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बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

सफ़र नुब्रा में सुमूर से पनामिक तक और वो भीषण बर्फबारी Sumur to Panamik in Nubra Valley

दिस्कित के ठंडे रेगिस्तान से वापस लेह तक की अपनी यात्रा मुझे हमेशा याद रहेगी। इस सफ़र के स्मृतियों में समाने की तीन वज़हें थीं। पहली, नुब्रा श्योक घाटी को चीरती उस सड़क से मुलाकात जो मेरे लद्दाख आगमन की प्रेरणा स्रोत रही थी और दूसरी सियाचीन बेस कैंप मार्ग पर कुछ दूर ही सही पर जाने का मौका मिलना और तीसरी खारदोंग ला और लेह के बीच की जबरदस्त बर्फबारी। आज के इस आलेख मैं मैंने अपने इन्हीं संस्मरणों को सँजोया है।


किताबें आपको किसी जगह जाने के लिए प्रेरित करती हैं। सालों पहले अजय जैन की पुस्तक Postcards from Ladakh की अपने ब्लॉग पर समीक्षा की थी। किताब का कथ्य तो कुछ खास नहीं लगा था पर बतौर फोटोग्राफर अजय की तस्वीरें शानदार थीं। उन्हीं में से एक तस्वीर थी नुब्रा घाटी की पतली सी सड़क पर चलते दो लामाओं की। ये तस्वीर मेरे मन में इस क़दर बस गई कि सालों बाद नुब्रा जाते वक़्त मैं उसी सड़क की तलाश करता रहा जो दूर दूर तक फैले सफेद मटमैले पत्थरों को चीरती हुई सी गुजरती है और जब ये सड़क मिली तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

दिस्कित जाते समय जब तक समझ आया कि जिस सड़क की खोज मैं कर रहा था वो यही है तब तक हमारी गाड़ी उस सड़क पर काफी आगे बढ़ चुकी थी। मैंने सोचा कि लौटते हुए जरूर कुछ पल वहाँ बिताऊँगा। दिस्कित से नीचे उतरते ही नुब्रा का एक पठारी मैदान सामने आ जाता है। इस मैदान के दोनों किनारों पर जो पहाड़ हैं वो सड़क के समानांतर चलते हैं। बाँयी तरफ कुछ दूर पर श्योक नदी भी पहाड़ के किनारे किनारे बहती है पर वो सड़क से दिखाई नहीं देती।

इससे सीधी सड़क क्या होगी ?
इस सड़क पर उतर कर लगता है कि दोनों तरफ फैले पहाड़ की गोद में लेटे इस मैदान में बस आप ही आप हैं। मन एक अजीब सी सिहरन और रोमांच से भर उठा। सोचने लगा कि वे लामा यहाँ से मठ तक के दस किमी की राह यूँ ही बारहा पैदल पार करते होंगे। कैसा लगता होगा इस निर्जन राह पर चलना? दरअसल ऐसा माहौल ही उन्हें अध्यात्म से जोड़े रखता होगा।

हरियाली और रास्ता
उन अनूठे पलों को क़ैद कर मैं पनामिक की ओर चल पड़ा। दिस्कित से लेह की ओर जाती सड़क में पन्द्रह किमी बाद बाँयी ओर एक रास्ता जाता है जिस पर मुड़ते ही एक छोटे से पुल को पार कर आप श्योक नदी के दूसरी ओर पहुँचते हैं। श्योक नदी के समानांतर बढ़ते हुए करीब 15 km बाद सुमूर ( Sumur ) गाँव के दर्शन होते हैं जो इस रास्ते की सबसे प्रचलित जगह है।

सुमूर की लोकप्रियता के कारण कई हैं। सुमूर एक प्यारा और छोटा सा हरा भरा गाँव हैं। हुंडर की तरह यहाँ रहने की भी व्यवस्था है। अगर सुमूर से थोड़ी दूर पथरीले मैदानी हिस्से में ट्रेक करें तो नुब्रा नदी से आपकी मुलाकात हो सकती है । सुमूर आने के चंद किमी पहले ही नुब्रा नदी श्योक नदी से मिलती है यानी असली नुब्रा नदी घाटी सुमूर के पास से शुरु होती है।

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

दिस्कित के बौद्ध मठ से हुंडर के ठंडे रेगिस्तान तक... A journey to Diskit and Hundar !

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अपनी लद्दाख यात्रा से जुड़ी पिछली कड़ी में मैंने आपको बताया था कि कैसे खारदोंग ला व श्योक और नुब्रा नदियों का संगम देखते हुए नुब्रा के मुख्यालय दिस्कित में प्रवेश किया। यूँ तो दिस्कित का नाम नुब्रा घाटी के साथ लिया जाता है पर वास्तविकता ये है कि ये गाँव नुब्रा नहीं बल्कि श्योक नदी के किनारे बसा है। पनामिक और सुमूर जैसे गाँव के बगल से बहती हुई नुब्रा नदी दिस्कित के पहले ही श्योक नदी में मिल जाती है।

आज के समय में दिस्कित का सबसे बड़ा पहचान चिन्ह यहाँ स्थित 32 मीटर ऊँची मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा है  जो 2010 में बनकर तैयार हुई थी। लेह से हुंडर जाती सड़क पर कई किलोमीटर पहले से ही आपको भगवान बुद्ध की इस ओजमयी प्रतिमा के दर्शन होने लगते हैं। टेढी मेढ़ी राह कभी तो उनकी छवि को आपसे छुपा लेती है तो कभी अचानक ही सामने ले आती है। लुकाछिपी के इस खेल को खेलते हुए आप जब अनायास ही इसके सामने आ पहुँचते हैं तो इसकी  भव्यता को देख मन ठगा सा रह जाता है ।
दिस्कित के मैत्रेयी बुद्ध
कई बार लोगों को भ्रम हो जाता है कि बुद्ध की ये प्रतिमा  बौद्ध मठ के परिसर में स्थित है। लोग इसे देख के ही आगे हुंडर या तुर्तुक के लिए कूच कर जाते हैं जबकि हक़ीकत ये है कि यहाँ का चौदहवीं शताब्दी में बना प्राचीन बौद्ध मठ इस प्रतिमा की बगल में सटी पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

लेह से खारदोंग ला होते हुए दिस्कित तक का सफ़र In Pictures : Route of Leh to Diskit via Khardung La

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लेह से पांगोंग त्सो की यात्रा की तुलना मे लेह से श्योक या नुब्रा घाटी का मार्ग ना केवल छोटा है बल्कि शरीर को भी कम ही परेशान करता है। लेह से हुंडर तक की दूरी सवा सौ किमी की है जबकि पांगोंग जाने में लगभग सवा दो सौ किमी का सफ़र तय करना पड़ता है। इस सफ़र में आप लद्दाख के खारदोंग ला से रूबरू होते हैं जिसका परिचय गलत ही सही पर विश्व के सबसे ऊँचे दर्रे के रूप में कराया जाता था। हालांकि अब ये स्पष्ट है कि इसकी ऊँचाई बोर्ड पर लिखे 18380 फीट ना हो कर मात्र 17582 फीट है जो कि चांग ला के समकक्ष है। स्थानीय भाषा में खारदोंग ला पुकारे जाने वाले इस दर्रे को कई जगह रोमन में खारदुंग ला भी लिखा दिखाई देता है। यहाँ तक कि दर्रे पर ही आप दोनों तरह के बोर्ड देख सकते हैं।


बहरहाल आज की इस पोस्ट में  मेरा इरादा आपको लेह से दिस्कित तक के इस खूबसूरत रास्ते की कुछ झलकियाँ दिखाने का है। चित्रों का सही आनंद लेने के लिए उस पर क्लिक कर उनको अपने बड़े रूप में देखें।
लेह के दो छोरों पर बाँयी ओर दिखता लेह पैलेस और दाहिनी तरफ शांति स्तूप
दरअसल अगर लेह शहर को संपूर्णता से देखना है तो इसकी उत्तर दिशा में खारदोंग ला या खारदुंग ला की सड़क की ओर बढ़ना चाहिए। लेह से खारदुंग ला जाने वाली सड़क तेजी से ऊँचाई की ओर उठती है। इसके हर घुमाव पर आप हरे भरे पेड़ों के बीच बसे लेह शहर को अलग अलग कोणों से देख सकते हैं। सबसे बेहतर कोण वो होता है जब आप एक ही फ्रेम में इसके दो पहचान चिन्हों शांति स्तूप और लेह पैलेस को एक साथ देख पाते हैं।
पर्वत की रंगत को बदलते बादल

बुधवार, 31 अक्टूबर 2018

पैंगांग झील ( पांगोंग त्सो) और वो मजेदार वाकया ! Beauty of Pangong Tso

इस श्रंखला की पिछली कड़ी में मैंने आपको  लेह के ड्रक वाइट लोटस स्कूल से होते हुए पैंगांग त्सो तक के रास्ते की सैर कराई थी। वैसे बोलचाल में पैंगांग के आलावा इस झील को पेंगांग और पांगोंग के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। तिब्बती भाषा में पांगोंग त्सो शब्द का मतलब ऊँचे चारागाह पर स्थित झील होता है। पैंगांग झील करीब 134 किमी लंबी है और इस लंबाई का लगभग पचास पचपन किमी हिस्सा भारत में पड़ता है। पर कोई भी सड़क फिलहाल झील के किनारे किनारे सीमा तक नहीं जाती। घुसपैठ रोकने के लिए सिर्फ सेना के जवान ही इलाक़े में गश्त लगाते हैं।
पैंगांग ( पांगोंग त्सो) में मस्ती का आलम
मैंने सबसे पहली अत्याधिक ऊँचाई पर स्थित झील उत्तरी सिक्कम में देखी थी। 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस एक चौथाई जमी हुई झील को देखना मेरे लिए बेहद रोमांचक क्षण था। ऍसा इसलिए भी था कि तब तक यानि 2006 में इतनी ऊँचाई पर मैं कभी गया नहीं था। दूसरी बात ये थी कि गुरुडोंगमर झील के बारे में पहले से मुझे कुछ खास पता नहीं था, इसीलिए बिल्कुल किसी अपेक्षा के जा पहुँचा था गुरुडोंगमर तक। पर पैगांग त्सो ! क्या उसके लिए यही बात कही जा सकती थी? यहाँ तो सब उल्टा था। हिंदी फिल्मों और नेट पर लोगों ने शायद ही कोई कोण छोड़ा हो इस खूबसूरत झील का। 

झील ने पूछा आसमान से बोलो सबसे नीला कौन ?

फिर भी लद्दाख जाते समय इस झील का आकर्षण मेरे लिए कम नहीं हुआ था। होता भी कैसे? झील के बदलते रंगों को अपनी आँखों से देखने की उत्कंठा जो थी। वैसे भी पैंगांग (पांगोंग) की विशालता इसे बाकी झीलों से अलग कर देती है। गुरुडोंगमर हो या चंद्रताल या फिर इतनी ऊँचाई पर स्थित कोई अन्य झील, पैंगांग के विस्तृत फैलाव के सामने सब की सब बौनी हैं। अब बताइए जहाँ पैंगांग का क्षेत्रफल सात सौ वर्गकिमी है वही गुरुडोंगमर और चंद्रताल दो वर्ग किमी से भी कम के क्षेत्रफल  में सिमटे हुए हैं।

कितना विस्तृत कितना नीला ...है प्रभु तेरी अनूठी लीला

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

ड्रक वाइट लोटस स्कूल से होते हुए पैंगांग त्सो तक का सफ़र Three Idiot's School and Pangong Lake Road

इस श्रंखला की पिछली कड़ियों में आपको श्रीनगर से लेह तक ले के आया था। फिर मानसून यात्राओं में कुछ बेहद रोमांचक अनुभव हुए तो सोचा उन्हें ताज़ा ताज़ा ही साझा कर लूँ और फिर लेह से आगे के सफ़र की दास्तान लिखी जाए। 

जैसा मैंने पहले भी बताया था अक्सर लेह पहुँचने के बाद High Altitude Sickness की समस्या के चलते लोग पहले दिन वहाँ जाकर आराम करते हैं। पर चूँकि हम सब श्रीनगर से आए थे इसलिए हमारा शरीर इस ऊँचाई का अभ्यस्त हो चुका था। इसके बावज़ूद मैंने लेह में अगले दिन स्थानीय आकर्षणों को देखने का कार्यक्रम बनाया था। पर मेरे यात्रा संयोजक से चूक ये हो गई कि फोन पर उसने पैंगांग झील के लिए जो दिन नियत किया वो वहाँ के टेंट वाले ने उल्टा सुन लिया। लिहाजा पैंगांग झील (पांगोंग त्सो )  जहाँ मैंने सबसे अंत में जाने का सोचा था वहाँ सबसे पहले जाना पड़ा। 

मी  इडियट  :)
हमारी यात्रा की शुरुआत ड्रक वाइट लोटस स्कूल जिसे लेह में ड्रक पद्मा कारपो स्कूल कह के भी बुलाया जाता है से हुई। 1998 में बना ये स्कूल उसी रास्ते पर है जिससे लेह से पैंगांग त्सो की ओर जाया जाता है। इतिहास गवाह है कि हिंदी या अंग्रेजी फिल्मों ने विश्व के मानचित्र में कई नयी जगहों को एकदम से लोकप्रिय बना दिया। एक समय था जब कश्मीर से शायद ही कोई बॉबी हाउस देखे बिना लौट कर आता था। कोयला की शूटिंग में माधुरी दीक्षित अरुणाचल प्रदेश गयीं तो फिर वहाँ की एक पूरी झील ही माधुरी झील के नाम से जानी जाने लगी। कहो ना प्यार है में ऋतिक रोशन और अमीशा पटेल ने थाइलैंड की माया बे को हर भारतीय की जुबाँ पर ला दिया।

ओमी वैद्य ने थ्री इडियट्स में चतुर रामलिंगम का किरदार ऐसा निभाया कि उनका फिल्म की आख़िर में इस स्कूल और पैंगांग त्सो में अभिनीत दृश्य दर्शको के मन मस्तिष्क में अजर अमर हो गया।

शनिवार, 11 अगस्त 2018

लेह लद्दाख यात्रा : मैग्नेटिक हिल का तिलिस्म और कथा पत्थर साहिब की Road trip from Alchi to Leh

अलची से लेह की दूरी करीब 66 किमी की है पर इस छोटी सी दूरी के बीच लिकिर मठ, सिन्धु ज़ांस्कर संगम, मैग्नेटिक हिल, और गुरुद्वारा पत्थर साहिब जैसे आकर्षण हैं। पर इन सब आकर्षणों पर भारी पड़ता है इस हिस्से के समतल पठारी हिस्सों के बीच से जाने वाला रास्ता। ये रास्ते देखने में भले भले खाली लगें पर गाड़ी से उतरते ही आपको समझ आ जाएगा कि इन इलाकों में यहाँ बहने वाली सनसनाती हवाएँ राज करती हैं। मजाल है कि इनके सामने आप बाहर बिना टोपी लगाए निकल सकें। अगर गलती से ऍसी जुर्रत कर भी ली तो कुछ ही क्षणों में आपके बाल इन्हें सलाम बजाते हुए कुतुब मीनार की तरह खड़े हो जाएँगे।


इतने बड़े निर्जन ठंडे मरुस्थल को जब आपकी गाड़ी हवा को चीरते हुए निकलती है तो ऐसा लगता है कायनात की सारी खूबसूरती आपके कदमों में बिछ गयी है। मन यूँ खुशी से भर उठता है मानो ज़िदगी के सारे ग़म उस पल में गायब हो गए हों। इसी सीधी जाती सड़क के बीचो बीच मैंने ऐसे ही उल्लासित तीन पीढ़ियों के एक भरे पूरे परिवार को इकठ्ठा सेल्फी लेते देखा।

इन रेशमी राहों में, इक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुँचती हो... 
सरपट भागती गाड़ी अचानक ही लिकिर मठ की ओर जाने वाले रास्ते को छोड़ती हुई आगे बढ़ गयी। अलची में समय बिता लेने के बाद लेह पहुँचने में ज्यादा देर ना हो इसलिए मैंने भी लिकिर में अब और समय बिताना उचित नहीं समझा। वैसे भी रास्ता इतना रमणीक हो चला था कि आँखें इनोवा की खिड़कियों पर टँग सी गयी थीं। सफ़र मैं ऍसे दृश्य मिलते हैं तो बस होठों पर नए नए तराने आते ही रहते हैं। पथरीले मैदान अब सड़क के दोनों ओर थे। बादल यूँ तो अपनी हल्की चादर हर ओर बिछाए थे पर कहीं कहीं चमकते बादलों द्वारा बनाए झरोखों से गहरा नीला आकाश दिखता तो तीन रंगों का ये  समावेश आँखों को सुकून से भर देता था।

कि संग तेरे बादलों सा, बादलों सा, बादलों सा उड़ता रहूँ
तेरे एक इशारे पे तेरी ओर मुड़ता रहूँ

सेना की छावनी के बीच से निकलता एक खूबसूरत मोड़

पीछे के रास्तों की तरह अलची से लेह के बीच के हिस्से में यहाँ नदी साथ साथ नहीं चलती। अलची के पास जो सिंधु नदी मिली थी वो वापस निम्मू के पास फिर से दिखाई देती है। यहीं इसकी मुलाकात जांस्कर नदी से होती है। जैसा कि मैंने आपको बताया था कि जांस्कर घाटी की ओर जाने के लिए एक रास्ता कारगिल से कटता है जो इसके मुख्यालय पदुम तक जाता है। वैसे एक सड़क निम्मू से भी जांस्कर नदी के समानांतर दिखती है पर वो अभी तक पदुम तक नहीं पहुँची है। संगम पर गर्मी के दिनों में आप यहाँ रिवर राफ्टिंग का आनंद उठा सकते हैं जबकी सर्दी के दिनों में जब जांस्कर जम जाती है तो जमी हुई नदी ही जांस्कर और लेह के बीच आवागमन का माध्यम बनती है। जमी हुई जांस्कर नदी पर सौ किमी से ऊपर की हफ्ते भार की ट्रेकिंग चादर ट्रेक के नाम से मशहूर है।

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

मूनलैंड लामायुरु का जादू और अलची का ऐतिहासिक बौद्ध मठ Moonland Lamayuru & Historic Alchi !

फोतुला से लामायुरु की दूरी महज पन्द्रह किमी है पर जिन घुमावों को पार कर आप फोतुला पर चढ़ते हैं उससे भी ज्यादा ढलान का सामना उतरते वक़्त करना पड़ता है। नीचे की ओर उतरते हुए एक बार में ही लामायुरु कस्बा, ऊँचाई पर स्थित मठ और उसके पीछे फैला हुआ मूनलैंड का इलाका जब एक साथ दिखा तो मन रोमाचित हुए बिना नहीं रह सका। थोड़ी ही देर में हम लामायुरु मठ के अंदर थे। रास्ते के घुमावों का असर मुझ पर तो नहीं पर मेरे सहयात्रियों यानि मेरे परिवार पर जरूर पड़ा गया था। उनके लिए थोड़ा आराम जरूरी था। उन्हें पवित्र चक्र के पास बैठा कर मैं ऊँचाई पर बने मठ की ओर चल पड़ा। 

ऊपर हवा तेज थी और वहाँ से चारों तरफ़ का नज़ारा भी बड़ा खूबसूरत था। ऐसी स्थानीय लोगों की मान्यता है कि यहाँ कभी एक झील हुआ करती थी जिसे महासिद्ध नरोपा ने सुखा दिया था। पानी हटने से बाहर निकली पहाड़ी पर नरोपा ने बौद्ध मठ की स्थापना की थी। 

लामायुरू बौद्ध मठ और पीछे देखता मूनलैंड 
लद्दाख में जितने मठों को मैंने देखा उसमें लामायुरु की अवस्थिति सबसे अनूठी है। इसके नीचे की तरफ लगभग सात सौ की आबादी वाला लामायुरु कस्बा है। उत्तर की दिशा में दो विशाल चोटियाँ इसे छत्र बनाकर खड़ी हैं और उन्ही की निचली ढलानों पर चाँद की सतह जैसी ऊँची नीची अजीबोगरीब बनावट वाली भूमि है जिससे आंगुतकों का परिचय मूनलैंड कह के कराया जाता है। मठ से सटी दूसरी पहाड़ी पर यहाँ रहने वाले डेढ़ सौ लामाओं के घर हैं। साथ ही तहलटी पर नंगी पहाड़ियों के बीच फैला है दुबला पतला हरा भरा नखलिस्तान। इतनी भौगौलिक विविधताओं से घिरे इस मठ में इस रास्ते से गुजरने वाला कोई पथिक जाने की इच्छा ना रखे ऐसा संभव नहीं है।

मंगलवार, 19 जून 2018

द्रास से रहगुज़र कारगिल की और मिलना हिंदी फिल्मों के एक संगीतकार से.. Road to Kargil !

श्रीनगर लेह राजमार्ग पर चलते हुए अब तक मैंने आपको सोनमर्गजोजिलाद्रास घाटी  और द्रास युद्ध स्मारक तक की सैर कराई। द्रास के युद्ध स्मारक और संग्रहालय को देखने के बाद हमारा अगला पड़ाव था कारगिल। पर इससे पहले कि मैं अपनी इस यात्रा के बारे में बताऊँ, लद्दाख जाने वालों के लिए बस यही कहना चाहूँगा कि ये एक ऐसा इलाका है जहाँ किसी भी पड़ाव से ज्यादा महत्त्वपूर्ण वहाँ तक पहुँचाने वाली रहगुज़र है। 
द्रास से चले अब हम कारगिल की ओर
अगर आपने लद्दाख के रास्तों को अपनी आँखों में क़ैद नहीं किया तो समझिए आपने लद्दाख को आत्मसात नहीं किया। बहुत से लोगों को ये रास्ते एकाकी और एकरूपता लिए नज़र आते हैं। इनके एकाकीपन पर मैं तो यही  कहूँगा कि इन इलाकों की शून्यता ही मन में गहन शांति का भाव लाती है। आपको अपने और करीब पहुँचाती है। मिट्टी के रंग के ये नंगे पहाड़ हर मोड़ पर अपना रूप बदलते हैं। इनके असाधारण रूपों से किसी का मन तो प्रफुल्लित होता है तो कोई इन रास्तों को बोरिंग कहकर एकदम से खारिज़ कर देता है। 


कलकल छलछल बहती द्रास
जहाँ तक मेरे व्यक्तिगत अनुभवों का सवाल है मुझे तो अपनी लगभग दस दिनों की कश्मीर लद्दाख यात्रा में मुझे तो इन रास्तों से प्यार  हो गया और इनकी खूबसूरती ही मेरी इस यात्रा का हासिल रहा। इसीलिए मैं आपको ये रास्ता चित्रों के माध्यम से लगातार दिखा रहा हूँ और आगे भी दिखाता रहूँगा और इसी कड़ी में आज देखिए द्रास से कारगिल तक की मेरी यात्रा की एक  झाँकी।

ऊपर नंगे पहाड़ और नीचे हरा भरा नदी का तट
द्रास से कारगिल की दूरी करीब 64 किमी है। द्रास घाटी के खुले चारागाहों से विपरीत कारगिल की ओर बढ़ती सड़क संकरी है और इसके दोनों ओर पहाड़ बेहद करीब लगभग साथ साथ चलते हैं। कारगिल और द्रास  से लगा ये इलाका  एक समय प्राचीन बलतिस्तान की एक तहसील  थी। जम्मू कश्मीर के डोगरा राजाओं ने उन्नीस वी शताब्दी के मध्य में बलतिस्तान और गिलगित के इलाकों पर अपना कब्जा जमाया था। उस समय इसका फैलाव उत्तर पश्चिम में स्कार्दू से लेकर नुब्रा घाटी के तुर्तुक तक था। 

कारगिल से 29 किमी पहले

मंगलवार, 5 जून 2018

द्रास युद्ध स्मारक : कैसे फतह की हमने टाइगर हिल की चोटी? Drass War Memorial

श्रीनगर लेह राजमार्ग से हम सोनमर्ग, जोजिला, द्रास घाटी होते हुए हमारा समूह अब द्रास कस्बे से कुछ ही किमी दूर था। द्रास घाटी से साथ चलने वाली द्रास नदी रास्ते में मिलने वाले ग्लेशियर की बदौलत फूल कर और चौड़ी हो गयी थी। जोजिला के बाद बर्फ की तहों के बीच आँख मिचौनी करती ये नदी अब पिघल कर पूरे प्रवाह के साथ बह रही थी।

द्रास युद्ध स्मारक का मुख्य द्वार

द्रास नदी का अस्तित्व कारगिल से करीब सात किमी पहले तब खत्म हो जाता है जब ये कारगिल की ओर से आने वाली सुरु नदी में मिल जाती है। हरे भरे चारागाहों से पटे इन  इलाकों में सर्दियों में जम कर बर्फबारी होती है जिसकी वजह से यहाँ जीवन यापन करना बेहद कठिन है। 




बारह सौ की आबादी वाले इस इलाके में सेना के जवानों के आलावा दार्द जनजाति के लोग निवास करते हैं जो किसी ज़माने में उत्तर पश्चिम दिशा से तिब्बत के रास्ते यहाँ आए थे। इनकी भाषा को दार्दी का नाम दिया जाता है जो लद्दाख की बोलियों से मिलती जुलती है। उन्नीसवीं शताब्दी में यहाँ आने वाले अंग्रेज इतिहासकारों ने द्रास के लोगों द्वारा कश्मीरी और लद्दाखी राजाओं को कर देने की बात का उल्लेख किया है। कश्मीरी राजाओं के प्रभाव का एक प्रमाण यहाँ मिट्टी के एक किले के रूप में भी झलकता है जिसके छोटे मोटे अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।

द्रास नदी की कलकल धारा

द्रास का ये दुर्भाग्य ही था कि इतनी खूबसूरत घाटी में बसे इस कस्बे को असली शोहरत कारगिल युद्ध की वजह से आज से लगभग बीस साल पहले 1999 में मिली। कारगिल युद्ध में दो प्रमुख चोटियों टाइगर हिल और तोलोलिंग, द्रास के इलाके में स्थित थीं इसलिए ये कस्बा युद्ध का प्रमुख केंद्र रहा। फरवरी 1999 का  महीना था जब पाकिस्तान ने द्रास, कारगिल और बतालिक इलाके में अपनी टुकड़ियाँ भेजनी शुरु कर दी थीं। अप्रैल में ये घुसपैठ अपने चरम पर थी पर भारतीय सेना इस सौ वर्ग किमी से भी ज्यादा के क्षेत्रफल में हो रही इतनी बड़ी घुसपैठ से अनभिज्ञ थी। मई के दूसरे हफ्ते में बतालिक सेक्टर के स्थानीय गड़ेरियों द्वारा दी गई ख़बर सेना के हाथ लगी। कैप्टन सौरभ कालिया के नेतृत्व में एक खोजी दस्ता बतालिक सेक्टर में स्थित चोटियों के साथ रवाना हुआ और ऊँचाई पर जमे दुश्मन की गोलियों का शिकार बना।


जब भारत को इस व्यापक घुसपैठ का अंदाजा हुआ तो आपरेशन विजय के नाम से एक अभियान शुरू हुआ जिसके  तहत  सेना की कई टुकड़ियों को  कारगिल और उसके आसपास के इलाकों के लिए रवाना किया गया। इस इलाके तक सेना को रसद और साजो सामान पहुँचाने के लिए सिर्फ श्रीनगर लेह राजमार्ग ही था। दिक्कत ये थी कि द्रास से सटी चोटियों पर दुश्मन पहले से ही घात लगाकर हमला करने के लिए तैयार बैठा था। उसकी मारक क्षमता के अंदर समूचा राजमार्ग था और इस रास्ते पर दुश्मन ने ताबड़तोड़ हमले कर जान माल को काफी क्षति भौ पहुँचाई। हालात ये थे कि सेना ने इस सड़क के किनारे अपने बचाव के लिए दीवाल का निर्माण किया जिसके कुछ हिस्से आज भी द्रास जाते वक़्त देखे जा सकते हैं।

दुश्मन के गोले बारूद की मार से बचने के लिए बनाई गयी दीवार

भारतीय सेना की प्रथम प्राथमिकता श्रीनगर लेह मार्ग से सटी चोटियों पर कब्जा जमाने की थी ताकि लेह तक सेना को रसद पहुँचाने वाले रास्ते पर गाड़ियों का आवगमन सही तरीके से हो। द्रास के पास सबसे ऊँची चोटी टाइगर हिल की थी जिसके ऊपर दुश्मन ने करीब दर्जन भर बंकर बना रखे थे। दिन में जवानों को इस खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों पर भेजना सीधे सीधे मौत को आमंत्रण देना था। रात के वक़्त अँधेरे में बिना आवाज़ किए बढ़ना ही एकमात्र विकल्प था। चोटियों के पास तापमान शून्य से दस से बारह डिग्री कम था पर भारतीय सेना के जवानों ने ये कठिन चुनौती भी स्वीकारी। यही वजह रही कि आरंभिक लड़ाई में सेना के सैकड़ों जवान ऊपर से हो रही अंधाधुंध  गोली बारी  का शिकार हुए। 

भारत चाहता तो LOC पार कर दुश्मन को पीछे से घेरकर उसकी रसद के रास्ते बंद कर उसे नीचे उतरने पर मजबूर कर सकता था। पर पाकिस्तान को हमलावर साबित करने के अंतरराष्ट्रीय दबाव को बढ़ाने के लिए ऐसा नहीं किया गया और इस वजह से एक एक चोटी फतेह करने के लिए यहाँ ऐसा खूनी संघर्ष हुआ जिसमें दोनों ओर के सैनिकों को भारी संख्या में अपने प्राणों  की आहुति देनी पड़ी।

16600 फीट ऊँची टाइगर हिल की चोटी
गाड़ीवाला हमें गाड़ी रोक कर टाइगिर हिल की ओर इशारा कर रहा था। हम द्रास के कस्बे में प्रवेश कर चुके थे। हरे भरे पेड़ों और खेतों से अटे कस्बे में ऐसे भीषण युद्ध के होने की बात सपने में भी सोची नहीं जा सकती थी। अगर यहाँ गोलों से दगी दीवारें और वार मेमोरियल नहीं बना होता तो शायद हम सब इसे एक रमणीक पर बेहद ठंडे कस्बे से ज्यादा अपनी यादों में कहाँ समा पाते? पर अब तो ये देश के विभिन्न भागों से युद्ध में भाग लेने आए सैनिकों की वीर गाथा की जीती जागती तस्वीर बन गया है। क्या बिहार, क्या जाट, क्या सिख, क्या गोरखा, क्या नागा, क्या अठारह ग्रेनेडियर कितनी सारी रेजिमेंट्स ने इस युद्ध में एक दूसरे का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।

 हरा भरा द्रास

टाइगर हिल के फतह की कहानी तो आज की तारीख में कई फिल्मों का हिस्सा बन गयी है। यहाँ आने वाले हर आंगुतक को सेना के जवान समूह में इकठ्ठा कर टाइगर हिल, तोलोलिंग हिल और उसके आस पास की दुर्गम चोटियों पर भारतीय सेना द्वारा अत्यंत विकट परिस्थितियों में अद्भुत पराक्रम की इस अमर दास्तान को सबसे बाँटते हैं। ये घटनाएँ ऐसी हैं जो आँखों में युद्ध की विभीषका से एक ओर तो नमी भर देती हैं तो दूसरी ओर हमारे वीर सपूतों की शौर्य गाथा को सुन मन नतमस्तक हो जाता है। टाइगर हिल की ही बात करूँ तो इसे कब्जे में लेने के लिए नागा, सिख और अठारह ग्रेनेडियर की टुकड़ियों ने हिस्सा लिया। बाँयी और दाहिनी ओर से नागा और सिख रेजीमेंट की टुकड़ियाँ आगे बढ़ीं जबकि पीछे से अठारह ग्रेनेडियर ने खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए हमले की योजना बनाई। 

हरे भरे खेतों के पीछे से झांकती टाइगर हिल की चोटी

रात के अँधेरे में योगेद्र सिंह यादव की अगुआई में घातक कंपनी के जवानों ने चढ़ाई आरंभ की। यादव ने ऊपर तक पहुँचने के लिए रस्सियों को बाँधने का काम अपने जिम्मे लिया। जब वे शिखर से साठ फीट नीचे थे तो दुश्मनों ने उन्हें देख लिया और मशीनगन से उनकी टुकड़ी पर हमला बोल दिया। प्लाटून कमांडर सहित दो जवान वहीं वीरगति को प्राप्त हुए पर कई गोलियाँ खाकर भी योगेंद्र ने ऊपर बढ़ना जारी रखा। उसी हालत में वो ऊपर पहुँचे और अपने सामने के बंकर पर ग्रेनेड से हमला कर उसे तबाह कर दिया। योगेंद्र का ये दुस्साहस पीछे से आने वाली टुकड़ियों के लिए टाइगर हिल तक रास्ता बनाने का ज़रिया बना।

इसी तरह 8 सिख रेजीमेंट के जवान जब शिखर के पास पहुँचने लगे तो सामने से हो रही गोलाबारी में आड़ लेने का कोई विकल्प उनके पास मौजूद नहीं था। मौत का संदेश लिए कोई गोली कभी भी उनके सीने के पार हो सकती थी। ऐसे में शत्रुओं के हताहत जवानों को ढाल की तरह  इस्तेमाल करते हुए शिखर पर पहुंचने में सफलता प्राप्त की और दुश्मनों से हाथों हाथ की लड़ाई में हरा कर टाइगर हिल के दूसरे हिस्से पर कब्जा जमाया।

युद्ध स्मारक में प्रदर्शित मिग 21 विमान
द्रास का युद्ध स्मारक तीन हिस्सों में बँटा है। मुख्य द्वार से विजय पथ के रास्ते अमर जवान ज्योति तक जाया जा सकता है। अमर जवान ज्योति पर कवि माखन लाल चतुर्वेदी की लिखी लोकप्रिय कविता "पुष्प की अभिलाषा अंकित हैं।

चाह नहीं, मैं सुरबाला के 
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

गुलाबी पत्थरों से बने इस स्मारक के ठीक पीछे एक दीवार बनी है जिसमें पीतल की चादर पर शहीदों के नाम लिखे हुए  हैं। इसके ठीक पीछे सौ फीट की ऊँचाई पर भारत का विशाल ध्वज  है जिसे आप स्मारक में प्रवेश करते हुए दूर से ही  देख पाते हैं। 

अमर जवान ज्योति 

कारगिल युद्ध की शौर्य गाथा बयाँ करता सैनिक

स्मारक के एक हिस्से में एक छोटा सा संग्रहालय  बनाया गया है जिसे गोरखा रेजीमेंट के जवान मनोज पांडे के नाम पर रखा गया है। इस संग्रहालय के अंदर युद्ध में प्रयोग और दुश्मनों से बरामद हथियारों के आलावा, अलग अलग चोटियों पर सेना के विभिन्न दस्तों के आगे बढ़ने के मार्गों को विभिन्न मॉडल से दर्शाया गया है। साथ ही उस वक्त की तस्वीरों और बधाई संदेशों को भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है। इसी से सटा यहाँ एक वीडियो कक्ष भी है। 
 वीर भूमि

स्मारक के तीसरे हिस्से का नाम वीर भूमि रखा गया है। यहाँ शहीद जवानों के नाम पर एक एक पट्टिका बनाई गयी है। इनके बीच से गुजरना मन को अनमना कर देता है। सेना की ओर से यहाँ एक भोजनालय भी चलाया जाता है।

टाइगर हिल की फतह का निरूपण

कारगिल युद्ध में पुरस्कृत होने वाले जवान। पहली पंक्ति में सबसे बाँए योगेद्र सिंह यादव  की तस्वीर है।


भले ही दो महीने के भीतर भारत ने  कारगिल युद्ध जीत लिया पर इस दौरान देश ने पाँच सौ से अधिक सैनिक खोए। द्रास से गुजरना हमेशा इन शहीदों की शहादत को याद दिलाता रहेगा। मैंने ये देखा कि यहाँ जब दूर दराज के लोग आते हैं तो उन्हें देख कर यहाँ पदस्थापित जवानों का मनोबल बढ़ता है। इसलिए जब भी आप श्रीनगर से कारगिल जाएँ यहाँ घंटे दो घंटे का वक़्त अवश्य बिताएँ।

लद्दाख की इस यात्रा का अगला पड़ाव होगा कारगिल जहाँ अचानक ही मुलाकात हुई एक संगीतकार से जो सारेगामापा में कई बार जज की भूमिका निभा चुके हैं। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram  पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें।

शुक्रवार, 18 मई 2018

लद्दाख का प्रवेश द्वार : द्रास घाटी Gateway to Ladakh : Dras Valley

जोजिला से आगे बढ़ने का मतलब है कश्मीर घाटी को विदा कहते हुए लद्दाख के पर्वतीय इलाके में प्रवेश कर जाना। जोजिला के बाद द्रास की घाटी शुरु हो जाती है। कहते हैं कि द्रास का इलाका भारत ही क्या साइबेरिया के बाद विश्व के सबसे ठंडे इलाकों में शुमार होता है। करीब ग्यारह हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित इस इलाके में जनवरी फरवरी के वक़्त पारा शून्य से चालीस डिग्री और कभी तो उससे भी अधिक नीचे चला जाता है। जून के महीने में जब हम वहाँ पिछले साल पहुँचे थे तो वहाँ के हरे भरे चारागाहों और खेतों को देख कर यकीन ही नहीं हुआ था कि ये इलाका कभी इतना सर्द हो जाता होगा।


द्रास नदी के साथ द्रास घाटी में सफ़र करना अपने आप में एक अद्भुत अनुभव था जिसे शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है। लद्दाख की ये प्रथम झलक कितनी खूबसूरत थी आप भी इसका अनुभव कीजिए इस फोटो फीचर में।
संकरी सड़क के दोनों ओर बर्फ का जमाव गर गर्मियों तक बना रहे तो समझिए कि पानी की मार से सड़क के हालात बदतर ही रहेंगे। 

कश्मीर घाटी से द्रास के कुछ दूर पहले तक खड़ी ढाल वाले नंगे पहाड़ नज़र आते हैं जिनकी चट्टानें सख्त दिखती हैं पर कारगिल तक पहुँचते पहुँचते इनकी कठोरता घटती चली जाती है। ऐसा लगता है कि ये भुरभुरी मिट्टी से बने हों।

ये है जून के मौसम में भी जमी हुई द्रास नदी। सिन्ध नदी की तरह ही द्रास नदी भी सोनमर्ग के पास मचोई ग्लेशियर से निकलती है। पर सिन्ध से पलट ये उत्तर पूर्व की ओर बहती हुई कारगिल तक पहुँच जाती है जबकि सिन्ध उलटी दिशा में बहती हुई कश्मीर घाटी का रुख करती है।

दूर से तो कुछ हिस्से में नदी का रास्ता एक बर्फीले मैदान सा दिखता है लेकिन बीच बीच में बर्फ के अंदर के सुराख इस बात की गवाही देते हैं कि इनके अंदर कलकल बहती धारा एक नदी की है जो सिर्फ गर्मियों में ही बर्फ के हिजाब के बीच से अपना खूबसूरत चेहरा दिखाती है।

पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया था कि कैसे गुर्जर बकरवाल अपनी भेड़ों को बर्फ के मैदानों से  पार करा कर गर्मियों में ऊँचाई पर स्थित हरे भरे चारागाहों तक लाते हैं।

जीरो प्वाइंट से द्रास तक पहुँचते हुए इन बंजारों की ये यात्रा मैंने खुद अपनी आँखों से देख ली।

द्रास की इन हरी भरी बैरन घाटियों में ऐसे समतल इलाके भी हैं जहाँ गर्मियों में थोड़ी बहुत खेती हो जाती है।
वैसे अगर आपकी चिंता इस बात की है कि इतने दुर्गम इलाके में खेती कौन करता होगा तो आप ठीक ही सोच रहे हैं। पूरे रास्ते में बेहद छोटे गाँव है जिनकी जनसंख्या दो अंकों से ज्यादा की नहीं है। वैसे जानते हैं पूरे द्रास कस्बे की आबादी कितनी है? मात्र बारह सौ।



जोजिला से द्रास के बीच एक चेक प्वाइंट आता है। दुख सिर्फ इस बात का लगा कि इतनी सुरम्य वादियों के बीच चेकपोस्ट तक में ढंग के शौचालय नहीं थे। जो थे भी वो इतने गंदे कि वहाँ तक जाने का मन ही ना करे।

द्रास घाटी का वो सिरा जो द्रास शहर के करीब ले आता है। इस इलाके के बाद से ही द्रास का वो मशहूर इलाका शुरु होता है जहाँ कारगिल युद्ध के समय सबसे कठिन लड़ाइयाँ लड़ी गयी थीं।


इस श्रंखला की अगली कड़ी में ले चलेंगे आप उस टाइगर हिल के पास जहाँ भारतीय सेना ने अत्यंत विकट परिस्थितियों में दुश्मन के दाँत खट्टे किए थे।

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रविवार, 6 मई 2018

जोजिला : लद्दाख का सबसे दुर्गम दर्रा जहाँ लड़ा गया था एक ऐतिहासिक युद्ध ! Zoji La, Jammu and Kashmir

सोनमर्ग से अक्सर लोग बालटाल जाते हैं। जून के आखिरी हफ्ते के आसपास यहीं से अमरनाथ यात्रा शुरु होती है। वैसे एक रास्ता पहलगाम होकर भी है। सोनमर्ग से जोजिला या जोजी ला जाते समय बालटाल के पास सिन्ध नदी घाटी का अद्भुत दृश्य दिखाई देना शुरु होता है। यहीं से सर्पीली सड़कों के माध्यम से जोजिला की चढ़ाई आरंभ होती है। सोनमर्ग से जोजिला पहुँचने तक 2800 मीटर से 3500 मीटर की चढ़ाई के दौरान जो नज़ारे दिखते हैं वो कश्मीर की अतुलनीय सुंदरता की गवाही देते हैं।

सिंध नदी घाटी : दाहिने बहती सिंध नदी और घास के मैदानों से जुड़ा बालटाल का  कस्बा

खड़ी ढाल वाले पहाड़ बर्फ की सफेद टोपी पहन शांत भाव से सिंध की बलखाती चाल का मुआयना करते नज़र आते हैं। ढलान के साथ हरे भरे पेड़ अब भी दिखते हैं पर उनकी सघनता कम होती जाती है।  बालटाल के पास गर्मियों में हरी दूब के चारागाहों के साथ ठुमकती सिंध को देखना एक ऐसा मंज़र है जिसे कोई सैलानी शायद ही भुला सके।

जून के शुरुआती हफ्ते में जब हम वहाँ गए थे तो वहाँ अमरनाथ यात्रियों के लिए टेंट का निर्माण शुरु हो गया था पर कस्बे में रौनक नहीं आई थी। जैसा मैंने आपको पहले बताया था कि सिंध नदी का उद्गम मचोई ग्लेशियर से होता है जो बालटाल से अमरनाथ जाने के रास्ते से दिखाई देता है।

चित्र बड़ा करने से आपको बालटाल में यात्रियों क लिए बन रहे तंबू दिखाई देंगे। दाहिनी ओर के इन्हीं घुमावदार रास्तों से यात्री जोजी ला में प्रवेश करते हैं।

पर पहाड़ों पर आपको लगता है कि हर जगह खूबसूरती ही मिलेगी तो आप मुगालते में हैं। मैं अपने समूह के साथ सिंध घाटी की खूबसूरती में खोया ही हुआ था कि अचानक ही रास्ता धूल धूसरित हो गया। घाटी नज़रों से ओझल हो गई। दुबले पतले रास्तों से उठती धूल और बीच बीच में मात्र एक दो फुट पर दिखती खाई मन को भयभीत करने के लिए पर्याप्त थी। जी हाँ हम जोजिला जिसे कहीं कहीं मैंने जोजी ला भी लिखा देखा में प्रवेश कर रहे थे। पहाड़ों में ला का मतलब ही दर्रा होता है। अक्सर लोग इसे जोजिला दर्रा कह देते हैं जो कि गलत है। या तो जोजी ला कहें या जोजी दर्रा।

इन दुर्गम रास्तों को कठोर सर्दी के बीच बना पाना भगवान की कृपा के बिना कैसे संभव है?

क्या आप यकीन कर सकते हैं कि इतने दुर्गम रास्तों से कभी यु्द्ध के लिए भारत के टैंक गुजरे होंगे। आजादी के बाद पाकिस्तानी सेना की मदद से घुसे कबाइलियों के साथ युद्ध का गवाह रहा है जोजी का ये दर्रा। इस बात का जिक्र भारतीय सेना के गौरवशाली इतिहास से जुड़ी कई पुस्तकों में है। बात 1947 1948 की है जब कबाइलियों ने गिलगिट बालतिस्तान के रास्ते पहले लेह और फिर इसी रास्ते से आगे बढ़ते हुए श्रीनगर पर कब्जा करने की योजना बनाई थी। लेह में सेना की एक छोटी टुकड़ी  पहले से ही मौज़ूद थी। दुश्मन की पहुँच मई 1948 में लेह  के बाहरी इलाके में खलात्से पुल तक हो गई थी। पर इसके पहले कि वे और आगे बढ़ते सेना की अतिरिक्त टुकड़ियाँ जून तक वहाँ पहुँच गयीं और कबाइलियों के हमलों को निरस्त कर दिया गया।


अब असली समस्या लेह की टुकड़ी तक रसद पहुँचाने की थी क्यूँकि जाड़े में नवंबर से मई तक बर्फबारी से ये रास्ता बंद हो जाता था। इसके लिए जरूरी था कि जोजिला से लेकर कारगिल तक के इलाके पर जल्द से जल्द कब्जा जमाया जाए। पर दिक्कत ये थी की कबाइली  घुसपैठिए जोजिला के दोनों ओर मशीनगन के साथ ऊँचाई पर स्थित गुफाओं में काबिज थे। लेह में भी सैनिक बल इतना नहीं था कि अपने बाहरी इलाके से दुश्मन को खदेड़ सके। इन परिस्थितियों में मेजर जनरल थिमैय्या के नेतृत्व में निर्णय लिया गया कि जोजिला पर किसी भी सूरत में टैंक ले कर आया जाए। जोजीला तक टैंक लाने के लिए रात का समय चुना गया। दुश्मनों को टैंक की गतिविधियाँ नज़र ना आएँ उसके लिए उनके बुर्ज खोलकर त्रिपाल लगाए गए।

 जोजी ला : बड़ी कठिन है डगर पनघट की

एक नवंबर 1948 को  ये टैंक जब जोजीला के पर्वतों के बीच से गुजरे तो उनकी गर्जना सुनकर ही दुश्मन हक्के बक्के रह गए। टैंक से उनके ठिकानों को नष्ट कर दिया गया। दुश्मनों को जोजिला से आनन फानन में पीछे की ओर भागना पड़ा। अगले कुछ हफ्तों में भारतीय सेना द्रास और नवंबर के अंत तक कारगिल में दाखिल हो गयी। जोजिला का ये युद्ध भारतीय सेना के विकट परिस्थितियों में अभूतपूर्व साहस की एक मिसाल है।

नुकीले पहाड़ों के बीच से होकर निकलती हमारी डगर

जोजिला या जोजी ला की एक और खासियत इसके आस पास अजीब प्रकृति के पहाड़ों का होना है। रास्ता बनाने के क्रम में यहाँ एक ऐसा हिस्सा मिलता है जहाँ चट्टानें ऐसी पतली और नुकीली दिखती हैं मानों मोटी लकड़ी को काटकर नोकदार फट्टे बनाए गए हों। यहाँ के पहाड़ कच्चे हैं। आए दिन भू स्खलन, बर्फ के गलने से आती पानी की धार और ट्राफिक की संयुक्त मार से यहाँ की सड़के धाराशायी ही रहती हैं। सड़क मार्ग से श्रीनगर से लेह जाना हो तो डर यही रहता है कि इस हिस्से में ना फँस जाएँ। एक दो घंटों के जाम की बात यहाँ आम है। गनीमत थी कि हमारे समूह के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ।


ऐसी परतदार चट्टान तो मैंने पहली बार जोजी ला में ही देखी

जोजीला पार करने के कुछ ही देर बाद इस इलाकें का मशहूर जीरो प्वाइंट आ जाता है। दरअसल जीरो प्वाइंट पहाड़ की तलहटी पर स्थित एक समतल इलाका है जहाँ गर्मियों के महीने में भी यथेष्ट बर्फ जमी रहती है। यही वजह है कि बर्फ का आनंद उठाने के लिए सोनमर्ग से लोग यहाँ जरूर आते हैं। दूर से देखने पर बर्फ के ये मैदान किसी वृत की परिधि जैसे घुमावदार नज़र आते हैं।

जीरो प्वाइंट के बर्फीले मैदान

सोनमर्ग से हमारे अगले पड़ाव द्रास तक खाने पीने के लिए कुछ मिलने वाला नहीं था। इसी कारण सड़क के किनारे पहाड़ों के लोकप्रिय आहार मैगी का जलपान लिया गया। आगे के सफ़र को देखते हुए समय ज्यादा नहीं था पर बिना बर्फ में उतरे रहा भी कैसे जाता। बर्फ पर उतर कर उस पर चहलकदमी करने की इच्छा तो हुई पर थोड़ी दूर चलकर ही समझ आ गया कि यहाँ घुटने तक के विशिष्ट जूतों की जरूरत है ऐसे जूते यहाँ किराए पर मिल जाते हैं 

ऍसी ही माहौल में प्रकृति को आगोश में लेने को दिल चाहता है।
इधर लोग गाड़ी पर चढ़कर बर्फ की ढलान पर ससरने का उपक्रम कर ही रहे थे कि अचानक कुछ गड़ेरिए भेड़ों के विशाल समूह के साथ मैदान के एक बड़े हिस्से पर काबिज हो गए। सांकेतिक रूप से भेड़चाल की प्रवृति तो हमारे समाज का अभिन्न अंग है पर एक दूसरे को देख पंक्तिबद्ध अनुशासन में चलती भेड़ों की वास्तविक परेड को देखने का अपना अलग ही सुख है।

घास के मैदानों की ओर जाता भेड़ों का समूह जो रास्ते भर हमें आगे पीछे मिलता रहा

आस पास के लोगों से बातें की तो पता चला कि ये बंजारे गुर्जर समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जिन्हें यहाँ बकरवाल कहा जाता है। बकरवाल भेड़, बकरी और घोड़ों के लालन पालन से अपनी जीविका चलाते हैं। जाड़े के दिनों में ये अपने पशुओं को लेकर जम्मू की कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों में ले जाते हैं। हाल ही में जम्मू के कठुआ में जो शर्मनाक घटना हुई उसमें पीड़ित परिवार बकरवाल समुदाय का ही था। जैसे ही कश्मीर घाटी में बर्फ पिघलनी शुरु होती है ये वहाँ के घास के मेदानों का रुख कर लेते हैं। इस समुदाय के भारतीय सेना से बड़े अच्छे संबंध रहे हैं और कई बार अगली पोस्ट तक रसद पहुँचाने में इनकी मदद ली जाती रही है। 

जम्मू से घाटी के ऊँचे मैदानों तक की ये यात्रा दो से तीन हफ्तों की होती है। जीरो प्वाइंट जैसे बर्फ के मैदानों से गुजरते हुए इन्हें इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि बिना भोजन के इनकी भेड़ें कितनी दूर तक चल सकती हैं। घास के मैदानों तक पहुँचने के पहले अगर उनकी शक्ति क्षीण हो गयी तो वो भूख से मर भी जाती हैं। दूरस्थ इलाकों में भोजन मिलता रहे इसके लिए वो मुर्गियों को हाथों में लेकर अपने गन्तव्य तक पहुँचते हैं ताकि वहाँ अंडों का सहारा रहे।


जोजिला के साथ ही अब हम कश्मीर घाटी को पार कर जम्मू कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में दाखिला ले चुके थे। ऊँचाई पर स्थित इस पर्वतीय मरुस्थल की पहली झलक आप देखेंगे इस श्रंखला की अगली कड़ी में..



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