बिनसर में भी हम वन विश्राम गृह में ही ठहरे थे। वहाँ खाने पीने की कोई व्यवस्था नहीं थी इसीलिए बिनसर पहुँचते ही हमने कुमाऊँ मंडल विकास निगम (KMVN) के गेस्ट हाउस में खाना खाया और चल पड़े अपने विश्राम गृह की दिशा में। इस रेस्ट हाउस (Forest Rest House) में ज्यादा कमरे नहीं हैं। पर पहले तो उन्हें कमरा कहना उचित नहीं होगा। समझ लीजिए कि अंग्रेजों के ज़माने में बने बँगलों को ही दो तीन हिस्सों में बाँट दिया गया हो। बड़े बड़े ऊँची छतों वाले कमरे, विशालकाय डाइनिंग कक्ष, ढेर सारे दरवाज़े जो चारों ओर से घिरे बारामदे में खुलते हों। बारामदों से कुछ मीटर के फासले पर ही पहाड़ की ढलान जिसमें जाती दुबली पतली पगडंडियों को चारों ओर फैला जंगल मानो अपने में आत्मसात कर लेता था।
घड़ी की सुइयाँ पौने तीन बजा रही थीं। हमें बताया गया था कि विश्राम गृह से सूर्यास्त का मंज़र देखते ही बनता है। पर उस मंज़र को देखने से पहले हमें हिमालय की चोटियों को बिनसर से देख लेने की जल्दी थी। वैसे KMVN विश्राम गृह भी हिमालय को निहारने के लिए अच्छा स्थल है पर वहाँ से दिन में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा था। किसी ने बताया कि पास ही में ज़ीरो प्वाइंट (Zero Point) है जिसका रास्ता जंगलों के बीच से जाता है। हमारे गेस्ट हाउस से उसकी दूरी करीब ढाई किमी की थी। करीब तीन बजे हम चहलकदमी करते हुए ज़ीरो प्वाइंट की ओर बढ़े।
इस स्थल तक पहुंचने के लिए जो रास्ता बना है वो जंगलों के ठीक बीच से जाता है। बिनसर में बने विश्राम गृह काफी ऊँचाई पर बने हैं। इसका अंदाज़ा इसी बात से हो जाता है कि जैसे ही आपकी गाड़ी बिनसर अभ्यारण्य के मुख्य द्वार से घुसती है, काफी दूर तक चीड़ के जंगल आपको साथ मिलते हैं। पर दो किमी के बाद जैसे ही चढ़ाई आरंभ होती है नज़ारा बदलने लगता है। पाँच छः किमी के बाद चीड़ की जगह ओक के पेड़ ले लेते हैं। 14 किमी चलने के बाद बिनसर के विश्रामगृह तक पहुँचते पहुँचते समुद्रतल से
ये ऊँचाई करीब 2400 मीटर की हो जाती है। यही वज़ह थी कि बिनसर की इन
ऊँचाइयों पर हमें भांति भांति के पेड़ दिखे जिन्हें पहचानना कम से कम मेरे
लिए मुश्किल था।