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सोमवार, 14 मई 2012

पत्थरों पर बहती कविता : दिलवाड़ा (देलवाड़ा) के जैन मंदिर

याद पड़ता है कि पहली बार माउंट आबू का नाम,  सामान्य ज्ञान की किताबों में  यहाँ दिलवाड़ा मंदिर (Dilwada Temple) होने की वज़ह से ही पढ़ा था । इसलिए मन में इस शहर का नाम सुनते ही पर्वतीय स्थल से ज्यादा  दिलवाड़ा मंदिर की छवि ही उभरती थी। वैसे किताबों में पढ़ा दिलवाड़ा, माउंट आबू में आकर देलवाड़ा (Delwada) हो जाता है।

पर भारत सरकार तो इसे दिलवाड़ा ही मानती है क्यूँकि डाक तार विभाग द्वारा ज़ारी मंदिर के डाक टिकट पर तो यही लिखा है। जैसा कि आपको पहले ही बता चुका हूँ, मैं माउंट आबू जाने के पहले राणकपुर के जैन मंदिरों से हो के आया था। वहाँ की शिल्प कला से अभिभूत हो जाने के बाद मेरे दिमाग में ये प्रश्न उठ रहा था कि जब राणकपुर इतना सुंदर है तो फिर देलवाड़ा कैसा होगा ?

गुरुशिखर से लौटने के बाद तो हम सीधे अचलगढ़ से होते हुए दिन के करीब डेढ़ बजे देलवाड़ा मंदिर पहुँचे। जैन धर्मावलंबियों के लिए ये मंदिर दिन के बारह बजे तक के लिए खुला रहता है। सामान्य पर्यटकों को इसे देखने की सुविधा इसके बाद ही उपलब्ध होती है। इसलिए यहाँ आकर सीधे सुबह में मंदिर के दर्शन का कार्यक्रम ना बना लीजिएगा।  गाड़ी से उतर कर मंदिर की पहली छवि बहुत उत्साहित नहीं करती। मंदिर की ऊँची चारदीवारी के पीछे सफेद रंग से पुते  मंदिर का शिखर ही दिखता है जो स्थापत्य की दृष्टि से कोई खास आकर्षित नहीं करता। मुझे बाद में पता चलता है कि ऐसा संभवतः मुस्लिम आक्रमणकारियों की नज़रों से मंदिर को बचाने के लिए किया गया था। इसके बावज़ूद 1511 ईं में इस मंदिर को अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का शिकार होना पड़ा था।

चमड़े के सामान. मोबाइल और कैमरे को जमा कर हमारा समूह मंदिर के बाहर लगी पर्यटकों की कतार में शामिल हो गया था। मंदिर द्वारा नियुक्त गाइड बारी बारी से बीस पच्चीस के समूह को अंदर ले जा रहे थे। हमें अपनी बारी के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी और शीघ्र ही हम इस मंदिर समूह के अंदर थे। देलवाड़ा मंदिर समूह मुख्यतः पाँच मंदिरों से मिलकर बना है। ये मंदिर हैं विमल वसही, लूण वसही, पीतलहर , पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी मंदिर। इनमें से प्रथम दो गुजरात के सोलंकी शासकों के समय की स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं।