जीवन में प्रकृति के जिस रूप को आप नहीं देख पाते उसे देखने की हसरत हमेशा रहती है। यही वज़ह है कि जो लोग दक्षिण भारत में रहते हैं उनके लिए हिमालय का प्रथम दर्शन दिव्य दर्शन से कम नहीं होता। वहीं उत्तर भारतीयों की यही दशा पहली बार समुद्र देखने पर होती है। पूर्वी भारत के जिस हिस्से में मैं रहता हूँ वहाँ से समुद्र ज्यादा दूर नहीं और गिरिराज हिमालय की चोटियाँ तो कश्मीर से अरुणाचल तक फैली ही हैं यानि जहाँ से चाहो वहाँ से देख लो। सो पहली बार बचपन में मैंने समुद्र पुरी में देखा और हिमालय के सबसे करीब से दर्शन नेपाल जाकर किए।
पर रेगिस्तान पिताजी हमें दिखा ना सके और मरूभूमि को पास से महसूस करने की ललक दिल में रह रह कर सर उठाती रही। इसीलिए जब राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बना तो राजस्थान के उत्तर पश्चिमी भाग में थार मरुस्थल ( Thar Desert ) के बीचो बीच बसा शहर जैसलमेर मेरी प्राथमिकता में पहले स्थान पर था। उदयपुर से अपनी राजस्थान यात्रा आरंभ करने के बाद हम चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, माउंट आबू व जोधपुर होते हुए जैसलमेर पहुँचे।
पर रेगिस्तान पिताजी हमें दिखा ना सके और मरूभूमि को पास से महसूस करने की ललक दिल में रह रह कर सर उठाती रही। इसीलिए जब राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बना तो राजस्थान के उत्तर पश्चिमी भाग में थार मरुस्थल ( Thar Desert ) के बीचो बीच बसा शहर जैसलमेर मेरी प्राथमिकता में पहले स्थान पर था। उदयपुर से अपनी राजस्थान यात्रा आरंभ करने के बाद हम चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, माउंट आबू व जोधपुर होते हुए जैसलमेर पहुँचे।
जैसलमेर जोधपुर से तकरीबन तीन सौ किमी दूर है पर अच्छी सड़क और कम यातायात होने की वज़ह से ये दूरी साढ़े चार घंटे में तय हो जाती है। सुबह साढ़े आठ बजे तक हम जोधपुर शहर से बाहर निकल चुके थे। सफ़र के दौरान ज्यादातर एक सीधी लकीर में चलती सड़क के दोनों ओर बबूल के पेड़ की दूर तक फैली पंक्तियाँ ही नज़र आती थीं। यदा कदा रास्ते में किसी गाँव की ओर जाती पगडंडी दिख जाती थी। थोड़ी ही दूरी तय करने के बाद हमें इस सूबे में जनसंख्या की विरलता समझ आ गयी। वैसे भी पानी को तरसती इस बलुई ज़मीन (जिस पर छोटी छोटी झाड़ियों और बबूल के पेड़ के आलावा कुछ और उगता नहीं दिखाई देता) पर आबादी हो भी तो कैसे ?
प्रश्न ये उठता है कि इतनी कठोर जलवायु होने के बावज़ूद प्राचीन काल में ये शहर धन धान्य से परिपूर्ण कैसे हुआ? इस सवाल के जवाब तक पहुँचने के लिए हमें जैसलमेर के इतिहास में झाँकना होगा। रावल जैसल ने 1156 ई. में जैसलमेर किले की नींव रखी। उस ज़माने में जैसलमेर भारत से मध्य एशिया को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग का अहम हिस्सा था। ऊँटों पर सामान से लदे लंबे लंबे कारवाँ जब इस शहर में ठहरते तो यहाँ के शासक उनसे कर की वसूली किया करते थे। जैसलमेर भाटी राजपूतों की सत्ता का मुख्य केंद्र हुआ करता था। भाटी शासकों ने व्यापार से धन तो कमाया ही साथ ही साथ वो जब तब राठौड़, खिलजी और तुगलक वंश के शासकों से उलझते भी रहे। मुंबई में बंदरगाह बनने के बाद से जैसलमेर से होने वाले व्यापार में भारी कमी आयी और उसके बाद ये शहर कभी अपने पुराने वैभव को पा ना सका।
जोधपुर से पोखरन की दूरी हमने ढाई घंटे में पूरी कर ली थी। पोखरन को थोड़ा पीछे छोड़ा ही था कि अचानक हमारी नज़र ज़मीन के एक बड़े टुकड़े में फैले इन पीले रंग के फलों पे पड़ी। दिखने में स्वस्थ इन फलों को यूँ फेंका देख मैंने गाड़ी रुकवाई और वहाँ मौजूद ग्रामीणों से इसका कारण पूछा। हमें बताया गया कि ये फल जंगली हैं और खाने पर नुकसान करते हैं। मन ही मन अफ़सोस हुआ कि इस बंजर ज़मीन में इतने शोख़ रंग का फल पैदा होता है पर उसे भी खा नहीं सकते।