रविवार, 29 मार्च 2009

यादें अंडमान की : बारिश में भीगी-भीगी सी वो हैवलॉक की समुद्री यात्रा

इस श्रृंखला की पिछली प्रविष्टियों में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अगले दिन रॉस द्वीप की सुंदरता देख और फिर नार्थ बे के पारदर्शक जल में गोते लगाकर मन प्रसन्न हो गया अब आगे पढ़ें....


तीन दिनों से अच्छी खासी धूप खिलाने के बाद सूरज देवता को विराम लेने की सूझी । और रात से ही मूसलाधार वर्षा शुरु हो गई । सुबह फोनिक्स जेटी (Phoenix Jetty) के आस-पास का समुद्र शांत लग रहा था। बारिश भी थम गई सी लगती थी । सुबह ९ बजे जैसे ही गेस्ट हाउस के बाहर निकले बारिश फिर प्रारंभ हो गई । खैर, जाना तो था ही क्योंकि पहले तीन दिनों में हमने इतनी कम जगहें निबटाईं थीं कि चौथे दिन के लिए हमारे पास अपने कार्यक्रम को आगे-पीछे करने की गुंजाइश ही नहीं बची थी।

सो तेज बारिश के बीच भागते दौड़ते हम अपने पहले गन्तव्य चाथम (Chatham) के लकड़ी के कारखाने तक पहुँचे । चाथम, पोर्ट ब्लेयर के उत्तरी सिरे में अवस्थित एक छोटा सा द्वीप है । पोर्ट ब्लेयर से चाथम तक पहुँचने ले लिए समुद्र के ऊपर एक सेतु से होकर पहुँचते हैं। ये सेतु अंग्रेजों ने यहाँ की सॉ मिल के निर्माण के समय बनवाया था । ये सॉ मिल दक्षिण पूर्व एशिया की सबसे बड़ी मिल मानी जाती है। अब मिल की ऐतिहासिक प्रसिद्धि जो भी रही हो, बारिश में भींगते हुए उसे देखना हमें नागवार गुजरा। मिल में जहाँ -तहाँ लकड़ी के ढ़ेर दिखे । यहाँ तक कि इतनी बड़ी मिल में चलती हुई मशीनें इनी-गिनी ही दिखाई पड़ीं। सो वहाँ से जल्दी हम सब जल्दी कट लिए और Mini Zoo होते हुए नृविज्ञानी (एन्थ्रापोलोजिकल ) संग्रहालय पहुंचे।

संग्रहालय दर्शनीय लगा । अंडमान की सारी आदिम जन जातियों की वेश भूषा और उनके रहन सहन के बारे में अच्छी जानकारी मिली । जारवा (Jarva), सेंटीनल (Sentinal) और ओंगी (Ongy) तो काफी हद तक एक जैसे दिखे। जान कर आश्चर्य हुआ कि इन सबकी आबादी कुल मिलाकर 1000 से भी कम है । निकोबारी (Nicobari) ही एकमात्र ऐसी जनजाति है जो आम लोगों से बिल कुल घुल -मिल गये हैं और उनकी संख्या भी सबसे ज्यादा है। उनके नाक- नक्श बहुत कुछ मंगोलाएड (Mangoloid) रेस से मिलते-जुलते हैं । अपनी यात्रा के आखिरी चरण में इन आदिम जन जातियों में से एक से रूबरू होने का सौभाग्य मिला। पर उस प्रकरण के लिए आपको थोड़ा इंतजार करना होगा। वैसे अगर आपकी नृविज्ञान में रुचि नहीं तो 'समुद्रिका' चले चलें । समुद्र में रहने वाले जीवों और दुर्लभ कोरलों का अभूतपूर्व संग्रह है वहाँ पर !
भोजन का वक्त आ चुका था और इंद्र देव भी कुछ देर के लिए शांत हो गए थे । हमें भोजन उपरांत अंडमान के सबसे खूबसूरत द्वीप हैवलॉक की ओर कूच करना था । तड़तड़ाती बारिश के बीच 12.30 पर हम अपने जहाज के करीब पहुंचे । MVS Jollybuoy हमारी प्रतीक्षा में तैयार खड़ा था। एसी केबिन में जहाँ हमारी सीटें थी, वहाँ पहुँचने के लिए पहले जहाज के डेक पर जाना पड़ता था और फिर नीचे । अंदर जाते वक्त ख्याल यही था कि खिड़की के नजदीक से बाहर का नजारा देखने को मिलेगा या नहीं । पर अंदर जाने पर पता चला कि वो खिड़की एक छोटी तश्तरी से ज्यादा बड़ी नहीं है और उसका तल समुद्री जल के स्तर से थोड़ा सा ही ऊपर है । यानि उसमें ज्यादा ताक-झांक करने का स्कोप नहीं। सो धीमी बारिश में ही हम केबिन छोड़ ऊपर जहाज की डेक पर जा पहुँचे ।

जीवन में कुछ क्षण ऍसे आते हैं जिन्हें अपने स्मृति पटल से कभी मिटाया नहीं जा सकता । जहाज के ऊपर के डेक पर कदम रखते ही जो मंजर आँखों के सामने दिखा उसका शुमार मैं ऐसे ही कुछ पलों में करता हूँ।

चारों ओर पानी की विशाल नीली चादर....
दूर दूर तक ना कोई पेड़ पौधे ना किसी पंक्षी की झलक...
बारिश और हवा के साथ उठती गिरती लहरें, मानों अट्टाहस कर रही हों, चुनौती दे रही हों कि क्या मुझको भेद पाओगे ?
पर हमारा MVS Jollybuoy कब पीछे हटने वाला था...
वो तो उन लहरों को चीरता हुआ समुद्र के बीचों-
बीच एक सफेद लकीर खींचता चला जा रहा था।
एक अजीब सी निस्तब्धता थी उस माहौल में...
एक पल को दिल सहम सा गया था पर कुछ ही पलों में प्रकृति का ये अनजाना रूप मन में समा गया था।
ऊपर के इस दृश्य को देखने के बाद नीचे जाने का सवाल ही नहीं था क्यूँकि हम सब ये जानते थे कि ऐसी सुखद अनुभूति कि पुनरावृति शायद फिर ना हो । आकाश में अभी भी बादलों का डेरा था जिसकी हलकी फुहारें रुक-रुक कर हमें भिंगोने पर तुली हुईं थीं। पर हवा का वेग जैसे जैसे बढ़ता गया, बादलों की सेना पीछे की ओर हटने लगी और यात्रा शुरु होने के डेढ़ घंटे बाद बारिश थम ही गई । हमें अपनी बायीं तरफ हरे भरे जंगलों से भरा हैवलॉक द्वीप दिखाई दे रहाथा । कुछ ही देर में दाहिनी ओर भी जमीन पर नारियल के झुंड दिखने लगे। लोगों से पता चला कि ये नील द्वीप (Neel Island) है और हमारा जहाज यहाँ होते हुए हैवलॉक की ओर मुड़ेगा ।

सारे समूह की मायूसी बढ़ती जा रही थी । सबने सोचा था कि अगर साढ़े चार तक भी हैवलॉक पहुँचेगे तो कुछ देर तट पर समुद्र से अठखेलियाँ करने का अवसर मिलेगा। पर जहाज नील से होकर जाएगा ये जानने पर सबके समक्ष ये साफ हो गया कि शाम के पहले हम हैवलॉक नहीं पहुँच पाएँगे । नील आते ही शिप के डेक पर भीड़ बढ़ गई। चढ़ने -उतरने वाले ज्यादातर स्थानीय थे तो जो शायद पोर्ट ब्लेयर से रोज आते -जाते थे। नील द्वीप पर हमारे जहाज को मुड़ते हुए वापस हैवलॉक की ओर जाना था।

हैवलॉक (Havelock), अंडमान के बड़े द्वीपों में एक है। हमारा जहाज मुड़ने के बाद अब इस द्वीप के दूसरे सिरे पर आ गया था। हैवलॉक पहुँचते- पहुँचते शाम के सवा पाँच बज चुके थे।नवंबर मैं वैसे भी दिन छोटा होता है सो अँधेरा लगभग हो चला था। हैवलॉक हमारी इस यात्रा का मुख्य आकर्षण था। इसकी सुंदरता के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। लिहाजा सबके मन में यही उधेड़बुन थी कि वो हमारी आशाओं के अनुरूप निकलेगा या नहीं । क्या हैवलॉक वैसा ही था जिसकी कल्पना हमने की थी ?

सोमवार, 23 मार्च 2009

यादें अंडमान की : यात्रा नार्थ-बे और चिड़िया टापू की !

इस श्रृंखला की पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अगले दिन रॉस द्वीप की सुंदरता देख मन मोहित हो गया अब आगे पढ़ें....

तीसरे दिन के लिए हमारा कार्यक्रम संक्षिप्त सा था यानि दोपहर तक का समय नार्थ-बे (North Bay) में और शाम का चिड़िया टापू (Chidiya Tapoo)में । नार्थ बे के लिए जाने का रास्ता रॉस होकर ही है। खिली धूप के बीच हमारी मोटरबोट पहले रॉस के बगल से निकलती हुई पहले सीधे और फिर हल्का हल्का दाहिना घुमाव लेते हुए आगे बढ़ने लगी । 15-20 मिनटों की यात्रा के बाद नार्थ-बे का पहचान चिन्ह दिखने लगा । दरअसल इस बे की पहचान यहाँ की लाल सफेद धारियों वाला लाइट हाउस है जो काफी दूर से ही द्वीप के बीचों बीच अपना सीना ताने खड़ा दिखता है ।


पर नार्थ-बे में सैलानियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ के समुद्र के अंदर की खूबसोरत कोरल रीफ (Coral Reef) है । मोटरबोट से हमें किनारे से कुछ दूर एक छोटी सी नौका में उतार दिया गया । इस नौका की खासियत ये होती है कि इसका निचला सिरा पारदर्शक शीशे का बना होता है जिसकी मदद से आप नौका के नीचे के समुद्र का सहज अवलोकन कर सकते हैं। नौका के दो तीन चक्करों में हमें कोरल की भांति-भांति की आकृतियों को देखने का मौका मिला ।



नार्थ-बे दो तरफ से जमीं से घिरा हुआ है । नतीजा ये कि यहाँ का समुद्र बेहद शांत है और इसकी यही शांति नहाने का आनंद बढ़ा देती है। पर नहाने के पहले हमारे समूह ने इस टापू के जंगलों में कुछ देर विचरने का निश्चय किया । जगह जगह नारियल के सूखे छिलकों का अंबार दिखाई पड़ा । प्राकृतिक सुंदरता के लिहाज से इस छोटे से द्वीप का अंदरुनी इलाका रॉस के सामने कहीं नहीं ठहरता । और इसी कारण आधे घंटे में ही हम सब वापस समुद्र की और लौट आए । एक बार यहाँ के हल्के नीले रंग के जल में गोता लगा लेने के बाद तो पानी से बाहर निकलने का मन ही नहीं करता । हमारे समूह के कुशल तैराक तो काफी दूर तक चले गए , बाकी हमारे जैसे नौसिखिए किनारे ही फ्लोटिंग का लुत्फ उठाते रहे ।

कोरल को और करीब से देखने के लिए यहाँ गोताखोरी की भी व्यवस्था है । अब तो और आधुनिक उपकरण आ गए हैं पर उस समय नीचे का दृश्य देखने के लिए चश्मे के साथ एक रबर मॉस्क पहना देते थे और उससे जुड़ी एक नली पानी की सतह से ऊपर रहती थी। मुँह के जरिए नली के रास्ते हवा खींचनी और छोड़नी होती थी और साथ-साथ समुद्र के अंदर का दृश्य पर ध्यान केंद्रित किए रहना पड़ता था। गर आपको तैरना नहीं आता तो साथ में एक गोताखोर भी रहता है। कोरल देखते- देखते बीच- बीच में स्टार फिश और सी -हार्स जैसे छोटे जीव भी आपको कौतुक से ताकते दिख जाएँगे। दो बजे तक भोजन कर लेने के बाद हम वापस पोर्ट ब्लेयर की ओर चल पड़े।

साढ़े तीन बजे हम सब चिड़िया टापू के रास्ते पर थे। चिड़िया टापू पोर्ट ब्लेयर के दक्षिणी सिरे पर स्थित है । मुख्य शहर से ये करीब 30 कि.मी. दूर है। पूरी यात्रा हमें अंडमान की वानस्पतिक विविधता से परिचित कराती है। पहले 10 कि.मी. निकल जाने के बाद रास्ते के दोनों ओर विभिन्न प्रजातियों के हरे-भरे पेड़-पौधे और वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। इनमें सबसे ज्यादा ध्यान खींचता है खुजूर के पेड़ों का झुंड ।
अंतिम 15 कि.मी. का रास्ता अपेक्षाकृत संकरा और घुमावदार है । जंगल घने होते जाते हैं और मन करता है कि गाड़ी से उतरकर पैदल ही इनके घने साये में चल पड़ें । फॉरेस्ट चेक प्वाइंट के ठीक पहले चाय की दुकान पर हमारी गाड़ी रुकती है । चाय का स्वाद सबको इतना पसंद आता है कि सब दो दो कप पीने के बाद भी और पीने की इच्छा को मन में दबाए आगे बढ़ते हैं।

चिड़िया टापू पास आ रहा है पर ये पेड़ों के नीचे ये कैसी जटाएँ दिख रहीं हैं?

अरे ! यही तो मैनग्रोव जाति के वृक्ष हैं जो दलदली भूमि में अपनी पकड़ बनाने के लिए अपनी भुजाओं को फैलाने के लिए तत्पर हैं। मैनग्रोव की ये पहली झलक आखिरी नहीं है। पूरे अंडमान में इन वृक्षों की भारी तादाद है जो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए चिंतित रहने वालों के लिए खुशी की बात है।

दस मिनटों में ही चिड़िया टापू हमारे सामने है। एक ओर पानी की एक पतली परत दूर-दूर तक फैली है । तो दूसरी ओर मैनग्रोव के जंगल और आसमान छूते वृक्ष अर्धवृताकार फैलाव लिए हैं। दोनों के मध्य बीच बचाव करती रेत की परिधि हैं। छिछले समुद्र की बायीं ओर की पहाड़ी सूर्य को अपने आगोश में लेने को तत्पर है। वहाँ के लोग बताते हैं कि अक्सर नवम्बर के महिने में सूर्य इन पहाड़ियों की ओट में ही अपना डेरा जमाता है। बाकी महिने सूर्य, डूबने का अपना ठिकाना बदलते रहता है । और जब सूर्यास्त पहाड़ी से हटकर समुद्र की तरफ होता है तो बगल के चित्र की तरह का अतिमनोरम दृश्य दिखता है ।

अपनी पादुकाओं को परे छोड़ हम धीरे धीरे पानी में पैर भिंगोने चल पड़े । पानी के किनारे-किनारे मिट्टीनुमा चट्टानें यत्र-तत्र फैली हुईं थीं। हमारे समूह में कुछ सदस्य तरह-तरह के शंख और सीप इकठ्ठा करते चल रहे थे। सूरज की कम होती रोशनी मैनग्रोव वृक्षों को एक अलग तरह की ही छटा प्रदान कर रहीं थीं । ढलती शाम के साथ ही हमने चिड़िया टापू से विदा ली ।

इन पहले तीन दिनों में धूप ने हमारा साथ नहीं छोड़ा था ।हर दिन सुबह सुबह ये धूप हमें नहाने धोने के बाद बड़ी भली लगती पर दिन तक इसकी प्रचंडता हमारे उत्साह को फीका करने के लिए पर्याप्त होती थी । अगली दुपहरी हमें MVS Jollybuoy पर बितानी थी जो हमें ले जाने वाला था अंडमान के सबसे खूबसूरत द्वीप पर ! क्या नाम था इस द्वीप का ? क्या MVS Jollybuoy का AC कक्ष गर्मी से हमें मुक्ति दिला सका, ये जानते हैं इस वृत्तांत के अगले हिस्से में ।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

यादें अंडमान की : रॉस द्वीप जो एक समय था अंडमान की राजधानी

इस श्रृंखला की पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम किस तरह वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अब आगे पढ़ें....


टूर आपरेटर के कार्यक्रम में पहले दिन के लिये तीन गन्तव्य स्थल मुकर्रर थे । रॉस द्वीप, कोर्बिन कोव बीच और चिड़िया टापू । हमारा समूह सबसे ज्यादा उत्साहित था, कोर्बिन कोव को लेकर क्यूंकि सुना था कि ये पोर्ट ब्लेयर की एकमात्र अच्छी बीच है । वैसे भी समुद्र में नहाने के लिए पूरी तैयारी थी हमारी ।

नौ-साढ़े नौ बजे तक हम अंडमान स्पोर्टस काम्पलेक्स (Andman Sports Complex) के अहाते में थे । सैलानियों की वहाँ जबरदस्त भीड़ थी। एक छोटी सी मोटर बोट पर रॉस द्वीप का सफर करीब 7-8 मिनटों का रहा होगा। वैसे भी रॉस एक ऐसा द्वीप है जिसके सामने का भाग पोर्ट ब्लेयर से काफी सहजता से देखा जा सकता है।


अंग्रेजों ने अंडमान पर अपने कब्जे के बाद पहली बस्ती यहीं बसाई थी । एक मेरीन सर्वेयर डैनियल रॉस (Danial Ross) के नाम पर इस द्वीप का नाम रॉस द्वीप पड़ा। पोर्ट ब्लेयर से राजधानी को यहाँ लाने का कारण पानी की किल्लत बताया जाता है। उस समय यहाँ की रौनक का अंदाजा यहाँ के संग्रहालय में मौजूद चित्रों से लगता है।
आज का रॉस अपने उन आलीशान इमारतों के भग्नावशेषों को समेटे हुए है। चाहे वो अधिकारी आवास हो या पॉवर हाउस, आफिसर्स मेस हो या बाजार, ऊपर ऊँचाई पर अवस्थित गिरिजाघर हो या नीचे का छोटा सा मंदिर....ये सब अपने वास्तविक रूपों की परछाई मात्र हैं। बिना उनकी तसवीर देखे उन्हें पहचान पाना मुश्किल क्या बिलकुल नामुमकिन है । आज जो उस समय के भवनों की दीवारें बची भी हैं तो उन पेड़ों की वजह से जिनकी जड़ों के विशाल जाल ने ढहती दीवारों की एक-एक ईंट को इस तरह समेट रखा है जैसे कोई माँ ठंड में ठिठुरते किसी बच्चे को अपनी गोद में छिपा लेती है ।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय ये द्वीप भी जापानियों के कब्जे में आ गया था । पर उस वक्त आए भूकंप की वजह से लोग इस द्वीप से पलायन करने लगे । अब यहाँ कोई नहीं रहता । इस शांत पर बेहद खूबसूरत द्वीप को ये खंडहर ही एक जीवंतता प्रदान करते हैं। दूर से ही दिखती नारियल पेड़ों की पंक्तिबद्ध कतारें इस द्वीप की सुंदरता में चार चाँद लगाती हैं। द्वीप में घुसते ही जो इमारत दिखती है वो यहाँ के एक उद्यमी फतेह अली (Fateh Ali) को समर्पित है । इस व्यवसायी ने रॉस पर अपनी मेहनत के बल बूते पर अकूत धन इकठ्ठा किया था। पर उसकी कोई संतान नहीं थी, सो उसने अपना सारा धन एक ट्रस्ट को दे दिया। ये ट्रस्ट आज भी अंडमान के उन मेधावी छात्रों को छात्रवृति प्रदान करता है जो मेनलैंड में पढ़ रहे हैं।


थोड़ी दूर और आगे बढ़ने पर पावर हाउस और स्विमिंग पूल के अवशेष दिखते हैं। मुझे जान कर ताज्जुब हुआ कि उस समय द्वीप में पानी की आपूर्ति के लिए अंग्रेजों ने यहाँ वाटर डिस्टिलेशन प्लांट (Distilation Plant) लगाया था। ऊपर गिरिजाघर के रास्ते जाने के बजाए हमने द्वीप के किनारे- किनारे जाता हुआ पगडंडी वाला मार्ग पकड़ा । एक ओर नारियल के आड़े तिरछे वृक्षों की कतारें ओर उनके पीछे समुद्र का गहरा नीला जल एक ऐसा दृश्य उपस्थित कर रहे थे, जिससे मन मोहित हुए बिना नहीं रह सकता । पगडंडी के दूसरी तरफ पहाड़ी थी जो द्वीप के अधिकांश भू-भाग घेरे हुए है ।

पगडंडियों के ऊँचे-नीचे रास्तों पे दौड़कर बच्चे बेहद आनंदित महसूस कर रहे थे । चलते-चलते हम द्वीप के पिछले हिस्से में जा पहुँचे । जैसे ही उसकी बगल में रेत की पतली सी लकीर दिखी, बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । आनन फानन में बच्चों ने वस्त्रों का परित्याग करके नहाना भी शुरु कर दिया । 10-15 मिनट ऐसे ही बिता कर हम द्वीप के दायें वाले हिस्से में पहुँचे जहाँ एक और beach दिखी । पर पूरे द्वीप की चढ़ती धूप में परिक्रमा कर लेने के बाद सबकी उर्जा क्षीण सी हो गई थी तो नारियलों की झुरमुट के बीच घास पर विश्राम करना ही सबने श्रेयस्कर समझा।

जिस फेरी से हमें वापस जाना था उसमें भारी भीड़ की वजह से हम वापस ना जा सके। नतीजन एक बजे लौटने के बजाए हम ढाई बजे वापस पोर्ट ब्लेयर पहुँच सके । इस वजह से चिड़िया टापू जाने के कार्यक्रम को रद्द करना पड़ा । ४ बजे हम कोर्बन कोव पहुँचे । पर कोर्बन कोव हमारी आशा के अनुरूप खरी नहीं उतरी । एक तो दिन की थकावट और दूसरे समुद्र के मटमैले पानी को देख हमारी नहाने की इच्छा एकदम से खत्म हो गई। बस पानी में ऊपर ऊपर होकर वापस बालू पर आकर बैठ गए। शाम वहाँ के गाँधी पार्क (Gandhi Park) में गुजरी ।

अंडमान में बिताया दूसरा दिन यूँ बीत गया । पर समुद्र में ढ़ंग से ना नहा पाने का मुगालता सबके मन में रहा पर वो भी अगले दिन नार्थ बे में खत्म हो गया । समुद्र से इस मिलन का किस्सा सुनिएगा इस वृत्तांत के अगले हिस्से में ...

गुरुवार, 12 मार्च 2009

यादें अंडमान की : सेलुलर जेल - क्या कहता है इसका इतिहास ?

इस श्रृंखला की पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा। अब आगे पढ़ें....



...एयरपोर्ट पर बाहर निकलते समय अगर आपके नाम की तख्ती लगाए कोई खड़ा मिले तो बिलकुल ये मत सोचने लगिएगा ...कि अरे मैंने तो किसी को बताया नहीं । मेरे लिए ये गाड़ी कहाँ से पहुँच गई....

दरअसल यहाँ के टूर आपरेटर शहर के मुख्य होटलों और गेस्ट हाउस से आने वाले आंगुतकों का नाम पता मालूम कर के रखते हैं। उनकी मंशा बस इतनी होती है कि आपको अपने होटल तक पहुँचा कर आगे आप के घूमने घुमाने के कार्यक्रम में उनकी सहभागिता बनी रहे ।
पोर्ट ब्लेयर (Port Blair) के ऊँचे नीचे रास्तों को देख कर आश्चर्य जरूर हुआ क्यूँकि सामान्यतः समुद्र से सटे इलाके यानि तटीय क्षेत्र मैंने समतल ही देखे थे। हमारी बुकिंग अंडमान टील हाउस (Andman Teal House) में थी । हवाई सफर की थकान को देखते हुए ,शाम को बाहर निकलने का कार्यक्रम तय हुआ ।

टील हाउस के अपने कमरे से समुद्र साफ दिखता था । पास ही फोनिक्स बे जेटी (Phoenix Bay Jetty) थी जिसपे आते -जाते जहाजों को देखा जा सकता था । सामने का समुद्र आशा के विपरीत काफी शांत दिख रहा था । दूर सफेद और लाल रंग की धारियों से रँगा नार्थ बे (North Bay) का लाइट हाउस भी दृष्टिगोचर हुआ । कुछ दूर यूँ ही समय बीता। मन में इस विचार को आत्मसात करने की प्रक्रिया चल रही थी कि सच! हम सब कितनी दूर आ गए हैं अपने करीबियों से ।

शाम साढ़े ५ बजे अंडमान की ऐतिहासिक विरासत यानि सेलुलर जेल को देखने चल पड़े । सबसे पहले रास्ते में नजर ठहरी यहाँ के अबरदीन बाजार (Abardeen Bazaar) पर ! ये पोर्ट ब्लेयर का मुख्य बाजार है । खाने पीने के लिए यहाँ अच्छे रेस्ट्रां मौजूद हैं। पर क्या अबरदीन की बस इतनी ही पहचान है ? नहीं नहीं...अगर इतिहास के पन्नों में झांके तो यही अबरदीन, १८५९ में अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच हुए युद्ध का साक्षी रहा है । तब अंग्रेज यहाँ १८५७ के २०० विद्रोहियों को लेकर इस भू भाग पर अपना अधिकार जताने आए थे । उस वक्त तो सेलुलर जेल की नींव भी नहीं पड़ी थी ।

सेलुलर जेल (Cellular Jail) पहुँचने पर पता चला कि लाइट एंड साउंड शो की सारी बैठने वाली टिकटें बिक चुकी हैं । पर अब तुरंत वापस लौटने का मन किसी का नहीं था । सो हम सबने लॉन की घास पर अपनी जगह बनाई और वहीं बैठ गए । ध्वनि और प्रकाश के मिश्रित संयोजन के बीच अंडमान की कहानी धीरे-धीरे हमारे समक्ष खुलती चली गई ।

इस द्वीप का नाम अंडमान कैसे पड़ा ? इसकी भी कई कहानियाँ हैं। पुराने धर्मग्रंथों में इस द्वीप का नाम हंडुमान मिलता है जो कि भगवान हनुमान का मलय नाम है। किवदंती ये भी है कि पहले रावण के खिलाफ इस द्वीप समूह के दक्षिणी सिरे से आक्रमण की योजना थी जो बाद में बदल दी गई। मजे की बात है कि दूसरी शताब्दी में रोमन भूगोलशास्त्री Ptolemy के बनाए विश्व मानचित्र में ये द्वीप मौजूद था।

१७९० में अंग्रेजों ने पहले चाथम और फिर उत्तरी अंडमान में अपनी बस्ती बसाने की कोशिश की । पर मलेरिया और यहाँ की जनजातियों के लगातार हमलों ने उन्हें १७९६ में वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया। १८५७ के विद्रोहियों के बाद वहाबी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को अंडमान लाया गया । शुरु में यहाँ लाए गए कैदियों में सबसे चर्चित रहा शेर अली खान जिसने १८७२ में लार्ड मेयो की उनकी अंडमान यात्रा के दौरान हत्या कर दी । शेर खाँ को उसी साल वाइपर द्वीप की जेल में फांसी लगा दी गई ।

देश के विभिन्न हिस्सों से कैदियों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गई और तब अंग्रेजों ने एक नयी जेल बनाने का फैसला किया । १८९६ में सेलुलर जेल का निर्माण शुरु हुआ और आज से करीब सौ साल पहले यानि १९०६ में ये बन कर तैयार हुई । इस जेल को सात तीन मंजिला इमारतों से मिलकर बनाया गया था । सातों भवनों के केंद्र में एक टावर था और इसमें ६९८ पृथक सेल यानि कक्ष थे इसीलिए आसका नाम सेलुलर जेल पड़ा । अब तो सात इमारतों में से तीन ही बची रह गईं हैं ।

सेलुलर जेल के कैदियों में वीर सावरकर का नाम सबसे आदर से लिया जाता है । वो जिस सेल में रहते थे उसे अभी भी बड़े जतन से रखा गया है । वीर विनायक सावरकर १९११ में यहाँ लाए गए और करीब दस सालों तक इन कैदियों में जुल्म से लड़ने की शक्ति का संचार करते रहे। सावरकर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि कैदियों को बैलों की तरह सरसों से तेल निकालने के लिए जोता जाता था। दलदली भूमि पर जंगलों की कटाई का दुरूह कार्य भी उनसे लिया जाता था । ना करने या किसी भी प्रकार की कोताही बरतने पर जंजीरों से जकड़कर चाबुक की मार आम बात थी। आखिर कालापानी के नाम से एक दहशत उत्पन्न करना अंग्रेजों का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। आज भी जेल परिसर में जुल्म ओ सितम की इस दर्दनाक गाथा के प्रतीक संभाल कर रखे गए हैं ताकि देश के लिए जान न्योछावर करने वाले इन शहीदों के बलिदान को देशवासी याद रखें ।

महात्मा गाँधी के दर्शन से तो यहाँ के कैदी वंचित रह गए पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब जापानियों ने अंडमान पर अपना कब्जा जमाया तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस यहाँ पधारे। ३० दिसम्बर १९४३ को अंडमान में नेताजी ने भारतीय ध्वज फहराया । यहाँ के संग्रहालय में नेताजी के उस दौरे के कई दुर्लभ चित्र मौजूद हैं। कार्यक्रम समाप्त हो चुका था और मन इन अमर शहीदों की कुर्बानियों के प्रति नतमस्तक था । अगली सुबह हमें अंग्रेजों की बस्ती रॉस द्वीप से शुरु करनी थी । कैसा लगा हमें रॉस द्वीप इसकी चर्चा अगले हिस्से में ।
(पहला , पाँचवाँ और सातवाँ चित्र इंटरनेट से संकलित)

सोमवार, 2 मार्च 2009

चलिए ले चलें आपको राष्ट्रीय खेल के लिए बन रहे रांची के मनोहारी स्टेडियमों की सैर पर

क्रिकेट और बैडमिंटन के आलावा जिंदगी में कोई आउटडोर गेम कभी गंभीरता से नहीं खेला। पर बचपन से सभी खेलों को उत्सुकता पूर्वक देखने या फिर सिर्फ रेडिओ से उसकी कमेंट्री सुनने का शौक अवश्य रहा है। १९८२ के एशियाड को देखने के लिए तो पड़ोसियों के घर टीवी के सामने घंटों दरीचों पर आसन जमाया करते थे। करीब उसी वक्त की बात हे कि पिताजी हमें दिल्ली घुमाने ले गए थे। शाम को घूमते घामते जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम (Jawahar Lal Nehru Stadium) के बाहर से गुजरे तो फ्लडलाइट की दूधिया रोशनी की जगमगाहट अंदर से देखने की जिद पकड़ ली। उस वक्त वहाँ उद्घाटन समारोह की रिहर्सल चल रही थी।

गेट पर तैनात संतरी बिहार के किसी इलाके से था। तो ये बताने पर कि हम सब पटना से आए हैं, उसने अंदर जाने की इज़ाजत दे दी। सीढ़ियों से चढ़कर देखा गया स्टेडियम के अंदर का पहला दृश्य आज तक पूरे मन को रोमांच से भर देता है। बड़ा जगमगाता स्टेडियम, ऊपर से बौनौं की भांति दिखते कलाकार और पार्श्व से बजती पंडित रविशंकर की कोई धुन ...आज भी वो छवि दिल से निकलती नहीं है।

इसलिए जब रांची में राष्ट्रीय खेलों (National Games, Ranchi) की घोषणा हुई तो लगा कि वैसी आधारभूत संरचना को शायद अपने शहर में देखने का भी मौका मिले। पर झारखंड की सरकारी अकर्मण्यता का हाल ये है कि सरकारे बदलती गईं, नई नई तिथियों की घोषणा होती रही पर निर्माण कार्य बेहद मंथर गति से चलता रहा। आज हालात ये है कि फरवरी २००९ की डेडलाइन भी खत्म हो गई है और फिलहाल ये तिथि जून २००९ तक बढ़ा दी गई है। पर फिर भी जो कुछ बन पाया है आज उसकी सैर करने मैं रविवार की सुबह को निकल पड़ा और जो कैमरे में कैद हुआ वो आपके सामने है...


ये है नेशनल गेम्स के लिए बन रहा विशाल इनडोर स्टेडियम। ऊपरवाले की नीली छतरी के नीचे गहरे नीले रंग की स्टेडियम की छत आंखों को बेहद सुकून दे रही है ना ?


टेनिस स्टेडियम तो बनकर तैयार है पर क्या लिएंडर पेस, महेश भूपति और सानिया मिर्जा जैसे खिलाड़ी इस कोर्ट की शोभा बढ़ाएँगे ?


और ये है यहाँ का तरणताल यानि स्विमिंग पूल, साथ में डाइविंग का भी अलग ताल बना है यहाँ


पर क्या आपने कभी सोचा है कि एक इनडोर स्टेडियम के बनने में कितने स्टकचरल मेमबर्स यानि ट्रस (Structural Members or Truss) की जरूरत पड़ती होगी ? अगर नहीं सोचा तो इस स्टेडियम की बनती हुई छत में ट्रसों के जाल को देखिए। हैरान रह गए ना !



और चलते चलते उसी जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम की तरह बनता राष्ट्रीय खेलों का ये मुख्य स्टेडियम। है ना खूबसूरत ?