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रविवार, 3 दिसंबर 2023

सीता जलप्रपात राँची का अनसुना पर खूबसूरत जलप्रपात Sita Falls, Ranchi

रांची को जलप्रपातों का शहर कहा जाता है। हुंडरू, दशम, जोन्हा, पंचघाघ, हिरणी और सीता जैसे ढेर सारे छोटे बड़े झरने बरसात के बाद अगले वसंत तक अपनी रवानी में बहते हैं यहां। पर बरसात के मौसम के तुरंत बाद यानी सितंबर और अक्टूबर के महीने में इन्हें देखने का आनंद ही कुछ और है। यही वो समय होता है जब झरनों में पानी का वेग और जंगल की हरियाली दोनों ही अपने चरम पर होती है।

रांची के सबसे लोकप्रिय जलप्रपातों में सबसे पहले हुंडरू, दशम और जोन्हा का ही नाम आता है। इसकी एक वज़ह ये भी है कि इन जगहों पर आप पानी के बिल्कुल करीब पहुंच सकते हैं।  मैं इन सभी झरनों तक कई बार जा चुका हूं पर जोन्हा के पास स्थित सीता जलप्रपात तक मैं आज तक नहीं गया था। सीता फॉल रांची से करीब 45 किमी की दूरी पर रांची पुरुलिया मार्ग पर स्थित है। 

सीता जलप्रपात का विहंगम दृश्य



जलप्रपात का ऊपरी हिस्सा

एक ज़माना था जब रांची से बाहर निकलते ही रास्ते के दोनों ओर की हरियाली मन मोह लेती थी पर बढ़ते शहरीकरण के कारण अब वो सुकून नामकुम और टाटीसिल्वे के ट्रैफिक को पार करने के बाद ही नसीब होता है।

सखुआ के जंगलों के बीच जलप्रपात की ओर जाती सीढियाँ 

मैं जब वहां पहुंचा तो टिकट संग्रहकर्ता और गार्ड के अलावा वहां कोई नहीं था। हमारे आने के बाद तीन चार परिवार वहां जरूर नज़र आए। फॉल के नजदीक तक पहुंचने के लिए 200 से थोड़ी ज्यादा सीढियां हैं। जंगल के बीचो बीच जाती इन सीढ़ियों के दोनों ओर साल के ऊंचे ऊंचे वृक्ष सूर्य किरणों का सबसे पहले स्वागत करने के लिए प्रतिस्पर्धा में रहते हैं।

जलप्रपात की पहली झलक

पहले वो जगह थोड़ी सुनसान थी। नीचे तक सीढियाँ ढंग से बनी नहीं थीं इसलिए वहां लोग जाना कम पसंद करते थे। लेकिन अब  वहां पार्किंग के साथ नीचे जाने का रास्ता भी बेहतरीन हो गया है। हां ये जरूर है कि यहां झरने के बिल्कुल पास पहुंचने के लिए आपको चट्टानों के ऊपर से चढ़ कर जाने की मशक्कत जरूर करनी पड़ेगी। वैसे अगर मौसम बारिश का हो तो ऐसा बिल्कुल मत कीजिएगा क्योंकि तब चट्टानों पर फिसलन ज्यादा ही हो जाती है।


रामायण और महाभारत की कहानियों से हमारे देश में सैकड़ों पर्यटन स्थलों को जोड़ा जाता है। सीता जलप्रपात भी इसी कोटि में आता है। कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान राम सीता जी के साथ जब इस इलाके में आए तो उनकी रसोई के लिए इसी झतने का जल इस्तेमाल होता था। इस जलप्रपात को जाते रास्ते में लगभग एक किमी पहले सड़क के दाहिनी ओर एक बेहद छोटा सा मंदिर है। इस मंदिर में माँ सीता के पदचिन्हों को सुरक्षित रखा गया है।


कम सीढियाँ होने की वज़ह से आप यहाँ परिवार के वरीय सदस्यों के साथ भी आ सकते हैं। तीन चौथाई सीढियाँ पार कर ही पूरे जलप्रपात की झलक मिल जाती है। यहाँ बनाई सीढियाँ  भी चौड़ी और उतरने में आरामदायक हैं। हाँ जोन्हा या हुँडरू की तरह यहाँ जलपान की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि यहाँ लोगों की आवाजाही राँची के अन्य जलप्रपातों की तुलना में काफी कम है।

जलप्रपात से बदती जलधारा जो आगे जाकर राढू नदी में मिल जाती है।

सीता जलप्रपात राढू नदी की सहायक जलधारा पर स्थित है इसलिए यहाँ पानी का पूरा प्रवाह बरसात और उसके बाद के दो तीन महीनों में ही पूर्ण रूप से बना रहता है। इसलिए यहाँ अगस्त से नवंबर के बीच आना सबसे श्रेयस्कर है। बरसात के दिनों में जल प्रवाह के साथ चारों ओर फैली हरियाली भी मंत्रमुग्ध कर देगी। सीता जलप्रपात के पाँच किमी पहले ही जोन्हा का भी जलप्रपात है। इसलिए जब भी यहाँ आएँ पहले इस झरने के दर्शन कर के ही जोन्हा की ओर रुख करें क्योंकि जोन्हा उतरना चढ़ना थोड़ा थकान भरा है। 

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शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

आइए मिलवाएँ आपके घरों के आस पास रहने वाले 36 पक्षियों से Birds in our backyard !

जिस तरह हमारे शहर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते जा रहे हैं वैसे वैसे हमारा जुड़ाव अपने आस पास की प्रकृति से कम होता जा रहा है। अगर आपका घर किसी बहुमंजिली इमारत का हिस्सा है तो फिर आपके लिए हरियाली घर में लगाए पौधों से ही आ सकती है। महानगरों में ये समस्या काफी बड़ी है पर  छोटे शहर, कस्बे और यहाँ तक की गाँव भी घटती हरियाली से अछूते नहीं रहे हैं। और जब पेड़ ही नहीं रहेंगे तो पक्षी दिखेंगे कैसे? 


यही वज़ह है कि आज की पीढ़ी के ज्यादातर लोग कौए, कबूतर और अपनी पुरानी गौरैया के आलावा शायद ही दस से ज्यादा पक्षियों के नाम गिना सकें। लेकिन जिन लोगों के घरों  के पास थोड़ी बहुत हरियाली है भी वे भी इस बात की शिकायत करते हैं कि हमें तो बिल्कुल पक्षी दिखाई नहीं देते और अगर दिखते हैं तो पहचान ही नहीं पाते। आज का मेरे ये आलेख ऐसे ही लोगों के लिए है जिसमें मैंने तीन दर्जन उन पक्षियों से आपको मिलवाना चाहा है जिसे आप अपनी बॉलकोनी या छत से बैठे बैठे ही देख सकते हैं। मैंने जान बूझ कर पानी के आस पास रहने वाले पक्षियों को इस सूची में शामिल नहीं किया है हालांकि इनमें से कुछ उड़ते हुए घर से भी गाहे बगाहे दिख ही जाते हैं।
नर व मादा कोयल
तो सबसे पहले बात कोयल की जिसके गाने के चर्चे आपने बचपन से सुन रखे हैं। पक्षियों के संसार से भले परिचित हों ना हों पर कोयल का नाम तो सुना ही होगा। हाँ इसकी नर और मादा में क्या अंतर है ये सब लोग तो नहीं ही जानते। ज्यादातर लोग ये जानते हैं कि कोयल काली होती है और बहुत सुरीला गाती है।

कू कू वाला सुरीला गायन करने वाली गायिका नहीं गायक है और इसी तरह अगर आपने मादा कोयल को काला कह दिया तो वो आपको अंधा ही बताएगी  । यानी नर कोयल काला होता है और बेहद सुरीला गाता है जबकि मादा का वक्ष सफेद धारीदार होता है और उसके भूरे पंखों में सफेद बूटे होते हैं। गाती वो भी है पर बस कामचलाऊ। हाँ आँखें जरूर दोनों की लाल होती हैं।



बाकी कौए के घोंसले में अंडे डालने का काम तो नर और मादा मिल कर करते हैं। नर ध्यान हटाता है और तभी मादा चुपके से अपना अंडा डाल कर फुर्र हो जाती है। संदेह ना हो इसलिए कौए का एक अंडा हटाने से भी नहीं चूकती।
महोख / भारद्वाज
कोयल पपीहे की बिरादरी में एक और लंबा चौड़ा सा पक्षी है जिसे हम सब अपने घरों के इर्द गिर्द अक्सर देखते हैं। अगर आपने इसे ना भी देखा हो तो इसकी पुक पुक पुक करती आवाज़ जरूर सुनी होगी। कोयल की तरह ही इसकी आदत पेड़ों के अंदर छुप कर बैठने की है। वैसे अगर इसे अच्छी तरह देखना हो तो सूर्योदय के तुरंत बाद चौकस रहिए ये जनाब धूप सेंकने तभी किसी पेड़ की फुनगी पर अकेले या अपने जोड़ीदार के साथ विराजमान मिलेंगे।

भूरे नारंगी मिश्रित पीठ और काले पंखों वाला ये पक्षी ऊँची उड़ान भरने में कुशल नहीं है। कोयल पपीहे से उलट आप इसे हमेशा ज़मीन पर उतरते देख सकते हैं। कीड़े मकोड़ों के आलावा पक्षियों के अंडों पर भी इसकी नज़र रहती है। अब इसने भारद्वाज ॠषि का नाम पाया है तो कुछ अच्छे लक्षण भी तो होने चाहिए इसमें। मुझे तो एक अच्छी बात ये दिखी कि अपनी प्रजाति के अन्य बदनाम सदस्यों के विपरीत महोख अपने बच्चों का पालन पोषण ख़ुद करते हैं।

कबूतर, कौए या गौरैया के बाद अगर सबसे ज्यादा आपका परिचय किसी से होगा तो वो है तोता या मैना। वैसे एक डाल पर तोता बैठे एक डाल पर मैना वाला गाना जिसने भी सुना है वो इन्हें भूल कैसे सकता है? भारत में तोते की ढेर सारी प्रजातियाँ  मौज़ूद हैंऔर आपको कौन सा तोता ज्यादा दिखता है ये निर्भर करता है कि आप भारत के किस भू भाग में रहते हैं? आम तौर पर जो तोता पूरे भारतवर्ष में दिखता है वो है लाल कंठी तोता जिसे प्यार से हम मिट्ठू के नाम से भी बुलाते हैं। । ऐसा नाम इसके गले के पास की लाल गुलाबी धारी की वजह से है जो काली और नीली धारी से घिरी होती है। मादा में ऐसी धारी नहीं होती। पहाड़ी तोता इससे आकार में बड़ा होता है और उसके उदर के पास एक लाल निशान होता है।

Rose Ringed Parakeet
लाल कंठी तोता

आपके घर के आस पास तोता भले एक या दो किस्म का हो पर मैना की आपको अनेक किस्में दिख जाएँगी। देशी मैना (Common  Myna)  व अबलक मैना (Asian Pied Starling) सबसे ज्यादा दिखती हैं। उसके बाद नंबर आता है भूरे ललाट और काली चोटी वाली ब्राह्मणी (Brahmini Myna) व स्याह रंग की गंगा मैना (Ganga Myna) का। धूसर सिर मैना (Grey Headed Myna) मेरे मोहल्ले में सिर्फ एक बार आई और गुलाबी मैना (Rosy Starling) तो प्रवासी है। दिखेगी तो पूरे दल बल के साथ पर जाड़ों के मौसम में।

अबलक, देशी, गंगा, ब्राह्मणी, धूसर सिर और गुलाबी मैना
बुलबुल की गायिकी से भी तो आप परिचित होंगे ही। मैं तो डैस कोस सिंगल बुलबुल मास्टर वाले खेल से ही बचपन में इनके नाम से परिचित हो गया था पर इन्हें ढंग से पहचानना काफी दिनों बाद ही आया। पूँछ के नीचे लाल और काले सिर वाली वाली गुलदुम बुलबुल (Red Vented Bulbul) और कानों के पास खूबसूरत लाल निशान से सिपाही बुलबुल (Red Whiskered Bulbul)  दूर से ही पहचान ली जाती हैं। पेड़ों की ऊपरी शाखा पर बैठना इन्हें भाता है। पहाड़ों में हिमालयी बुलबुल व काली बुलबुल और उत्तर भारत के मैदानों में सफेद गाल वाली बुलबुल भी आपकों नज़र आएँगी।

सिपाही और गुलदुम बुलबुल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

इस Lockdown में कैसे बीता मेरा वसंत ? Nature's Photography

पिछला एक महीना पूरे विश्व के लिए एक जबरस्त चुनौती के रूप में सामने आया। एक महामारी ने पूरे विश्व को हिला कर रख दिया। स्थिति ये हो गयी है कि आज  हममें से अधिकांश अपने अपने घरों में  नज़रबंद हैं। घर से काम कर रहे हैं। कुछ लोगों का दायित्व ही ऐसा ही है कि संकट की घड़ी में भी बाहर निकल कर अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। जब सुबह शाम टीवी, अखबार व सोशल मीडिया पर सिर्फ महामारी की चर्चा हो तो अच्छे भले व्यक्ति का मन अवसाद या मायूसी से भर उठेगा। सामाजिक दूरी अगर बनाए रखनी है तो इसका मतलब ये नहीं कि आप इस समय अकेले बैठे बैठे यूँ ही चिंतित और अनमने होकर घर का पूरा माहौल ही बोझिल हो उठे।

इस मूड से बाहर आने का सीधा सा उपाय ये है कि क्रियाशील रहें, पढ़े लिखें अपने शौक़ पूरे करें और अगर फिर भी समय बचे तो वो वक्त अपने आसपास की प्रकृति के साथ बिताएँ।

फूल सहजन के

वैसे तो मैं अपने नित्य के जीवन में हमेशा कुछ समय अपनी आस पास की प्रकृति को देता आया हूँ क्यूँकि उसका साथ मुझे आंतरिक रूप से उर्जावान बनाता है। घर में रहने से आजकल ये मौका कुछ ज्यादा मिल रहा है। जब यात्राएँ संभव ना हो तो ये उर्जा और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। आजकल मेरी हर सुबह प्रकृति के इन्हीं रूपों को अपने कैमरे में क़ैद करते हुए बीतती है तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना आपको भी पिछले कुछ हफ्तों की इस प्रकृति यात्रा में शामिल करूँ पहले पेड़ पौधों के साथ और अगले हिस्से में पक्षियों के साथ। तो तैयार हैं ना इस यात्रा में मेरे साथ चलने के लिए।

पुटुस या रायमुनिया 

पुटुस या रायमुनिया (Lantana Indica)

पुटुस या रायमुनिया तो जब जब खिलते खिलते हैं मन खुश कर देते हैं। लैंटना भी वरबेना परिवार के ही सदस्य हैं। पूर्वी भारत में ये पुटुस के नाम से मशहूर हैं। शायद ही भारत में कोई जंगल बचा हो जहाँ इनकी झाड़ियों ने अपना साम्राज्य ना फैलाया हो पर बगीचे में अगर इनको ढंग से नियमित रूप से काँटा छाँटा जाता रहे तो इनकी खूबसूरती देखते ही बनती है।

सेमल

सेमल जैसे बहुत कम ऐसे वृक्ष होंगे जिनके तने की रंगत फूलों के रंग से इतनी पृथक हो। सांझ की बेला में तनों का स्याह होता शरीर चटकीले लाल फूलों के सानिध्य में एक ऐसे आकर्षण में आपको बाँध लेता है कि आप इस दृश्य को अपनी आँखों में सँजोए रखना चाहते हैं। इस बार मेरे मोहल्ले में सेमल के फूल थोड़ी देर से आए और अब तो उनके झड़ने की प्रक्रिया आरंभ भी हो गयी है। पिछले हफ्ते ऐसी ही एक ढलती शाम का ये रंगीन लम्हा आपके लिए

सेमल के फूल

नीम 

पिछले महीने नीम के पेड़ में अब पत्तियाँ ना के बराबर बची थीं  फिर नए पत्ते आने लगे। इन नन्ही कोपलों को फूटते देखने का सुख कम नहीं।
नीम की नव कोपलें
नव पल्लवों के आने के हफ्ते भर में इन छोटी छोटी कलियों से से पूरा नीम का पेड़ आच्छादित हो गया।
नव कोपलों से हफ्ते भर में निकले ये नीम की कलियाँ


अब देखिए कैसे कलियों से इसके खूबसूरत फूल निकल आए हैं। :)

सहजन या मुनगा 

जामुनी शकरखोरे का एक नाम फुलसुँघनी भी है। क्यूँ है वो सहजन के फूलों पर इनकी साष्टांग दंडवत वाली इस मुद्रा से सहज अंदाज़ा लगा लेंगे आप
सहजन के फूलों पर साष्टांग दंडवत करता जामुनी शकरखोरा

शिरीष 


हमारे मोहल्ले में एक पेड़ ऐसा है जो गर्मियों की शुरुआत से से खिलने लगता है। एक बार इसके नीचे से गुजर जाएँ तो बस इसकी भीनी भीनी खुशबू से आमोदित हो जाएँगे। इस वृक्ष का नाम है शिरीष। हिंदी में ये सिरस या सिरीस के नाम से भी जाना जाता है।

इसके पतले पतले रेशों से बने फूल रुई के फाहे जैसे होते हैं। फूल झड़ने पर जो फलियाँ बनती हैं वो लंबी चपटी और सख्त बीज के साथ होती हैं। जाड़े के मौसम में जब हवा चलती है तो इनकी खड़खड़ाहट ध्यान खींचती है। शायद इसीलिए अंग्रेजों ने इसे "सिजलिंग ट्री का नाम दे रखा है। जहाँ तक इसके वैज्ञानिक नाम का सवाल है तो वो इटली के वनस्पति विज्ञानी अल्बीज़ी के नाम पर अल्बीज़िया लेबेक रखा गया है।


शिरीष की फलियाँ

शिरीष की फलियों के झरने के बाद निकले नव पल्लव व कलियाँ
एक हफ्ते बाद ही शिरीष यूँ भर गया फूलों से

कनेर


कनेर के फूल से भी ज्यादा मुझे इसकी पतली हरी पत्तियाँ अच्छी लगती हैं। वैसे भी ये औषधीय गुणों से भरपूर होती हैं।
पीला कनेर

स्नैपड्रैगन या डॉग फ्लावर


स्नैपड्रैगन या डॉग फ्लावर एक अजब सा नाम नहीं लगता आपको। हिंदी में इन फूलों का कोई देशी नाम नहीं। ये भी उत्तरी अफ्रिकी और भूमध्यसागरीय देशों से घूमते घामते भारत में पहुँचे हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि नीला रंग छोड़ के फूलों की ये प्रजाति हर रंग में पाई जाती है।
सोचिए तो इनका ऐसा विचित्र नाम क्यूँ पड़ा? ज्यादा मुश्किल नहीं है ये प्रश्न। बस इनका कोई भी गिरा हुआ एक फूल उठाइए और उसे आधार से दबाइए। दबाते ही इसकी दोनों पंखुड़ियाँ अपना मुँह खोल लेंगी और छोड़ते ही बंद कर लेंगी। पश्चिमी सभ्यताओं को इस फूल का चेहरा ड्रैगन समक्ष लगा तो इसके मुँह खोलने बंद करने के गुण की वजह से वहां इसका नाम स्नैपड्रैगन के रूप में प्रचलित हुआ।
चेहरा तो देखने वालों पर है किसी को 🐉 ड्रैगन लग सकता है किसी को 🐕 जैसा।
स्नैपड्रैगन या डॉग फ्लावर

लिली 

क़ैद में है "लिली"
कोरोना मुस्कुराए
कुछ कहा भी ना जाए
खिले रहा भी ना जाए
क़ैद में है लिली
वैसे ये लिली सचमुच क़ैद में है। इसके मालिक इसे पिछले साल लगा कर चले गए और पिछले हफ्ते ये अपने आप फिर खिल गई।

पिटूनिया

गुलाबी पिटूनिया

वर्बेना 


फूल का अब कोई देश नहीं रह गया। घूमते फिरते मानव ने उन्हें हर मिट्टी की पहचान करा दी है। वर्बेना (Verbena) या बरबेना को ही लीजिए। मूलतः उत्तर और दक्षिणी अमरीकी महादेशों का पौधा है जो अब भारत के बगीचों की शान बढ़ा रहा है।

वर्बेना (Verbena) या बरबेना

बोगनवेलिया

बोगनवेलिया के कागजी फूल देखिए सूर्य की पहली किरण पाकर कैसे प्रकाशित हो उठे हैं 

क्राउन डेज़ी

एक खिले दूजा इठलाए
मेरे तो दोनों मन भाए 
क्राउन डेज़ी (Crown Daisy, Chrysanthemum Coronarium) को हिंदी में ज्यादातर गुलचीनी के नाम से जाना जाता है। ये पीला सफेद फूल देखने में तो खूबसूरत है ही पर इस पौधे की पत्तियों का अपने पौष्टिक गुणों के कारण दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों के विभिन्न व्यंजनों में इस्तेमाल होता है।

क्राउन डेज़ी 

सबबूल

सबबूल के फूलों के बीच छोटा बसंता :)

इस बार वसंत थोड़ी देर से आया और थोड़ी देर ज्यादा ठहर पाया है इसीलिए बहुत सारे फूल जो अप्रैल की गर्म होती फ़िज़ाओं में सिकुड़ने लगते थे अब भी हँस मुस्कुरा रहे हैं। अब जब फूल यूँ खिल कर अपनी खूबसूरती बिखेरेंगे तो तितलियाँ भी कहाँ पीछे रहने वाली हैं।
कल तितलियों का एक नया मेहमान दिखाई पड़ा तो उत्सुकता हुई कि जरा जाने तो कि ये कौन सी तितली आई है? सौभाग्य से मोहल्ले में यूँ ही बिखरे पुटुस यानी रायमुनिया के फूलों ने हमारी इस नई मेहमान का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया और वो जा बैठी इस पुष्प पर। वैसे भी ये फूल आतुर रहते हैं कि तितलियाँ आएँ, उनकी सहायता से परागण हो और वो अपने रंग बदल सकें।
तस्वीर तो ले ली गयी। दूर से सफेद पंखों पर काले काले गोल चौकोर नमूने दिखे और मुँह के पास लाली भी नज़र आई। धूप अगर कम होती तो इसके सफेद काले परों के बीच एक हल्के नीले शेड का भी आभास होता जिसकी वज़ह से इनका नाम Blue Mormon पड़ा है।

ब्लू मॉरमॉन 
झारखंड में अमूमन ये तितली अपेक्षाकृत कम देखी जाती है। इसे सदाबहार जंगल ज्यादा रास आते हैं इसलिए श्रीलंका में बहुतायत पाई जाती है। भारत के दक्षिणी राज्यों में भी ये आम है और महाराष्ट्र ने तो इसे अपनी राजकीय तितली का ही दर्जा दे रखा है। गुजरात, मध्य प्रदेश और झारखंड के उत्तर इसे कम ही देखा गया है।

सूरज की झीनी झीनी रोशनी को अपने में समेटता शीशम का पेड़
आजकल रात का आसमान देखने लायक है। चाँद और शुक्र तो छुआ छुई खेल ही रहे हैं पर उनके पीछे दर्शक दीर्घा में सैकड़ों चमकते तारों की बारात भी है। ऐसे नज़ारों के लिए पहले पहाड़ों तक भटकना पड़ता था।
तो इस एकांतवास में एक बार छत की भी सैर कर आइए। मायूस मन भी तारों सा जगमगा उठेगा।


कितना हसीं है ये चाँद :)
आशा है इस यात्रा ने आपके मन में भी एक धनात्मक उर्जा का संचार किया होगा। अगली बार आपकी पहचान कराएँगे उन पक्षियों से जो आपके बाग बगीचों में अक्सर आते हैं पर आप उन्हें पहचान नहीं पाते।

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गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

राँची की दुर्गा पूजा : आज देखिए बाँधगाड़ी, काँटाटोली हरमू, श्यामली, सेल टाउनशिप के पंडालों की झलकियाँ Ranchi Durga Puja 2019

पंडाल परिक्रमा की अंतिम कड़ी में आपको दिखाते हैं राँची के अन्य उल्लेखनीय पंडालों की झलकियाँ। रेलवे स्टेशन, रातू रोड, ओसीसी व बकरी बाजार के बाद जिन  पंडालों  ने ध्यान खींचे वो थे बाँधगाड़ी, काँटाटोली व हरमू के पंडाल।

बाँधगाड़ी में दुर्गा जी के आसपास कहीं भी महिसासुर की छाया तक नहीं थी। सारे शस्त्र माता के हाथों में ना होकर चरणों में दिखे। माता के मंडप में सर्व धर्म समभाव दिखाने के लिए विभिन्न धर्मों के प्रतीक चिन्हों का प्रयोग किया गया था।

बाँधगाड़ी के पंडाल में शस्त्र विहीन दुर्गा शांति का संदेश देती हुई

कांटाटोली में माँ दुर्गा की प्रतिमा
वहीं काँटाटोली के दुर्गापूजा पंडाल में चित्रकला के माध्यम से रामायण की कथा का निरूपण किया गया था। पंडाल का ये स्वरूप छोटे बड़े बच्चों को काफी आकर्षित कर रहा था।


आज जब एक अभिनेत्री ये नहीं बता पाती हैं कि संजीवनी पर्वत पर हनुमान किसके लिए बूटी लाने गए थे, तो देश में उसे मुद्दा बना लिया जाता है। हमलोग छोटे थे तो ये कहानियाँ कामिक्स और टीवी सीरियल के माध्यम से हमारी स्मृतियों में रोप दी गयी थीं पर आज कल के मोबाइल युग में पढ़ाई के इतर जो कुछ और परोसा जा रहा है उसमें हमारी संस्कृति के कितने अवयव समाहित हैं ये सोचने का विषय है।

यहाँ सजावट थी चित्रकला के माध्यम से...

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

राँची की दुर्गा पूजा : गगनचुंबी इमारतों के बीच बना बकरी बाजार का इंद्रधनुषी पंडाल Bakri Bazar Ranchi Durga Puja 2019

राँची के सबसे नामी पंडालों में बकरी बाजार अग्रणी हैं। सामान्यतः यहाँ के पंडाल अपनी विशालता और वैभव के लिए ज्यादा और महीन कलाकारी के लिए कम जाने जाते हैं। इस बार यहाँ सतरंगा पंडाल सजा जिसकी थीम थी बढ़ती जनसंख्या के बीच आम जनों का संघर्ष !

रंगों से भरे पंडाल में अपनी बात कहने में आयोजक कितने सफल हुए हैं देखिए आज इस झाँकी में..

बकरी बाजार का काल्पनिक इंद्रधनुष

उल्लू तो लक्ष्मी जी का वाहन था पर यहाँ दुर्गा पंडाल का सारथी बन बैठा है


पंडाल में इन्द्रधनुष के नीचे जो सैकड़ों हाथ दिख रहे हैं वो बढ़ती जनसंख्या के प्रति आयोजकों की चिंता को व्यक्त करते हैं। इन सारे लोगों के लिए हर दिन संघर्ष का है जो लोग इस वैतरणी को पार कर जीवन में सफल हुए उनमें सर कुछ के चित्र एक कोलॉज के माध्यम से ऊपर टाँके गए हैं।

ये दिखाने की कोशिश की गयी है कि इतनी भीड़ में कुछ ही सफलता का स्वाद चढ़कर प्रशस्ति की नाव पर सवार हो सकेंगे।

मेकेनिकिल इंजीनियर के यंत्र गियर की सजावट के बीच निखरती चित्रकला

चौंक गए ना? 

राँची की दुर्गा पूजा : बांग्ला स्कूल में सजा राजस्थानी पुतलों का संसार Bangla School Durga Puja 2019

रांची की दुर्गा पूजा की पंडाल परिक्रमा के तीसरे चरण में चलिए बांग्ला स्कूल के इस राजस्थानी पुतलों के संसार में।

बांग्ला स्कूल का पंडाल राँची के अन्य बड़े पंडालों जितना प्रसिद्ध भले ना हो पर यहाँ कलाप्रेमी अक्सर कुछ अलग सा देखने के लिए जाते जरूर हैं। इस बार यहां पंडाल की दीवारें सिंदूरी रंग में सजी थीं। दीवारों के गोल नमूनों को बीचों बीच जलता बल्ब  पंडाल को जगमग कर रहा था। पंडाल की एक दीवार पर शीशा लगा कर लोगों को सेल्फी खींचने की ज़हमत से बचा दिया गया था।

तीस से पैंतीस फीट की कठपुतलियों के बीच माँ दुर्गा से मिलती जुलती छोटी छोटी गुड़िया बनाई गयी हैं। पंडाल के मुख्य मूर्तिकार निर्मल शील के अनुसार इन्हें बनाने के लिए चटाइ, पाट लकड़ी, शीप, शंख, हुगला पत्ता, ताल पत्ता और बाँस का इस्तेमाल किया गया है।

इस पंडाल की सबसे खूबसूरत छटा छलक रही थी माँ के दरबार में। सीपों की लटकती झालर के पीछे माँ दुर्गा राजस्थानी लिबास में लिपटकर सौंदर्य का प्रतिमान लग रही थीं। 

राजस्थानी वेशभूषा में सजी सँवरी माँ दुर्गा

अब और क्या बताना आप खुद ही देख लीजिए मेरे कैमरे की नज़र...

पंडाल का मुख्य द्वार

पुतलों की विशाल प्रतिमाएँ

सोमवार, 7 अक्टूबर 2019

राँची की दुर्गा पूजा : आज बारी रातू रोड की Ratu Road Durga Puja 2019

दुर्गा पूजा पंडाल परिक्रमा में आज बारी है रातू रोड के पंडाल की जहाँ सड़क के किनारे एक विशाल रथ के अंदर माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की गयी है।  रातू रोड का पंडाल राँची के सबसे पुराने पंडालों में से एक है। ये वही इलाका है जहाँ यहाँ के प्राचीन नागवंशी राजवंश के अंतिम महाराज रहा करते थे। इसी वंश की एक रानी लक्ष्मी कुँवर ने जो बंगाल से थीं यहाँ 1870 ई से दुर्गा पूजा की परंपरा शुरु कराई।

रातू रोड पूजा पंडाल
इस साल इस पंडाल में भ्रूण हत्या और स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों को पंडाल की थीम बनाया गया है। बाहर से इस सजीले रथ को तो बाजे गाजे के साथ हाँका जा रहा है पर अंदर सर्प सरीखी कुप्रथाओं को स्त्री का अस्तित्व मिटाते दिखाया गया है। स्त्रियों पर होते जुल्म को देखकर माँ ने अपनी आँखे अधमुँदी कर रखी हैं।

पंडाल के बाहरी भाग को पीले और लाल रंग के समायोजन से सजाया गया है। अगर ध्यान से देखेंगे तो सारी आकृतियाँ पीले रंग के रेशे से बनी दिखेंगी। तो आइए चलें इस पंडाल की परिक्रमा पर

ऊपर बजती शहनाई, शादी की वेला आई