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मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

डाँगमाल मगरमच्छ प्रजनन केंद्र और कथा गौरी की...

सुबह की सैर के बाद ज़ाहिर है पेट में चूहे कूदने लगे थे। सो जम कर नाश्ता करने के बाद हम डाँगमाल के मगरमच्छ प्रजनन केंद्र (Salt Crocodile Breeding Centre) और संग्रहालय की ओर चल दिये। डाँगमाल में वन विभाग के गेस्ट हाउस के आलावा भी निजी कंपनी सैंड पेबल्स टूर एवम ट्रैवेल्स के कॉटेज उपलब्ध हैं। इन गोलाकार झोपड़ीनुमा कॉटेज को देख कर बचपन की वो ड्राइंग क्लास याद आ जाती है जब झोपड़ी का चित्र बनाने के लिए कहने के लिए हम तुरत इसी तरह की रेखाकृति खींचते थे।



इस काँटेज के पास ही एक छोटा सा संग्रहालय है जहाँ मैनग्रोव में पाए जाने वाले जीवों के अस्थि पंजर को सुरक्षित रखा गया है। संग्रहालय का मुख्य आकर्षण नमकीन पानी में पाए जाने वाले मगरमच्छ का अस्थि पिंजर है।


समुद्र से सटे इन डेल्टाई इलाकों में पाए जाने वाले ज्यातर जीव जंतु अपना आधा जीवन पानी और आधा जमीन पर बिताते हैं। मैनग्रोव के जंगल यहाँ के प्राणियों की भोजन श्रृंखला का अहम हिस्सा हैं।



ये जंगल बड़ी मात्रा में जैविक सामग्री का निर्माण करते हैं जो सैकड़ों छोटे जीवों का आहार बनते हैं। ये खाद्य श्रृंखला छोटी और बड़ी मछलियों से होती हुई कछुए और मगरमच्छ जैसे बड़े जीवों तक पहुंच जाती है। मगरमच्छ की भयानक दंतपंक्तियों को देखने के बाद हमने सोचा कि क्यूँ ना अब साक्षात एक मगरमच्छ का दर्शन किया जाए।

संग्रहालय से सौ दो सौ कदमों की दूरी पर हमें ये मौका मिल गया। तार की जाली के पीछे का घर गौरी का था। गौरी इस प्रजनन केंद्र की पहली पीढ़ी से ताल्लुक रखती है। १९७५ में इस प्रजनन केंद्र में लाए गए अंडों को कृत्रिम ढंग से निषेचित कर इसका जन्म हुआ था। दरअसल १९७५ में यूएनडीपी के विशेषज्ञ डॉ एच आर बस्टर्ड (Dr. H.R.Bustard) ने यहाँ नमकीन पाने वाले मगरमच्छ की लुप्त होती प्रजाति को पालो और छोड़ो (Rear & Release) कार्यक्रम के तहत बचाने का प्रयास किया। करीब बारह साल की अवधि तक चले इस कार्यक्रम के दौरान मगरमच्छों की संख्या यहाँ 96 से बढ़कर 1300 के ऊपर हो गई। तो बात हो रही थी गौरी की। गौरी का ये नामाकरण उसके हल्के रंग की वज़ह से हुआ है। गौरी को परिवार शुरु के लिए दो बार उसके बाड़े में नर मगरमच्छों को छोड़ा गया। पर गौरी को उनका साथ कभी नहीं रास आया। साथियों के साथ कई बार उसकी जम कर लड़ाई हुई। ऍसे ही एक युद्ध में उसे अपनी दायीं आँख गँवानी पड़ी। तब से वो अपने इस बाड़े में अकेली रहती है।

स्वभाव से मगरमच्छ सुस्त जीव होते हैं। गौरी को नजदीक से देखने के लिए हम उसके बाड़े के अंदर गए। गौरी को पानी से बाहर निकालने के लिए एक जीवित केकड़ा पानी के बाहर फेंका गया। कुछ ही देर में गौरी ने हमारी आँखों के सामने उस केकड़े का काम तमाम कर दिया और फिर एक गहरी शांति उसके चेहरे पर छा गई।



गौरी को उसी हालत में छोड़कर हम मगरमच्छ के शावकों को देखने आगे बढ़ गए। कीचड़ में लोटते ये शावक किसी भी तरह से भोले नहीं लग रहे थे इसलिए जब हमारे गाइड ने इन्हें हाथ से उठा कर देखने की पेशकश की तो हम सब एकबारगी सकपका गए। हमारी झिझक को देखते हुए वहाँ के एक कर्मचारी ने एक शावक को हाथ से उठाया और हम सब ने बारी बारी उसे छू भर लिया।




मगरमच्छों की दुनिया से बाहर निकलने के बाद हमें भितरकनिका के अपने आखिरी पड़ाव इकाकुला (Ekakula) के समुद्री तट पर जाना था। इस श्रृंखला की समापन किश्त में इकाकुला तक की यात्रा आप तक पहुँचाई जाएगी। पर उससे पहले मुसाफ़िर हूँ यारों के पाठकों को दीपावली की अग्रिम शुभकामनाएँ !

इस श्रृंखला में अब तक
  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य
  3. भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...
  4. डाँगमाल के मैनग्रोव जंगलों के विचरण में बीती वो सुबह.....

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

आइए देखें भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...

भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान से डाँगमाल पहुँचने का अपना यात्रा वृत्तांत इस श्रृंखला की पिछली दो प्रविष्टियों में समेट चुका हूँ पर इससे पहले डाँगमाल द्वीप (Dangmal Island) और फिर इकाकुला के समुद्री तट की ओर आपको ले चलूँ मैनग्रोव के जंगलों के बीच से की गई नौका यात्रा की चित्रात्मक झाँकी..

नीला आकाश, हरे भरे मैनग्रोव और डेल्टाई इलाके का मटमैला जल तीनों समानांतर पट्टियों में चलते हैं इस राष्ट्रीय उद्यान में।


नदी की बहती धारा पर वृक्ष की ये झुकती शाखाएँ उसके सौंदर्य से इस कदर मंत्रमुग्ध हैं मानो कह रही हों..छू लेने दे नाज़ुक होठों को कुछ और नहीं हैं जाम हैं ये...


क्या इस चित्र को देख कर भारत का आर्थिक सामाजिक परिदृश्य नहीं कौंध जाता यानि ऊपर ऊपर हरियाली और पर पेड़ के इस ऊपरी हिस्से को अपने हृदय से सींचती उसके नीचे की शाखाएँ सूखी।



और जब ये शाखाएँ ही दम तोड़ दें तब....


तब तो पंक्षियों को यही संदेश देना होगा 'चल उड़ जा पंक्षी कि अब तो देश हुआ बेगाना...'

फिर वही शाम, वही ग़म वही तन्हाई है...

इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम राहें, कुछ तेज कदम रस्ते


जंगल की शून्यता को तोड़ता बगुलों का समेवत कलरव कुछ ऍसा ही कहता प्रतीत हो रहा था..
तनहा ना अपने आप को अब पाइए जनाब
मेरे इस घर की यादें लिये जाइए जनाब :)



इस श्रृंखला में अब तक

  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

नज़ारे भितरकनिका के : मैनग्रोव के जंगल, नौका विहार और पक्षियों की दुनिया !

पिछली पोस्ट में आपको मैं ले गया था भुवनेश्वर से भितरकनिका के मैनग्रोव जंगलों के प्रवेश द्वार यानि गुप्ती चेक पोस्ट तक। करीब ६५० वर्ग किमी में फैले इन मैनग्रोव वनों का निर्माण ब्राहाम्णी, वैतरणी और धर्मा नदियों की लाई और जमा की गई जलोढ़ मिट्टी के बनने से हुआ है। ये पूरा इलाका समुद को जल्दी से छू लेने की कोशिश में बँटी नदियों की पतली पतली धाराओं और उनके बीच बने छोटे द्वीपों से अटा पड़ा है।

मैनग्रोव जंगलों के बीच से इस डेल्टाई क्षेत्र से गुजरना मेरे लिए कोई पहला अनुभव नहीं था। इससे पहले मैं अंडमान के बाराटाँग की यात्रा में इन जंगलों को करीब से देख चुका था। पर भितरकनिका के इन जंगलों में मैनग्रोवों के सिवा किस किस की झलक और देखने को मिलेगी इसका अंदाजा यात्रा शुरु करने के वक़्त तो नहीं था।

करीब सवा चार बजे हमारी लकड़ी की मोटरबोट अपने गन्तव्य डाँगमाल (Dangmal) की ओर चल पड़ी थी। सूरज अभी भी मद्धम नहीं पड़ा था पर अक्टूबर के महिने में उसकी तपिश इतनी भी नहीं थी कि हमें उस नौका की छत पर जाने से रोक सके। कुछ ही दूर बढ़ने के बाद हमें तट के किनारे छोटे छोटे गाँव दिखने शुरु हुए। अगल बगल दिखते छोटे मोटे गाँवों में असीम शांति छाई थी। पानी में हिलोले लेती नौका के आलावा जलराशि में भी कोई हलचल नहीं थी।


पर धीरे धीरे गाँवों की झलक मिलनी बंद हो गई और रह गए सिर्फ जंगल..

अंडमान में जब हैवलॉक के डॉल्फिन रिसार्ट में रहने का अवसर मिला था तो वहीं पहली बार पेड़ों को उर्ध्वाकार यानि सीधी ऊँचाई में बढ़ते ना देखकर समानांतर बढ़ते देखा था। कुछ ही देर में वही नज़ारा भितरकनिका में भी देखने को मिल गया। अंतर बस इतना था कि ये पेड़ अंडमान की अपेक्षा अधिक घने थे। पेड़ की हर ऊँची शाख पर पक्षी यूँ बैठे थे मानों बाहरी आंगुतकों से जंगलवासियों को सचेत कर रहे हों।

पाँच बजने को थे पर हमें भितरकनिका के नमकीन पानी में रहने वाले मगरमच्छों (Salt Water Crocodiles) के दर्शन नहीं हुए थे। यहाँ के वन विभाग के अनुमान के हिसाब से भितरकनिका में करीब १५०० मगरमच्छ निवास करते हैं और उनमें से कुछ की लंबाई २० फुट तक होती है यानि विश्व के सबसे लंबे मगरमच्छों का दर्शन करना हो तो आप भितरकनिका के चक्कर लगा सकते हैं। हमारी आँखे पानी में इधर उधर भटक ही रही थीं कि दूर पानी की ऊपरी सतह आँखे बाहर निकाले एक छोटा सा घड़ियाल दिखाई पड़ा। उसके कुछ देर बाद तो दूर से ही ये मगरमच्छ महाशय क्रीक की दलदली भूमि पर आराम करते दिखे। फिर दिखी भागते कूदते हिरणों की टोली। खैर हिरणों से तो अगले दिन भी सामना होता रहा।

डाँगमाल पहुँचने के पहले ही हमें देखनी थी भितरकनिका के बीच बसी पक्षियों की दुनिया। क़ायदे से हमें यहाँ चार बजे तक पहुँच जाना था। पर केन्द्रापाड़ा से देर से सफ़र शुरु करने की वज़ह से हम यहाँ पहुँचे सवा पाँच पर। भितरकनिका की पक्षियों की इस दुनिया को यहाँ बागा गाहन (Baga Gahan) या हेरनरी (Heronry) कहा जाता है। यहाँ पाए जाने वाले पक्षी मूलतः बगुला प्रजाति के हैं। जून से नवंबर के बीच विश्व की ग्यारह बगुला प्रजातियों के पक्षी ३०००० तक की तादाद में यहाँ आकर घोसला बनाते हैं और नवंबर दिसंबर तक अपने छोटे छोटे बच्चों जिनकी तादाद भी लगभग ३५००० होती है लेकर उड़ चलते हैं। हमारी नौका जब सवा पाँच बजे पक्षियों के इस मोहल्ले पर रुकी तो पक्षियों का कर्णभेदी कलरव दूर से ही सुनाई दे रहा था।


अँधेरा तेजी से फैल रहा था इसलिए नौका से उतरकर जंगल की पगडंडियों पर हम तेज़ कदमों से लगभग भागते हुए वाच टॉवर की ओर बढ़ गए। जंगल के बीचो बीच बने इस वॉच टॉवर की ऊँचाई २० से ३० मीटर तक की जरूर रही होगी क्यूँकि ऊपर पहुँचते पहुँचते हम सब का दम निकल चुका था। पर वॉच टावर के ऊपर चढ़कर जैसे ही मैंने चारों ओर नज़रें घुमाई मैं एकदम से अचंभित रह गया।

दूर दूर तक उँचे पेड़ों का घना जाल सा था। और उन पेड़ों के ऊपर थे हजारों हजार की संख्या में बगुले सरीखे काले सफेद रंग के पक्षी। जिंदगी में पक्षियों के इतने बड़े कुनबे को एक साथ देखना मेरे लिए अविस्मरणीय अनुभव था। ढलती रौशनी में इस दृश्य को सही तरीके से क़ैद करने के लिए बढ़िया जूम वाले क़ैमरे की जरूरत थी जो हमारे पास नहीं था। फिर भी कई तसवीरें ली गई और उनमें से एक ये रही....(चित्र को बड़ा करने के लिए उस पर क्लिक करें)


साँझ ढल रही थी सो हमें ना चाहते हुए भी बाघा गाहन से विदा लेनी पड़ी। आधे घंटे बाद शाम छः बजे हम डाँगमाल के वन विभाग के गेस्ट हाउस में पहुँचे। आगे क्या हुआ ये जानने के लिए इंतज़ार कीजिए इस श्रृंखला की अगली पोस्ट का ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

आइए चलें भुवनेश्वर से भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान के सफ़र पर...

मुसाफ़िर हूँ यारों पर आपने पिछले महिने मेरे साथ चाँदीपुर और दीघा के समुद्र तटों की सैर की । इस महिने आपको ले चलते हैं एक ऍसी जगह जो उड़ीसा के पर्यटन मानचित्र में तो नज़र आती है पर देश के अन्य भाग के लोग शायद ही इसके बारे में जानते हों। ये जगह है उड़ीसा के उत्तर पूर्वी तटीय इलाके के करीब स्थित भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान (Bhiterkanika National Park)



भितरकनिका उड़िया के दो शब्दों से मिलकर बना है। भितर यानि अंदरुनी और कनिका यानि बेहद रमणीक। केन्द्रपाड़ा (Kendrapada) जिले में अवस्थित ये राष्ट्रीय उद्यान अपनी दो विशेषताओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। एक तो सुंदरवन के बाद ये देश के सबसे बड़े मैनग्रोव के जंगलों को समेटे हुए है और दूसरी ये कि भारत में नमकीन पानी में रहने वाले मगरमच्छों की सबसे बड़ी आबादी यहीं निवास करती है।

मेरी ये यात्रा पिछली दुर्गा पूजा और दशहरा की छुट्टियों की है। मैं तब उस वक्त भुवनेश्वर गया था। वहीं से भितरकनिका जाने का कार्यक्रम बना। हमारा कुनबा करीब सवा दस बजे भुवनेश्वर से निकला। हमें भुवनेश्वर से कटक होते हुए केन्द्रपाड़ा की ओर निकलना था। भुवनेश्वर और फिर कटक की सड़्कों पर दुर्गापूजा की गहमागहमी थी पर कंधमाल की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं और हाल ही में आई बाढ़ ने माहौल अपेक्षाकृत फीका अवश्य कर दिया था।


भुवनेश्वर से केन्द्रपाड़ा करीब ७५ किमी दूरी पर है अगर आप कटक से जगतपुर वाले राज्य राजमार्ग से जाएँ। पर हमने केन्द्रपाड़ा जाने का थोड़ा लंबा रास्ता लिया।
कटक से चंडीखोल होते हुए हमने पारादीप (Paradip) की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग ५ (NH- 5) की राह पकड़ ली। चार लेनों की चौड़ाई वाले इस राजमार्ग पर आप अपनी गाड़ी बिना किसी तनाव के सरपट भगा सकते हैं।


राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर के दृश्य बिल्कुल विपरीत प्रकृति के थे। एक ओर तो धान की लहलहाती फसल दिखाई दे रही थी...


तो दूसरी ओर दो महिने पहले आई बाढ़ की वज़ह से उजड़ी फसलों का मंज़र दिख रहा था।


हम लोग तो बारह बजे के करीब केन्द्रपाड़ा पहुँच गए पर हमारे समूह के ही एक और सदस्य जो दूसरे रास्ते से हमें केन्द्रपाड़ा में मिलने वाले थे, सिंगल लेन रोड और भीड़ भाड़ की वज़ह से जल्दी पहुँचने की बजाए देर से पहुँचे। लिहाज़ा दिन का भोजन और थोड़ा विश्राम करने के बाद हमें केन्द्रपाड़ा से निकलते निकलते सवा दो बज गए।

हमारा अगला पड़ाव राजनगर (Rajnagar) था जो कि भितरकनिका जाने का प्रवेशद्वार है। केन्द्रपाड़ा और राजनगर के बीच की दूरी करीब ७० किमी है। इन दोनों के बीच
पतामुन्दई (Patamundai)
का छोटा सा कस्बा आता है। ये पूरी सड़क एक लेन वाली है और फिर त्योहार की गहमागहमी अलग से थी इसलिए चाहकर भी अपने गंतव्य तक जल्दी नहीं पहुँचा जा सकता था। हर पाँच छः गाँवों को पार करते ही एक मेला नज़र आ जाता था। गाँव के मेलों की रौनक कुछ और ही होती है... थोड़ी सी जगह में तरह तरह की वस्तुएँ बेचते फुटकर विक्रेता और रंग बिरंगी पोशाकों में उमड़ा जन समुदाय जो शायद एक साल से इन मेलों की प्रतीक्षा में हो।

राँची और कटक की दुर्गापूजा से अलग जगह जगह दुर्गा के आलावा शिव पार्वती, लक्ष्मी और हनुमान जी की भी मूर्तियाँ मंडप में सजी दिखाई पड़ीं। बाद में पता चला कि इस इलाके का ये सबसे बड़ा त्योहार है और इसे यहाँ गजलक्ष्मी पूजा (Gajlakshmi Puja) कहा जाता है।

राजनगर से आगे हमें गुप्ती तक जाना था जहाँ से रोड का रास्ता खत्म होता है और पानी का सफ़र शुरु होता है। हरे भरे धान के खेत अब भी दिखाई दे रहे थे। गुप्ती के ठीक पहले कुछ किमी मछुआरों के गाँव के बीच से गुजरना पड़ा। वहीं एक झोपड़ी में सौर उर्जा का प्रयोग करती ये झोपड़ी भी दिखाई दी तो देख कर सुखद संतोष हुआ कि इन भीतरी इलाकों पर भी सरकार की नज़र है।




ठीक वार बजे हम गुप्ती के चेक पोस्ट पर थे। और ये साइनबोर्ड हमारा चेक पोस्ट पर स्वागत कर रहा था


अगले दो घंटे का सफ़र डेल्टाई क्षेत्र की कभी संकरी तो कभी चौड़ी जलधाराओं के बीच बीता। अगली पोस्ट पर आपको मिलवाएँगे पानी और जंगल में रहने वाले कुछ बाशिंदों से और साथ ही देखना ना भूलिएगा एक दृश्य जो हमारे इस सफ़र का सबसे बेहतरीन स्मृतिचिन्ह रहा।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

चाँदीपुर समुद्र तट : जहाँ समुद्र रात में आता और सुबह गायब हो जाता है...

समुद्र तट तो कई देखे हैं पर कुछ तट अपनी विशिष्टता के कारण स्मृतियों से कभी ज्यादा दूर नहीं जा पाते। आज से करीब दस-बारह साल पहले की बात है। हम सड़क मार्ग से जमशेदपुर से भुवनेश्वर जा रहे थे। जमशेदपुर से भुवनेश्वर करीब ४०० किमी दूरी पर है। हम दिन में चार बजे के आस पास जमशेदपुर से निकले थे। जब घाटशिला से झारखंड की सीमा पार कर ओड़ीसा के मयूरभंज जिले के मुख्यालय बारीपदा को पार करते हुए बालेश्वर (Baleshwar) या बालासोर (Balasore) तक पहुँचे तब तक रात्रि के आठ बज चुके थे।

बालासोर से १४ किमी दूर ही चाँदीपुर का समुद्र तट (Chandipur Sea Beach) है। तब तक चाँदीपुर के बारे में मैं यही जानता था कि यहाँ एक मिसाइल टेस्ट रेंज है। हम लोग जब रात को गेस्ट हाउस में भोजन कर रहे थे तो बगल से समुद्री लहरों की आती गर्जना स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। पर सफ़र की थकान की वज़ह से हम तुरंत ही समुद्र तट को नहीं देख पाए।
सुबह साढ़े छः पौने सात बजे के बीच जब समुद्र की ओर निकले तो दूर-दूर तक समुद्र का कोई सुराग ना था। वहाँ जाने पर ये तो लोगों ने बताया था कि समुद्र भाटे यानि लो टाइड (Low Tide) होने के समय दूर चला जाता है पर यहाँ तो जितनी दूर तक नज़र जाती थी, पानी का नामो निशान ही नहीं दिखता था।

(इस चित्र के छायाकार हैं : टोटन )
पर हमने भी ठान लिया कि समुद्र देख कर ही आगे की यात्रा शुरु करेंगे। सो समुद्र के अंदर ही सुबह की सैर (Morning Walk) शुरु कर दी। क्या आप यकीन करेंगे कि करीब २० मिनट समुद्र के अंदर चलने के बाद हमें समुद्र के दर्शन हुए ? समुद्र की धारा अभी भी 50-100 मीटर और दूर थी। हम थोड़ी देर वहीं खड़े रहे तो ऐसा लगा कि समुद्र हमारी तरफ चला आ रहा है। पास खड़े स्थानीय निवासी से पूछा तो उसने कहा कि आधे घंटे में आप लोग जहाँ से चले थे लहरें वहाँ तक पहुँच जाएँगी।

ये सुनकर हमें लगा कि अब ज्यादा देर किए बिना तेजी से वापस लौटना चाहिए। हम चलते रहे और समुद्र करीब 100 मीटर की दूरी पर पीछे-पीछे आता रहा और सचमुच आधे घंटे में वो वापस किनारे पर आ गया। लेकिन उसके दस मिनट पहले ही हम वापस किनारे का दामन थाम चुके थे।

बाद में पता चला कि समुद्र लो टाइड के समय तट से लहभग ५ किमी. तक पीछे चला जाता है। छिछले समुद्र तट पर घूमने में आपको तरह तरह के समुदी जीवों को देखने का अवसर मिलता है और फिर पाँच किमी के दायरे में घूमते वक़्त कुछ नए जीव आपके कदमों के इर्द गिर्द अपने घरों से झांकते नज़र ना आएँ ऍसा हो नहीं सकता। बंगाल की खाड़ी में होते सूर्योदय और सूर्यास्त को यहाँ से देखना भी एक अविस्मरणीय अनुभव है जिसका आनंद हमारा समूह नहीं ले पाया क्योंकि हमें आगे भुवनेश्वर की ओर जाना था। तो जब कभी उड़ीसा की ओर घूमने का मन बनाए चाँदीपुर का भी चक्कर लगाएँ। यहाँ रहने के लिए उड़ीसा पर्यटन के पंथनिवास से संपर्क कर सकते हैं।


पुनःश्च : इस यात्रा के पश्चात चाँदीपुर दोबारा भी जाना हुआ। इस यात्रा में इस समुद्र तट को  बेहद करीब और तबियत से खींचने का मौका मिला। समुद्र तट के कई दिलकश मंज़र मेरे कैमरे में क़ैद हुए। पूरे विवरण के लिए इन लिंकों को देखें..

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

चलिए चलें भुवनेश्वर की जैन गुफाओं और मंदिरों की सैर पर !

भुवनेश्वर मंदिरों का शहर है। जैन, बौद्ध और हिंदू धर्मों के अनुयायिओं ने कालांतर में इस प्राचीन कलिंग प्रदेश में कई मंदिरों का निर्माण किया। पिछली पोस्ट में मैंने आपसे खंडगिरि के जैन मंदिर के आहाते में खींचे गए चित्र से जुड़ा एक सवाल पूछा था। यूँ तो आप सबमें से अधिकांश लोगों ने उसे किसी मन्नत से जोड़ा था पर चित्र पहेली का बिल्कुल सही जवाब अभिषेक ओझा ने दिया था। ईंट पत्थरों को एक दूसरे पर सजाने के पीछे मान्यता ये है कि ऍसा करने से अपने घर के नव निर्माण का सपना शीघ्र पूरा होता है।

खैर, मंदिरों की सैर कराने के पहले आज सबसे पहले आपको ले चलते हैं, भुवनेश्वर से करीब ७ किमी. दूर स्थित उदयगिरी (Udaigiri) और खंडगिरी (Khandgiri) की गुफाओं की ओर ! कहते हैं ये गुफाएँ आज से करीब २००० वर्ष पूर्व जैन राजा खारवेल (Jain King Kharvela) के समय बनाई गई थीं। हमलोग यहाँ दिन के तीन बजे पहुँचे थे। प्रवेश द्वार पर बंदरों की फौज हमारे स्वागत को तैयार थी। नतीजन कैमरे को चुपचाप पतलून की जेब में डाल कर हम गुफाओं की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ चले थे। जमीन से ३०-३५ मीटर ऊपर पहुँचते ही गुफाएँ दिखनी शुरु हो जाती हैं।
उदयगिरि में करीब १५ से २० के बीच गुफाएँ हैं। कुछ के अंदर घुसने के लिए वर्गाकार चौखट बनी हुई हैं , जबकि अधिकांश गुफाओं के लिए ये स्वरूप आयताकार है। गुफाओं के अंदर का फर्श सपाट है जो लगता है कि जैन साधकों के विश्राम करने के लिए बनाया गया होगा। कहीं कहीं एक ओर फर्श पर हल्का उठा हुआ प्रोजेक्शन भी दिखा जो शायद तकिये का भी काम करता हो।


गुफा की दीवारों पर जानवरों, युद्ध से जुड़े शिल्प हैं जो संभवतः जैन शासक खारवेल के समय रहे परिवेश को दर्शाते हैं पर इनमें से अधिकांश बहुत हद तक टूट गए हैं। गुफा के प्रवेश द्वार को हाथी, साँप जैसे जानवरों की शक्ल दी गई है। इसी आधार पर इनका नामाकरण हाथी गुफा, पैरट केव्स या अनंत गुफा आदि पड़ा है। देखिए ऍसी ही एक गुफा के प्रवेश द्वार की ये तसवीर...



उदयगिरी के ठीक सामने और उससे थोड़ी ऊँची खंडगिरि की पहाड़ियाँ हैं। इसकी ऊँचाई करीब ४० मीटर है और इसके शीर्ष से भुवनेश्वर शहर को देखना एक सुखद अनुभव है। शीर्ष पर जैन भगवान आदिश्वर (Adishwar) का मंदिर भी है। ये भी कहा जाता है कि एक समय भगवान महावीर यहाँ अपने भक्तों को संबोधित करने आए थे।


अगली सुबह हम चल पड़े यहाँ के प्रमुख मंदिरों के दर्शन को। हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र यहाँ का लिंगराज मंदिर है और लोग कहते हैं कि जगन्नाथ पुरी जाने के पहले यहाँ पूजा अवश्य की जानी चाहिए । इसे ११ वीं शताब्दी में बनाया गया था। ये मंदिर उड़ीसा की स्थापत्य कला का अनूठा नमूना है। पूरा मंदिर चार प्रमुख इमारतों भोगमंडप (भोजन के लिए बना आहाता, Dining Hall) , नटमंडप (Dancing Hall) , जगमोहन (Audience Hall, सभागार) और देउला जहाँ भगवान शिव की अराधना की जाती है, में बँटा हुआ है। यहाँ का आठ फीट व्यास का चमकदार शिवलिंग ग्रेनाइट का बना हुआ है और पानी और दूध से उसका रोज़ स्नान होता है।

मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है और शिव दर्शन के लिए धक्का मुक्की भी करनी पड़ती है। इसलिए मेरा सुझाव ये है कि अगर आप शांति से पूजा अर्चना में विश्वास रखते हों तो फिर मुक्तेश्वर के शिव मंदिर का रुख कीजिए। धौली से करीब दो तीन किमी दूरी पर ये मंदिर अपनी सु्दरता और आस पास फैली हुई शांति से आपको सहज ही आकर्षित कर लेगा। दसवीं शताब्दी में बने इस मंदिर को स्थापत्य की दृष्टि से, हिंदू जैन और बौद्ध स्थापत्य कलाओं का संगम माना जाता है।

वैसे तो भुबनेश्वर के कई अन्य मंदिर भी विख्यात हैं पर हमें शाम के पहले तक नंदन कानन (Nandan Kanan) पहुँचना था। इसलिए लिंगराज और मुक्तेश्वर की यात्रा के बाद हम कुछ देर विश्राम कर नंदन कानन की ओर चल पड़े। क्या हम नंदन कानन के सफेद बाघ को देख पाए ये विवरण इस सफ़र के अगले भाग में....

(लिंगराज मंदिर की तसवीर सौजन्य विकीपीडिया ,बाकी चित्र मेरे कैमरे से)

बुधवार, 12 नवंबर 2008

भुवनेश्वर का जैन मंदिर और पिट्टो की याद दिलाती ये चित्र पहेली

बचपन में आपने पिट्टो तो जरूर खेला होगा। अरे क्या याद नहीं आपको वो पतले पतले पत्थर को एक दूसरे के ऊपर सजा कर रखना और थोड़ी दूरी से रबर की गेंद से निशाना साधना। अगर निशाना नहीं लगा और गेंद टप्पा खा कर लपक ली गई तो आपकी बारी खत्म। और अगर निशाना सही पड़ा तो आपकी टीम के सारे खिलाड़ी दूर दूर तक भाग खड़े होते थे। विपक्षी टीम के खिलाड़ियों को छकाने के बाद यदि अगर वापस बिना गेंद से सिकाई के आपने पत्थर की गोटियाँ सजा लीं तो हो गया पिट्टो !

खैर आप भी सोच रहे होंगे कि उड़ीसा घुमाते घुमाते आखिर आपको पिट्टो के बारे में क्यूँ बताया जा रहा है। तो जनाब नीचे का चित्र देखिए। क्या आपको ये पिट्टो की याद नहीं दिलाता ?



ये चित्र भुवनेश्वर स्थित खंडगिरि के जैन मंदिर (Jain Temple at Khandgiri) के आहाते का है। अब इतना तो पक्का है कि मुसाफ़िर इतनी ऊपर पहाड़ी पर बनें मंदिर पर आ कर पिट्टो तो नहीं खेलते होंगे ? :)

तो बताइए क्या सोचकर पर्यटक और श्रृद्धालु पत्थर और ईंट के टुकड़े को इस तरह सजाते होंगे?

सही जवाब का खुलासा अगली पोस्ट किया जाएगा। हो सकता है उससे पहले ही आप इस गुत्थी को सुलझा लें ....

रविवार, 9 नवंबर 2008

धौलागिरी, भुवनेश्वर : जो कभी युद्ध में हुए भीषण रक्तपात का साक्षी रहा था

कोणार्क (Konark) से वापस हम शाम तक भुवनेश्वर आ गए थे। अगले दो दिन भुवनेश्वर (Bhubneshwar) में रहने का कार्यक्रम था। भुवनेश्वर में अगली सुबह हम जा पहुँचे धौलागिरि (Dhaulagiri), जो कि शहर से करीब आठ किमी दूर स्थित है। धौलागिरि के शिखर पर स्थित सफेद गुम्बद नुमा शांतिस्तूप (Peace Pagoda, Dhauli) दूर से ही दिखाई पड़ता है। १९७२ में इस स्तूप को जापानियों के सहयोग से बनाया गया था। स्तूप के गुम्बद के छत्र के रूप कमल के फूल की पाँच पंखुड़ियों को रखा गया है। सीढ़ियों की शुरुआत में ही खंभों के दोनों ओर सिंहों की प्रतिमा बनाई गई है।

स्तूप की सीढ़ियों को पार कर जैसे ही आप चबूतरे पर पहुँचते हैं आपको पद्मासन में बैठे चिर ध्यान में लीन बुद्ध की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। दूर-दूर तक पहाड़ी से दिखती हरियाली को देख मन पहले से ही पुलकित हो जाता है और भगवान बुद्ध की ये भाव भंगिमा विचारों में निर्मलता का प्रवाह खुद-ब-खुद ले आती है।

पूरी इमारत के चारों ओर दीवारों पर भगवान बुद्ध के जीवन और उस समय के परिवेश से जुड़ी कई कलाकृतियाँ हैं जिसमें कहीं बुद्ध निद्रामग्न हैं तो कहीं अपने शिष्यों से घिरे हुए....


शांति स्तूप से नीचे का नज़ारा भुवनेश्वर का मेरा सबसे यादगार दृश्य रहा। चारों ओर हरे भरे धान के लहलहाते खेत, खेतों की निरंतरता को तोड़ते वृक्ष और पास बहती दया नदी (River Daya) का किनारा.. कुल मिलाकर एक ऍसा दृश्य जिसे देख कर ही मन खिल उठे। कौन सोच सकता है कि ये वही जगह है जहाँ सम्राट अशोक ने कलिंग के साथ युद्ध (Kalinga War) में भयंकर रक्तपात मचाया था। दया नदी का तट लाशों से अटा पड़ा था जिसे देखकर पराक्रमी अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया था।


शांति स्तूप के लिए जहाँ से चढ़ाई शुरु होती है उसके करीब सौ मीटर आगे ही वो जगह है जहाँ हाथी के अग्र भाग का शिल्प बनाया गया था। चट्टानों को काटकर बनाए गए इस शिल्प को भारत का सबसे पुराना (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का ) माना जाता है। कहते हैं कि इसी जगह पर अशोक का हृदय परिवर्त्तन हुआ था। हाथी के निकलते हुए सर को प्रतीतात्मक रूप से बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव माना जाता है। चित्र में शिल्प के पार्श्व में दिख रहा है शांति स्तूप के साथ ही लगा शिव मंदिर (Lord Dhavaleshwar's temple) जिसका पुनर्निर्माण भी सत्तर के दशक में हुआ था।


इस शिल्प के दूसरी तरफ कुछ दूरी पर अशोक द्वारा बनाए गए शिलालेख हैं जो प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। इस शिलालेख में लोगों का दिल जीतने की बात कही गई है। सारी प्रजा के लिए सम्राट अशोक ने अपने आपको पिता तुल्य माना है और लिखा है कि अपने बच्चों की खुशियाँ और परोपकार का ही मैं अभिलाषी हूँ।
ये शिलालेख एक आक्रमक राजा के शांति का अग्रदूत बन जाने की कहानी कहते हैं। आज २००० वर्ष बीतने के बाद भी, हमारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेता भी इस महान शासक के अनुभवों से युद्ध की निर्रथकता का सबक ले सकते हैं।

जिस तरह सूर्य के रथ का पहिया कोणार्क की पहचान था उसी तरह धौली का स्तूप भुवनेश्वर की टोपोग्राफी पर राज करता है। पर अभी तो हमारी भुवनेश्वर यात्रा शुरु ही हुई है। अगले चरण में ले चलेंगे आपको भुवनेश्वर के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिरों और स्मारकों की सैर पर...

रविवार, 2 नवंबर 2008

कोणार्क का सूर्य मंदिर : जिसका गुम्बद कभी समुद्री पोतों का 'काल' होता था

दशहरे के पहले आपको मैं पुरी और चिलका की यात्रा करा चुका था। फिर त्योहार और कार्यालय के कामों में ऍसा फँसा कि आगे के पड़ावों के बारे में लिख ना सका। तो आज अपनी उड़ीसा यात्रा को आगे बढ़ाते हुए बारी कोणार्क के विश्व प्रसिद्ध मंदिर (Sun Temple at Konark) की..


पुरी से कोणार्क का रास्ता बड़ा मोहक है। एक तो सीधी सपाट सड़क और दोनों ओर हरे भरे वृक्षों की खूबसूरत कतार। कोणार्क के ठीक पहले चंद्रभागा का समुद्री तट दिखाई देता है। हम लोग कुछ देर वहाँ रुककर कर तेजी से उठती गिरती लहरों का अवलोकन करते रहे। यहाँ समुद्र तट की ढाल थोड़ी ज्यादा है इसलिए नहाने के लिए ये तट आदर्श नहीं है।




कुछ देर बाद हम कोणार्क के मंदिर के सामने थे। क्या आपको पता है कि कोणार्क शब्द, 'कोण' और 'अर्क' शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। कोणार्क का सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी किनारे पर समुद्र तट के करीब निर्मित है। इसे गंगा वंश (Ganga Dynasty) के राजा नरसिम्हा देव (Narsimha Deva) ने १२७८ ई. में बनाया था।


कहा जाता है कि ये मंदिर अपनी पूर्व निर्धारित अभिकल्पना के आधार पर नहीं बनाया जा सका। मंदिर के भारी गुंबद के हिसाब से इसकी नींव नहीं बनी थी। पर यहाँ के स्थानीय लोगों की मानें तो ये गुम्बद मंदिर का हिस्सा था पर इसकी चुम्बकीय शक्ति की वजह से जब समुद्री पोत दुर्घटनाग्रस्त होने लगे, तब ये गुम्बद हटाया गया। शायद इसी वज़ह से इस मंदिर को ब्लैक पैगोडा (Black Pagoda) भी कहा जाता है।

19 वीं शताब्दी में जब इस मंदिर का उत्खनन किया गया तब ये काफी क्षत-विक्षत हो चुका था। जैसे ही इस मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वार से घुसेंगे सामने एक नाट्य शाला दिखाई देती है जिसकी ऊपरी छत अब नहीं है। कोणार्क नृत्योत्सव (Konark Festival) के समय हर साल यहाँ देश के नामी कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते है।

और आगे बढ़ने पर मंदिर की संरचना, जो सूर्य के सात घोड़ों द्वारा दिव्य रथ को खींचने पर आधारित है, परिलक्षित होती है। अब इनमें से एक ही घोड़ा बचा है। वैसे इस रथ के चक्कों, जो कोणार्क की पहचान है को आपने चित्रों में बहुधा देखा होगा। मंदिर के आधार को सुंदरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महिनों को प्रतिबिंबित करते हैं जबकि प्रत्येक चक्र आठ अरों (Spokes) से मिल कर बना है जो कि दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।



पूरे मंदिर की दीवारें पर तरह तरह की नक्काशी है। कहीं शिकार के दृश्य हैं, तो जीवन की सामान्य दैनिक कार्यों के। कुछ हिस्से में रति क्रियाओं और दैहिक सुंदरता को भिन्न कोणों से दिखाने की कोशिश की गई है। मज़े की बात ये रही कि जब भी ऍसा कोई शिल्प पास आने वाला होता हमारा गाइड समूह के पुरुषों को तेजी से आगे बढ़वाकर धीरे से फुसफुसाता कि ये देखिए ! :)

मंदिर के चारों ओर आर्कियालॉजिकल सर्वे आफ इंडिया (Archeological Survey of India) ने एक बेहद सुंदर हरा भरा बाग बना रखा है जो इन खंडहरों में एक जीवंतता लाता है...आप भी देखिए, खूबसूरत है ना ? 

इस वृत्तांत के अगले हिस्से में देखेंगे वो जगह, जहाँ कभी सम्राट अशोक ने भयंकर युद्ध के बाद हमेशा के लिए शांति को अंगीकार किया था।

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