सोमवार, 24 अगस्त 2009

चित्र पहेली 7 का उत्तर : गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा..जानिए हिमाचल के इस खूबसूरत टुकड़े को !

याद है ना आपको 1976 में आई फिल्म चितचोर का वो बेहद लोकप्रिय गीत गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा मैं तो गया मारा आ के यहाँ रे..। अरे अरे आप ये ना सोच लीजिएगा कि मेरे गीत संगीत वाले ब्लॉग एक शाम मेरे नाम की पोस्ट गलती से यहाँ छप गई है। दरअसल इस गीत का जिक्र आज की चित्र पहेली से आया है। आज की तसवीरें हैं भारत के एक ही इलाके में अवस्थित दो गाँवों की इनकी प्राकृतिक सुंदरता देख कर तो मन तो चितचोर फिल्म का यही गीत गाने को कर उठता है।

सफेद रंग के छोटे बड़े घरों से मिल कर बने इस गाँव में अगर सुबह सुबह कोई खिड़की से झांके तो सामने मैदान में फैली हरी दूब दिखती है और अगर पिछवाड़े से निकल आए तो विधाता की खूबसूरत नीली छतरी के नीचे बर्फ से आच्छादित पर्वतों की सुनहरी चोटियाँ ‌। पर एक और खासियत है इस प्यारे से गाँव में। पर उसे देखने के लिए चित्र को ज़रा गौर से बड़ा कर (यानि चित्र पर क्लिक कर) देखना होगा। देखा आपने खुद भगवान बुद्ध अपनी बनाई इस छटा को एक पहाड़ी के शिखर से कैसे अपलक निहार रहे हैं..

बुद्ध के अनुयायिओं की इस भूमि से बस तीस चालिस किमी दूर और बढ़ते हैं तो इस गाँव के दर्शन होते हैं। दूर से पहाड़् यहाँ इस तरह दिखते हैं जैसे दीमक की विशाल बांबियों के ऊपर किसी ने एक बस्ती बना दी हो। पर इसे कोई ऐसी वैसी बस्ती समझने की जुर्रत ना कर लीजिएगा जनाब। भुरभुराते से पहाड़ की चोटी पर जो इमारत आप देख रहे हैं वो किसी ज़माने में इस इलाके के राजा का किला हुआ करती थी उस किले के नीचे चित्र में एकदम बायीं तरफ यहाँ का नामी बौद्ध मंदिर यानि मॉनेस्ट्री है। इन कमाल के चित्रों के छायाकार हैं सीमान्त सक्सेना। सीमान्त सक्सेना के खींचे गए चित्रों को आप यहाँ देख सकते हैं।
चित्र तो आपने देख लिए। अब ये बताएँ कि ये गाँव भारत के किस जिले का अंग हैं और दूसरे चित्र में दिख रहे बौद्ध मंदिर का नाम क्या है? अब एक नज़र संकेतों की तरफ

संकेत 1 : ये पूरा इलाका मध्य और ऊपरी हिमालय का अभिन्न अंग है यानि यहाँ के गाँवों की औसत ऊँचाई ३५०० से ४५०० मीटर के बीच है। यानि भारत के भौगोलिक मानचित्र पर नज़र डालें तो जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तरांचल, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में से किसी एक राज्य में ये इलाका पड़ता है।

आप में से बहुतों ने इस जगह को लेह, लद्दाख या सिक्किम का बताया पर ये जगह दरअसल हिमाचल प्रदेश के जिले लाहौल स्पिति में हैं। देखा जाए तो लाहौल स्पिति भौगोलिक दृष्टि से दो अलग अलग इलाके हैं। जैसा कि आप नीचे के मानचित्र में देख सकते हैं रोहतांग दर्रे के उत्तर पश्चिम का इलाका लाहौल घाटी का है जबकि उत्तर पूर्व का इलाका स्पिति घाटी का है।
इस पहेली में प्रस्तुत दोनों चित्र स्पिति घाटी के है। पहला चित्र लांग्जा गाँव (Langza Village) का है जो समुद्र तल से ४४०० मीटर ऊँचा है। पीछे दिख रही चोटी का नाम है चोचो खांग निल्दा (Chocho Khang Nilda) । स्थानीय भाषा में चोचो :राजकुमारी, खाँग :पर्वत निल्दा :सूर्योन्मुखी यानि सूर्य की किरणों से निखरती पर्वतीय राजकुमारी । ये पर्वत स्पिति की तीसरी सबसे ऊँची चोटी है। स्पिति के मुख्यालय काज़ा से टैक्सी में करीब एक घंटे लगते हैं। लांग्ज़ा को खूबसूरत बनाने में जितना इस पर्वतीय राजकुमारी का हाथ है उतना ही यहाँ उगने वाली जंगली घास थामा का भी जो इस गाँव को नीली सफेद और हरे रंग की मिश्रित आभा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।


जिस छोटी सी बुद्ध की प्रतिमा का मैंने प्रविष्टि का ज़िक्र किया था उसका बड़ा रूप मृदुला के कैमरे से ये रहा ! ये बुद्ध मंदिर लांग्ज़ा लाँग करीब ६०० वर्ष पुराना है ऍसा यहाँ के लोगों का मानना है।
इस गाँव की एक और खासियत है और वो है यहाँ समुद्री जीवाश्मों यानि फॉसिल्स का पाया जाना। आप के मन में ये प्रश्न सहज ही उठा होगा आखिर इस दूर दराज़ इलाके में जीवाश्म कहाँ से आ गए। भू वैज्ञानिकों का मानना है कि स्पिति घाटी का निर्माण लाखों वर्षों पहले यूरेशियन और भारतीय प्लेटों के टकराने से हुआ था। जिसकी वजह से टेथस का समुद्र खत्म हो गया। ये जीवाश्म उस काल के समुद्री जीवों के बताए जाते हैं।

भगवान बुद्ध, लंग्जा गाँव और इन जीवाश्मों की छायाकार हैं मृदुला। इनके स्पिति यात्रा के अन्य चित्रों को आप यहाँ देख सकते हैं।

संकेत 2 : इस इलाके तक पहुँचना इतना सरल नहीं। अव्वल तो यहाँ पहुँचने के सिर्फ दो रास्ते हैं और वो भी ऍसे कि साल में आधा समय बंद रहते हैं। इसलिए इस इलाके की जनसंख्या बेहद कम है। कम पर कितनी कम ? अब चौंकिएगा नहीं प्रति वर्ग किमी. पाँच से भी कम!
स्पिति तक पहुँचने के दो रास्ते हैं एक शिमला से होकर रामपुर होते हुए किन्नौर जिले से होते हुए स्पिति घाटी में प्रवेश करता है और करीब ४१२ किमी लंबा है। ये रास्ता आम तौर पर सालों भर खुला रहता है। पर मनाली होकर स्पिति जाने वाला रास्ता जून से अक्टूबर तक ही खुला रहता है। अत्याधिक ऊँचाई और ठंड वाले इस इलाके की जनसंख्या प्रति वर्ग किमी मात्र दो है।

संकेत 3 :दूसरे चित्र में दिख रहे बौद्ध मंदिर का निर्माण सातवीं और नौवीं शताब्दी के बीच हुआ। सत्रहवीं शताब्दी में ये जगह पूरे इलाके की राजधानी बन गई।
छायाकार : नेविल झावेरी
ये जगह है धनखर (Dhankhar) पहले इसे (धक + खर : धकखर) के नाम से बुलाया जाता था जिसका अर्थ था चोटी पर स्थित किला। आज इस किले की अवस्था जर्जर हो गई है। इसके नीचे धनखर का बौद्ध मंदिर है जिसका शुमार इस इलाके के प्राचीनतम बौद्ध मंदिर में होता है। ऊपर चित्र में सबसे बाँयी तरफ की इमारत बौद्ध मंदिर का है जबकि सबसे ऊपर किला नज़र आ रहा है। धनखर में ४५१७ मीटर की ऊँचाई पर एक झील भी है।


तो दिमागी घोड़े दौड़ाइए और पहेली के उत्तर का अनुमान लगाइए। आपके उत्तर हमेशा की तरह माडरेशन में रखे जाएँगे। सही जवाब इसी पोस्ट में गुरुवार को बताया जाएगा।


किसने दिया सही जवाब ?
इस बार की पहेली का सही जवाब आने में ज़रा भी देर नहीं हुई। क्यूँकि साथी चिट्ठाकार मृदुला इस इलाके में दो साल पहले भ्रमण कर के आ चुकी थीं। ऊपर के चित्रों और लिंकों के माध्यम से आप समझ गए होंगे कि मृदुला एक घुमक्कड़ होने के साथ साथ अच्छी छायाकार भी हैं. मृदुला जी सही जवाब तक पहुँचने के लिए आपको हार्दिक बधाई। पर मृदुला जी के आलावा दोहरे सवाल के पहले हिस्से का सही जवाब दिया पंडित डी के शर्मा वत्स और संजय व्यास जी ने। बाकी लोगों का अनुमान लगाने और अपनी प्रतिक्रियाएँ देने के लिए हार्दिक आभार।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

दीघा और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ दौड़ती हैं जीपें, दिखते हैं फुटबॉल खेलते लोग और लाल लाल प्रहरी !

पिछली प्रविष्टि में मैंने आपको बताया था कि किस तरह हम राँची से खड़गपुर होते हुए दीघा (Digha) पहुँचे। होटल से पाँच मिनट पैदल चलकर हम पुराने दीघा (Old Digha) के समुद्र तट पर थे। दरअसल दीघा को पर्यटन मानचित्र पर स्थापित करने का श्रेय इतिहासकार अंग्रेज पर्यटक जॉन फ्रैंक स्मिथ (John Frank Smith) को देते हैं जो 1923 में दीघा आए और यहाँ की सुंदरता देख यहीं बस गए। दीघा के बारे में उनके लेखों ने इस जगह के बारे में लोगों की जानकारी को बढ़ाया। आजादी के उपरांत स्मिथ ने तत्कालीन मुख्यमंत्री विपिन चंद्र रे को दीघा को एक पर्यटन स्थल बनाने के लिए राजी किया। वैसे इस जगह का उल्लेख अंग्रेज गवर्नर जेनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के १७८० में अपनी पत्नी को लिखे ख़त में भी मिलता है. हेस्टिंग्स ने बीरकुल के नाम से जाने वाली इस जगह को अपने पत्र में ब्राइटन आफ दि ईस्ट (Brighton of the East) की संज्ञा दी थी।

उस दिन पूरे तट पर जबरदस्त भीड़ थी। सबने सफ़र की थकान मिटाने के लिए जम कर स्नान किया। जिन्हें पानी से डर लग रहा था उनके लिए बड़ी बड़ी रबर ट्यूब्स का सहारा था। एक दो घंटे में जब धूप ज्यादा चढ़ आई तो हम वापस लौट चले।

(चित्र छायाकार सुमित)
समुद्री अपरदन ने दीघा के पुराने तट की चौड़ाई कम कर दी है। पर बाकी तटों से मिलती जुलती बातें यहाँ भी नज़र आती हैं। यानि कि समुद्र तट के सामानांतर चलती रोड और उसके ठीक अगल पर छोटी-छोटी खाने पीने की दुकानें। शाम को जब हम तट की गहमागहमी देखने वापस आए तो हमारे साथियों ने यहाँ की सी पाम्फ्रेड मछली (Sea Pamfred) का जम कर लुत्फ़ उठाया। मित्र गणों को पेट पूजा में तल्लीन छोड़ कर मैं सूर्यास्त का नज़ारा लेने के लिए तट के भीड़ भाड़ वाले इलाके से दूर निकल पड़ा। रास्ते के एक तरफ अपरदन रोकने के लिए चट्टानों की बनाई दीवार थी तो दूसरी ओर हरे भरे कैसुराइना प्लानटेशन। ये प्लानटेशन ही इस तट को एक विशिष्टता प्रदान करती हैं।

(चित्र छायाकार अनुनय)
दीघा का सूर्यास्त पुरी और चाँदीपुर जैसा मंज़र पेश करता है। पुराने दीघा की भीड़ भाड़ को देखते हुए अब दीघा से २ किमी दूर नई दीघा बीच (New Digha) का विकास किया गया है जो अपेक्षाकृत शांत और साफ सु्थरी है। अगले दिन हम नए दीघा के तट पर भी गए पर पैदल नहीं बल्कि एक जीप में। आपको विश्वास हो ना हो पर दीघा और उसके आस पास के समुद्री तट इतने सख्त हैं कि ज्वार के समय वहाँ आसानी से चौपहिया वाहन चलाए जा सकते हैं।

वैसे नए दीघा में जीप से जब आप समुद्र तट पर जाएँगे तो सैकड़ों की संख्या में एक जाति विशेष के आंगुतक अपने घरों के दरवाजे से बाहर निकलकर आपका इंतज़ार करते हुए मिलेंगे। जीप उनके घरों को रौंदती हुई निकल जाएगी पर मज़ाल है कि उनमें से किसी का भी बाल बाँका हो जाए। जीप से कुछ फीट दूर रहते ही ये इस तेजी से अपने घरों के अंदरुनी तहखानों में घुसते हैं कि आपको उनकी फुर्ती देखकर दाँतो तले उँगलियाँ दबानी पड़ती हैं।

जी हाँ ये हैं इस इलाके में पाए जाने वाले रेड क्रैब (Red Crab).. दीघा के लाल प्रहरी जो रेत में बनाए गए छोटे छोटे छिद्रों से आपको तब तक घूरते रहेंगे जब तक आप इनके बिल्कुल करीब ना आ जाएँ और फिर पास आते ही अपने घरों में यूँ छिप जाएँगे जैसे वहाँ कोई रहता ही ना हो।


(चित्र छायाकार मानिक मंडल)

अगली सुबह हम दीघा से 14 किमी दूर शंकरपुर के समुद्री तट पर गए। दीघा के समुद्र तट की तुलना में शंकरपुर कहीं ज्यादा सुंदर है। दूर दूर तक फैला छिछला समुद्र ज्वार के समय किसी फुटबॉल के मैदान की शक़्ल इख़्तियार कर लेता है । पार्श्व की हरियाली आँखों को सुकून देती है सो अलग। ऊपर से भीड़भाड़ का नामोनिशान नहीं। बगल में ही मछुआरों की बस्तियाँ हैं जहाँ बड़ी संख्या में मछली पकड़ने वाली नौकाएँ लगी रहती हैं। ज्वार की वज़ह से लहरें ज्यादा नहीं उठ रहीं थीं इसलिए नहाना यहाँ नहीं हो पाया। पर दीघा की भीड़ भाड़ के बाद यहाँ आने पर इतनी खुशी मिली कि हम सब ने तट रूपी मैदान पर जम कर दौड़ भाग की और तसवीरें खिंचाई गई़। उस समय को याद दिलाती कुछ स्कैन्ड तसवीरें ये रहीं। देखिए तट के ठीक पीछे की हरियाली


देख रहे हैं ना पीछे की हरियाली और फुटबॉल मैदान से भी बड़ा ठोस समतल समुद्र तट। इसीलिए यहाँ लोग सचमुच ही फुटबॉल खेलते नज़र आ जाएँ तो कोई अचरज की बात नहीं...

(चित्र छायाकार राजीव लोधा)

तो ये था चाँदीपुर, शंकरपुर और दीघा का मेरा सफ़रनामा। शायद इन जगहों पर बाद में फिर जाने को मिले तब अपने कैमरे से यहाँ के कुछ और दृश्य दिखला सकूँगा। बताइए कैसी लगी आपको ये श्रृंखला ?

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

राँची से खड़गपुर और फिर दीघा तक की सड़क यात्रा का सफ़रनामा...

पिछले हफ्ते चाँदीपुर के छिछले तट के बारे में अपने एक पुराने संस्मरण को याद करते हुए आपसे वादा किया कि अगली बार आप सब को ले चलेंगे एक ऍसे समुद्री तट की ओर जिस पर आपको लोग फुटबाल खेलते भी नज़र आ जाएँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पर इस तट के बारे में तो विस्तार से तब बात करेंगे जब वहाँ पहुँचेंगे। आज पढ़िए राँची से खड़गपुर होते हुए दीघा (Digha) तक पहुँचने की दास्तान...

बात सात साल पहले सन 2002 की है। जाड़े का समय था। दिसंबर का आखिरी हफ्ता चल रहा था। सप्ताहांत के साथ दो तीन दिन की छुट्टियाँ पड़ रही थी तो अचानक कार्यालय के चार सहकर्मियों के साथ बिना किसी पूर्व योजना के दीघा जाने का कार्यक्रम बन गया। वैसे राँची से दीघा जाना, वो भी परिवार के साथ थोड़ा पेचीदा है। या तो राँची से कोलकाता जाइए और वहाँ से बस से दीघा पहुँचिए (वैसे अब तो हावड़ा से दीघा के लिए ट्रेन भी हो गई है जो साढ़े तीन चार घंटे में दीघा पहुँचा देती है) या फिर राँची से हावड़ा जाने वाली ट्रेन से खड़गपुर उतरिए और वहाँ से सड़क मार्ग से दीघा की ओर निकल लीजिए।

हमने दूसरा रास्ता चुना। रात में ट्रेन में बैठे और सुबह सवा चार बजे आँखे मलते हुए खड़गपुर (Khadagpur) स्टेशन पर उतरे। वैसे तो खड़गपुर, IIT की वज़ह से मशहूर है ही। देश के पहले IIT के लिए इसी शहर को चुना गया था। पर IIT के आलावा इस जगह के बारे में एक और बात खास है और वो है इसका रेलवे प्लेटफार्म। यहाँ का रेलवे प्लेटफार्म आज की तारीख़ में विश्व का सबसे लंबा प्लेटफार्म माना जाता है। इसकी कुल लंबाई 1 किमी से भी ज्यादा यानि 1072 मीटर है। वैसे शुरुआत में ये जब पहली बार बना तो इसकी लंबाई 716 मीटर थी जो बाद में बढ़ाकर पहले 833 और फिर 1072 मीटर कर दी गई।

चलिए अगर अभी भी आप इस स्टेशन के फैलाव को महसूस करने में दिक्कत हो रही हो तो नीचे के इन चित्रों को देखें। जो दो चित्र आप देख रहे हैं वो लगभग एक ही जगह से स्टेशन के दोनों सिरों को देखने का प्रयास है।



अब इतना लंबा प्लेटफार्म होने की वज़ह से एक ही प्लेटफार्म पर दो ट्रेने खड़ी हो जाती हैं यानि एक के पीछे एक और अगर मुझे सही याद है तो शायद इसी वज़ह से यहाँ एक प्लेटफार्म के अगले और पिछले हिस्से का अलग अलग नामाकरण किया गया है।



खैर, ये तो रही स्टेशन की बात पर हमें तो अब आगे का सफ़र सड़क मार्ग से तय करना था। पर साढ़े चार बजे भोर में अनजान स्टेशन के बाहर निकलना हमने मुनासिब नहीं समझा। चालीस मिनट प्रतीक्षालय में बिताने के बाद हम बाहर बगल के बस स्टैंड की ओर निकले। देखा बस तो बहुत खड़ी हैं पर ना कोई यात्रियों की ही चहल पहल है और ना ही यात्रियों को अपनी ओर हाँकने वाले कंडक्टरों की। वैसे बस के आलावा वहाँ उस वक़्त ट्रैकर भी खड़े मिले पर बिना उनके चालकों के। इधर-उधर से पता चला कि आठ बजे से पहले ये ट्रेकर यहाँ से नहीं खिसकते अलबत्ता उसके पहले बस जरूर मिल सकती है।

सो दीघा जल्दी पहुँचने की गर्ज में घंटे भर इंतजार करने के बाद उधर जाने वाली पहली बस पर चढ़ लिए। कंडक्टर ने बताया तो उसे द्रुत गति की यानि फॉस्ट बस और सफ़र के पहले घंटे में तो उसकी चाल सही रही पर एक बार आबादी बहुल इलाके में पहुँचने की देर थी फिर तो वो पैसेन्जर से भी बदतर हो गई और हर दस पन्द्रह मिनट पर रुकती रही।
धान के हरे भरे खेत खलिहान छोटे छोटे गाँव, गाँव के घरों की दीवालों पर सीपीएम तो कहीं पंजे के बड़े निशान, (तब ममता दी की अलग पार्टी नहीं रही होगी) पोखरे में जगह जगह तैरती बतखें, कमल के फूलों की बहार और सड़क के किनारे नारियल के पेड़ों की कतार पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों का आम दृश्य है। जब तक बस की रफ्तार सही रहती है ये दृश्य मन को खूब भाते हैं। पर दिन चढ़ते ही खस्ता हाल सड़कों पर रुकती रेंगती बस में बाद में इन दृश्यों को देखने की इच्छा कमतर होती गई।


आजकल तो इस सफ़र का बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय राजपथ NH 60 राजपथ से होकर गुजरता है जो अब शायद फोर लेन हो गया है पर उस वक़्त सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी। खड़गपुर से दीघा करीब 115-120 किमी है । अगर राष्ट्रीय राजपथ NH 60 से होकर जाया जाए तो सबसे पहले आता है नारायनगढ़ (Narayangarh) फिर हर पच्चीस तीस किमी के बाद बेलदा (Belda), एगरा (Egra) और रामनगर (Ramnagar) कस्बे आते हैं। रामनगर से दीघा करीब 15 किमी दूरी पर है। क़ायदे से ये दूरी ढाई से तीन घंटे लगने चाहिए पर हमारी बस ने रुकते चलते साढे चार घंटे का समय ले लिया और हम करीब पौने ग्यारह बजे दीघा पहुँचे।


दिसंबर के महिने में दीघा बंगाल के स्थानीय पर्यटकों से भरा रहता है और हमने तो क्रिसमस के समय बिना किसी रिजर्वेशन के सपरिवार आने की हिमाकत की थी। ऊपर से यहाँ एक परिवार की जगह चार परिवार थे। तो एक साथ चार रूम मिलना बड़ा मुश्किल था। आठ दस होटलों की खाक़ छानने के बाद भी निराशा हाथ लगी। वैसे तो मैं कभी यात्रा में होटल बिचौलिए या दलाल की मदद से तय नहीं करता पर इस बार परिस्थिति ऍसी थी कि हमें वो भी करना पड़ा। दो सौ रुपये के रूम को चार सौ में बुक किया। रूम में घुसे तो पाया किसी में चादर नहीं तो किसी में तकिया नदारद और चार की जगह केवल तीन कमरे। ऊपर से जिसने बुक किया वो उस होटल का मालिक ना होकर वेटर निकला। मालिक ने आते ही रेट ५०० रुपये कर दिए। जम कर वाक युद्ध हुआ। इस बार चार परिवारों की फौज रहने का थोड़ा फ़ायदा हुआ। एक घंटे के अंदर मालिक ने चार रूम को सही हालत में देने की पेशकश की पर रेट में कोई कमी नहीं की। खैर हमारे पास भी ज्यादा विकल्प मौज़ूद नहीं थे और इस झगड़े में समय भी व्यर्थ हो रहा था तो नहाने के कपड़े ले कर हम सीधे समुद्र तट की ओर चल दिए..

दीघा में बिताए अगले दो दिन कैसे बीते इस का किस्सा बताएँगे इस सिलसिले की अगली कड़ी में..

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

चित्र पहेली 6 का जवाब : उनाकोटि, त्रिपुरा जहाँ है भगवान शिव का जंगलों के बीच बना ये खूबसूरत घर

मुसाफ़िर हूँ यारों की चित्र पहेलियों में अभी तक आपने भारत की पावन भूमि पर अवस्थित प्रकृति की विविध रचनाओं पर्वत, झील, समुद्र तट आदि के बारे में अनुमान लगाए पर आज का प्रश्न प्रकृति के इन अंगों के बारे में ना होकर इन्हें बनाने वाले 'भगवन' के बारे में है।

नीचे जो चित्र आप देख रहे हैं वो चित्र है हमारे एक अराध्य देव का। इसे चट्टानों को काट कर बनाया गया है। जंगलों के बीच इस स्थान तक पहुँचने के लिए सूर्य देव की कृपा होनी अतिआवश्यक है। यानि अगर आप सुबह दस बजे के पहले यहाँ पहुँचे तो घने अंधकार के बीच इन शिल्पों को देख पाना काफी कठिन है।

(इस चित्र के छायाकार हैं इजरायल के युवल नामन )

चित्र देख लिया आपने तो अब ये बताइए कि ये शिल्प हमारे किस अराध्य देव का है और जहाँ ये शिल्प अवस्थित है वो जगह कौन सी है?

सही उत्तर था : ये भगवान शिव हैं और इस जगह का नाम उनाकोटि (Unakoti) है। वैसे उनाकोटि का शाब्दिक अर्थ है एक करोड़ से एक कम। अब आएँ संकेतों की तरफ जो इस प्रश्न के उत्तर तक पहुँचने के लिए दिए गए थे...



संकेत 1 : कुछ इतिहासकार लगभग १० मीटर ऊँचे इस शिल्प को सातवीं से नवीं शताब्दी के आस पास का बताते हैं जबकि कुछ का मत है कि इस इलाके में पाए जाने वाले कुछ शिल्प बारहवीं शताब्दी के बाद बनें।

उनाकोटी (Unakoti) में दो तरह की मूर्तियाँ हैं। एक जो चट्टानों को काटकर उकेरी गई हैं और दूसरे पत्थर की मूर्तियाँ। यहाँ चट्टानों पर उकेरी गई छवियों में सबसे सुंदर शिव की ये छवि है जिसे उनाकोटि काल भैरव (Unakoti Kaal Bhairav) के नाम से जाना चाता है। करीब ३० फीट ऊँचे इस शिल्प के ऊपर १० फीट का एक मुकुट है जो चित्र में दिखाई नहीं दे रहा। उन दोनों की बगल में शेर पर सवार देवी दुर्गा और दूसरी और दूसरी तरफ संभवतः देवी गंगा की छवियाँ हैं। शिल्प के निचले सिरे पर नंदी बैल का जमीन में आधा धँसा हुआ शिल्प भी है। इसके आलावा यहाँ गणेश, हनुमान और भगवान सूर्य के भी खूबसूरत शिल्प हैं। इतिहासकार मानते हैं कि भिन्न भिन्न मूर्तियों से भरा पूरा ये इलाका करीब ९ से १२ वीं शताब्दी (9th-12th Century) के बीच पाल राजाओं के शासनकाल में बना। यहाँ के शिल्प में शैव कला के आलावा तंत्रिक, शक्ति और हठ योगियों की कला से भी प्रभावित माना गया है।

संकेत 2 : जिस पहाड़ी पर ये शिल्प बनाया गया है वो भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से बेहद करीब है। (चलिए आपकी मुश्किल थोड़ी कम कर देते हैं । आपको पूर्वी भारत का रुख करना होगा़। यानि नेपाल, भूटान, चीन, बर्मा और बाँगला देश में से किसी एक के करीब।)

उनाकोटी बाँगलादेश की सीमा से महज कुछ किमी दूरी पर है। उनाकोटी पहुँचने के लिए आपको कोलकाता से त्रिपुरा की राजधानी अगरत्तला (Agartala) जाना होगा। वहाँ से उत्तरी त्रिपुरा (North Tripura) का रुख करना होगा। अगरत्तला से कैलाश ह्वार (Kailsahwar) मात्र १८० किमी दूर है और बस या कार से यहाँ पहुँचा जा सकता है। उनाकोटी का अंतिम आठ किमी का रास्ता घने जंगलों के बीच से होकर जाता है।


संकेत 3: हमारी लोक कथाओं, मुहावरों में कुछ नाम बेहद मशहूर रहे हैं । लोक कथाओं में अक्सर इन नामों के साथ पेशा भी जोड़ दिया जाता था। जैसे कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली ! इसी तर्ज पर आज बिल्लू बॉर्बर बनाया गया तो वो आज की स्थिति के हिसाब से सही नहीं समझा गया। इन सब बातों का जिक्र मैं इस लिए कर रहा हूँ कि किवदंती के हिसाब से इस शिल्प को जिस कारीगर ने बनाया था वो नाम भी कुछ इसी तरह का है और हिंदी के ''अक्षर से शुरु होता है। :)

इन शिल्पों को किस कलाकार ने बनाया और क्यों बनाया ये अभी तक इतिहासकारों के लिए गूढ़ प्रश्न बना हुआ है। पर इस स्थान के बारे में अनेकों किवदंतियाँ हैं। यहाँ की जनजातियों में प्रचलित कथा को माने तो इन शिल्पों की रचना कल्लू कहार (Kallu Kahaar) ने की थी जो शिव और पार्वती का परम भक्त था और उनके साथ ही कैलाश पर्वत जाना चाहता था। देवी पार्वती कल्लू की भक्ति से प्रसन्न थीं और उसे साथ ले जाने के लिए उन्होंने शिव जी से अनुरोध किया। शिव जी ने कल्लू से पीछा छुड़ाने की गरज से शर्त रखी कि तुम्हें मेरे साथ चलने के लिए एक रात में एक करोड़ प्रतिमाएँ बनानी होंगी। कहते हैं कल्लू ने इस कार्य में पूरी जान लगा दी पर एक करोड़ से एक मूर्ति कम बना पाया और शिव भगवान उसे छोड़कर चलते बने। इसीलिए इस जगह का नाम उनाकोटि (एक करोड़ से एक कम) पड़ा।

संकेत 4 : चलिए आज एक बात और बताते हैं इस जगह के बारे में। अक्सर हम अपने बच्चों को सुबह उठने की सलाह देते है। अगर प्राचीन कथाओं की मानें तो ये जगह अपने अस्तित्व में ही नहीं आई होती अगर हमारे देवी देवता इस सलाह को मान उस दिन सुबह उठ गए होते :)

उनाकोटी के बनने के बारे में सबसे प्रचलित कथा और भी मज़ेदार है। शिव जी के साथ एक करोड़ देवी देवताओं का काफ़िला काशी की तरफ़ जा रहा था। यहाँ से गुजरते वक़्त रात हो आई तो भगवान शिव ने सारे अन्य देवी देवताओं को यहीं रात्रि विश्राम करने को कहा और साथ में एक सख्त हिदायत भी दी कि सुबह पौ फटने के पहले ही हम सब यह जगह छोड़ देंगे। सुबह जब भगवन तैयार हुए तो देखा कि सारे देवता गण सोए पड़े हैं। अब भगवन का मिज़ाज़ तो सर्वविदित है ..हो गए वो आगबबूला और सारे देवों को पत्थर का बना कर काशी की ओर बढ़ चले और फलस्वरूप यहाँ एक करोड़ से एक कम मूर्तियाँ रह गईं।



किसने दिया सही जवाब ?

मेरे ख्याल से इन संकेतों की सहायता से उत्तर तक शीघ्र ही पहुँच जाएँगे तो देर किस बात की जल्दी लिखिए अपना जवाब। सही जवाब, इस खूबसूरत जगह के बारे में कुछ और रोचक जानकारियों के साथ 6th अगस्त की शाम इसी पोस्ट में बताए जाएँगे।

मेरा ख्याल गलत निकला । मुझे लगा था कि ये विषय सुब्रमनियन जी की रुचि का है इसलिए वो तो जरूर बता पाएँगे। पर ये पहेली आप सभी के लिए कठिन साबित हुई। यहाँ तक की अब तक के सबसे ज्यादा सही उत्तर देने वाले अभिषेक ओझा ने भी हथियार डाल दिये। पर एकमात्र सही हल बताया समीर लाल जी ने हालाँकि उन्होंने जगह के साथ भगवन का नाम नहीं बताया। शायद पूरा प्रश्न उन्होंने नहीं देखा। तो समीर जी को हार्दिक बधाई और बाकी लोगों को अनुमान लगाने के लिए धन्यवाद।

तो चलते चलते उनाकोटि की सैर नहीं करना चाहेंगे आप? लीजिए आपकी ये ख्वाहिश भी पूरी किए देते हैं NDTV पर प्रसारित इस वीडिओ के ज़रिए। आशा है इस जगह को जानना आपके लिए आनंददायक रहा होगा।