अक्सर पर्यटक कौसानी आने पर अनासक्ति आश्रम तो देखते हैं पर इस माटी में पैदा हुए विख्यात कवि के पैतृक निवास तक नहीं पहुँच पाते। गाँधी जी तो कौसानी कुछ दिनों के लिए आए थे पर छायावाद के प्रखर स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत का कौसानी में ना केवल जन्मस्थान है अपितु उनकी कई रचनाओं का उद्गम स्रोत भी। पंत जी का जन्म 20 मई 1900 को इस खूबसूरत कस्बे में हुआ था। उनके पिता गंगा दत्त पंत यहाँ के चाय बागान के व्यवस्थापक थे। बालक पंत की आरंभिक शिक्षा कौसानी में ही हुई थी।
सुमित्रानंदन पंत के बचपन की तसवीरें (Childhood photographs of Sumitranandan Pant)
कवि पंत का प्रारंभिक नाम गुसाई दत्त था। पंत ने 1911 ई में अल्मोड़ा के गवर्नमेंट हाईस्कूल में प्रवेश किया, जहाँ उन्होंने भगवान राम के भाई लक्ष्मण को आदर्श मानते हुए अपना नाम 'सुमित्रानंदन' रख लिया। पंत बचपन में सात वर्ष की आयु से ही काव्य रचना करने लगे थे। ऊँचे कद, तीखे नाक नक्श और लंबे बालों वाले पंत का शुमार हिंदी के रूपवान कवियों में होना चाहिए। पंत वो पहले कवि थे जिन्हें अपनी कृति चिदम्बरा के लिए 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया।
आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक युवा कवि पंत
बैद्यनाथ के मंदिरों, चाय बागान और हस्तकरघा केंद्र से लौटते लौटते दिन के ढाई बज चुके थे। दिन का भोजन कर हम करीब चार बजे कौसानी के मुख्य बाजार में पहुँचे। स्थानीयों से पूछने पर पता चला कि पास की गली से ही एक रास्ता कवि पंत के घर को जाता है। पाँच मिनट तक गली में चलने के बाद एक चबूतरे पर पंत की छोटी सी प्रतिमा दिखाई दी पर उनके घर का पता अब भी नहीं चल रहा था। फिर पूछना पड़ा। पता चला सामने वाला जो घर दिखाई दे रहा है वो उन्हीं का है। घर के ऊपर साइनबोर्ड ना देख कर मुझे आश्चर्य हुआ। खुले दरवाज़े से अहाते में दाखिल हुआ तो ज़मीन पर रखा ये बोर्ड नज़र आया।
फर्श पर पड़ा साइनबोर्ड
पंत के घर पर अब कोई नहीं रहता। वैसे भी इसे वीथिका में तब्दील कर ही दिया गया है पर इसके अधिकांश कमरे अब खाली है। अंदर के कमरे से निकल कर हम इस हाल तक पहुँचे। दीवारों पर रंग रोगन हुए लगता था कई साल बीत गए हैं। हॉल में ढेर सारी अलमारियाँ है और उनके अंदर पंत का विशाल पुस्तक संग्रह। इसमें उनकी, उनके समकालीनों और अन्य लेखकों की किताबें हैं। अलमारी के ऊपर बड़े बड़े फोटो फ्रेम में पंत और उनके मित्रों की तसवीरें हैं। अलमारी के ऊपर समाचार पत्र बिछाकर इन चित्रों को कतार में रख दिया गया है।
पंत वीथिका का मुख्य हॉल (Main Hall , Sumitranandan Pant Gallary)
हॉल के एक कोने में लकड़ी की चौखट के पास एक मेज,चादर और अटैची रखी गई है। आप सब इस बात से इत्तिफाक रखेंगे कि ये वैसी ही अटैची है जिसे आज से तीन दशक पहले इस्तेमाल किया जाता रहा है। तब तक भारत के पहले प्रचलित सूटकेस VIP का आविर्भाव नहीं हुआ था।
सुमित्रानंदन पंत की अटैची व मेज़
इस गैलरी का केयरटेकर जो हमारे आहाते में प्रवेश करने के बाद बगल से दौड़ता हुआ आया था, हमें बताता है कि इसी मेज़ पर पंत बैठ कर काव्य रचना करते थे। तसवीरें तो कई सारी थीं पर मेरी नज़र उनमें से एक पर जाकर ठिठकी।
पंत और बच्चन हिंदी काव्य संसार के दो कर्णधार
इस तसवीर में पंत साहब के साथ हरिवंश राय बच्चन तो हैं ही, पर साथ में पीछे दायीं ओर आप अमिताभ बच्चन को भी खड़ा पाएँगे। दीवारों पर जगह जगह पंत की कविताओं की चार चार पंक्तियाँ बोर्ड की शक्ल में टाँग दी गई हैं।
पंत की इस वीथिका में इस बात का उल्लेख है कि कवि ने ऊपर की पंक्तियाँ क्यों लिखीं ? दरअसल सांस्कृतिक साहित्यिक चेतना से उन्होंने केशवर्धन की प्रतिज्ञा ली थी। कौसानी से प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद वो अल्मोड़ा चले गए। अल्मोड़े की घाटी की सुंदरता पर उनकी कलम भी चली जब उन्होंने लिखा..
लो चित सुलभ सी पंख खोल
उड़ने को है कुसुमित घाटी
यह है अल्मोड़े का बसंत
क्या कौसानी की इन सुंदर छटाओं से आप कवि की कल्पना को साकार नहीं पाते हैं? सुमित्रानंदन पंत की एक और कविता (जिसका उल्लेख इस वीथिका यानि गैलरी में भी है) का जिक्र करना चाहूँगा क्यूँकि वो मेरी भी परमप्रिय है। कविता कवि अपनी प्रियतमा से कहता है कि प्रकृति की इस अनुपम छटा के बीच रहते हुए मैं कैसे तुम्हारे सौंदर्य जाल में बँध कर इस संसार को भूल जाऊँ ? पंत की इस कविता की शुरु की पंक्तियों के लिए मुझे ये चित्र उपयुक्त लगा जो मैंने वीथिका से निकलने के बाद कौसानी की सड़कों पर चहलकदमी करते हुए खींचा था।
छोड़ द्रुमों* की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!(द्रुम : पेड़ों का समूह)
कोयल का वह कोमल बोल, मधुकर की वीणा अनमोल
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से, कैसे भर लूँ सजनी श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
बहरहाल मुझे ऐसा लगा कि इतने महान साहित्यकार की वीथिका का रखरखाव इससे बेहतर ढंग से होना चाहिए। मुझे अपनी जापान की यात्रा याद आ गई जब वहाँ के नगर कोकुरा में हम ये देख कर आश्चर्यचकित रह गए थे कि वहाँ एक पूरा चमचमाता संग्रहालय पूरी तरह एक साहित्यकार को समर्पित था।
कौसानी की वो शाम हमने ऊपर ऊँचाई पर जाती घुमावदार सड़कों पर टहलने में
बिताई। इस दुबले पतले रास्ते में एक ओर हरे भरे चीड़ के जंगल हैं तो दूसरी
ओर खूबसूरत घाटी जिस पर ढलते सूरज की किरणों ने कब्जा जमा रखा था। अपने
समूह से अलग होकर कुछ देर एकांत में मैं इस दृश्य को अपलक देखता रहा
फिर लगा कि क्यूँ ना इसी रास्ते पर आगे बढ़ा जाए? चलते चलते मैं उस दोराहे
पर पहुँच गया जिसका एक सिरा कौसानी के मिलट्री स्टेशन और दूसरा यहाँ के
राज्य अतिथि गृह की ओर जाता है। वैसे तो मुझे अकेले ही और आगे तक विचरने का
मन था पर तेजी से पसरते अँधेरे की वज़ह से मन मसोस कर मैं वापस चल पड़ा।
कौसानी सैन्य स्टेशन की ओर जाती सड़क (Road to Kausani Military Station)
उस दिन बारिश नहीं हुई थी इसलिए उम्मीद थी कि अगली सुबह कौसानी छोड़ने से पहले भगवन शायद हमें हिमालय पर्वत श्रंखला का नज़ारा दिखा दें। क्या ये संभव हो सका जानेंगे इस श्रंखला की अगली कड़ी में...अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो
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