रविवार, 18 जून 2017

कैसा दिखता है पेरिस मोनपारनास टॉवर से ? : An evening in Paris from top of Tour Montparnasse

बेल्जियम से फ्रांस की सीमाओं में दाखित होते ही बारिश की झड़ी लग गयी। बारिश की रिमझिम में एफिल टॉवर की पहली झलक भी मिली। पर एफिल टॉवर पर चढ़ाई करने से पहले हम पेरिस के केन्द्रीय जिले की सबसे ऊँची इमारत मोनपारनास टॉवर पर पहुँचे। ये 59 मंजिला इमारत यहाँ की दूसरी सबसे ऊँची बहुमंजिली इमारत है।

यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी पेरिस
केंद्रीय जिले में ये इकलौती इमारत है जो दो सौ मीटर से भी ऊँची है। आज से लगभग पैंतालीस साल पहले जब ये इमारत बनी तो लंदन की तरह ही इस कदम की व्यापक आलोचना हुई। लोगों ने इसे पेरिस शहर के चरित्र को नष्ट करने वाला भवन माना। विरोध इतना बढ़ा कि एफिल टॉवर के आस पास के केंद्रीय इलाके में सात मंजिल से ज्यादा ऊँचे भवनों पर रोक लगा दी गयी। विगत कुछ वर्षों में पेरिस शहर पर जनसंख्या के दबाव की वज़ह से ये रोक कुछ हल्की की गयी है। पर मोनपारनास टॉवर बनाने वालों पर लोगों का नज़रिया फ्रेंच ह्यूमर में झलक जाता है जब यहाँ के लोग कहते हैं कि टॉवर के ऊपर से पेरिस सबसे खूबसूरत दिखाई देता है क्यूँकि वहाँ से आप इस बदसूरत टॉवर को नहीं देख सकते 😀।

सटे सटे भवन और खूबसूरत टेरेस गार्डन
अब हँसी हँसी में कही हुई इस बात में कितनी सच्चाई है वो आप मेरे साथ इमारत के छप्पनवें तल्ले तक चल कर ख़ुद देख सकते हैं आज के इस फोटो फीचर में। जब हमारा समूह इस टॉवर के पास पहुँचा तो शाम के साढ़े छः बज रहे थे। बारिश थम चुकी थी और धूप बादलों के बीच से आँख मिचौनी खेल रही थी। मन में संदेह था कि कहीं बादलों के बीच ऊपर का नज़ारा धुँधला ना जाए। इस उहापोह के बीच लिफ्ट पर चढ़े। क्या फर्राटा लिफ्ट थी वो। मात्र 38  सेकेंड में 60 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से 56 वें तल्ले तक पहुँच गई।


पेरिस की पहली झलक में आड़ी तिरछी गलियों और एक जैसे लगते भवनों के बीच जो भव्य इमारत दूर से ही मेरा ध्यान खींचने में सफल हुई वो थी लेज़नवालीद जिसका नामकरण संभवतः अंग्रेजी के Invalid शब्द से हुआ हो। दरअसल सुनहरे गुंबद की वज़ह से दूर से ही नज़र आने वाला ये भवन सेवानिवृत और विकलांग जवानों के रहने के लिए बनाया गया था।

Les Invalides लेज़नवालीद

तब इस परिसर में एक अस्पताल भी था। बाद में सैनिकों के पूजा पाठ के लिए यहाँ चर्च और उसके ऊपर का सुनहरा गुंबद बना। फ्रांस के प्रसिद्ध योद्धा नेपोलियन की समाधि इसी गुंबद वाले हॉल में है। आज इस इलाके में चार संग्रहालय हैं। अब तक पेरिस की प्राचीन इमारतों के डिजाइन में एक साम्यता आपने महसूस कर ली होगी। वो ये कि पीले रंग की इन इमारतों की घुमावदार छतें स्याह रंग से रँगी हैं।
पेरिस का विश्व प्रसिद्ध संग्रहालय लूवर
संग्रहालय के सामने संत जरमेन एक चर्च है जिसके आसपास का इलाका फ्रेंच फैशन डिजाइनर्स का गढ़ माना जाता है। लूवर के काफी पीछे एक पहाड़ी के ऊपर "Sacred Heart of Jesus" को समर्पित एक सुंदर सी बज़िलका है। चित्र लेते समय वहाँ बदली छाई थी सो वो स्पष्ट आ नहीं पायी।

एफिल टॉवर

बुधवार, 7 जून 2017

बिष्णुपुर की शान : संगीत, शिल्प और परिधान ! Art and Crafts of Bishnupur

बिष्णुपुर को सिर्फ मंदिरों का शहर ना समझ लीजिएगा। मंदिरों के आलावा बिष्णुपुर कला और संस्कृति के तीन अन्य पहलुओं के लिए भी चर्चित रहा है। पहले बात यहाँ की धरती पर पोषित पल्लवित हुए संगीत की। बिष्णुपुर की धरती पर कदम रख कर अगर आपने यहाँ के मशहूर बिष्णुपुर घराने के गायकों को नहीं सुना तो यहाँ के सांस्कृतिक जीवन की अनमोल विरासत से आप अछूते रह जाएँगे। बिष्णुपुर घराना पश्चिम बंगाल में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद गायन शैली का गढ़ रहा है। ये मेरा सौभाग्य था कि जिस दिन मैं बिष्णुपुर पहुँचा उस वक्त वहाँ के वार्षिक मेले में स्थानीय प्रशासन की ओर से इलाके के कुछ होनहार संगीतज्ञों को अपनी प्रस्तुति के लिए बुलाया गया था। दिन के भोजन के पश्चात यहाँ के संग्रहालय को देखते हुए मैं  इस मेले तक जा पहुँचा।

छोटे से भोले भाले गणेश जी
मेले में चहल पहल तो पाँच बजे के बाद ही शुरु हुई। मैदान की एक ओर एक स्टेज बना हुआ था जिसके सामने ज़मीन पर जनता जनार्दन के बैठने के लिए दरी बिछाई गयी थी। दिसंबर के आखिरी हफ्ते की हल्की ठंड के बीच पहले पकौड़ों के साथ चाय की तलब शांत की गयी और फिर पालथी मार मैं वहीं दरी पर आसीन हो गया। शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में वैसे भी भीड़ ज्यादा नहीं होती। यहाँ भी नहीं थी पर युवा कलाकारों को अपने साज़ के साथ शास्त्रीय संगीत के सुरों को साधने का प्रयास ये साबित कर गया कि यहाँ की प्राचीन परंपरा आज के प्रतिकूल माहौल में भी फल फूल रही है। 

पर संगीत की ये परंपरा यहाँ पनपी कैसे? मल्ल नरेशों ने टेराकोटा से जुड़ी शैली को विकसित करने के साथ साथ कला के दूसरे आयामों  को भी काफी प्रश्रय दिया। इनमें संगीत भी एक था। ऍसा कहा जाता है कि बिष्णुपुर घराने की नींव तेरहवीं शताब्दी में पड़ी पर इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हैं।  इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख जरूर किया है कि औरंगजेब के ज़माने में जब कलाकारों पर सम्राट की तिरछी निगाहें पड़ीं तो उन्होंने आस पास के सूबों में जाकर शरण ली। तानसेन के खानदान से जुड़े ध्रुपद गायक और वादक बहादुर खान भी ऐसे संगीतज्ञों में एक थे। उन्होंने तब बिष्णुपुर के राजा रघुनाथ सिंह द्वितीय के दरबार में शरण ली। उनकी ही शागिर्दी में बिष्णुपुर घराना अपने अस्तित्व में आया।
बाँकुरा के मशहूर घोड़े

संगीत का आनंद लेने के बाद यहाँ के हस्तशिल्प कलाकारों की टोह लेने का मन हो आया। बिष्णुपुर के मंदिरों के बाद अगर किसी बात के लिए ये शहर जाना जाता है तो वो है बांकुरा का घोड़ा। ये घोड़ा बांकुरा जिले का ही नहीं पर समूचे पश्चिम बंगाल के प्रतीक के रूप में विख्यात है। बंगाल या झारखंड में शायद ही किसी बंगाली का घर हो जिसे आप घोड़ों के इन जोड़ों से अलग पाएँगे। हालांकि विगत कुछ दशकों में ये पहचान अपनी चमक खोती जा रही है। एक समय टेराकोटा से बने इन घोड़ों का पूजा में भी प्रयोग होता था पर अब ये ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाने का सामान भर रह गए हैं।

नारंगी और भूरे रंग में रँगे ये घोड़े यहाँ कुछ इंचों से होते हुए तीन चार फुट तक की ऊँचाई में मिलते हैं। अपने मुलायम भावों और सुराहीदार गर्दन लिए ये बाजार में हर जगह आपको टकटकी लगाए हुए दिख जाएँगे। इनकी बटननुमा आँखों को देखते देखते इनके सम्मोहन से बचे रहना आसान नहीं होता।
थोड़ी सी मिट्टी गढ़ती कितने सजीले रूप !
टेराकोटा यानी पक्की हुई मिट्टी से खिलौने बनाने की ये कला बिष्णुपुर  और बांकुरा के आस पास के गाँवों में फैली पड़ी है। अगर समय रहे तो आप इन खिलौंनों को पास के गाँवों में जाकर स्वयम् देख सकते हैं। घोड़ों के आलावा टेराकोटा से गढ़े गणेश, पढ़ाई करती स्त्री, ढाक बजाते प्रौढ़, घर का काम करती महिलाएँ आपको इन हस्तशिल्प की दुकानों से जगह जगह झाँकती मिल जाएँगी। मेले में ग्रामीण इलाकों से आए इन शिल्पियों से इन कलाकृतियों को खरीद कर बड़ा संतोष हुआ। इनकी कीमत भी आकार के हिसाब पचास से डेढ़ सौ के बीच ही दिखी जो की बेहद वाज़िब लगी। 

टेराकोटा की इन कलाकृतियों में एक बात गौर करने लायक थी। वो ये कि यहाँ के शिल्पी मानव शरीर को आकृति देते समय हाथ व पैर पतले तो बनाते  हैं पर साथ ही इनकी लंबाई भी कुछ ज्यादा रखते हैं ।
टेराकोटा के बने शंख

यूँ तो शंख का उद्घोष तो हिंदू धर्म में आम है पर बंगाली संस्कृति का ये एक अभिन्न अंग है। धार्मिक अनुष्ठान हो या सामाजिक क्रियाकलाप बंगालियों में कोई शुभ अवसर बिना शंख बजाए पूरा नहीं होता। शादी के फेरों से लेकर माँ दुर्गा की अराधना में इसकी स्वरलहरी गूँजती रहती है। पर टेराकोटा के बने शंख पहली बार मुझे बिष्णुपुर में ही दिखाई पड़े।

इनकी चमक के क्या कहने !
टेराकोटा से तो बिष्णुपुर की पहचान है पर अन्य यहाँ जूट, बाँस व मोतियों से बने हस्तशिल्प भी खूब दिखे।

जूट के रेशे से बनी गुड़िया