोमार कौतो रुप ?

पिछले साल अप्रैल में कोलकाता जाना हुआ था, एक परियोजना के सिलसिले में और तभी मैंने ये प्रविष्टि लिखी थी। अपने बाकी के यात्रा विवरणों से ये सफ़र अलग सा था क्योंकि यहाँ हम घूमने नहीं बल्कि काम के सिलसिले में गए थे। ये पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि किसी भी शहर का सही आकलन वहाँ रहने वाला बाशिंदा ही कर सकता है। बाहर से जो लोग आते हैं वे सिर्फ सतही तौर पर वो बातें कह पाते हैं जो उनके अल्प प्रवास के दौरान उन्हें नज़र आती हैं। आप इस आलेख को इसी दृष्टि से लें....
चलते-चलते ये बताना मुनासिब होगा कि जिस परियोजना की बात इस प्रविष्टि में की गई थी वो अभी भी अपनी जगह अटकी हुई है।
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छोटे शहरों के प्राणी अगर अकस्मात ही अपने आप को एक महानगरीय वातावरण में डाल दें तो वो कैसा महसूस करेंगे !




भागती दौड़ती जिंदगियों के प्रति कौतूहल भरी निगाह...
अपार जनसमूह के बीच अपने खो जाने का भय...
गाड़ियों की चिल्ल पों के बीच ट्राफिक में फँसे होने की खीज...


ऐसी ही कुछ भावनायें मेरे मन में भी उभरीं जब राँची की शांति का त्याग कर मैं कार्यालय के काम के सिलसिले में कोलकाता पहुँचा। कोलकाता मेरे लिए कोई नया शहर नहीं । साल में एक या दो बार इस नगरी के चक्कर लग ही जाते हैं। हावड़ा स्टेशन से निकलते ही हावड़ा ब्रिज की विशाल संरचना आपको मोहित कर देती है । पर ये सम्मोहन ज्यादा देर बना नहीं रहता । टैक्सी, बस और आमजनमानस की भारी भीड़ के बीच अपने को पाकर आप जल्द ही अपने गंतव्य स्थल तक पहुँच जाना चाहते हैं ।
अपने तीन दिनों के कोलकाता प्रवास के दौरान अलग - अलग अनुभवों से गुजरा । इन अनुभवों में एकरूपता नहीं है । कह सकते हैं कि हर्ष और विषाद का मिश्रण हैं ये । इन्हें जोड़कर इस शहर के बारे में कोई बड़ी तसवीर ना बना लीजिएगा क्योंकि इस उद्देश्य से मैंने ये प्रविष्टि नहीं लिखी । 

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हमारी टैक्सी कलकत्ता से हावड़ा के सफर पर जा रही है । ड्राइवर के बातचीत के लहजे से हम सब जान चुके हैं कि ये बंदा अपने मुलुक का है । पूछा भाई किधर के हो ? छूटते ही जवाब मिला देवघर से । जैसे ही उसे पता चला कि हम सब राँची से आए हैं, झारखंड के बारे में अपना सारा ज्ञान वो धाराप्रवाह बोलता गया । थोड़ी देर बाद एक उदासी उसकी आवाज में तैर गई । पहले गाए भैंस हांकते थे साहब, अब कलकत्ता जैसे शहर में इस टैक्सी को हाँक रहे हैं। शहर से कभी-कभार बाहर जाना होता है तो खेत खलिहान देख के बड़ा संतोष मिलता है । अपनी जड़ से उखड़ने का मलाल हर वर्ग को सताता है, पर रोजी रोटी की जुगत उससे कहीं बड़ी समस्या है जो उस गाँव, उन खेतों की छवि को धूमिल किए रहती है ।
खैर, कुछ देर शांति बनी रही ।

फिर बात राजनीति पर छिड़ गई कि मधु कोड़ा झारखंड के लिए क्या कर रहे हैं । मैंने कहा करेंगे क्या वैसे भी कोलिजन की सरकार में तलवार की म्यान पर बैठे हैं । पर मेरी इस बात पर उसने कहा कि जिस तरह अमरीका में दो दलों से लोकतंत्र चलता है वैसा ही कुछ झारखंड में होना चाहिए तभी विकास को कुछ दिशा मिल सकेगी । उसकी राजनीतिक समझ पर मैं चकित रह गया । जिसने हाईस्कूल से ऊपर की पढ़ाई नहीं की वो अमेरिका के राजनीतिक परिवेश की खबर रखता है ...ये शायद अपने देश में ही संभव है ।

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हमारी टीम हावड़ा में एक बंद पड़ी सरकारी मिल का निरीक्षण करने गई थी । वहाँ एक नई मिल लगाने की योजना है । देखना ये था कि ये निवेश हमारी कंपनी के लिए कितना लाभकारी है । लगभग दो साल से बंद पड़ी मिल में अब मुशकिल से १५० कर्मचारी रह गए हैं । बाकी सब ने वी. आर. एस ले रखा है । पर बाकी के मजदूर अभी भी आस लगाए बैठे हैं कि उनकी मिल एक ना एक दिन चलेगी । ऊपर से कहीं भी यूनियन के हल्ले हंगामे की बात नहीं, बस एक उम्मीद उन हाथों को फिर मशीनों पर चलते देखने की । क्या ये वही बंगाल है मैं समझ नहीं पा रहा था ? हमारे आने से उनके चेहरे की चमक देखती ही बनती थी । पुरानी पड़ी जंग खाती मशीनों के बारे में इतने फक्र से बताते कि साहब ये जापान से आई थी अभी भी तेल डालने से जम कर चलेगी । पर हम सब कहाँ जुड़े थे उनकी भावनाओं से । हमारे लिए तो बस वो सिर्फ लोहे का टुकड़ा थीं जिनका वजन ही उनकी एक खासियत थी । अपना काम निपटा कर वहाँ से तो चले आए पर उन आशाओं का बोझ भी शायद अदृश्य सा साथ चला आया।
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सुबह का अखबार पं बंगाल को लड़कियों के शारीरिक शोषण में पहला स्थान दे रहा था। रेडियो मिर्ची की उदघोषिका गीतों के बीच इस संबंध में अपने प्रश्न रख रही है और शर्मिन्दगी का अहसास श्रोताओं के मन से उभर रहा है पर क्या ये काफी है ? कम से कम मेरे लिए ये बात विस्मित करने वाली थी क्योंकि बंगाल में नारी जागरुकता , शिक्षा और समाज में उनकी भागीदारी अन्य राज्यों से बेहतर है।

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शाम के सात बज रहे हैं। मैं कोलकाता के मुख्य केंद्र स्पलेनैड में हूँ । कोलकाता में स्पलेनैड इलाके का वही महत्त्व है जो दिल्ली में कनाट प्लेस का चौरंगी की सड़कें खरीददारों और विक्रेताओं से अटी पड़ी हैं । माहौल एक छोटे शहर के हिसाब से एक उत्सव का है। युवक युवतियाँ चुस्त चमकदार पोशाकों में हर जगह हँसते खिलखिलाते नजर आ रहे हैं। हमेशा वाली नमी की अधिकता , आज चल रही तेज हवाओं से महसूस नहीं हो रही है । न्यू मार्केट में हमेशा की तरह अंतिम बारगेन प्राइस बोल कर खरीददार भाग रहे हैं और विक्रेता तेज कदमों से उनका पीछा कर अंतिम मूल्य पर उनकी रजामंदी की कोशिश कर रहे हैं । पर उधर उस छोटी सी दुकान में भीड़ कैसी ? अरे ये तो संगीत से जुड़ी लगती है...उससे क्या जनाब ये कोलकाता है ..यहाँ संगीतप्रेमियों की कमी नहीं ।

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रात्रि के ९.३० बज चुके हैं । मेरे एक सहयोगी पान खाने के लिए चार सितारा होटल से बाहर निकले हैं । पान का रस लेते हुए वापस लौट ही रहे हैं कि बगल में हाथों से चलाता एक रिक्शावाला दौड़ता हुआ आता है और कहता है ..
जाबे...?मित्र जवाब देते हैं नहीं यार यहीं होटल में जा रहा हूँ, तुरंत प्रत्युत्तर मिलता है

चाहिए ? स्कूल, कालेज सब मिलेगा
अब वस्तुस्थिति भांपते हुए तेज कदमों से घबराए हुए होटल की चौहद्दी में प्रवेश करते हुए राहत की सांस लेते हैं

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अगले दिन वापसी की शाम हम सब बेलूर मठ में है । मठ परिसर के अंदर घुसते ही मन प्रसन्न हो जाता है । नदी की ओर से आती शीतल हवा ,सर्वत्र हरियाली और बीच बीच में बने भव्य मंदिर । पर परिसर के अंदर का ये खूबसूरत नागफनी अपनी ओर अनायास ही ध्यान खींच लेता है । मन सोच में पड़ जाता है । कैसा रूप है इसका ऊपर से कितना भव्य कितना सुरचित पर नजदीक से देखो तो कांटे भी नजर आते हैं । बहुत कुछ अपने शहर की तरह जिसकी मिट्टी में ये उगा है !