जैसा कि पिछली पोस्ट में आपको बताया स्लोप कॉर से उतरते ही मौसम में आई तब्दीली साफ नज़र आ रही थी। शाम के छः बजने में अभी भी पन्द्रह मिनट बाकी थे। माउंट साराकूरा के शिखर पर एक रेस्ट्राँ भी था पर उसमें हमारे काम लायक ज्यादा कुछ था नहीं। इससे पहले कि मौसम और बिगड़ जाए हमने शिखर के आस पास फैले उद्यान से अलग अलग दिशा से दिखते दृश्यों को देख लेना उचित समझा।
अभी हम शिखर से नीचे जाती सीढ़ियों से पास के उद्यान में बने व्यू प्वाइंट की ओर जा ही रहे थे कि बूँदा बाँदी शुरु हो गई। हम भाग कर उद्यान के दूसरे कोने में बनी छतरी के अंदर जमा हो गए। छतरी तक पहुँचते पहुँचते बारिश तेज़ हो चुकी थी। छतरी से दूसरे कोने का दृश्य तो दूर कुछ ही देर में हमें चारों ओर से बरसाती मेघों ने यूँ घेर लिया कि पचास मीटर ऊपर बना भोजनालय भी आँखों से ओझल हो गया। सबके कैमरे तुरत फुरत जेबों के अंदर आ गए। कुछ देर गपशप चली, गाने गाए गए पर बाहर ना बारिश थम रही थी ना धु्ध छटने का नाम ले रही थी। एक घंटे बिताने के बाद भी जब बारिश कम नहीं हुई तो हम सबने अनमने मन से भींगकर ही वापस भोजनालय तक जाने का निश्चय किया।
कुछ लोग तो बादलों की आवाजाही देखकर वापस लौटने का भी मन बनाने लगे पर मुझे पूरा यकीं था कि तेज़ हवा क साथ ये बादल भी छँट जाएँगे। ऐसा बीच बीच में कई बार हो भी रहा था पर जैसे ही बादलों का एक रेला कीटाक्यूशू शहर को पार करता उसके पीछे उसकी जगह भरने के लिए बादलों के और झुंड वापस आ जाते। बस बीच बीच में हमें शाम की परछाइयों में डूबते कीटाक्यूशू की कुछ झलकें नसीब हो जाती थीं।
इधर हम सब माउंट साराकुरा से दिखने वाले रात के दृश्य की आस लगाए बैठे थे उधर सूरज महाराज डूबने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे। शाम के सात बजे इनके कुछ ऐसे मिज़ाज थे। बादलों के पीछे से निकल कर जब मन करता मुँह चिढ़ाकर वापस चले जाते।