सोमवार, 1 नवंबर 2021

पहाड़ के कोने पर टिका धनकर का बौद्ध मठ और रोमांच धनकर झील ट्रेक का ! Dhankar Gompa and Dhankar Lake Trek

स्पीति की यात्रा करने के बहुत पहले से वहाँ की दो तस्वीरें मेरे मन में घर कर चुकी थीं। एक तो हरे भरे खेतों के बीचों उठती लांग्ज़ा में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा तो दूसरी पहाड़ की संकरी चोटी पर लटकता हुआ सा प्रतीत होता धनकर का बौद्ध मठ जिसे यहाँ धनखर के नाम से भी जाना जाता है। बाद में स्पीति की यात्रा की योजना बनाते समय ये भी पता चला कि मठ से थोड़ी चढ़ाई पर एक छोटा सा ताल भी है जिस तक पहुँचने के लिए करीब एक घंटे लगते हैं। फिर धनकर के इस ऐतिहासिक मठ के साथ साथ वो अनजानी सी झील भी मेरे सफ़र का हिस्सा बन गयी।

धनकर का बौद्ध मठ व किला जिसके अवशेष मात्र ही रह गए हैं

काज़ा की वो सुबह मन में स्फूर्ति भर कर लाई थी। स्पीति के सबसे पुराने मठ को देखने की ललक तो थी ही साथ ही इतनी ऊँचाई पर एक छोटा सा ही सही ट्रेक कर धनखर की पवित्र झील तक जाने का रोमांच भी था। हालांकि मेरे साथी थोड़ा सशंकित जरूर थे क्यूँकि इस तरह की यात्रा का उनका ये पहला अनुभव था पर उत्साह की कमी उनमें भी नहीं थी। 

स्थानीय विद्यालय की शिक्षिका के साथ हम सब

काज़ा से धनकर की दूरी मात्र 33 किमी की है। सीधा सा रास्ता है जो स्पीति नदी के किनारे किनारे होता हुआ करीब एक घंटे में धनकर पहुँचा देता है। काज़ा से पाँच छः किमी आगे बढ़े थे कि रास्ते में हमारी गाड़ी को रोकने का इशारा करती एक युवती मिल गयी। उसे भी धनकर जाना था। हमने उसे बिठा लिया। पता चला कि वहीं के स्कूल की शिक्षिका है। वो रोज़ काज़ा के आगे के एक गाँव से धनकर में बच्चों को पढ़ाने जाती थी। अपने गाँव कस्बों के विद्यालयों से तुलना करूँ तो उसके स्कूल की इमारत शानदार थी पर जिस गाँव की आबादी ही कुल जमा तीन सौ हो वहाँ बच्चे कितने होने थे? 

धनकर का साफ सुथरा प्यारा सा  गाँव 

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

सखुआ और पलाश के देश में : रेल यात्रा झारखंड की A train journey through Jharkhand

कोरोना की मार ऐसी है कि चाह के भी लंबी यात्राओं पर निकलना नहीं हो पा रहा है। फिर भी अपने शहर और उसके आस पास के इलाकों को पिछले कई महीनों से खँगाल रहा हूँ। बीते दिनों  में अपने दूसरे ब्लॉग एक शाम मेरे नाम पर व्यस्तता ऐसी रही कि यहाँ लिखने का समय नहीं मिल पाया। अब उधर से फुर्सत मिली है तो पिछले कुछ महीनों की हल्की फुल्की घुमक्कड़ी में जो बटोरा है उसे आपसे साझा करने की कोशिश करूँगा।

सखुआ के घने जंगल 

शुरुआत पिछले हफ्ते की गयी एक रेल यात्रा से। बचपन से ही मुझे ट्रेन में सफ़र करना बेहद पसंद रहा है। जब भी नानी के घर गर्मी छुट्टियों में जाना होता मैं खिड़की वाली सीट सबसे पहले हथिया लेता। घर में भले ही सबसे छोटा था पर किसी की मजाल थी जो मुझे खिड़की से उठा पाता। दिन हो या रात खिड़की के बाहर बदलते दृश्य मेरे मन में विस्मय और आनंद दोनों का ही भाव भर देते थे। खेत-खलिहान, नदी-नाले, पहाड़, जंगल, गांव, पुल सभी की खूबसूरती आंखों में बटोरता मैं यात्रा के दौरान अपने आप में मशगूल रहता था।

आज भी जब मुझे कोई खिड़की की सीट छोड़ने को कहता है तो मैं उस आग्रह को कई बार ठुकरा देता हूँ। इस बार होली में घर आने जाने में दो बार रेल से सफ़र करने का मौका मिला।

जाने की बात तो बाद में पर मेरी वापसी सुबह की थी। आसमान साफ था और धूप साल के हरे भरे पत्तों पर पड़कर उनका सौंदर्य दोगुना कर दे रही थी। साल (सखुआ) के पेड़ जहां अपने हरे भरे परिवार और क्रीम फूलों के साथ मुस्कुरा रहे थे तो वहीं कुछ पेड़ों में पतझड़ का आलम था। इन सब के बीच पलाश भी बीच बीच में अपनी नारंगी चुनर फैला रहा था।
कुल मिलाकर दृश्य ऐसा कि आंखें तृप्त हुई जा रही थीं। इसी यात्रा के कुछ नज़ारे आप भी देखिए।

नीली नदी जो इस वसंत में हरी हो गयी 😍

हरी भरी वसुन्धरा पर नारंगी चुनर पलाश की