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सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..

२६ दिसंबर की सुबह अपने एक रात के ठिकाने कानन देवन हिल्स क्लब से निकल हम इरवीकुलम राष्ट्रीय उद्यान (Ervikulam National Park) की ओर चल पड़े।


करीब दस बजे मुन्नार शहर से तीस चालिस मिनट की यात्रा कर जब हम वहाँ के फॉरेस्ट चेक प्वाइंट पर पहुँचे तो वहाँ पर्यटकों की २०० मीटर लंबी पंक्ति हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। चेक प्वाइंट से तीन चार बसें यात्रियों को अंदर पहुँचाती और दो घंटे बाद वापस ले आती हैं। करीब सवा घंटे प्रतीक्षा करने के बाद हमारा क्रम आया। जंगल के अंदर लेडीज पर्स के आलावा वन कर्मी कुछ भी ले जाने नहीं देते जो पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से उचित कदम है।

मिनी बस में खिड़की से हम इस राष्ट्रीय उद्यान की सैर पर निकले। एक ओर पहाड़ियाँ तो दूसरी ओर चाय बागानों से पटी हरी भरी राजमलई (Rajamalai Hills) की पहाड़ियाँ। ये राष्ट्रीय उद्यान करीब ९७ वर्ग किमी में फैला है और इस उद्यान से आप दक्षिण भारत की सबसे ऊँची पहाड़ी अनामुदी (Anamudi) ऊँचाई २६९५ मीटर को देख सकते हैं। बस की यात्रा २० मिनट में खत्म हो जाती है और फिर आगे का सफ़र पैदल तय करना पड़ता है। पर इस सफ़र की खास बात है सड़क के नीचे की और दिखते घाटी के दृश्य। चाय बागानों को एक ऊँचाई से देखना एक अद्भुत मंजर पेश करता है। ऐसा लगता है मानो भगवन ने विशाल हरे कैनवस पर पगडंडियों की आड़ी तिरछें लकीरें खींच दी हों। कहते हैं कि हर बारह सालों पर यहाँ नीलाकुरिंजी (Neelakurinji) के फूल खिल कर पूरी पहाड़ी को नीला कर देते हैं। अगली बार ये फूल २०१८ में खिलेंगे तब के लिए तैयार हैं ना आप ?

अब अगर आप राष्ट्रीय उद्यान में बहुतेरे पशु पक्षियों को देखने की तमन्ना लगाए बैठे हों तो आपको निराशा हाथ लगेगी क्योंकि पूरे रास्ते में सुंदर दृश्यों के साथ-साथ बस एक जानवर आपको दिखाई देगा और वो है यहाँ का मशहूर नीलगिरि त्हार (Neelgiri Tahr)। नीलगिरि त्हार पहाड़ी बकरियों की एक लुप्तप्राय प्रजाति है जिसे इस उद्यान में आप बहुतायत पाएँगे। इनके खतरनाक सींगों की तरफ न जाइएगा, ये स्वभाव से आक्रामक नहीं हैं। पहाड़ी के शिखर के पास पहुँचने के बाद आगे का रास्ता पर्यटकों के लिए बंद है इसलिए ट्रेकिंग का शौक रखने वालों को अपना मन मार कर लौटना पड़ता है।


दिन का भोजन करते समय मुन्नार शहर में रुके तो एक धार्मिक जुलूस दिखाई दिया। ढोल नगाड़ों के बीच स्थानीय निवासी तरह तरह के करतब दिखा रहे थे। लोहे की छड़ों को गाल के पास दोनों ओर छेद कर श्रृद्धालु चल रहे थे जिसे देख कर मन हैरत में पड़ गया। भगवान को प्रसन्न करने के लिए भक्त कितनी कठिन चुनौतियों को स्वीकार कर लेते हैं ये भी उसका ही एक नमूना लगा। वैसे सवाल ये भी उठता है कि ऍसा करने से क्या ऊपरवाला वाकई गदगद हो पाता है ?



करीब दो बजे हम मुन्नार से थेक्कड़ी(Thekkady) की ओर चल पड़े। कुछ देर तो पहले ही की तरह सड़क के दोनों ओर चाय बागानों वाला अति मनोरम दृश्य दिखता रहा। इसके बाद शुरु हुआ घुमावदार रास्तों का जाल। चाय बागानों की जगह अब हमें इलायची के जंगल नज़र आने लगे। मन हुआ कि अब केरल आए हैं तो इनके पौधों को जरा करीब से देखा जाए और लगे हाथ इलायची के हरे दानों पर भी हाथ साफ किया जाए। बगल के चित्र में आप हरी इलायची को जड़ के पास फला देख सकते हैं।

जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गए जंगलों की सघनता बढ़ती गई। यहाँ तक की साफ आकाश में धूप भी पेड़ों के बीच से छनकर थोड़ी बहुत आ पा रही थी। एक नई बात और हुई। जैसे ही हम मदुरई राष्ट्रीय मार्ग छोड़ दक्षिण की ओर थेक्कड़ी जाने वाले रास्ते में मुड़े, पहली बार गढ्ढेदार रास्तों से पाला पड़ा। रास्तों के झटकों से ध्यान तब हटा जब हमने पहली बार कॉफी के पौधों को देखा। इन पौधों को छाया की ज्यादा आवश्यकता होती है, इसलिए ये बड़े बड़े पेड़ो के बीच में अपनी जगह बना लेते हैं।

शाम पाँच बजे तक हम 'मसालों के शहर' कुमली पहुँच गए थे। कुमली तमिलनाडु और केरल की सीमा पर स्थित एक कस्बा है जहाँ से थेक्कड़ी का पेरियार राष्ट्रीय उद्यान पाँच किमी की दूरी पर है।

होटल खोजने में तो दिक्कत नहीं हुई पर असली समस्या थी अगली सुबह पेरियार झील में सैर करने के लिए टिकटों का जुगाड़ करने की। क्या हम अपनी इस मुहिम में सफल हो पाए ये ब्योरा इस वृत्तांत की अगली किश्त में।


अरे ये देखकर आपका मन ये नहीं कहने को हुआ कि सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं...
देखो देखो ये है मेरा जलवा...:)

पौधा इलायची का जिसके नीचे डंठल से निकलती है इलायची..


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !

26 दिसंबर को ग्यारह बजे हम चांसलर रिसार्ट से मुन्नार शहर को कूच कर गए। कहते हैं मुन्नार शब्द मुनु (तीन) और आरू (नदी) के मिलने से बना है। ये तीन नदियाँ हैं मुद्रापुज्हा (Mudrapuzha), नल्लाथन्नी (Nallathanni) और कुंडला (Kundala)। इन तीनों नदियों के संगम पर कुंडला बाँध का निर्माण हुआ है जो शहर से करीब १३ किमी दूर है।

बाँध के कुछ किमी पहले मट्टुपेट्टी झील (Mattupetty Lake) है। अगर नीचे का मानचित्र देखें तो मुन्नार शहर पहुँच कर हमें पूर्व की तरफ जाने वाली सड़क पर मुड़ना था।

मुन्नार शहर एक सामान्य कस्बे की तरह दिखता है जिसे हर मोड़ पर बने छोटे बड़े होटल और सैलानियों की भीड़ बड़ा अनाकर्षक रूप दे देती है। पर इस कस्बे से एक किमी दूर आप जिधर भी बढ़ें न भीड़ भाड़ दिखती है और ना तो कंक्रीट के जंगल......।

दिखती है तो बस चारों और पहाड़ियों के बीच चाय बागानों की निर्मल स्वच्छ हरियाली।. केरल सरकार की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने मुन्नार की नैसर्गिक सुंदरता को बचाए रखने के लिए इसके व्यापक शहरीकरण पर रोक लगाई हुई है।

(और हाँ ये बताना तो भूल ही गया कि इस ब्लॉग का हेडर में मैंने मुन्नार में खींची गई इस तसवीर का उपयोग किया है।)

रास्ते में जगह-जगह स्थानीय महिलाएँ हरी पत्तियों के साथ ताजे गाजर बेच रही थीं जो खाने के साथ देखने में भी बेहद खूबसूरत लग रहे थे। कुछ ही देर में हमारी गाड़ी मट्टुपेट्टी झील को पार कर रही थी। हमारा इरादा पहले सबसे दूर वाले स्थल इको प्वायंट पर पहुँच कर वापसी में मट्टुपेट्टी झील के किनारे चहलकदमी करने का था। इको प्वायंट पर निराशा हाथ लगी। पर्यटकों की भारी भीड़ वहाँ पर मौजूद थी। सामने नीचे झील का जल मंद-मंद बह रहा था। झील के पार पहाड़ियों थीं। 'शायद' आवाज़ वहीं से लौटकर आती होगी। शायद इसलिए कह रहा हूँ कि हमारे वहाँ घंटे भर बिताने के बावजूद भी किसी भी पर्यटक के चिल्लाने से कोई Echo सुनाई नहीं दी।

मट्टुपेट्टी झील और चेक डैम के आधा किमी आगे झील में स्पीडबोट की व्यवस्था है। पर वहाँ लाइन इतनी लंबी थी कि हमने बाकी लोगों को उसकी सवारी का आनंद उठाते हुए देखकर ही संतोष कर लिया। वैसे आप अगर जाएँ तो इस सफ़र का आनंद अवश्य लें। इको प्वायंट पर पैडल बोट पर बच्चे चले गए और मैं इधर उधर चहलकदमी करने लगा। सामने ही एक छोटी दुकान पर गरम गरम पकौड़ियाँ तली जा रहीं थीं। आलू, प्याज के आलावा मिर्चे की पकौड़ी भी मेनू में थी। पर मिर्चों का आकार देख कर पहले तो खाने की हिम्मत नहीं हुई। पर बाद में खाने पर पता चला की ये मिर्चें, हमारी तरफ की मिर्चों की तरह तीखी नहीं हैं।

इस हल्की पेट पूजा के बाद अपने चालक को मट्टुपेट्टी डैम पर इंतजार करने को कह, हमने तीन किमी का सफर पैदल ही तय करने का निश्चय किया। इको प्वायंट से मट्टुपेट्टी झील का रास्ता बेहद मनमोहक है। एक तरफ हरे भरे विरल जंगल और दूसरी ओर पहाड़ी ढलानों पर फैली हरी धानि घास के खूबसूरत कालीन।
पर सुरक्षा गार्ड इन हरी कालीनों पर आपको घूमने नहीं देते। ये जगह फिल्म की शूटिंग में भी काम में आती है। पर कुछ दूर आगे जाकर एक जगह दिखाई दी जहाँ सुरक्षा गार्ड नहीं थे। बच्चों की मौज हो गई वो घास की ढ़लान पर दौड़ते और फिसलते नीचे पहुँच गए। ऊपर आकाश की गहरी नीलिमा, सामने हरे भरे पेड़ों और चाय बागानों से लदीं पहाड़ियाँ और नीचे झील का बहता जल और बीच की ये हरी दूब..मैं तो ये देखकर बस आनंदविभोर होकर वहीं बैठ गया।


आधे घंटे बिताने के बाद हम वहाँ से आगे बढ़े। कुछ ही दूर पर सड़क की बाँयी तरफ इंडो स्विस डेयरी फार्म दिखा जो आम पर्यटकों के लिए खुला नहीं था। यहाँ पर स्विस प्रजाति की कई किस्मों की गायों का पालन पोषण होता है। रास्ते में बच्चे और बड़े हाथी की सवारी का आनंद ले रहे थे। स्पीड बोट वाली लाइन अब भी वैसी ही थी। झील का मोहक दृश्य पूरे रास्ते भर दिखाई देता रहा जो हमें निरंतर चलने को प्रेरित करता रहा। लौटते वक्त हम मुन्नार के फ्लोरिकल्चर सेन्टर में रुके जिसकी सचित्र रिपोर्ट आपको इस पोस्ट में दी जा चुकी है

शाम को हम मुन्नार के सरवन भवन में खाने पहुँचे। सरवन भवन मुन्नार के शाकाहारी भोजनालयों में सबसे ज्यादा चर्चित है और इसका प्रमाण मुझे खाने के लिए लगी लंबी लाइन को देखकर मिला। यहाँ की एक नवीनता ये भी है कि भोजन, केले के बड़े=बड़े पत्तों पर खिलाते हैं।
शाम होने वाली थी और हम अपने नए ठिकाने पर चल पड़े। अब यहाँ मात्र एक कमरे में दो परिवारों को रात गुजारनी थी। लिहाज़ा हमने जमीन पर ही अपना गद्दा बिछाया। रात को जब-जब हम सोने को उद्यत होते बगल के किसी समारोह से लाउडस्पीकर पर रह रह कर आती मलयालम लोक गीत की बहार हमारी निद्रा में खलल डाल देती और अटपटे से शब्दों को सुनकर सब को हँसी के दौरे पड़ जाते।
ग्यारह के बाद ये शोर तो कम हुआ पर ठंड बढ़ने लगी। आते वक़्त जब ट्रेन में कोई बता रहा था कि मुन्नार का तापमान दिसंबर में शून्य से भी नीचे चला जाता है तो हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मात्र 1500 मीटर ऊँचाई पर स्थित हिल स्टेशन में ऍसा हो सकता है। अब अतिरक्त कंबल के नाम पर होटल वाले ने पतली सी कंबल दी थी जो उस ठंड के लिए अपर्याप्त निकली। नतीजन सारी रात करवट बदलते और ठिठुरते बीती। मन ही मन सोचा, भगवन तूने दो रातों में जीवन के दोनों रंगों से साक्षात्कार करा दिया।..
अगली सुबह हमारा इराविकुलम राष्ट्रीय उद्यान देख कर थेक्कड़ी निकलने का कार्यक्रम था। कैसी रही ये यात्रा ये जानते हैं इस यात्रा वृत्तांत की अगली किश्त में..

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

आइए दिखाएँ आपको मुन्नार की ये खूबसूरत नर्सरी !

मुन्नार की खूबसूरत सुबह का जिक्र तो आपने पिछली पोस्ट में पढ़ा आइए आज देखते हैं केरल सरकार के वन विकास विभाग की ये खूबसूरत नर्सरी । फूलों के इन रंगों में हम सब तो रंग गए, देखें ये पुष्प और पादप आपका मन कितना रंग पाते हैं?




ये है 'टी रोज' (Tea Rose)अब चाय बागानों के बीच कोई गुलाब खिल जाए तो उसे क्या कहेंगे ? पर हुजूर ध्यान से इसकी पत्तियों और तने को देखिए। इसमें काँटे नहीं होते। है ना कमाल की बात!





है ना रंगों का ये अद्भुत मिश्रण बेजोड़ ?

अब शादी के बाद हनीमून पर जाना तो आजकल आम बात है। पर आप सोच रहे होंगे इस बात का इस पौधे से क्या संबंध ? इस पौधे की खासियत ये है कि शुरुआत में इसके चौड़े पत्ते हरे रंग के होते हैं जो बाद में सुर्ख लाल रंग ले लेते हैं। और ये लाली शायद हनीमून मना रहे जोड़ों की चेहरों की लाली से मिलती हो इसीलिए तो इनका नाम दिया गया हनीमून रेड (HoneyMoon Red) !

क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ पत्तियाँ ही फूल बन गईं !



और ये अलग सा पौधा है पेपेरोमिया (Peperomia) का। पत्तों से निकलती लतरें इसे अद्भुत बनाती हैं।
और इन पंखुड़ियों का जादू तो दिल को ऍसा लुभा गया कि मन कह उठा

फूलों की तरह लब खोल कभी
खुशबू की जुबाँ में बोल कभी...

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

यादें केरल की : भाग 5 - मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह

अपने ठहरने की जगह यानि चांसलर रिसार्ट पर हम करीब पौने पाँच बजे पहुँचे। ये रिसार्ट मुन्नार मदुरई मार्ग पर मुन्नार से करीब २५ किमी आगे बना हुआ है और बेहद खूबसूरत है।


इस रिसार्ट के ठीक सामने रोड पर खड़े होकर आप आनाईरंगल झील (Anayirangal Lake) का नज़ारा देख सकते हैं (बगल के चित्र में देखें)। हमारी कॉटेज के चारों ओर पहाड़ियों का खूबसूरत जाल था और उस पर बिखरे थे टाटा के चाय बागान। थोड़ी देर में हम आनाईरंगल झील के रास्ते में थे। चाय बागानों के बीच से जाती राष्ट्रीय राजमार्ग ४९ (NH 49) की ये सड़क तमिलनाडु के मदुरई शहर तक चली जाती है। इलायची के पेड़ों के झुंड और टाटा के चाय कारखाने को पार कर शीघ्र ही हम चेक डैम तक पहुँच चुके थे। संयोगवश डैम पर और कोई पर्यटक दल मौजूद नहीं था। सांझ आ चुकी थी और झील का पानी खुले गेट से तेज प्रवाह के साथ गिर रहा था। शांत वातावरण में हमने कुछ पल वहाँ प्रकृति के साथ बाँटे और फिर वापस अपने रिसार्ट की ओर मुड़ गए।



वापस रास्ते में सूर्य अपनी रक्तिम लालिमा लिये पहाड़ियों की ओट में जाता दिखाई दिया। हमारे दुमंजिला कॉटेज की ऊपरी बॉलकोनी पश्चिम दिशा की ओर खुलती थी। इसलिए हम सभी जल्द से जल्द वहाँ पहुँच कर इस मनोरम दृश्य को कैमरे में कै़द कर लेना चाहते थे। भागते दौड़ते जब तक वहाँ पहुँचे तो थोड़ी देर हो चुकी थी।


पहाड़ियों की श्रृंखला अँधेरे में गुम हो चुकी थी। बचा था तो, उनकी ओट से आता लाल नारंगी प्रकाश। हम सारे टकटकी लगाए तब तक प्रकृति की लीला को निहारते रहे जब तक अंधकार ने रहे सहे प्रकाश पर अपनी विजय पताका ना फहरा ली।

शाम से रिसार्ट में चहल पहल बढ़ने लगी थी। तीन चार बसों में भर कर किशोरियों का दल वहाँ क्रिसमस ईव मनाने आ पहुँचा था।


रात्रि के आठ बजे हम रिसार्ट का चक्कर मारने निकले। चाँद अपने पूरे शबाब के साथ पूर्ण वृताकार रूप में आसमान की शोभा बढ़ा रहा था। थोड़ी देर में ही हम रिसार्ट की सबसे ऊँची इमारत पर जा पहुँचे जिसमें अभी निर्माण कार्य चल रहा था । ईट पत्थरों को कूदते फाँदते जब हम उस कक्ष की बालकोनी तक पहुँचे। सामने जो दृश्य था उसे मैं शायद अपने जीवन में कभी भूल नहीं पाऊँगा।


हमारे सामने पहाड़ियों का अर्धवृताकार जाल था जिसमें लगभग समान ऊँचाई वाले पाँच छः शिखर थोड़ी थोड़ी दूर पर अपना साम्राज्य बटोरे खड़े थे। चंद्रमा ने अपना दूधिया प्रकाश, इन पहाड़ों और उनकी घाटियों पर बड़ी उदारता से फैला रखा था। मूनलिट नाईट के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था पर उसी दिन महसूस कर पाए कि चाँद ना केवल खुद बेहद खूबसूरत है वरन वो अपने प्रकाश से धरती की छटा को भी निराली कर देता है। केरल की दस दिनों की यात्रा का मेरे लिए ये सबसे खूबसूरत लमहा था जिसे हम अपने कैमरे में कम प्रकाश और त्रिपाद (tripod) ना रहने की वज़ह से क़ैद नहीं कर सके। दिल कर रहा था कि रात यहीं बिता दें पर इमारत में काम कर रहे मजदूर रात्रि के भोजन के लिए निकल रहे थे सो हमें वहाँ से मन मसोस कर आना पड़ा।


नीचे संगीत का शोर बढ़ता सा मालूम हो रहा था। वहाँ पहुँचे तो पाया कि होटल की तरफ से बॉन फॉयर (Bon Fire) का इंतजाम था। सारे बच्चे अपने शिक्षकों की देखरेख में आग के चारों ओर हाथ में हाथ थामे घेरा लगा कर खड़े थे। कुछ बच्चों ने सान्ताक्लॉज की टोपियाँ पहन रखी थीं। थोड़ी देर में गीत संगीत के साथ नृत्य शुरु हुआ। पहले बच्चों ने जम कर डॉन्स किया फिर उनके शिक्षकों ने। बच्चों को यूँ सबके साथ मिल जुल कर मस्ती करते देखना अच्छा लगा।



वापस अपने कमरे में लौटे तो ये निर्णय लिया गया कि सुबह साढ़े पाँच बजे ही हम सब सूर्योदय देखते हुए टहलने निकल जाएँगे। साढ़े पाँच बजे उठ तो गए पर बाहर अभी भी घुप्प अंधकार था। छः बज गए फिर भी हालत वही रही। अब हमें लगा कि और रुकने से कोई लाभ नहीं। चल कर बाहर देखते हैं कि या इलाही ये माज़रा क्या है सुबह सवा छः बजे भी चाँद अपनी पूरी चमक के साथ नीले आकाश का सिरमौर बना हुआ था।

टहलते हुए हम रिसार्ट के पूर्वी किनारे पर जा पहुँचे। वहाँ हमारी तरह ही, सूर्य किरणों के स्वागत के लिए लोग प्रतीक्षारत मिले। थोड़ी ही देर में आकाश ने गिरगिट की तरह अपने रंग बदलने शुरु किए। पहले नीले और फिर लाल नारंगी की मिश्रित आभा से पूरा आसमान बदल गया। नीला नारंगी आसमान और उसके नीचे झील के उपर तैरते बादल ! बड़ा कमाल का दृश्य था वो भी। सूर्योदय सामने की ऊँची पहाड़ियों की वज़ह से जब दिखाई नहीं पड़ा तो हम चाय बागानों में टहलने निकल पड़े।

चट्टानों को छोड़ दें तो पहाड़ की कोई ढलान शायद ही बची थी जहाँ चाय के पौधों की कालीननुमा पट्टियाँ ना दिखती हों। हम सड़क पर थोड़ी दूर चलकर शीघ्र ही एक चाय बागान में उतर गए। आखिर सुबह सुबह ऍसी खूबसूरत हरियाली देखने को कहाँ मिलती है। सो चाय के पौधों की कतारों के बीच से उतरते-उतरते हम कब काफी नीचे तक पहुँच गए ये पता ही नहीं चला। वहाँ से ऊपर का दृश्य चित्र में देखिए। चोटी पर जो तिमंजिला निर्माणाधीन इमारत दिख रही है, रात्रि में हम वहीं थे। चाय के बागानों में बीच-बीच में जो पेड़ दिख रहा है वो सिल्वर ओक का है। आप जरा सोचिए ये क्यूँ लगाया जाता है ?

ग्यारह बजे तक हमें चाय बागानों को छोड़ कर खास मुन्नार शहर रवाना होना था। चांसलर रिसार्ट की पिछली रात तो बेहद सुकून देने वाली थी पर अगली रात ऍसी निकली कि अपना सोना भी मुहाल हो गया। क्यूँ हुआ ऐसा ये जानते हैं इस यात्रा वृत्तांत की अगली किश्त में....



इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

रविवार, 24 जनवरी 2010

क्या है मुन्नार के चाय बागानों का इतिहास ?

अगर आप टाटा टी के शौकीन हों तो ये अवश्य जानना चाहेंगे कि आखिर टाटा के ये बागान हैं कहाँ, जहाँ से आपकी सुबह की प्याली में डाली जाने वाली चाय पत्ती आती है। वैसे तो टाटा के चाय बागान केरल और तमिलनाडु के कई हिस्सों में हैं पर उनमें से सबसे मशहूर मुन्नार के चाय बागान हैं।

मुन्नार में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चाय की खेती शुरु करने का श्रेय एक यूरोपीय ए. एच. शार्प (A.H.Sharp) को जाता है। शार्प के चाय बागानों को आज साइलेंट वैली टी एस्टेट (Silent valley Tea Estate) के नाम से जाना जाता है।


१८९५ में फिनले समूह ने ३३ चाय बागानों को अधिग्रृहित किया। दो साल बाद 'कानन देवन हिल्स प्रोड्यूस कंपनी ' का गठन हुआ जिसे १९६४ में टाटा ने ले लिया। २००५ से इन चाय बागानों की देख रेख का जिम्मा पुराने नाम से बनी नयी कंपनी 'कानन देवन हिल्स प्रोड्यूस कंपनी' पर है। आज की तारीख में इस कंपनी के पास मुन्नार के १६ चाय बागान हैं जो ८६०० वर्ग हेक्टेयर में फैले हुए हैं। तभी तो आप मुन्नार में जिधर भी नज़र घुमाएँ आपको चाय के बागान ही दिखाई पड़ते हैं।


इस बार हम जब मुन्नार गए तो दूसरे दिन हमें इसी कंपनी के गेस्ट हॉउस में रहने की जगह मिली। अब ये नाम मुन्नार के चाय बागान के इतिहास में इतना माएने रखता है, ये वहाँ से आने के बाद पता चला। पुराने तरीके से थोड़ी ऊँचाई पर बना ये गेस्ट हाउस सामने से बेहद आकर्षक दिखता है। वैसे दिसंबर के पीक सीजन में भी यहाँ कमरे का किराया 7०० रुपये था जो बाकियों की तुलना में काफी कम था। अगर मुन्नार जाएँ और बजट के अंदर ठिकाने की तालाश हो, तो ये जगह भी बुरी नहीं।

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

यादें केरल की - भाग 4 : कोच्चि से मुन्नार टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान

24 दिसंबर की सुबह हमारे लिए खास थी क्योंकि कुछ ही घंटों में हमें मुन्नार कूच करना था। पूरी यात्रा की योजना बनाते वक़्त मुन्नार के बारे में पढ़ कर हम वहाँ जाने के प्रति सबसे ज्यादा उत्साहित थे। मुन्नार कोचीन से करीब 140 किमी है और गाड़ी से ये दूरी करीब साढ़े चार से पाँच घंटे में पूरी होती है। दस बजे तक हम कोच्चि छोड़ NH 49 की राह पकड़ चुके थे। कोच्चि से कुछ दूर बाहर निकलते ही हमें रबर के बागान दिखाई देने लगे।

इससे पहले रबर के जंगल हमने अंडमान में देखे थे तो वही दृश्य फिर आँखों के सामने घूम गया। थोड़ी ही दूर आगे बढ़े थे की रबर निकालने की प्रक्रिया सामने खुद ही दृष्टिगोचर हो गई। हमारे मलयाली ड्राइवर ने तुरत गाड़ी रोकी ताकि कैमरे से हम चित्र उतार सकें। जैसा कि आप देख सकते हैं, रबड़ निकालने के लिए पेड़ के तने में घुमावदार चीरा लगाया जाता है जिसके रास्ते रबर, एक पात्र में जमा होता है। रबर के जंगल खत्म हुए ही थे कि अनानास के खेत दिखने लगे। हमारे पूरे समूह के लिए ये एक नया और अद्भुत नज़ारा था।

लगभग ग्यारह बजे हम कोठामंगलम (Kothamangalam) की व्यस्त सड़कों के बीच से गुज़र रहे थे।

केरल का भूगोल अपने आप में अनूठा है। यूँ तो इसकी तट रेखा 580 किमी. लंबी है पर इसकी चौड़ाई पूरे राज्य में मात्र 35 से 120 किमी. के बीच है। इस चौड़ाई के एक तरफ़ तो समुद्र है तो दूसरी और 1500 से 1600 तक औसत ऊँचाई वाले पश्चिमी घाट। इसलिए जब भी आप पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व की ओर सफ़र करेंगे, आपको काफी घुमावदार रास्तों से विचरण करना होगा। इसलिए इन रास्तो पर चलने के पहले उल्टी की दवा खाकर चलना श्रेयस्कर है। यूँ तो हमारे दल के सदस्यों ने एवोमीन ली थी पर देर से लेने की वज़ह से मेरे पुत्र वोमिटिंग का शिकार हो गया।

हम नेरिएमंगलम (Neriamanglam) से कुछ दूर आगे एक नर्सरी में रुके। कोच्चि से मुन्नार के रास्ते में कुछ छोटे जलप्रपात भी आते हैं जिसके बगल में बैठकर आप सफ़र की थकान मिटा सकते हैं। आदिमाली (Adimali) जो कोच्चि से करीब 100 किमी की दूरी पर है, तक पहुँचते-पहुँचते हम सब की हालत खराब हो रही थी। सब यही सोच रहे थे कि इन सर्पीलेकार, चक्करदार रास्तों से कब मुक्ति मिलेगी ? मुन्नार शहर से करीब १२ किमी पहले एक विउ प्वांट पर हमने आधे घंटे का ब्रेक लिया ताकि चकराते सिर को पहाड़ों से आती हल्की ठंडी हवा की खुराक दी जा सके। अब हम पहाड़ों के बिलकुल करीब आ चुके थे। हरे भरे पहाड़ों और जंगलों की गोद में मुन्नार के मशहूर चाय बागान अपनी झलक दिखला रहे थे।

बाहर फेरीवाला एक अलग तरह का फल बेच रहा था। नाम ऐसा कि आप खाने से अपने आप को रोक ना पाएँ। चौंकिए मत,एक सामान्य नीबू से आकार में दुगने बड़े इस फल का नाम था पैशन (Passion Fruit)। अब इस फल का नाम कैसे पड़ा ये तो मालूम नहीं पर इसे खाने का तरीका भी कुछ अलग सा है। फल को लम्बवत काटिए और इसके लिज़लिज़े हिस्से को हाथों या चम्मच से निकाल कर इसका मज़ा लीजिए। इसका स्वाद तो मुझे हल्के मीठे साइट्रस फ्रूट की तरह का लगा पर बच्चों में ये ऍसा जमा की जहाँ जाते इस फल की माँग कर बैठते। बाद में मुझे पता चला कि ये फल केरल ही नहीं वरन् विश्व के अन्य भागों में भी खाया जाता है। यहाँ देखें

थोड़ी देर में हम मुन्नार शहर में थे। चारों ओर की छटा निराली हो चुकी थी पर हमारा ध्यान कहीं और था। रास्ते के हिचकोलों ने पेट में एक अलग तरह का संग्राम मचाया हुआ था। सो पहले हल्की पेट पूजा की । हल्की इसलिए कि हमारी यात्रा मुन्नार पहुँचने तक ही खत्म नहीं होने वाली थी। बल्कि हमें शहर से २५ किमी दूर मुन्नार से थेक्कड़ि (Thekkady) जाने वाले रास्ते में देवीकुलम से थोड़ा आगे स्थित चांसलर रिसार्ट में रहना था। दूसरे दिन के लिए आरक्षण नहीं था। बजट के अंदर होटल ढूंढने में हमें एक घंटा लगा। कोई हजार दो हजार से नीचे की बात ही नहीं कर रहा था। पर मलयाली ड्राइवर की कुशलता से इतने पीक सीजन में हमें ७०० रुपये का कमरा मिला पर वो भी एक।

खैर कल की कल देखी जाएगी कह कर हम अपने ठिकाने की तरफ निकल पड़े। मुन्नार से थेक्कड़ी की तरफ़ निकलने वाले रास्ते में थोड़ी दूर बढ़े ही थे कि चाय के हरे भरे बागान हमारे बिल्कुल करीब आ गए। पहाड़ की ढलानों के साथ उठते गिरते चाय बागान और उनके बीचों बीच कई लकीरें बनाती पगडंडियाँ इतना रमणीक दृश्य उपस्थित करते हैं कि क्या कहें ! पर्वतों की चोटियों और बादलों के बीच छन कर आती धूप हरे धानि रंग के इतने शेड्स बनाती है कि मन प्रकृति की इस मनोहारी लीला को देख विस्मृत हो जाता है। हृदय इन बागानों के बीच बिताए एक एक पल को आत्मसात करने को उद्यत करता है। चाय बागानों की बात तो अभी आगे भी होनी है ।

अपने गन्तव्य से ५‍-१० किमी पूर्व चिन्नाकनाल का ये खूबसूरत झरना मिला। बच्चे पानी की गिरती धाराओं को देखने के लिए खुशी से दौड़ पड़े। शाम के ठीक चार बजे हम अपने रिसार्ट में थे। शाम चार बजे से अगली सुबह तक का हाल लेकर आऊंगा अगली किश्त में।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

बुधवार, 17 जून 2009

रंग बदलते आसमान में लिपटी मुन्नार की वो नयनाभिराम प्रातःकालीन बेला

सूर्योदय बेला की इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में ले चलते हैं आपको केरल के सबसे सुंदर पर्वतीय स्थल मुन्नार (Munnar) की ओर। हमारा समूह मुन्नार थेक्कड़ी मार्ग (Munnar Thekkadi Highway) पर स्थित चांसलर रिसार्ट में ठहरा था। दिसंबर का महिना था। क्रिसमस एक दिन पहले ही बीती थी। सुबह सवा छः जब हम अपने रिसार्ट के कमरे से बाहर निकले तो बाहर अभी भी घुप्प अँधेरा था । मुन्नार छोटे पर गोल से चंदा मामा की चमक अभी तक फीकी नहीं पड़ी थी।


आँखें बंद कर अनुभव कीजिए..

प्रातःकालीन बेला में पर्वत के शिखर के पास आप खड़े हों...

दिन में हरे भरे दिखते चाय के बागान गहरी कालिमा लपेटे हों..

घाटी के नीचे सूर्य के आगमन से बेखबर सोती झील को अपलक देखता हुआ बादलों का सफेद झुंड दिखाई पड़ रहा हो ....

और इतने में दस्तक देती पहुँच जाए आसमानी महल पर सूर्य किरणों की सेना !

फिर तो आकाश में समय के साथ साथ बदलती नीले लाल नारंगी रंगों की मिश्रित आभा अपना जो रूप हमें दिखाया हम सब नतमस्तक और मुग्ध हो गए प्रकृति की इस मनोहारी लीला पर..
आप भी देखिए और आनंद लीजिए आसमान के बदलते रंगों की इस छटा का.....






(सभी चित्र मेरे और सहयात्री पी. एस. खेतवाल के कैमरे से)