मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

यात्रा दक्षिणी ओडिशा की Road Trip to Unexplored Southern Odisha

दिसम्बर के महीने में अचानक से यूँ ही कहीं चल देना आसान नहीं होता। ट्रेन में टिकटें नहीं रहतीं और हवाई जहाज के किराए तो आसमान छूने लगते हैं। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि अपनी गाड़ी निकालो और चलते बनो। मेरे एक पर्वतारोही मित्र ऐसे हैं जो अकेले ही गाड़ी चलाते हुए राँची से नागालैंड और हिमाचल तक की यात्रा कर चुके हैं। दिक्कत ये थी कि मैं गाड़ी चलाता नहीं और ऐसे में जब उन्होंने राँची से अराकू घाटी तक चलने का सुझाव दिया तो मैं अचकचाया क्यूँकि 1000 किमी अकेले चलाकर जाना और आना तो किसी के लिए भी दुष्कर कार्य है। हमने कई और जगहों के बारे में सोचा पर अंततः उनके आत्मविश्वास को देखते हुए मैं तैयार हो गया। 


हफ्ते भर की इस यात्रा में हमें दक्षिणी ओडिशा के उन हिस्सों को देखने की तमन्ना थी थे जिस की ओर बाहर से आने वाले शायद ही रुख करते हों। कालाहांडी, कंधमाल  और कोरापुट जैसे आदिवासी बहुल जिलों की प्राकृतिक सुंदरता को करीब से देखने का इरादा था हमारा। अपने अंतिम मुकाम तक पहुँचने के बजाए हम ज्यादा उत्साहित उस रास्ते से थे जो हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचाने वाला था।

राँची से हमारा पहला पड़ाव संबलपुर था जहाँ करीब एक दशक पहले मैं हीराकुद बाँध देखने गया था। दिसंबर की एक सुबह जब हम राँची से निकले तो हमें एक चमकदार सुबह और नीले आसमान की तलाश थी। आख़िर सर्दी के दिनों में ये दोनों साथ रहें तो सफ़र और भी खूबसूरत हो जाता है। पर ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था। दिन चढ़ते ही बादलों ने जो हमारा दामन ऐसा थामा कि हीराकुद तक छोड़ा ही नहीं।

राँची से सिमडेगा तक की राहें..

राँची से सिमडेगा के लिए हमने बकसपुर, कामडारा और कोलेबिरा वाला रास्ता चुना। कर्रा से बकसपुर का रास्ता मरम्मत की तलाश में है। दुबली पतली सड़कें यूँ तो ठीक हैं पर बीच बीच में अचानक से ही गढ्ढे भी आ जाते हैं। धान की फसल कट जाने के बाद खेतों में भी वीरानी पसरी थी जो धुँधले आसमान में और भी गहराती जा रही थी।कस्बे बीच बीच में इस चुप्पी को तोड़ते पर उनकी चिल्ल पों से उकता कर मन जल्दी से खुले रास्तों के आने की उम्मीद करने लगता।

इस रास्ते में आने वाले कस्बों के बाहर ज्यादा ढाबे नहीं है्। पहली ढंग की जगह हमें कोलेबीरा के बाद नज़र आई जहाँ हम जलपान के लिए रुके। थोड़ी ही देर में हम दक्षिणी पश्चिम झारखंड की सीमा से सटे सिमडेगा जिले में थे। सिमडेगा को झारखंड में हॉकी के गढ़ के रूप में भी जाना जाता है। एक समय था जब सिमडेगा में ओड़िया राजाओं की हुकूमत चलती थी। ओडिसा से सटे होने के कारण आज भी जिले के भीतरी इलाकों में ओड़िया संस्कृति का असर दिखता है। वैसे आज की तारीख में जिले की आधे से अधिक आबादी ईसाई है। 


सिमडेगा की हरी भरी पहाड़ियाँ


सिमडेगा से आगे निकलते ही शंख नदी का विशाल रूप सामने आ गया। शंख नदी झारखंड के गुमला जिले से निकलती है और मुख्यतः झारखंड और थोड़ी दूर छत्तीसगढ की सीमा में बहते हुए राउरकेला के पहले दक्षिणी कोयल नदी में मिल जाती है। इनके संगम स्थल को वेदव्यास कहा जाता है क्यूँकि ऐसा माना जाता है कि महर्षि व्यास ने कुछ समय इस संगम पर बिताया था। 

सिमडेगा के पास इसका विशाल पाट अथाह जलराशि समेटे मंद मंद बह रहा था। काश के फूलों ने नदी की तट रेखा अपने नाम कर ली थी। सफ़र को विराम देने के लिए ये एक अच्छी जगह थी। कुछ देर पानी की स्निग्ध धारा और उसमें तैरते पक्षियों को निहार कर हम फिर आगे बढ़ चले।


शंख नदी का तट जहाँ अभी भी कास के फूलों की बहार है



ओड़िशा में प्रवेश करते ही हम राज्य राजमार्ग 10 पर आ गए जो राउरकेला से संबलपुर होते हुए कोरापुट को जोड़ता है। फोर लेन हाइवे को देखते ही हमारी गाड़ी हवा हवाई हो गयी इस रास्ते की वज़ह से अब हम करीब साढ़े छः घंटे में ही हीराकुद के पास पहुँचने की स्थिति में आ गए। हालांकि तेज रफ्तार का खामियाजा हमें बाद में भुगतना पड़ा। वापस इसी रास्ते से लौटते समय पता चला कि हमने सौ किमी प्रति घंटे की निर्धारित गति सीमा कहीं पार कर ली थी। ओड़िशा में सरकार ने राजमार्गों पर जगह जगह कैमरे लगाए हुए हैं जो गतिसीमा पार करने पर न्यूनतम दो हजार रुपये का जुर्माना जरूर ठोंकते हैं। यूँ तो सिमडेगा से लेकर संबलपुर तक पश्चिमी ओड़िशा का ये इलाका कृषि प्रधान है पर इनके बीच झारसुगुड़ा का औद्योगिक क्षेत्र भी है जहाँ पहुँचते ही लगने लगता है कि हवा धूल कणों से भरी हुई है।

संबलपुर पहुँचने से पहले ही एक रास्ता हीराकुद जलग्रहण क्षेत्र की ओर जाता दिखा। गाड़ी उधर ही मोड़ ली गयी। थोड़ी ही देर में समझ आ गया यही रास्ता हीराकुड इको रिट्टीट को भी जाता है। यहाँ जलाशय के बगल में ही सरकार ने टेंट बना रखे हैं। वहाँ कुछ वाटर स्पोर्ट्स की व्यवस्था भी दिखी पर दो लोगों के लिए एक रात गुजारने के लिए आठ हजार खर्च करने का कोई औचित्य नहीं दिखा।

हीराकुद का इको रिट्रीट, नहीं जी हम यहाँ नहीं ठहरे

पानी के किनारे किनारे हम करीब दस किमी चलते रहे। सूर्यास्त का समय पास था पर बादलों की गिरफ़्त से किसी तरह निकलकर सूर्य किरणें मानों छन छन कर नीचे आ रही थीं।अगर मौसम साफ होता तो विशाल जलराशि के बीच यत्र तत्र फैले टापुओं के साथ मछुआरों की दूर धिरे धीरे खिसकती नावों को देखना और भी सुकूनदेह रहता। जाड़े का समय था तो कुछ प्रवासी पक्षी अबलक बत्तख, शिवहंस और सैंडपाइपर दिखे पर उनकी तादाद बहुत ज्यादा नहीं थी। फिर भी राजमार्ग से अलग इस रास्ते पर चलना दिन की यादगार स्मृतियों का हिस्सा बन गया।


चलते चलते हम मुख्य बांध के एकदम पास पहुंच गए पर पता चला कि इधर से आगे सामान्य पर्यटकों को आगे जाने की अनुमति नहीं है। अब गूगल को तो ये सब बातें कहाँ पता रहती हैं सो हमें वापस मुड़कर पास के गाँव के रास्ते हीराकुड जाने वाली दूसरी सड़क की ओर रुख करना पड़ा जो गाँधी मीनार तक जाती है।

मछली पकड़ने के लिए जलाशय में बना स्टेशन

हीराकुड बाँध की परिकल्पना विशवेश्वरैया जी ने तीस के दशक में रखी थी। सन 1937 में महानदी में जब भीषण बाढ़ आई तो इस परिकल्पना को वास्तविक रूप देने के लिए गंभीरता से विचार होने लगा। ये पाया गया कि जहाँ छत्तीसगढ़ में महानदी के उद्गम स्थल का इलाका सूखाग्रस्त रहता है तो उड़ीसा में महानदी का डेल्टाई हिस्सा अक्सर बाढ़ की त्रासदी को झेलता रहता है। लिहाज़ा यहाँ एक विशाल बाँध बनाने का काम आजादी से ठीक पूर्व 1946 में चालू हुआ। करीब सौ करोड़ की लागत से (तब के मूल्यों में) यह बाँध सात साल यानि 1953 में जाकर पूरा हुआ और 1957 में नेहरू जी ने इसका विधिवत उद्घाटन किया। मिट्टी और कंक्रीट से बनाया गया ये बाँध विश्व के सबसे लंबे बाँध के रूप में जाना जाता है।


शाम की धुंध में लिपटा हीराकुद बाँध

एक दशक पहले जब यहाँ पहुंचा था तो यहाँ लोगों की आवाजाही इतनी नहीं होती थी पर पिछले कुछ सालों में सरकार ने जवाहर उद्यान के साथ साथ गाँधी मीनार के बाहरी स्वरूप का कायाकल्प किया है जिसकी वज़ह से यहाँ लोग सैकड़ों की संख्या में दिखने लगे हैं। अब एक रोपवे भी बन गया है जो गाँधी मीनार से जवाहर उद्यान को जोड़ता है हालांकि वो बाँध के ठीक ऊपर से नहीं जाता। मीनार की सर्पीली सीढ़ियों को जल्दी जल्दी पार कर हम सब मीनार के ऊपर पहुँचे ताकि ढलती शाम और गहराती धुंध के बीच कुछ तस्वीरें ली जा सकें।


गाँधी मीनार से नीचे का दृश्य



हमलोग जिस रास्ते से आ रहे थे वही राह आगे जाकर दाँयी वाली सड़क में मिलती

गाँधी मीनार से जाता रोपवे जो पास के नेहरू पार्क में उतरता है

संबलपुर में हमने होटल की बुकिंग पहले से नहीं कर रखी थी। हालांकि इंटरनेट से कई होटलों के रेट देख रखे थे। ऐसे ही एक होटल में जब हम पहुँचे तो कमरे की कीमत नेट पर बताई गयी कीमत से बारह सौ रुपये ज्यादा दिखी। मैंने कहा अगर ऐसा है तो फिर नेट से ही क्यूँ न आरक्षण कर लें। कमरा देख के जब लौटे तो नेट में अचानक ही सारे कमरे आरक्षित बताए जाने लगे। होटल वालों ने इतनी ही देर में अपना कमाल दिखला दिया था। ख़ैर हमें भरोसा था कि इतने बड़े शहर में कई अन्य विकल्प और मिल जाएँगे। और हुआ भी वही।

हीराकुड बांध के अलावा संबलपुर जिस चीज के लिए मशहूर है वो है यहाँ की साड़ी। हाथ से बनी इन साड़ियों के पारंपरिक डिजाइन तो आपने देखे ही होंगे। संबलपुरी साड़ियाँ संबलपुर के अलावा मध्य और पश्चिमी ओडिशा के जिलों बलांगीर, सोनपुर बारगढ़ आदि में भी बनती हैं। अगर आप संबलपुर जाएँ तो एक बार यहाँ के गोल बाजार का चक्कर जरूर लगाएँ। यहाँ आपको सरकारी और निजी दुकानों में अपनी पसंद का कोई ना कोई संबलपुरी परिधान मिल ही जाएगा।

संबलपुरी प्रिंट के कपड़े

ओड़िशा सामिष भोजन के लिए जाना जाता है पर मैं तो ठहरा शाकाहारी तो वापस की यात्रा में यहाँ की चाट का आनंद लेते हुए गया।

संबलपुर में चाट का आनंद चाट महाराज में



संबलपुर से चलते चलते हजामत बनाने वाली इस दुकान के इस नाम पर नज़र ठहर गई। अब बताइए भला अगर दुकानदार को लेडीज़ पार्लर खोलना होता तो वो इसका क्या नाम रखता? :) हमारा अगला पड़ाव ओड़िशा का छोटा सा पर्वतीय स्थल दारिंगबाड़ी था जो कि वहाँ के कांधमल जिले में स्थित है और जिस तक पहुँचने के लिए इसी महानदी को पार करते हुए कालाहांडी के जंगलों से होकर गुजरना था।

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

रांची के 10 शानदार दुर्गा पूजा पंडाल (Top Ten Durga Puja 2022 Pandals of Ranchi)

दुर्गा पूजा का पर्व भारत के पूर्वी प्रदेशों में खासा धूमधाम से मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल और खासकर कोलकाता की दुर्गा पूजा और कलात्मक पंडालों का डंका तो सारे देश में बजता रहा है। पर झारखंड के राँची की दुर्गा पूजा भी पूरे उत्साह और भव्यता से मनाई जाती है। यूँ तो राँची में हर साल दुरंगा पूजा में सैकड़ों पंडाल बनते हैं पर मैं आज आपको इस साल के दस सबसे खूबसूरत पंडालों की झाँकी पर ले चलूँगा।

1. बकरी बाजार पूजा पंडाल

चैतन्य महाप्रभु का जन्म लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल के मायापुर में हुआ था जहां पर आज इस्कॉन का एक भव्य मंदिर है। इस बार का बकरी बाजार का पूजा पंडाल इसी मंदिर की संरचना से प्रेरित होकर बनाया गया है।
बकरी बाजार का पंडाल रांची के सबसे पुराने पंडालों में से एक माना जाता है। हर साल यहां बनने वाले पंडाल अपने विस्तार और भव्यता के लिए जाने जाते रहे हैं। यहां के पंडाल के बाहरी स्वरूप में रंगों का कुशल संयोजन तो होता ही है, साथ ही प्रकाश के शानदार इस्तेमाल से रात में पूरा पंडाल इस तरह जगमगाता उठता है कि देखने वाला एक ही नज़र में पूरे दृश्य का कायल हो जाता है।
पंडाल में पर्याप्त जगह होने की वजह से लोग यहां के तरह-तरह के झूलों का भी खानपान के साथ खूब आनंद उठाते हैं। अगर रांची की जनता के अंदर के उत्साह को आप महसूस करना चाहते हैं तो बकरी बाजार के आसपास की गलियों से आपको एक बार तो गुजरना ही होगा।
मैं इस पंडाल में शाम के ठीक पहले पहुंचा ताकि दिन की ढलती रोशनी और रात के अलग-अलग दृश्य को एक साथ दिखला सकूं। आकाश के बदलते रंगों के साथ इस पंडाल की छवियों को कैद करना मेरे लिए एक बेहद सुखद एहसास रहा। शायद यही सुकून इन चित्रों को देखने के बाद आपके मन में भी तारी हो

रात में जगमगाता मायापुर के मंदिर का प्रतिरूप



2. रांची रेलवे स्टेशन पूजा पंडाल

रांची के भव्य पंडालों में पिछले कुछ वर्षों में रेलवे स्टेशन का पंडाल कलात्मकता की दृष्टि से बकरी बाजार के पंडाल को पीछे छोड़ता आया है।
मां का मंडप और दीवार की आंतरिक साज-सज्जा मन को मोहती तो है पर इस बार का पंडाल अपने पिछले रूपों की तुलना में थोड़ा फीका जरूर पड़ा है। फिर भी रांची के पंडालों में इस साल भी इसका बोलबाला तो जरूर रहेगा। तो आइए मेरे साथ देखिए इस पंडाल की कुछ छवियां


शनिवार, 16 जुलाई 2022

झारखंड ओड़िशा सीमा की वो मानसूनी शाम Monsoon magic at Jharkhand Odisha Border

ट्रेन से की गई यात्राएं हमेशा आंखों को सुकून पहुंचाती रही है। यह सुकून तब और बढ़ जाता है जब मौसम मानसून का होता है। सच कहूं तो ऐसे मौसम में ट्रेन के दरवाजे से हटने का दिल नहीं करता। ऐसी ही एक यात्रा पर मैं पिछले हफ्ते झारखंड से ओड़िशा की ओर निकला।


पटरियों पर ट्रेन दौड़ रही थी। आंखों के सामने तेजी से मंजर बदल रहे थे। बादल और धूप के बीच आइस पाइस का खेल जारी था। नीचे उतरती धूप पर कभी बादलों की फौज पीछे से आकर धप्पा मार जाती तो कभी बादलों को चकमा देकर उनके बीच से निकल कर आती  धूप पेड़ पौधों और खेत खलिहान के चेहरे पर चमक ले आती।

रविवार, 19 जून 2022

तारादेवी व शिमला की वो बारिश भरी शाम A misty evening in Shimla and Taradevi

यह शिमला के मेरी पहली यात्रा नहीं थी। अंतर सिर्फ इतना था की पहली बार मनाली से लौटते हुए शिमला में रुके थे और इस बार शिमला होते हुए किन्नौर और फिर स्पीति की यात्रा पर जा रहे थे। इस बार एक फर्क ये भी था कि शिमला के आस पास होते हुए भी हम शहर से कोसों दूर थे। शहर से दूर रहकर उसकी खूबसूरती को देखना बेहद सुकूनदेह होता है, खासकर तब जब आप पहाड़ों में हैं। ये बात मैंने मुन्नार और मसूरी जैसी जगहों में अनुभव करके देखी थी।  

मुन्नार से थेक्कड़ी के रास्ते में जाती घुमावदार सड़कों के दोनों ओर मखमली कालीन की तरह बिछे चाय बागानों में अपने आप को गुम कर लेना और कानाताल में सुबह सुबह बड़े से चांद को पर्वतों के पीछे ढकेल कर बंदरपूंछ की चोटियों पर सूर्य की पहली किरणों के स्पर्श का इंतजार करना अभी तक भूला नहीं है। इसीलिए इस बार जब शिमला गए तो मुख्य शहर में न रहकर वहां से दस किमी दूर तारा देवी में रहना मुनासिब समझा।


तारा देवी में मां दुर्गा का एक प्राचीन मंदिर है। सत्रहवीं शताब्दी में सेन वंश के शासकों ने इसे बनाया था। आज भी हिमाचल के जुनगा में उनका प्राचीन महल जीर्ण शीर्ण हालत में उपस्थित है। ऐसी किंवदंतियाँ है कि दुर्गा की बेहद छोटी एक प्रतिमा को लॉकेट के रूप में बंगाल से शिमला तक लाया गया था । बाद में राजा भूपेंद्र सेन को स्वप्न में जब माँ तारा ने दर्शन दिए तो राजा ने यहाँ मंदिर बनाने के आदेश दिए। तारा देवी की पहली प्रतिमा लकड़ी की बनी जिसे बाद में अष्ट धातु से बदल दिया गया।  

हिंदी फिल्मों में असित सेन, अपर्णा सेन व सुचित्रा सेन जैसे नामी कलाकारों को तो आप सभी जानते हैं पर शिमला में ऐसे नाम के शासकों का होना उनके बंगाल से जुड़ाव की ओर इशारा करता था। इतिहास के पन्ने टटोले तो पता चला कि शिमला के आस पास के इन इलाकों में क्योंथल रियासत के राजा राज करते थे जिनके पहले नरेश बंगाल से यहाँ पधारे थे इसीलिए ये वंश सेन वंश कहलाया। 

बारिश में नहाते तारा देवी के घने जंगल

दिल्ली से चंडीगढ़ होते हुए जब हम दिन में 3:00 से 4:00 के बीच तारा देवी पहुंचे तो हल्की हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। होटल के सामने ही हरी-भरी शानदार घाटी थी बादलों के पतले पतले फाहे बड़ी तेज़ी से उमड़ते घुमड़ते नीचे घाटी की तलहटी को छूने आ रहे थे। पर्वतों के शिखर के आस पास पेड़ों को उन्होंने अपने आँचल में छुपा रखा था। नीचे घना जंगल था और उसके ठीक बीचों बीच तीन चार घर दिखाई दे रहे थे प्यारे से। मन किया कि उड़ के पहुँच जाऊँ उन घरों के बाहर पसरी हुई हरी दूब की चादर पे, इससे पहले कि बादल उन्हें इस बाहरी दुनिया से ओझल कर दें।

दिमाग ने कल्पना को हल्की सी चपत लगाई और दुष्यंत कुमार का ये शेर फुसफुसाते हुए कानों में डाल दिया

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।

तो बस मन मसोस कर अपने सपने को कैमरे में क़ैद भर कर लिया। तस्वीर खिंचने के चंद मिनटों में बाहर मेघों की स्याह सफेदी के आलावा कुछ भी नहीं था। ना वो घर , ना घाटी में फैले हुए हरे भरे जंगल। मेरा सपना उस सफेद धुंध में गुम सा हो गया था।

बारिश की वजह से करीब साढे 6 किलोमीटर दूर तारा देवी के मंदिर में जाना संभव तो नहीं हो पाया इसलिए सामने के जंगल का आनंद लेते हुए हम यूं ही चहल कदमी करने लगे। 

होटल के बाहर गौरैया का एक बड़ा सा झुंड

बारिश की फुहारों के बीच ही पक्षियों का कलरव सुनाई दिया। थोड़ी ही दूर पर एक झाड़ी के आस पास गौरैया का विशाल झुंड सम्मेलन कर रहा था। कहाँ भारत के कई हिस्सों में ये कभी कभार नज़र आती हैं पर यहाँ प्रकृति की हरी चादर के बीच मज़े में हँसी ठिठोली कर रही थीं। बगल की डाल पर हिमालय में रहने वाली काली और पीले पार्श्व वाली बुलबुल भी उड़ती नज़र आयीं। सामने अपने दोनों हाथों खोल बुलाता जंगल, पक्षियों की चहचहाहट और मंद मंद चलती ठंडी बयार मन को प्रफुल्लित किये दे रही थी। मन में यही विचार आया कि दुनिया की हर जगह ऊपरवाले ने अपने आप में निराली और विशिष्ट बनाई थी पर कई जगह हमने उसके मूल स्वरूप से इतनी छेड़छाड़ की वो जगहें उजाड़ और रसहीन हो गयीं।

कमरे की खिड़की से बाहर की छटा

आधे घंटे बाद होटल के कमरे में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए शीशे का पर्दा हटाया तो बारिश गायब थी। पर पहाड़ों की बारिश का क्या ठिकाना कब जाए और कब वापस आ जाए? सो हम निकल लिए ढलती शाम और उतरते अँधेरे के बीच शिमला का रूप रंग देखने के लिए। बाहर आसमान खुल चुका था। घाटी में उतरे हुए बादल अपने को जलविहीन कर मानो अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए थे। हल्के फुल्के मन से अब वो पास पड़ोस की घाटियों पर डोरे डालने में लगे थे।

घाटी में तफ़रीह करते बादल


सूरज की किरणें शिमला के रंग बिरंगे घरों को कल फिर आने का वादा दे के पर्वतों के पार धीरे धीरे कदमों से आगे बढ़ते हुए विदा ले रही थीं। बड़ा ही सुहाना दृश्य था। आख़िर मुझसे ना रहा गया तो किनारे गाड़ी खड़ी करवा के चुपचाप ढलते सूरज और मचलते बादलों को निहारता रहा। ढेर सारी तस्वीरें लीं और फिर शिमला की ओर बढ़ चला।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

चला मन फिर पलाश के पीछे Flame of Forest : Palash

हर साल बसंत ॠतु के आगमन के साथ इंतज़ार रहता है कि कब पलाश की कलियाँ फूल बन कर पूरी छटा को अपनी लालिमा से ढक लेंगी। होली आते आते पलाश अपने रूप रंग में आने लगता है और ये आज की बात नहीं है। पहले जब रासयनिक रंग नहीं होते थे होली का त्योहार टेसू से बनाए गए गुलाल से लहकता महकता था। आदिवासी समाज तो प्राकृतिक रंगों का प्रयोग शुरु से करता आया है। वक्त के साथ इनके इस्तेमाल की प्रवृति आम जन मानस में भी बढ़ी है।

लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश

गर्मियों में पलाश का सुर्ख नारंगी रंग जंगल की आग की तरह सखुआ के जंगलों में यहाँ वहाँ फैलता है। बसंत में जहाँ सखुआ अपनी हरीतिमा और अपने हल्के पीले फूलों से हमारी आँखों को तरोताज़ा रखता है वही पलाश की लाली 
अपनी लहक से उस हरियाली को और मनोहर बना देती है।
सखुआ के हरे भरे जंगल और उनके बीच से झांकता पलाश


जनजातीय समाज में सखुआ के वृक्षों का विशेष महत्त्व रहा है। प्रकृति पर्व सरहुल जो कि आदिवासी नववर्ष के रूप में मनाया जाता है में सखुआ की पूजा की जाती है और स्त्रियाँ उसके पुष्प सिर में लगा कर नृत्य करती हैं। जंगल से जुड़े आदिवासी समुदाय में हर व्यक्ति को सखुआ के पेड़ लगाने के लिए प्रेरित किया जाता है। शायद यही वज़ह है झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल और उड़ीसा के जंगलों में प्राकृतिक साधनों के दोहन के बाद भी सखुआ के जंगल बहुतायत में हैं। वसंत में सेमल और गर्मियों में पलाश सखुआ के इस एकछत्र साम्राज्य को तोड़ता है।


सखुआ के वृक्षों से अलग पलाश के वृक्ष यत्र तत्र बिखरे नज़र आते हैं। दूर से इन्हें देख के ऐसा लगेगा कि धूप से पीली पड़ चुकी धरती पर किसी ने आधर उधर नारंगी स्याही छिड़क दी हो। 

सखुआ के जंगलों के सामने बिखरे पलाश वृक्ष

लो, डाल डाल से उठी लपट! लो डाल डाल फूले पलाश
यह है बसंत की आग, लगा दे आग, जिसे छू ले पलाश

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

सड़क मार्ग से चलिए राँची से राउरकेला तक Road Trip from Ranchi to Rourkela

राँची से राउरकेला तक अक्सर ट्रेन से जाना होता रहा है। ट्रेन बड़े मजे में तीन घंटे में वहाँ पहुँचा देती है। कर्रा, लोधमा, गोविंदपुर रोड, बकसपुर जैसे स्टेशनों से होते हुए बानो पहुँचिए और फिर वहाँ से झारखंड और ओड़िशा के सीमावर्ती घने जंगलों का आनंद लेते हुए नुआगाँव में प्रवेश कर जाइए। बरसात में इन पठारी इलाकों के बीच की धान की खेती और गर्मियों में सेमल और पलाश के फूलों को खिलता देखना पूरे सफ़र में आँखों को तरोताज़ा रखता है।

सकल बन फूल रही सरसों

पर इस बार मुझे मौका मिला इसी दूरी को सड़क से नापने का। अभी मौसम का हाल तो ये है कि फरवरी में भी पूरी तरह ठंड जाने का नाम नहीं ले रही इसलिए सेमल के फूलों की लाली देखने को नहीं मिली। हाँ सरसों के हरे पीले खेतों ने नज़ारा रंगीन जरूर कर दिया।