बुधवार, 25 दिसंबर 2013

बड़ा बाग, जैसलमेर : भाटी राजाओं का स्मृति स्मारक ! ( Royal Cenotaphs, Bada Bagh, Jaisalmer )

अब तक जैसलमेर से जुड़ी इस श्रंखला में आपने थार मरुस्थल, सोनार किला और लोद्रवा के खूबसूरत मंदिरों की यात्राएँ की। आज चलिए आपको ले चलें जैसलमेर के बड़ा बाग इलाके में जो लोद्रवा के मंदिरों और जैसलमेर के बीचो बीच पड़ता है।


सत्रहवीं शताब्दी में महाराजा जय सिंह द्वितीय ने यहाँ बाँध बनाकर एक तालाब बनाया था। पानी का स्रोत मिलने से इस रेगिस्तानी इलाके में भी हरियाली का एक टुकड़ा निकल आया। जय सिंह द्वितीय के पुत्र लुनाकरण ने यहाँ एक बाग का निर्माण किया और साथ ही अपने पिता की स्मृति में एक समाधिस्थल बनाया जिसे राजस्थान में 'छतरी' के नाम से भी जाना जाता है। तभी से भाटी राजाओं की छतरियाँ यहाँ बनने लगीं। इन छतरियों पर जब सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूरज की रोशनी पड़ती है तो नज़ारा देखने लायक होता है।


मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

क्यूँ हैं लोद्रवा के जैन मंदिर राजस्थान के खूबसूरत मंदिरों में से एक? The beauty of Lodurva Jain Temples, Jaisalmer

राव जैसल द्वारा त्रिकूट पर्वत पर जैसलमेर की नींव रखने के पहले भाटी राजपूतों की राजधानी लौद्रवा थी जो जैसलमेर से सत्रह किमी उत्तरपश्चिम में है। आज तो लौद्रवा की उपस्थिति जैसलमेर से लगे एक गाँव भर की है।  ऐसा माना जाता है कि लोदुर्वा का नाम इसे बसाने वाले लोदरा राजपूतों की वजह से पड़ा।  दसवीं शताब्दी में ये इलाका भाटी शासकों के अधीन आ गया। ग्यारहवीं शताब्दी में गजनी के आक्रमण ने इस शहर को तहस नहस कर दिया। प्राचीन राजधानी के अवशेष तो कालांतर में रेत में विलीन हो गए पर उस काल में बना जैन मंदिर सत्तर के दशक में अपने जीर्णोद्वार के बाद आज के लोद्रवा की पहचान है।

जैसलमेर में थार मरुस्थल और सोनार किले को देखने के बाद हमारा अगला पड़ाव ये जैन मंदिर ही थे। दिन के साढ़े नौ बजे जब हम अपने होटल से निकले, नवंबर के आख़िरी हफ्ते की खुशनुमा धूप गहरे नीले आकाश के सानिध्य में और सुकून पहुँचा रही थी। जैसलमेर से लोधुर्वा की ओर जाती दुबली पतली सड़क पर अज़ीब सी शांति थी। बीस मिनट की छोटी सी यात्रा ने हमें मंदिर के प्रांगण में ला कर खड़ा कर दिया था।

जैसलमेर के स्वर्णिम शहर के नाम को साकार करते हुए ये मंदिर भी सुनहरा रूप लिए हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह में जैन तीर्थांकर पार्श्वनाथ की मूर्ति है। इनके आलावा इस जैन मंदिर परिसर के हर कोने में अलग अलग तीर्थांकरों को समर्पित मंदिर हैं।


सोमवार, 16 दिसंबर 2013

यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..

मलयालम में केरा (Kera) का मतलब होता है नारियल का वृक्ष और अलयम (Alayam) मतलब जमीन या देश। ऍसा कहा जाता है कि केरलयम ही समय के साथ केरल में बदल गया। यूँ तो नारियल के पेड़ पूरी यात्रा में हमेशा दिखाई देते रहे पर कोट्टायम (Kottayam) के बैकवाटर्स में ये जिस रूप में हमारे सामने आए वो बेहद खूबसूरत था।

 
जैसा कि मैंने आपको बताया था कि लोग केरल के बैकवाटर्स का आनंद लेने कुमारकोम जाते हैं जो कि कोट्टायम शहर से करीब १६ किमी है। पर यही काम आप काफी कम कीमत में कोट्टायम शहर में रहकर भी कर सकते हैं। पूरे कोट्टायम जिले में नदियों और नहरों का जाल है जो आपस में मिलकर वेम्बनाड झील (Vembanad lake) में मिलती हैं।


जिस होटल में हम ठहरे थे वहीं से हमने दिन भर की मोटरबोट यात्रा के टिकट ले लिए। ये प्रति व्यक्ति टिकट मात्र 200 रुपये का था जिसमें दिन का शाकाहारी भोजन और शाम की चाय शामिल थी। कोट्टायम जेट्टी में उस दिन यानि 28दिसंबर को कोई भीड़ नहीं थी। दस बजे तक धूप पूरी निखर चुकी थी और हम अपनी दुमंजिला मोटरबोट में आसन जमा चुके थे। ऊपर डेक पर नारंगी रंग का त्रिपाल तान दिया गया था जिससे धूप का असर खत्म हो गया था। बच्चे कूदफाँद करते हुए सबसे पहले मोटरबोट के डेक के सबसे आगे वाले हिस्से पर जा पहुँचे। वो जगह चित्र खींचने और मनमोहक दृश्यों को आत्मसात करने के लिए आदर्श थी।

 
थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही नहर के दोनों किनारों पर नारियल के पेड़ों की श्रृंखला नज़र आने लगी। बीच बीच में नहर को पार करने के लिए पुल बने थे जिन्हें मोटरबोट के आने से उठा लिया जाता था। पहले आधे घंटे तक नहर की चौड़ाई संकरी ही रही। पानी की सतह के ऊपर जलकुंभी के फैल जाने की वजह से मोटरबोट को बीच-बीच में रुक-रुक के चलना पड़ रहा था। नहर के दोनों ओर ग्रामीणों के पक्के साफ-सुथरे घर नज़र आ रहे थे। बस्तियाँ खत्म हुईं तो ऍसा लगा कि हम वाकई धान के देश में आ गए हैं। दूर दूर तक फैले धान के खेत अपनी हरियाली से मन को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। किनारे-किनारे प्रहरी के रूप में खड़े हुए नारियल के पेड़ और खेतों में मँडराते सफेद बगुलों और अन्य पक्षियों के झुंड ऐसा दृश्य उपस्थित करते हें कि बस आपके पास टकटकी लगा कर देखने के आलावा कुछ नहीं बचता।

हालैंड के आलावा यही ऍसा इलाका है जहाँ समुद्रतल के नीचे धान की खेती होती है। खेतों के चारों ओर इतनी ऊँचाई की मेड़ बनाई जाती है जिससे खारा पानी अंदर ना आ सके। समुद्र के पार्श्व जल से भरे ये इलाके यहाँ के ग्रामीण जीवन की झलक दिखाते हैं। यहाँ के लोगों का जीवन कठिन है। मुख्य व्यवसाय नाव निर्माण, नारियल रेशे का काम, मछली -बत्तख पालन और धान की खेती है। सामने बहती नदियाँ और नहरें इनके जीवन की सभी मुख्य गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं। हर छोटे बड़े घर के सामने एक छोटी सी नाव आप जरूर पाएँगे। घर से किसी काम के लिए निकलना हो तो यही नाव काम आती है। यहाँ तक की फेरीवाले तमाम जरूरत की चीजों को नाव पर डालकर एक गाँव से दूसरे गाँव में बेचते देखे जा सकते हैं।
केरल के ग्राम्य जीवन के विविध रंगों की झलक देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।


सोमवार, 9 दिसंबर 2013

आज मेरे साथ चलिए जैसलमेर के सोनार किले के अंदर ! (Sonar Quila , Jaisalmer)

जैसा कि पिछली प्रविष्टि में आपको बताया था कि हम जैसलमेर से सटे थार रेगिस्तान में अपनी शाम बिताकर वापस शहर लौट गए थे। हमारा होटल किले की ओर जाती सड़क पर था। रात को सोने के पहले ही मैंने ये योजना बना ली थी कि सुबह सूरज की पहली किरण किले पर पड़ने के बाद तुरंत किले की सैर के लिए चल पड़ेंगे। सूर्योदय के पहले ही होटल की बॉलकोनी से मैं अपना कैमरा ले कर तैयार था। सूर्योदय के बाद अपने कैमरे से नवंबर के गहरे नीले आसमान की छत के नीचे फैले इस विशाल किले की जो पहली छवि क़ैद की वो आपके सामने है। 


वैस पीले चूनापत्थरों से बने इस किले का रंग सूर्यास्त के ठीक पहले की रोशनी में बिल्कुल सुनहरा हो जाता है और इसलिए लोग इसे सोनार किले के नाम से पुकारते हैं। फिल्मों में रुचि रखने वाले लोगों के लिए ये जानना रुचिकर रहेगा कि निर्देशक सत्यजित रे ने इसी नाम से एक बाँग्ला थ्रिलर भी बनाई थी जिसमें इस किले को बड़ी खूबसूरती से फिल्मांकित किया गया था। जैसलमेर के त्रिकूट पर्वत पर 76 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस किले का निर्माण भाटी राजा राव जैसल ने 1156 ई में करवाया था। सोनार किले का अनूठापन इस बात में है कि ये दुनिया के उन चुनिंदे किलों में से एक है जिसमें लोग निवास करते हैं। राजपूत राज तो अब नहीं रहा पर राजाओं द्वारा  बसाए गए पुष्करणा ब्राह्मणों और जैनों की बाद की पीढ़ियाँ आज भी इस किले को आबाद किए हुए हैं।


किले की विशालता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी बाहरी दीवार का घेरा पाँच किमी लंबा है और इसकी दीवारें 2-3 मीटर मोटी और 3-5 मीटर ऊँची है। किले की लंबी सर्पीली दोहरी प्राचीर के मध्य 2-3 मीटर चौड़ा रास्ता है जिसमें सैनिक गश्त के लिए घूमा करते थे। किले का परकोटा 99 बुर्जियों और छज्जेदार अटारियों द्वारा सुसज्जित है। मजे की बात ये है कि बिना सीमेंट और गारे के  पत्थरों को आपस में फँसाकर किले और उसकी अंदर की इमारतों को बनाया गया है ।



शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

मेरी राजस्थान यात्रा : कैसा है जैसलमेर का थार मरुस्थल ? Thar Desert of Jaisalmer

जीवन में प्रकृति के जिस रूप को आप नहीं देख पाते उसे देखने की हसरत हमेशा रहती है। यही वज़ह है कि जो लोग दक्षिण भारत में रहते हैं उनके लिए हिमालय का प्रथम दर्शन दिव्य दर्शन से कम नहीं होता। वहीं उत्तर भारतीयों की यही दशा पहली बार समुद्र देखने पर होती है। पूर्वी भारत के जिस हिस्से में मैं रहता हूँ वहाँ से समुद्र ज्यादा दूर नहीं और गिरिराज हिमालय की चोटियाँ तो कश्मीर से अरुणाचल तक फैली ही हैं यानि जहाँ से चाहो वहाँ से देख लो। सो पहली बार बचपन में मैंने समुद्र पुरी में देखा और हिमालय के सबसे करीब से दर्शन नेपाल जाकर किए।

पर रेगिस्तान पिताजी हमें दिखा ना सके और मरूभूमि को पास से महसूस करने की ललक दिल में रह रह कर सर उठाती रही। इसीलिए जब राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बना तो राजस्थान के उत्तर पश्चिमी भाग में थार मरुस्थल ( Thar Desert ) के बीचो बीच बसा शहर जैसलमेर मेरी प्राथमिकता में पहले स्थान पर था। उदयपुर से अपनी राजस्थान यात्रा आरंभ करने के बाद हम चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, माउंट आबूजोधपुर होते हुए जैसलमेर पहुँचे। 

जैसलमेर जोधपुर से तकरीबन तीन सौ किमी दूर है पर अच्छी सड़क और कम यातायात होने की वज़ह से ये दूरी  साढ़े चार घंटे में तय हो जाती है। सुबह साढ़े आठ बजे तक हम जोधपुर शहर से बाहर निकल चुके थे। सफ़र के दौरान ज्यादातर एक सीधी लकीर में चलती सड़क के दोनों ओर बबूल के पेड़ की दूर तक फैली पंक्तियाँ ही नज़र आती थीं। यदा कदा रास्ते में किसी गाँव की ओर जाती पगडंडी दिख जाती थी। थोड़ी ही दूरी तय करने के बाद हमें इस सूबे में जनसंख्या की विरलता समझ आ गयी। वैसे भी पानी को तरसती इस बलुई ज़मीन (जिस पर छोटी छोटी झाड़ियों और बबूल के पेड़ के आलावा कुछ और उगता नहीं दिखाई देता) पर आबादी हो भी तो कैसे ? 

प्रश्न ये उठता है कि इतनी कठोर जलवायु होने के बावज़ूद प्राचीन काल में ये शहर धन धान्य से परिपूर्ण कैसे हुआ? इस सवाल के जवाब तक पहुँचने के लिए हमें जैसलमेर के इतिहास में झाँकना होगा। रावल जैसल ने 1156 ई. में जैसलमेर किले की नींव रखी। उस ज़माने में जैसलमेर भारत से मध्य एशिया को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग का अहम हिस्सा था। ऊँटों पर सामान से लदे लंबे लंबे कारवाँ जब इस शहर में ठहरते तो यहाँ के शासक उनसे कर की वसूली किया करते थे। जैसलमेर भाटी राजपूतों की सत्ता का मुख्य केंद्र हुआ करता था। भाटी शासकों ने व्यापार से धन तो कमाया ही साथ ही साथ वो जब तब राठौड़, खिलजी और तुगलक वंश के शासकों से उलझते भी रहे। मुंबई में बंदरगाह बनने के बाद से जैसलमेर से होने वाले व्यापार में भारी कमी आयी और उसके बाद ये शहर कभी अपने पुराने वैभव को पा ना सका।

जोधपुर से पोखरन की दूरी हमने ढाई घंटे में पूरी कर ली थी। पोखरन को थोड़ा पीछे छोड़ा ही था कि अचानक हमारी नज़र ज़मीन के एक बड़े टुकड़े में फैले इन पीले रंग के फलों पे पड़ी। दिखने में स्वस्थ इन फलों को यूँ फेंका देख मैंने गाड़ी रुकवाई और वहाँ मौजूद ग्रामीणों से इसका कारण पूछा। हमें बताया गया कि ये फल जंगली हैं और खाने पर नुकसान करते हैं। मन ही मन अफ़सोस हुआ कि इस बंजर ज़मीन में इतने शोख़ रंग का फल पैदा होता है पर उसे भी खा नहीं सकते।


गुरुवार, 21 नवंबर 2013

राजधानी वाटिका, पटना : धर्म और प्रकृति का अद्भुत गठजोड़ !

राजधानी वाटिका से जुड़ी पिछली प्रविष्टि में मैंने  आपको वहाँ पर स्थापित शिल्पों की झांकी दिखलाई थी । आज आपको लिए चलते हैं उद्यान के उस हिस्से में जिसकी हरियाली तो नयनों को भाती ही है पर साथ साथ जहाँ धर्म, ज्योतिष और प्रकृति का गठजोड़ एक अलग रूप में ही दृष्टिगोचर होता है।


पिछली चित्र पहेली में आपको जो  धार्मिक प्रतीक नज़र आ रहे थे वे राजधानी वाटिका के इसी हिस्से के हैं। आपको भी उत्सुकता से इंतज़ार होगा पहेली के सही उत्तर के बारे में जानने का। जैसा कि मैंने आपको बताया था पहला चित्र सिख धर्मावलंबियों की विचारधारा का चित्रात्मक प्रस्तुतिकरण था । इस चिन्ह को सिख खंडा (Khanda) के नाम से जानते हैं।


अगर आप इस धार्मिक चिन्ह और ऊपर बनी आकृति का मिलान करें तो दोनों को एक जैसा पाएँगे। 'खंडा' सिख विचारधारा का मुख्य प्रतीक चिन्ह है। ये उन चार शस्त्रों का संयुक्त निरूपण है जो गुरु गोविंद सिंह जी के समय प्रयोग में लाए जाते थे ।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

चित्र पहेली 22 : ये चित्र किन धार्मिक प्रतीकों के प्राकृतिक निरूपण हैं? (Identify the religious symbols hidden in these shapes)

बचपन से इतिहास पढ़ते हुए हमने देखा है कि किस तरह प्रकृति के विविध रूपों की आदि काल से आराधना की गई। अग्नि, वायु, वर्षा, धरती जैसे प्रकृति के अंगों को मानवजाति ने देवता के रूप में पूजना शुरु कर दिया। कहने का मतलब ये कि धर्म और प्रकृति का संबंध आदि काल से अटूट रहा है। इस संबंध को फिर से उजागर कर रही है आज की चित्र पहेली। फर्क सिर्फ इतना है कि जिन प्राकृतिक रूपों से धर्म के प्रतीक चिन्हों का निरूपण करने की कोशिश की गई है वे मानव निर्मित हैं। आपको बस इतना बताना है कि ये रूप विभिन्न धर्मों के किस प्रतीक को दर्शा रहे हैं?

 चित्र ‍1

संकेत 1 : जैसा कि अंतर सोहिल ने अपने जवाब में लिखा है ये प्रतीक सिख धर्म से जुड़ा हुआ है।
संकेत 2 : ये चिन्ह गुरु गोविंद सिंह की प्रस्तावित धार्मिक विचारधारा का प्रतिरूप है।
संकेत 3 : चित्र का संबंध सिखों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शस्त्रों से है।  
चित्र ‍2

संकेत 1 : ये आकृति बौद्ध धर्म से जुड़ी हुई है।
संकेत 2 : इसका संबंध गौतम बुद्ध द्वारा दी गई मुख्य शिक्षाओं से है।
संकेत 3 : बुद्ध का कहना था कि चत्र में निरूपित विचारधारा के पालन से जीवन में दुखों का अंत होता है और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
संकेत तो आपको मिल गए। अब इन संकेतों के मद्देनज़र इन चित्रों को फिर से देखिए। शायद वे आपको सही उत्तर तक पहुँचाने के लिए काफी हों। 
इस पहेली का उत्तर सोमवार को इस ब्लॉग की अगली प्रविष्टि में दिया जाएगा।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

पटना की नई पहचान बन रही है राजधानी वाटिका ! (Rajdhani Vatika, Patna)

पिछले हफ्ते दीपावली में पटना जाना हुआ। यूँ तो पटना में अक्सर ज्यादा वक़्त नाते रिश्तेदारों से मिलने में ही निकल जाता है पर इस बार दीपों के इस उल्लासमय पर्व को मनाने के बाद एक दिन का समय खाली मिला। पता चला कि विगत दो सालों से पटना के आकर्षण में राजधानी वाटिका और बुद्ध स्मृति उद्यान भी जुड़ गए हैं तो लगा क्यूँ ना इन तीन चार घंटों का इस्तेमाल इन्हें देखने में किया जाए। 

स्ट्रैंड रोड पर पुराने सचिवालय के पास बनी राजधानी वाटिका में पहुँचने में मुझे घर से आधे घंटे का वक़्त लगा। दिन के तीन बजे के हिसाब से वहाँ अच्छी खासी चहल पहल थी। दीपावली के बाद की गुनगुनी धूप भी इसका कारण थी। वैसे भी इस चहल पहल का खासा हिस्सा भारत के अमूमन हर शहर की तरह वैसे प्रेमी युगलों का रहता है जिन्हें शहर की भीड़ भाड़ में एकांत नसीब नहीं हो पाता। वैसे तो यहाँ टिकट की दर पाँच रुपये प्रति व्यक्ति है पर कैमरा ले जाओ तो पचास रुपये की चपत लग जाती है। वैसे जब मैंने टिकट घर में कैमरे का टिकट माँगा तो अंदर से सवाल आया कि कैसे फोटो खींचिएगा शौकिया या..। अब अपने आप को प्रोफेशनल फोटोग्राफर की श्रेणी में मैंने कभी नहीं रखा पर मुझे लगा कि उसके इस प्रश्न का मतलब मोबाइल कैमराधारियों से होगा । सो मैंने टिकट ले लिया वो अलग बात थी कि कैमरे की बैटरी पार्क में घुसते ही जवाब दे गई और मुझे सारे चित्र मोबाइल से ही लेने पड़े।

दो साल पहले यानि 2011 में जब इस वाटिका का निर्माण हुआ तो उसका उद्देश्य 'पटना का फेफड़ा' कहे जाने वाले संजय गाँधी जैविक उद्यान पर पड़ रहे आंगुतकों के भारी बोझ को ध्यान में रखते हुए एक खूबसूरत विकल्प देना था। इस जगह की पहचान सिर्फ एक वाटिका की ना रहे इसलिए पार्क के साथ साथ इसके एक हिस्से में बिहार से जुड़े नामी शिल्पियों के खूबसूरत शिल्प रखे गए। वहीं इसके दूसरे भाग में वैसे पेड़ो को तरज़ीह दी गई जिनका जुड़ाव हमारे राशि चिन्हों या धार्मिक संकेतों के रूप में होता है। तो आज की इस सैर में सबसे पहले आपको लिए चलते हैं इस वाटिका के सबसे लोकप्रिय शिल्प कैक्टस स्मृति के पास।


कैक्टस जैसे दिखने वाले इस शिल्प की खास बात ये है कि इसे रोजमर्रा काम में आने वाले स्टेनलेस स्टील के बर्तनों जैसे कटोरी,चम्मच, गिलास, टिफिन आदि से जोड़ कर बनाया गया है। इसे बनाने वाले शिल्पी हैं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिल्पकार सुबोध गुप्ता जिनका ताल्लुक पटना के खगौल इलाके से रहा है। 26 फीट ऊँचे और 2 टन भारी इस कैक्टस में गुप्ता बिहार के जीवट लोगों का प्रतिबिंब देखते हैं जो बिहार के काले दिनों में भी अपने अस्तित्व को बचाने में सफलतापूर्वक संघर्षरत रहे।



शनिवार, 2 नवंबर 2013

कैसी रही मेरी जापानी बुलेट ट्रेन यानि 'शिनकानसेन' में की गई यात्रा ? (Experience of traveling in a Shinkansen !)

जापान जाने वाले हर व्यक्ति के मन में ये इच्छा जरूर होती है कि वो वहाँ की बुलेट ट्रेन में चढ़े। हमारे समूह ने भी सोचा था कि मौका देखकर हम तोक्यो में रहते हुए अपनी इस अभिलाषा को पूरा करेंगे। ये हमारी खुशनसीबी ही थी कि हमारे मेजबान JICA ने खुद ही ऐसा कार्यक्रम तैयार किया कि तोक्यो से क्योटो और फिर क्योटो से कोकुरा की हजार किमी की यात्रा हमने जापानी बुलेट ट्रेन या वहाँ की प्रचलित भाषा में शिनकानसेन से तय की। जापान प्रवास के अंतिम चरण में कोकुरा से हिरोशिमा और फिर वापसी की यात्रा भी हमने इस तीव्र गति से भागने वाली ट्रेन से ही की। वैसे अगर ठीक ठीक अनुवाद किया जाए तो शिनकानसेन का अर्थ होता है नई रेल लाइन जो कि विशेष तौर पर तेज गति से चलने वाली गाड़ियों के लिए बनाई गई। शिनकानसेन का ये नेटवर्क वैसे तो पाँच हिस्सों में बँटा है पर हमने इसके JR Central और JR West के एक छोर से दूसरे छोर तक अपनी यात्राएँ की। चलिए आज आपको बताएँ कि जापानी बुलेट ट्रेन में हमारा ये सफ़र कैसा रहा?
 

पहली नज़र में 16 डिब्बों की शिनकानसेन, ट्रेन कम और जमीन पर दौड़ने वाले हवाई जहाज जैसी ज्यादा प्रतीत होती है। इसकी खिड़कियों की बनावट हो या इसके इंजिन की, सब एक विमान में चढ़ने का सा अहसास देते हैं। वैसे तो टेस्ट रन (Test Run) में ये बुलेट ट्रेनें पाँच सौ किमी का आँकड़ा पार कर चुकी हैं पर हमने जब तय की गई दूरी और उसमें लगने वाले समय से इसकी गति का अनुमान लगाया तो आँकड़ा 250 से 300 किमी प्रति घंटे के बीच पाया। वैसे आधिकारिक रूप से इनकी अधिकतम गति 320 किमी प्रति घंटे की है।


पूरी यात्रा के दौरान एक बार हमें हिरोशिमा में ट्रेन बदलनी पड़ी। जब हमने अपने टिकट देखे तो हम ये देख कर आवाक रह गए कि  हमारी ट्रेन के हिरोशिमा पहुँचने और हिरोशिमा से दूसरी ट्रेन के खुलने के समय में मात्र दो मिनट का अंतर था। हमारे मेजबान से बस इतना एहतियात बरता था कि दोनों गाड़ियों  के कोच इस तरह चुने थे कि वे आस पास ही रहें। पर ज़रा बताइए तेरह हजार येन के टिकट पर दो मिनटों का खतरा भला कौन भारतीय उठाने को तैयार होगा? 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

कैसे करें तोक्यो में रेल की सवारी ? (Mastering train travel in Tokyo.)

ढाई दिनों के तोक्यो प्रवास में मैंने तोक्यो महानगर का जितना हिस्सा देखा वो तो आपको भी दिखा दिया। वैसे तो तोक्यो जैसे विशाल शहर को देखने के लिए महिनों और समझने के लिए वर्षों लगेंगे पर एक बात तो तोक्यो में पाँव रखने के कुछ घंटों में ही मेरे पल्ले पड़ गई कि अगर इस शहर में घूमना है तो सबसे पहले आपको इसके जबरदस्त रेल नेटवर्क को समझना होगा। वैसे तो तोक्यो आने से पहले मैं Kitakyushu के रेल नेटवर्क पर कई बार सफ़र कर चुका था पर तोक्यो आने के कुछ घंटों में पहली बार जब इस नेटवर्क की वृहदता का सामना हुआ तो पहले का सँजोया आत्मविश्वास जाता रहा । 



जैसा कि मैंने आपको पहले बताया था कि Kitakyushu से तोक्यो पहुँचते पहुँचते शाम हो गई थी। अगले दो दिनों का कार्यक्रम इतना कसा हुआ था कि अगर किसी से मिलना हो तो यहीं समय इस्तेमाल किया जा सकता था। मुनीश भाई से फोन नंबर तो लिया था पर ऐन वक़्त पर संपर्क ना हो सका। तोक्यो में एक करीबी रिश्तेदार के यहाँ जाना भी अनिवार्य था तो उन्हें आफिस से सीधे अपने हॉस्टल बुला लिया। अपने पास के स्टेशन से उनके स्टेशन तक पहुँचने के लिए हमने चार बार ट्रेनें बदलीं और वो भी बिना विराम के। यानि एक ट्रेन से उतरे, दूसरी  का टिकट लिया और लो ट्रेन आ भी गई। यात्रा कै दौरान वो मुझे समझाते रहे ताकि मैं  उसी मार्ग से अकेले वापस आ सकूँ। पर तीसरी ट्रेन बदलने के बाद मेरे चेहरे के भावों से उन्होंने समझ लिया कि ये इनके बस का नहीं है। सो कुछ घंटों के बाद जब मैं वापस लौटा तो उन्हें मेरे स्टेशन तक साथ ही आना पड़ा।

वैसे तो तोक्यो के रेल नेटवर्क में विभिन्न स्टेशनों पर अंग्रेजी जानने वाले लोगों को ध्यान में रखकर सारे चिन्ह जापानी के आलावा अंग्रेजी में भी प्रदर्शित किए गए हैं पर मुख्य मुद्दा भाषा का नहीं पर उस वृहद स्तर का है जिसको देख भारत जैसे देश से आया कोई यात्री सकपका जाता है। मिसाल के तौर पर नीचे का दिया गया मानचित्र देखिए। जापान से संबंधित हर यात्रा पुस्तक में आपको सबसे पहले इसके दर्शन होते हैं और इसकी सघनता  देख मानचित्रों में खास रुचि रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के भी पसीने छूट गए थे।।

झटका तब और लगता है जब ये पता चलता है कि कुछ निजी कंपनियों के स्टेशन तो इसमें दिखाए ही नहीं गए हैं। दुर्भाग्य से मेरे हॉस्टल के पास का स्टेशन भी उसी श्रेणी में था।

भारतीय रेल की समय सारणी से माथा पच्ची के दौरान कभी ना कभी आप भी परेशान हुए होंगे। मेरे लिए पहली ताज्जुब की बात ये थी कि तोक्यो में लगभग दर्जन भर निजी कंपनियाँ अपनी अलग अलग ट्रेन चलाती हैं। और तो और अगर आप शिंजुकु और शिबूया जैसे बड़े स्टेशनों पर पहुँच गए तो आपको पता चलेगा कि एक ही जगह पर चार अलग अलग स्टेशन हैं। जापानियों ने जमीन को कितना खोदा है ये इसी से समझिए कि एक बार जिस स्टेशन पर मैं उतरा उसके दो निचले तल्लों पर दो दूसरे और एक स्टेशन उसके ऊपरी तल्लों पर था। अगर आपको कहीं जाना हो तो पहले स्टेशन पर दिए हुए चार्ट या मानचित्र से अपना रास्ता पता कीजिए। फिर ये देखिए कि आप जिस स्टेशन पर हैं उसे चलाने वाली रेल कंपनी की ट्रेन सीधे उस स्टेशन तक जाती है या नहीं और अगर नहीं तो किस स्टेशन पर उतरकर आपको दूसरी रेल कंपनी की गाड़ी पकड़नी है? तोक्यो में हम जितने दिन रहे ऊपर के प्रश्न का जवाब अपने हॉस्टल के सहायता कक्ष से ले लेते थे। एक बार आपकी ये समस्या दूर हो जाए तो समझिए पचास प्रतिशत काम हो गया।

स्टेशन पर टिकट खरीदने की प्रक्रिया शायद विदेशों में कमोबेश एक जैसी ही है। ऍसा मुझे तोक्यो के बाद पिछले हफ्ते बैंकाक की Sky Train पर यात्रा करने के बाद महसूस हुआ। एक बार गन्तव्य स्टेशन का किराया पता लग जाए तो आप वहाँ की मुद्रा टिकट मशीन में डालिए। तोक्यो आने से पहले तक हम अधिकतर टिकट आफिस में जाकर ही टिकट खरीद लेते थे। मशीन का प्रयोग करने से कतराने का कारण भारतीय मानसिकता थी। हम लोगों के दिमाग में होता कि अगर ज्यादा पैसे डाले और बाकी के बचे पैसे बाहर नहीं आए तब क्या होगा? पर तोक्यो में वो विकल्प ही नहीं था। मशीन में पहले किराया निश्चित करना होता था और फिर एक एक कर के पैसे डालने होते थे जैसे ही किराये से डाले गए पैसे बढ़ जाते छनाक की आवाज़ के साथ बाकी पैसों के साथ टिकट निकल आता और मजाल है कि आपका पैसा कभी मशीन में फँसा रह जाए।

हाँ ये जरूर है कि मँहगी जगह होने के कारण उस वक्त तोक्यो में किसी भी स्टेशन का न्यूनतम भाड़ा चाहे वो पाँच किमी की दूरी पर ही क्यूँ ना हो सौ रुपये से कम नहीं था। बैकांक में ये दर पचास साठ रुपये के पास थी। वैसे तोक्यो में अन्य महानगरों की तरह विदेशी नागरिक हजार येन का टिकट ले कर मेट्रों से शहर के भीतर कहीं आ जा सकते हैं। एक बार टिकट लेने के बाद इंगित चिन्हों और सूचना पट्ट पर आती जानकारी से अपने प्लेटफार्म पर पहुँचना कोई मुश्किल बात नहीं थी। तोक्यो में प्लेटफार्म पर पहँचने के बाद ट्रेन के लिए कभी पाँच मिनटों से ज्यादा की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। पर हाँ प्लेटफार्म पर ये नहीं कि आप जहाँ मर्जी खड़े रहें। चाहे भीड़ हो या नहीं आपको दरवाजा खुलने की जगह पर पंक्ति बना कर खड़ा रहना है। उतरने वालों की प्रतीक्षा करनी है और फिर पंक्ति के साथ अंदर घुसना है। अगर आपको ये लग रहा हो कि जापान की मेट्रो में हमारे मुंबई महानगर में दौड़ने वाली मेट्रो से कम भीड़ होती होगी तो आप का भ्रम अभी दूर किए देते हैं। कार्यालय के समय में इन डिब्बों में तिल धरने की भी जगह नहीं होती पर फिर भी हर स्टेशन पर बिना किसी हल्ले गुल्ले के लोगों का चढ़ना उतरना ज़ारी रहता है।



तोक्यो का सरकारी पर्यटन  केंद्र शिंजुकु इलाके में हैं जहाँ से तोक्यो के विभिन्न हिस्सों के लिए टूर कराए जाते हैं। ट्रेन से पहले आपको आपके गन्तव्य स्टेशन के पास ले जाया जाता है और फिर वहाँ से एक या दो गाइड आपको उसके आस पास के इलाके पैदल घुमाते हैं। बस भी यहीं काम करती हैं पर वे अपेक्षाकृत मँहगी है। अब दो से तीन हजार रुपये का चूना लगवाने के बजाए अगर आप ट्रेन टिकट खरीदकर और फिर लोगों से पूछते हुए अपने गन्तव्य तक पहुँच जाएँ तो जेब भी हल्की नहीं होगी और अपने समय का अपनी इच्छा से उपयोग करने की भी सुविधा रहेगी। हमारे समूह ने तो यही किया । तोक्यो में बिताए साठ घंटों में अलग अलग कंपनियों की ट्रेनों में सवार होकर मैं आपको Shinjuku, Roppongi Hills, Akihabara, Asakusa, Sky Tree और Tokyo Tower जैसी जगहें दिखा सका। वैसे तोक्यो के रेल मानचित्र में ये जगहें कितनी दूर हैं वो यहाँ देखिए।


वेसे इन स्टेशनों से निकलकर बाहर सड़क पर आने के लिए कभी कभी आपको दो सौ से चार सौ मीटर दूरी तय करनी पड़ सकती है। पर घबराइए नहीं रास्ते के दोनों ओर सजी दुकानें आपको ये अहसास ही नहीं होने देंगी कि आप स्टेशन से निकल रहे हैं। तोक्यो के रेल नेटवर्क की इतनी बात हो और शिनकानसेन (Shinkansen) यानि बुलेट ट्रेन का जिक्र नहीं आए ये कैसे हो सकता है? तोक्यो से अपने अगले गन्तव्य क्योटो तक पहुँचने के लिए हमें इसकी ही मदद लेनी पड़ी और इसी वज़ह से हमें तोक्यो के मुख्य स्टेशन के दर्शन हो गए जहाँ से ये ट्रेन चलती है।




जापान की यात्रा को कुछ दिनों के लिए यहीं विराम देते हुए मैं आपको अगली कुछ प्रविष्टियों में ले चलूँगा राजस्थान के जैसलमेर और बीकानेर की यात्रा पर। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

तोक्यो दर्शन (Sights of Tokyo) की सारी कड़ियाँ

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

उत्तरी कोलकाता के कुछ दुर्गा पूजा पंडालों की एक झलक (Some Puja Pandals of North Kolkata )

थाइलैंड की एक हफ्ते की यात्रा के बाद विजयदशमी के दिन स्वदेश लौटा और वो भी कोलकाता में। राँची जाने की ट्रेन रात में थी इसलिए उत्तरी कोलकाता के तीन चार पूजा पंडालों का चक्कर लगाने का मौका मिला। कलात्मक पंडालों के लिए मशहूर कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडालों की इस छोटी सी सैर की कुछ झलकें आप भी देखें।

काशी बोस लेन के पंडाल का आकार जल्द समझ नहीं आता। पंडाल के सामने का हिस्सा किसी फूल की उलटी पंखुड़ी जैसा दिखता है। पर घुसते सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वो है कास के फूलों से भरे हरे भरे खेत जिनसे पंडाल की चारदीवारी बनाई गई है। इस पंडाल की विशेष बात काश के फूलों का इलेक्ट्रिक सॉकेट से बनाया जाना है।

काशी बोस लेन का पंडाल (Kashi Bose Lane Puja Pandal)

पंखुड़ी रूपी छत के बीच है पंडाल में घुसने का रास्ता !

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

तोक्यो दर्शन : देखिए तोक्यो का सबसे पुराना बौद्ध मंदिर सेंसो जी ! (Sensoji Temple, Asakusa, Tokyo)

जापान के चालीस दिन के प्रवास में उनकी जिस सास्कृतिक परंपरा में मुझे सबसे ज्यादा भारतीयता का अक़्स दिखा वो था उनका अपने धर्म के प्रति नज़रिया। ख़ैर उनके इस नज़रिए के बारे में विस्तार से बात तब होगी जब मैं आपको उनके धार्मिक शहर क्योटो (Kyoto) की यात्रा पर ले चलूँगा। पर आज मेरा इरादा आपको तोक्यो शहर के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय मंदिर सेंसो जी (Senso Ji)  घुमाने का है। प्राचीन इसलिए कि इस मंदिर का निर्माण आज से करीब चौदह सौ वर्ष पूर्व यानि सातवीं शताब्दी में हुआ और लोकप्रिय इसलिए कि हर साल करीब तीन करोड़ लोग इस मंदिर के दर्शन करते हैं। वैसे तोक्यो का एक और प्रसिद्ध मंदिर Meiji Shrine है जो कि एक शिंटो Shinto मंदिर है। आपके मन में एक सवाल जरूर उठ रहा होगा कि बौद्ध और शिंटो की धार्मिक आस्थाओं में क्या कोई फर्क है? इस प्रश्न का जवाब आपको मैं क्योटो के शिंटो मंदिर दिखा कर ही बता पाऊँगा। 

सेंसो जी  असाकुसा (Asakusa) स्टेशन से दस पन्द्रह मिनट के पैदल रास्ते के बाद दिखने लगता है। ये मंदिर असाकुसा में जिस जगह विद्यमान है उसके पीछे एक बड़ी दिलचस्प कथा है। 628 ई में मार्च के महिने में जब दो मछुआरे सुमिदा नदी (Sumida River) में मछली पकड़ रहे थे तब उन्हें भगवान बुद्ध (Asakusa Kannon) की मूर्ति मिली। जब इस बात की ख़बर असाकुसा गाँव के मुखिया को मिली तो उन्होंने इस मूर्ति को अपने घर में स्थापित किया और सारा जीवन इसकी सेवा में बिता दिया। कालांतर में अनके शासकों और सेनापतियों द्वारा इस मंदिर के विभिन्न द्वारों और कक्षों का निर्माण हुआ। 

 मंदिर परिसर की शुरुआत  Kaminarimon Gate यानि तूफानी द्वार से शुरु होती है। दसवीं शताब्दी में पहली बार बने इस द्वार में मंदिर के प्रहरी के रूप में वायु और तूफान के देवताओं की प्रतिमा लगाई गई थी। इस द्वार के दो सौ मीटर आगे एक और विशाल द्वार है जिसे Hozomon द्वार कहते हैं। दसवीं शताब्दी में सेनापति तायरा ने तोक्यों और उसके आस पास के इलाकों को अपने प्रभुत्व में आने के लिए यहीं प्रार्थना की थी। इस आलीशान द्वार का निर्माण उसी मनोकामना के पूर्ण होने पर किया गया।

Hozomon Gate, Senso ji Temple

मंदिर का मुख्य कक्ष यूँ तो Edo काल की देन है पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इसका एक बड़ा हिस्सा तहस नहस हो गया था। साठ के दशक में जब इसे दोबारा बनाया गया तो इसका आकार तो वही रहा पर छत लकड़ी की जगह कंक्रीट की बनी और उस पर टाइटेनियम की टाइलें लगायी गयीं।


अचरज की बात ये है कि मुख्य मंदिर में कहीं भी बोधिसत्व की मूर्ति नज़र नहीं आती है। इतिहास के पन्नों को उलटने पर पता चला कि सातवी शताब्दी में इसके निर्माण के समय बौद्ध पुजारियों को सपने में संदेश मिला कि बुद्ध की मूर्ति को लोगों की नज़रों से दूर रखना है इसलिए मूर्ति इस तरह स्थापित की गई कि उसे आगुंतक देख ना सकें। तभी से ये परंपरा चली आ रही है।
मंदिर के मुख्य कक्ष तक पहुँचने के पहले ही लोग इस विशाल पात्र में जल रहे दीपकों की आँच को अपने शरीर से लगाते हैं।


मंदिर में प्रवेश करने के पहले अपने को शुद्ध करने के लिए लोग फव्वारे से गिर रहे पानी को कलछुल जैसे पात्र से उठाते हैं और अपने हाथों को धोते है और पानी को पीते हैं। 

अगर आप ये समझते हैं कि सारे भाग्यवादियों ने सिर्फ हिंदुस्तान में डेरा डाला हुआ है तो ज़रा ठहरिए। मुख्य मंदिर के दोनों ओर जो दो अपेक्षाकृत छोटी इमारते दिख रही हैं वहाँ  रखी लकड़ी की आलमारियों की दराजें आपका भाग्य बताने के लिए तैयार हैं। थोड़ी राशि दान में खर्च कीजिए और फिर एक दराज खींचिए। उसमें से एक क़ाग़ज का टुकड़ा निकलेगा जो आपके आने वाले दिनों की भविष्यवाणी करेगा। युवा जापानियों को मैंने कई बार इसका इस्तेमाल करते हुए देखा।

मुख्य मंदिर से Hozomon द्वार के आगे जाने पर यहाँ का प्रसिद्ध बाजार Nakamise Shopping Street शुरु होता है। दो सौ मीटर लंबाई में फैला ये बाजार सेंसो जी जितना पुराना तो नहीं पर पहली बार ये इस रूप में यहाँ अठारहवीं शताब्दी में पदार्पित हुआ था। जापान से अपने नाते रिश्तेदारों के लिए कुछ लेना हो तो ये उसके लिए अच्छी जगह है। मोल भाव करने पर बीस से तीस फीसदी दाम कम भी हो जाते हैं।

मंदिर प्रागण में स्थित ये पाँच मंजिला पैगोडा मंदिर की भव्यता को बढ़ाता है। दसवीं शताब्दी में बनने के बाद आग लगने की वज़ह से कई बार ये  क्षतिग्रस्त हुआ । बुद्ध से जुड़े धर्मग्रंथ इसकी सबसे ऊपरी मंजिल पर रखे गए हैं।


करीब एक घंटे मादिर प्रांगण में बिताने के बाद जब हम बाहर निकले तो शाम हो चुकी थी और मंदिर के कपाट भी बंद हो चुके थे।


इस मंदिर यात्रा से आपको क्या ऐसा नहीं लगा कि जापानी संस्कृति का ये हिस्सा हमारे तौर तरीकों से कितना मिलता है? जब मैं शिंटो पद्धति से जीवन जीने के बारे में आपको बताऊँगा तो आपको ये समानता और स्पष्ट होगी। जब तक ये प्रविष्टि आपके सामने होगी मैं थाइलैंड के समुद्री तटों की यात्रा पर रहूँगा। लौट कर इस श्रंखला को जारी रखते हुए आपको बताऊँगा कि तोक्यो घूमने के लिए क्यूँ जरूरी है यहाँ के रेल तंत्र को समझना?

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तोक्यो दर्शन (Sights of Tokyo) की सारी कड़ियाँ

सोमवार, 30 सितंबर 2013

तोक्यो दर्शन : इलेक्ट्रिक टाउन , स्काई ट्री,शाही बाग और जापानी संसद (Akihabara Electric Town, Asakusa, Tokyo Sky Tree, Diet & Imperial Garden)

तोक्यो दर्शन में अब तक आपने शिंजुकु की गगनचुंबी इमारतें और जापान की राजधानी में रात की चकाचौंध देखी । साथ ही यहाँ की प्रसिद्ध नाइट लाइफ से जुड़े मेरे अनुभवों को पढ़ा। आज आपको लिए चलते हैं तोक्यो के दो नामी इलाकों अकिहाबारा ( Akihabara ) और असाकुसा ( Asakusa ) की सैर पर। शिंजुकु के मेट्रोपॉलिटन टॉवर से तोक्यो का विहंगम दृश्य देख लेने के बाद हमने स्टेशन से Akihabara की लोकल ट्रेन पकड़ी। Akihabara या संक्षेप में 'Akiba' कहे जाने वाले इलाके को तोक्यो में इलेक्ट्रिक टाउन के नाम से जाना जाता है। जापानी भाषा में Akihabara का अर्थ है 'Field of Autumn Leaves'. 

अब अकिहाबारा का ये नाम कैसे पड़ा ये तो मालूम नहीं पर सारे सैलानी इलेक्ट्रानिक सामानों की खरीदारी के लिए यहीं पहुँचते हैं। मैं अपने एक मित्र के साथ जब यहाँ पहुँचा तो उस वक़्त दिन के एक बज रहे थे। स्टेशन से निकलते ही बड़ी बड़ी रंग बिरंगी होर्डिंगों से सुसज्जित दुकानों की लंबी कतारें दिखीं। एक और तो बड़े बड़े ब्रांड को एक ही छत के अंदर बेचने वाले विशालकाय शोरूम थे तो दूसरी ओर किसी एक खास उत्पाद से जुड़ी छोटी छोटी दुकानें। हम कम्पयूटर हार्डवेयर से जुड़ी कुछ छोटी दुकानों में घुसे । कीमतें भारतीय कीमतों से कम कहीं नज़र नहीं आयीं। हम विंडो शॉपिंग कर ही रहे थे कि अचानक हमें एक दुकान पर दो दक्षिण भारतीय युवा दिखे। जैसा कि हमने पिछली रात किया था, उनसे परिचय लेने के बाद हमने आस पास कही भारतीय रेस्त्राँ होने की बात पूछी। उन्होंने जो रास्ता बताया हम उसी पर चल पड़े।


कुछ ही देर में हम Yadobashi के इस विशाल आठ मंजिला शो रूम के सामने थे। Yadobashi Camera के जापान में कुल 21 स्टोर हैं और ये आधुनिक इलेक्ट्रानिक उत्पादों को सही कीमत पर खरीदने के लिए जापान के अग्रणी स्टोरों में से एक माना जाता था। हमारा भारतीय  भोजनालय भी इसके सबसे ऊपरी तल्ले पे था। सो हमने सोचा कि भोजन करने के बाद इसके सारे तल्लों को एक बार घूम कर देखा जाएगा। नॉन, दाल और सब्जी का जायका लेने के बाद हमने एक घंटे से कुछ ज्यादा का समय इस स्टोर में बिताया। कंप्यूटर, कैमरे और तमाम इलेक्ट्रानिक उपकरणों का जो जख़ीरा यहाँ देखने को मिला वो मैंने तो पहले कभी नहीं देखा था। कल्पना कीजिए की एक  मोटराइज्ड टूथब्रश जो मुँह के अंदर जाते ही अपने आप ही आपके दाँतों की सफाई करे। एक कुर्सी जो आपको बैठाने के आलावा आपके अंग अंग की मालिश करे और ना जाने कितने और उत्पाद जिनके प्रयोग के बारे में हम समझ नहीं सके। ख़ैर  हमने छिटपुट खरीदारी की और वहाँ से निकल कर असाकुसा की ओर चल पड़े।


असाकुसा की ये इमारत अपने विलक्षण आकार की वज़ह से तुरंत ध्यान खींचती है। दरअसल ये असाकुसा का सांस्कृतिक सूचना केंद्र  ( Asakusa Cultural Information Center) है जिसे पिछले साल यानि 2012 में बनाया गया है।


असाकुसा में टहलते हुए इस इमारत ने भी ध्यान खींचा। पहले इसके गेट को देख कर मंदिर होने का आभास हुआ। अब एक भारतीय मन दरवाजे पर गाय की प्रतिमा देख कर और क्या समझे ? पर बगल की अंग्रेजी तख्ती पर जानवरों का अस्पताल लिखा देख भ्रम की स्थिति बनी रही।


असाकुसा स्टेशन के पास से यहाँ  की Sumida नदी बहती है और वहीं पर मोटरबोट से नदी में सैर की व्यवस्था है। अमूमन पन्द्रह मिनट से लेकर पौन घंटे की सैर में नदी के दोनों ओर बनी ऊँची ऊँची इमारते ही दिखाई पड़ती हैं। ऐसी एक यात्रा आपकी जेब को पाँच सौ से आठ सौ रुपयों तक हल्का कर सकती है।

वैसे इस नौकाविहार का सबसे आकर्षक दृश्य असाकुसा के पास ही दिखाई पड़ता है। जब नवनिर्मित स्काई ट्री के साथ Asahi Beer की इमारत भी नज़र आती है। इस इमारत की ख़ासियत ये है कि इसका आकार बीयर के गिलास की तरह है जिसके ऊपर 360 टन की स्वर्णिम संरचना बीयर के हृदय की आग और उफनते फेन का परिचायक है। इसीलिए 1989 में बनी इस सुनहरी काया का इसके फ्रेंच डिजाइनर ने नाम रखा Flamme d'Or।


तोक्यो स्काई ट्री जापान का सबसे ऊँचा टॉवर है। 634 मीटर ऊँचे इस टॉवर में दो Observation Decks हैं। एक की ऊँचाई 350 मीटर और दूसरे की 450 मीटर है। स्काई ट्री का निर्मार्ण टेलीविजन संकेतों के प्रसारण के लिए किया गया। समयाभाव के कारण मैं ना तो स्काई ट्री के ऊपर वढ़ा और ना ही नदी में मोटरबोट के जरिए घूम पाया। पर सेन्सो जी मंदिर और असाकुसा की गलियों में चक्कर काटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगली सुबह हम तोक्यो स्टेशन से जापान के धार्मिक शहर क्योटो की ओर कूच करने के लिए तैयार थे।

तोक्यो स्टेशन के ठीक पहले ही हमें यहाँ के सम्राट के लिए बनाए गए महल के पास वाले हिस्से से गुजरे।  महल के चारों ओर सुरक्षा के लिए बनाई गई बावड़ी है जिसके ऊपर महल के भिन्न दरवाजों तक पहुँचने के लिए इन छोटी छोटी पुलिया  की सहायता लेनी पड़ती है। 


कंक्रीट के जंगल से अलग तोक्यो का ये इलाका अपनी हरियाली से मन मोह लेता है। साढ़े आठ बजे भी भारी संख्या में लोग सुबह की सैर करते दिखाई पड़े। वैसे भी जापानी अपने स्वास्थ को लेकर काफी सजग होते हैं।


इंपीरियल गार्डन के किनारे किनारे चलते हुए हमारी बस जापान की संसद डाइट के सामने जा पहुँची। भारतीय संसद की तुलना में ये एक छोटी इमारत है और इसके शिल्प में यूरोपीय वास्तुलकला की सीधी छाप दिखाई देती है।


तोक्यो दर्शन से जुड़ी आगामी प्रविष्टियों में बाकी है बाते Senso Ji और Tokyo Railway की।
 
तोक्यो दर्शन (Sights of Tokyo) की सारी कड़ियाँ