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सोमवार, 1 जून 2009

पोखरा, नेपाल का सूर्योदय और कथा मछली के पूँछ के आकार की अनोखी चोटी माउंट फिशटेल की...

प्रकृति की मनोरम छवियों को देख पाने के लिए एक आम पर्यटक का सिर्फ गन्तव्य तक पहुँचना काफी नहीं होता। उसे तो भाग्य के सहारे की भी नितांत आवश्यकता होती है, खासकर तब जब प्रसंग पर्वतीय भ्रमण स्थलों पर सूर्योदय देखने का हो।

कितनी बार ही ऍसा होता है कि इधर आप सैकड़ौं किमी की यात्रा कर इच्छित स्थान पर पहुँचे नहीं कि काले मेघों ने आपका ऍसा स्वागत किया कि आपके घूमने घामने वाले समय में बारिश ही होती रह जाए। या फिर अगर आप इतने दुर्भाग्यशाली ना भी हों तो इस दृश्य की कल्पना कीजिए। सर्दी की ठिठुरती ठंड में आपसे साढ़े चार तक तैयार रहने को कहा जाता है। अब रात की नींद को तो गोली मारिए सुबह आप किसी तरह सूर्योदय स्थल तक पहुँच भी गए हों तो सूर्योदय बेला के ठीक पहले ठुमकता हुआ बादलों का झुंड आपकी सारी तैयारियों पर पानी फेर देता है।

ऍसे ही एक प्रसंग की याद आती है जो आज से करीब १८ वर्ष पहले मेरे साथ घटित हुआ था। तब मेरे पिता बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के मुख्यालय बेतिया में पदस्थापित थे। पश्चिम चंपारण बिहार के उत्तर पूर्वी किनारे का अंतिम जिला है। इसके उत्तर में नेपाल और पूर्व में पूर्वी उत्तरप्रदेश का देवरिया जिला आता है। दशहरे की छुट्टियो के बीच कार्यक्रम बना कि क्यूँ ना गाड़ी से ही मोतिहारी और विराटनगर होते हुए काठमांडू और पोखरा जाया जाए। यूँ तो नेपाल के उत्तर मध्य में बसा शहर पोखरा पर्यटकों में काठमांडू के बाद सबसे ज्यादा लोकप्रिय है पर जहाँ तक मुझे याद पड़ता है पोखरा मुझे उस वक़्त बहुत ज्यादा सुंदर और विकसित शहर नहीं लगा था। आसमान छूते पर्वतों के बीच फैली फेवा झील (Feva Lake) में बोटिंग का आनंद हम सब ने अवश्य उठाया था पर फेवा झील से ज्यादा रोमांचक अगली सुबह की अपनी यात्रा रही थी।

हमारा चालक पहली बार गाड़ी लेकर नेपाल आया था। इसलिए उसे वहाँ के रास्तों के बारे में हर किसी से पूछना पड़ता था। कई बार तो ऍसा होता था कि राहगीर हाथ तो दाहिना दिखाता था पर बोलता बाएँ था। दिन में या शाम को तो काम चल जाता था पर रात में दिक्कत होती थी। झील में नौका विहार के बाद घूमते घामते होटल पहुँचे तो वहाँ पता चला कि यहाँ सारंगकोट (Sarangkot) से सूर्योदय का दृश्य अद्भुत होता है। अब जाने की इच्छा तो सभी की थी पर अनजान जगह में रास्ता भटकने का भय भी था। सारे पर्यटक बुलेटन छान मारे गए। पर उनमें वहाँ जाने की अलग अलग जानकारी मिली। शायद सारंगकोट पहुँचने के एक से ज्यादा रास्ते थे। ड्राइवर को रास्ते के लिए स्थानीय लोगों से बात कराई गयी। पर सुबह पौने पाँच बजे के करीब जब हम निकले तो काली स्याह रात में सड़क पर दौड़ते कुत्तों के आलावा कुछ ना था।

बताए गए निर्धारित रास्ते पर हम बढ़ते रहे। अचानक ही रास्ते के बाँयी ओर सारंगकोट जाने के लिए रास्ता दिखा तो सहमे मन को कुछ सुकून मिला पर जैसे ही गाड़ी उस रास्ते पर आगे बढ़ी, चालक सहित हम सभी की जान साँसत में आ गई। जीप की हेडलाइट के आलावा रास्ते पर किसी तरह की रोशनी नहीं थी। उस वक़्त वो रास्ता भी बेहद संकीर्ण और कच्चा था। थोड़ी दूर के घुमावों को पार करते समय जब गहरी घाटी दृष्टिगोचर हुई तो बस राम नाम जपने के आलावा कोई चारा भी नहीं था। हमें सबसे अधिक डर इस बात का लग रहा था कि वहाँ जाने के लिए हमने कोई गलत रास्ता तो नहीं पकड़ लिया क्योंकि इतने उबड़ खाबड़ और संकरे रास्ते की उम्मीद नहीं थी। दस मिनट तक हम इसी मनोदशा में रहे कि हमें दूर ऊँचाई पर एक तिरछी रेखा में उठती हुई रौशनी दिखाई दी। हमने पहले तो सोचा कि कोई घर है पर रोशनी को हिलते देख हमारा विस्मय और बढ़ गया। दरअसल वो रोशनी वहाँ चलने चाली टोयोटा कार की थी जो उस वक्त हमसे काफी ऊँचाई पर एक बेहद स्टीप उठान पर आगे बढ़ रही थी।

इस दृश्य को समझकर हमारे मन में मिश्रित भावनाएं जागीं। पहली संतोष की कि हमने रास्ता गलत नहीं चुना और दूसरी भय की उस चढ़ाई की कल्पना कर जिस तक हमारे चालक को आगे अभी सँभालना बाकी था। कुछ देर के बाद हम उस स्थान पर थे जहाँ से आगे की चढ़ाई खुद चढ़नी थी। सारंगकोट की पहाड़ी समुद्रतल से लगभग १६०० मीटर ऊँचाई पर है। पहाड़ी की अंतिम सीधी चढ़ाई पैदल ही तय की जा सकती है। हम जब ऊपर पहुँचे तो वहाँ तीन चार विदेशी पर्यटक पहले से मौजूद थे। पिताजी ने एक इटालवी पर्यटक से बात चीत शुरु कर दी। पता चला कि वो एक हफ्ते से इस सूर्योदय को देखने सारंगकोट पर डेरा जमाए हुए है। रहने के लिए एक पहाड़ी का मकान और उन्हीं के साथ खाना पीना। हम सब मन ही मन उसकी कथा सुनकर दंग हो रहे थे और आशा कर रहे थे कि प्रभु आज तो खुल के दर्शन दो। पर सूर्य देव कहाँ मानने वाले थे। आए पर साथ में बादलों का छोटा सा झुंड ले के। करीब सात बजे के बाद से आसमान साफ होना शुरु हुआ और अन्नपूर्णा की बर्फ से लदी चोटियों पर सूर्य की किरणें जगमग कर उठीं। उस वक़्त मेरे पास कैमरा तो था नहीं पर अगर उस दिन मैं भाग्यशाली होता तो पोखरा का सूर्योदय कुछ इस तरह का दिखता।


सारंगकोट (Sarangkot) से नेपाल के पश्चिम में फैली अन्नपूर्णा पर्वत श्रृंखला (Annapurna Himal) तो दिखती ही है साथ ही दिखती है एक अलग से आकार की चोटी जिसे माछपूछरे (Macchapuchre) मछली की पूँछ यानि फिश टेल पीक के नाम से जाना जाता है। वैसे तो अन्नपूर्णा करीब ८००० मीटर ऊँची चोटी है पर उससे १००० मीटर नीची फिश टेल उससे ज्यादा मशहूर है। एक तो इसका मछली की पूँछ सा आकार और दूसरे अंत की इसकी तीखी चढ़ाई इसे सम्मोहक बना देती है। नेपाल सरकार ने इस चोटी पर चढ़ाई को गैरकानूनी घोषित किया है क्योंकि ये वहाँ के गुरुंग समुदाय के लिए श्रद्धेय है।
पर कुछ पर्वतारोहियों ने गैरकानूनी तरीके से इस चोटी पर चढ़ने का प्रयास किया । १९५७ में विल्फ्रेड नॉयस का पर्वतारोही दल इस चोटी के डेढ़ सौ फीट नीचे से लौट आया। उसने इस घटना का जिक्र अपनी किताब क्लाइमबिंग दि फिश टेल (Climbing the Fish Tail) में किया है। कहा तो ये भी जाता है कि अस्सी के दशक के प्रारंभ में न्यूजीलैंड के पर्वतारोही बिल डेन्ज़ ने इस चोटी पर चुपके चुपके फतह पाई पर बिल अपने दुस्साहस को दुनिया के सामने जगज़ाहिर करने के पहले ही १९८३ में एक पर्वतारोही अभियान में चल बसे।

तो वापस लौटें उस सुबह के नज़ारे पर... जैसे जैसे धूप फैलती जाती वैसे वैसे अन्नपूर्णा और फिशटेल की चोटियों का रंग बदलता जाता। सफेद बर्फ से लदी ये चोटियाँ इतनी ऊँचाई लिए होतीं कि हमें कई बार बड़ी देर से विश्वास होता कि आखिर हम चोटी देख रहे हैं या बादलों का कोना। सारंगकोट पर लगभग ढाई घंटे बिताने के बाद हम इन दृश्यों को मन में संजोए वापस लौट पड़े।

अगली पोस्ट में जिक्र एक ऍसे सूर्योदय का जिसे देखने के साथ मैंने कैमरे में क़ैद करने में भी सफलता पाई थी....