शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

जैसलमेर हवेली दर्शन : पटवा और नाथूमल की हवेलियाँ (Havelis of Patwa & Nathumal)

अब तक जैसेलमेर से जुड़ी इस श्रंखला में आपने थार के रेगिस्तान, सोनार किला, लोदुरवा मंदिर, बड़ा बाग और गडसीसर झील के दर्शन किए। जैसलमेर से जुड़ी इस आख़िरी कड़ी में आज आपको लिए चलते हैं पटवा और नाथूमल की हवेलियों की सैर पर। जैसलमेर के किले के बाहर थोड़ी ही दूर पर स्थित पटवों की हवेली जैसलमेर में बनाई गई पहली हवेली में शुमार होती है। 1805 में जैसलमेर के बड़े व्यापारी गुमान चंद पटवा ने इस हवेली का निर्माण करवाया। अगले पाँच दशको में गुमान चंद ने अपने पाँच बेटों के लिए पाँच अलग अलग हवेलियों का निर्माण करवाया जो आज सामूहिक रूप से पटवों की हवेली के नाम से जानी जाती है। 
 
पर बाफना परिवार को यूँ ही 'पटवों' की उपाधि नहीं मिली। दरअसल बाफना परिवार का परंपरागत कार्य गूथने, पिरोने यानि पटवाई का था। सोने चाँदी के धागों से ज़री का काम करने में इन्हें महारत हासिल थी। इसी वज़ह से जैसलमेर के राजा ने इन्हें 'पाटवी सेठ' का नाम दिया जो कालांतर में पटवा हो गया। पाँच से सात मंजिला ऊँची इन हवेलियों की कीमत उस ज़माने में दस लाख आंकी गई  है जो आज के मूल्यों से अरबों में पहुँच जाएगी। आख़िर पटवा सेठों के पास इतना धन आया कहाँ से? आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन सेठों के एशिया और भारत में स्थित व्यापारिक केंद्रों की संख्या तीन सौ पचास के लगभग थी। ज़री के काम के आलावा पटवा सेठ लकड़ी, हाथी दाँत, सोना, चाँदी, ऊन, मसालों आदि का व्यापार करते थे। इसके आलावा उनकी आमदनी का एक बड़ा ज़रिया अफ़ीम और बाजार में उधार पर पैसे लगाना भी था।

स्वच्छ नीले आकाश और चमकती धूप में निखरती पटवों की हवेली

पटवों की मुख्य हवेली तक पहुँचने के लिए तंग रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। हिंदू और इस्लामिक मिश्रित स्थापत्य से बनी ये हवेलियाँ एक दूसरे के बेहद करीब हैं।

हवेलियाँ तो आलीशान हो गयीं पर ये गलियाँ संकरी ही रह गयीं

पीले बलुआ पत्थर से बनी इन हवेलियों में आगे का हिस्सा अतिथि गृह की तरह प्रयुक्त होता था। हवेली के बाहरी छज्जे, झरोखे, दीवालों के पीछे छुपे गुप्त रैक, सीढ़ियाँ, बैठक, रसोई घर, दीवारों पर बनें भित्ति चित्र और छतों पर की गई नक़्काशी मन को मोह लेती है। हवेली में उस समय प्रयुक्त होने वाले बर्तनों, सिक्कों औ‌र वाद्य यंत्रों का अच्छा संग्रह है। इन हवेलियों के अंदर हमने दो घंटे बिताए। आइए देखें इस बड़ी हवेली की एक छोटी सी झलक इन चित्रों के माध्यम से...


ये देखिए जनाब अपनी रोबदार मूछों के साथ इस झरोखे से कैसे झाँक रहे हैं ?


दीवारों पर बने भित्ति चित्र,टेलीफोन,बिजली के पंखे व ग्रामोफोन से सुसज्जित बैठकी

सोमवार, 6 जनवरी 2014

गडसीसर झील, जैसलमेर : पसरती धूप, निखरती आभा ! (Gadsisar Lake, Jaisalmer)

पिछड़े हफ्ते आपसे वादा तो था जैसलमेर में स्थित पटवों की हवेली में घुमाने का पर वार्षिक संगीतमाला की व्यस्तताओं की वज़ह से वो आलेख पूरा ना कर सका। इसी वज़ह से आज आपको लेकर आया हूँ गडसीसर झील के नौका विहार पर। रेलवे स्टेशन से मात्र दो किमी दूरी पर स्थित इस त्रिभुजाकार झील को जैसलमेर के महारावल गडसी ने पीने के पानी के स्रोत के तौर पर बनवाया था। फोटोग्राफी पसंद करने वाले लोगों के लिए ये एक आदर्श जगह है। सूर्योदय या फिर सूर्यास्त के समय इस झील और इसके आस पास के इलाकों का सौंदर्य देखते ही बनता है। सूर्योदय के समय तो मैं जैसलमेर के किले में चला गया था इसलिए दिन ढ़लते ही हम चार बजते बजते झील के किनारे पहुँच चुके थे।


नीली जमीं और नीला आसमां देखो ले आया है मुझे कहाँ !

गड़सीसर रोड से झील की ओर जो रास्ता जाता है वो टिलन के द्वार पर खत्म होता है। रास्ते में कारीगर राजस्थानी हस्तकला के कई नमूने बेचते हुए दिख जाएँगे। जब हम झील के पास पहुँचे तो चारों ओर निखरी तेज धूप की वज़ह से वहाँ काफी शांति थी। नौका विहार पाँच बजे से पहले शुरु नहीं होता। लिहाज़ा हम झील के किनारे ही चहलकदमी करने लगे। झील के किनारे किनारे काफी दूर तक सीढ़ियाँ बनी हैं। झील के अंदर भी कुछ छतरियाँ और उनसे जुड़े चबूतरे हैं जिनका प्रयोग संभवतः विशेष आयोजनों के समय किया जाता रहा होगा। हर छतरी की छत के कोने कोने पर कबूतरों ने कब्जा जमा रखा था।