दिसम्बर के महीने में अचानक से यूँ ही कहीं चल देना आसान नहीं होता। ट्रेन में टिकटें नहीं रहतीं और हवाई जहाज के किराए तो आसमान छूने लगते हैं। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि अपनी गाड़ी निकालो और चलते बनो। मेरे एक पर्वतारोही मित्र ऐसे हैं जो अकेले ही गाड़ी चलाते हुए राँची से नागालैंड और हिमाचल तक की यात्रा कर चुके हैं। दिक्कत ये थी कि मैं गाड़ी चलाता नहीं और ऐसे में जब उन्होंने राँची से अराकू घाटी तक चलने का सुझाव दिया तो मैं अचकचाया क्यूँकि 1000 किमी अकेले चलाकर जाना और आना तो किसी के लिए भी दुष्कर कार्य है। हमने कई और जगहों के बारे में सोचा पर अंततः उनके आत्मविश्वास को देखते हुए मैं तैयार हो गया।
हफ्ते भर की इस यात्रा में हमें दक्षिणी ओडिशा के उन हिस्सों को देखने की तमन्ना थी थे जिस की ओर बाहर से आने वाले शायद ही रुख करते हों। कालाहांडी, कंधमाल और कोरापुट जैसे आदिवासी बहुल जिलों की प्राकृतिक सुंदरता को करीब से देखने का इरादा था हमारा। अपने अंतिम मुकाम तक पहुँचने के बजाए हम ज्यादा उत्साहित उस रास्ते से थे जो हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचाने वाला था।
राँची से हमारा पहला पड़ाव संबलपुर था जहाँ करीब एक दशक पहले मैं हीराकुद बाँध देखने गया था। दिसंबर की एक सुबह जब हम राँची से निकले तो हमें एक चमकदार सुबह और नीले आसमान की तलाश थी। आख़िर सर्दी के दिनों में ये दोनों साथ रहें तो सफ़र और भी खूबसूरत हो जाता है। पर ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था। दिन चढ़ते ही बादलों ने जो हमारा दामन ऐसा थामा कि हीराकुद तक छोड़ा ही नहीं।
राँची से सिमडेगा तक की राहें..
राँची से सिमडेगा के लिए हमने बकसपुर, कामडारा और कोलेबिरा वाला रास्ता चुना। कर्रा से बकसपुर का रास्ता मरम्मत की तलाश में है। दुबली पतली सड़कें यूँ तो ठीक हैं पर बीच बीच में अचानक से ही गढ्ढे भी आ जाते हैं। धान की फसल कट जाने के बाद खेतों में भी वीरानी पसरी थी जो धुँधले आसमान में और भी गहराती जा रही थी।कस्बे बीच बीच में इस चुप्पी को तोड़ते पर उनकी चिल्ल पों से उकता कर मन जल्दी से खुले रास्तों के आने की उम्मीद करने लगता।
इस रास्ते में आने वाले कस्बों के बाहर ज्यादा ढाबे नहीं है्। पहली ढंग की जगह हमें कोलेबीरा के बाद नज़र आई जहाँ हम जलपान के लिए रुके। थोड़ी ही देर में हम दक्षिणी पश्चिम झारखंड की सीमा से सटे सिमडेगा जिले में थे। सिमडेगा को झारखंड में हॉकी के गढ़ के रूप में भी जाना जाता है। एक समय था जब सिमडेगा में ओड़िया राजाओं की हुकूमत चलती थी। ओडिसा से सटे होने के कारण आज भी जिले के भीतरी इलाकों में ओड़िया संस्कृति का असर दिखता है। वैसे आज की तारीख में जिले की आधे से अधिक आबादी ईसाई है।
सिमडेगा की हरी भरी पहाड़ियाँ
सिमडेगा से आगे निकलते ही शंख नदी का विशाल रूप सामने आ गया। शंख नदी झारखंड के गुमला जिले से निकलती है और मुख्यतः झारखंड और थोड़ी दूर छत्तीसगढ की सीमा में बहते हुए राउरकेला के पहले दक्षिणी कोयल नदी में मिल जाती है। इनके संगम स्थल को वेदव्यास कहा जाता है क्यूँकि ऐसा माना जाता है कि महर्षि व्यास ने कुछ समय इस संगम पर बिताया था।
सिमडेगा के पास इसका विशाल पाट अथाह जलराशि समेटे मंद मंद बह रहा था। काश के फूलों ने नदी की तट रेखा अपने नाम कर ली थी। सफ़र को विराम देने के लिए ये एक अच्छी जगह थी। कुछ देर पानी की स्निग्ध धारा और उसमें तैरते पक्षियों को निहार कर हम फिर आगे बढ़ चले।
शंख नदी का तट जहाँ अभी भी कास के फूलों की बहार है
ओड़िशा में प्रवेश करते ही हम राज्य राजमार्ग 10 पर आ गए जो राउरकेला से संबलपुर होते हुए कोरापुट को जोड़ता है। फोर लेन हाइवे को देखते ही हमारी गाड़ी हवा हवाई हो गयी इस रास्ते की वज़ह से अब हम करीब साढ़े छः घंटे में ही हीराकुद के पास पहुँचने की स्थिति में आ गए। हालांकि तेज रफ्तार का खामियाजा हमें बाद में भुगतना पड़ा। वापस इसी रास्ते से लौटते समय पता चला कि हमने सौ किमी प्रति घंटे की निर्धारित गति सीमा कहीं पार कर ली थी। ओड़िशा में सरकार ने राजमार्गों पर जगह जगह कैमरे लगाए हुए हैं जो गतिसीमा पार करने पर न्यूनतम दो हजार रुपये का जुर्माना जरूर ठोंकते हैं। यूँ तो सिमडेगा से लेकर संबलपुर तक पश्चिमी ओड़िशा का ये इलाका कृषि प्रधान है पर इनके बीच झारसुगुड़ा का औद्योगिक क्षेत्र भी है जहाँ पहुँचते ही लगने लगता है कि हवा धूल कणों से भरी हुई है।
संबलपुर पहुँचने से पहले ही एक रास्ता हीराकुद जलग्रहण क्षेत्र की ओर जाता दिखा। गाड़ी उधर ही मोड़ ली गयी। थोड़ी ही देर में समझ आ गया यही रास्ता हीराकुड इको रिट्टीट को भी जाता है। यहाँ जलाशय के बगल में ही सरकार ने टेंट बना रखे हैं। वहाँ कुछ वाटर स्पोर्ट्स की व्यवस्था भी दिखी पर दो लोगों के लिए एक रात गुजारने के लिए आठ हजार खर्च करने का कोई औचित्य नहीं दिखा।
हीराकुद का इको रिट्रीट, नहीं जी हम यहाँ नहीं ठहरे
पानी के किनारे किनारे हम करीब दस किमी चलते रहे। सूर्यास्त का समय पास था पर बादलों की गिरफ़्त से किसी तरह निकलकर सूर्य किरणें मानों छन छन कर नीचे आ रही थीं।अगर मौसम साफ होता तो विशाल जलराशि के बीच यत्र तत्र फैले टापुओं के साथ मछुआरों की दूर धिरे धीरे खिसकती नावों को देखना और भी सुकूनदेह रहता। जाड़े का समय था तो कुछ प्रवासी पक्षी अबलक बत्तख, शिवहंस और सैंडपाइपर दिखे पर उनकी तादाद बहुत ज्यादा नहीं थी। फिर भी राजमार्ग से अलग इस रास्ते पर चलना दिन की यादगार स्मृतियों का हिस्सा बन गया।
चलते चलते हम मुख्य बांध के एकदम पास पहुंच गए पर पता चला कि इधर से आगे सामान्य पर्यटकों को आगे जाने की अनुमति नहीं है। अब गूगल को तो ये सब बातें कहाँ पता रहती हैं सो हमें वापस मुड़कर पास के गाँव के रास्ते हीराकुड जाने वाली दूसरी सड़क की ओर रुख करना पड़ा जो गाँधी मीनार तक जाती है।
मछली पकड़ने के लिए जलाशय में बना स्टेशन
हीराकुड बाँध की परिकल्पना विशवेश्वरैया जी ने तीस के दशक में रखी थी। सन 1937 में महानदी में जब भीषण बाढ़ आई तो इस परिकल्पना को वास्तविक रूप देने के लिए गंभीरता से विचार होने लगा। ये पाया गया कि जहाँ छत्तीसगढ़ में महानदी के उद्गम स्थल का इलाका सूखाग्रस्त रहता है तो उड़ीसा में महानदी का डेल्टाई हिस्सा अक्सर बाढ़ की त्रासदी को झेलता रहता है। लिहाज़ा यहाँ एक विशाल बाँध बनाने का काम आजादी से ठीक पूर्व 1946 में चालू हुआ। करीब सौ करोड़ की लागत से (तब के मूल्यों में) यह बाँध सात साल यानि 1953 में जाकर पूरा हुआ और 1957 में नेहरू जी ने इसका विधिवत उद्घाटन किया। मिट्टी और कंक्रीट से बनाया गया ये बाँध विश्व के सबसे लंबे बाँध के रूप में जाना जाता है।
शाम की धुंध में लिपटा हीराकुद बाँध
एक दशक पहले जब यहाँ पहुंचा था तो यहाँ लोगों की आवाजाही इतनी नहीं होती थी पर पिछले कुछ सालों में सरकार ने जवाहर उद्यान के साथ साथ गाँधी मीनार के बाहरी स्वरूप का कायाकल्प किया है जिसकी वज़ह से यहाँ लोग सैकड़ों की संख्या में दिखने लगे हैं। अब एक रोपवे भी बन गया है जो गाँधी मीनार से जवाहर उद्यान को जोड़ता है हालांकि वो बाँध के ठीक ऊपर से नहीं जाता। मीनार की सर्पीली सीढ़ियों को जल्दी जल्दी पार कर हम सब मीनार के ऊपर पहुँचे ताकि ढलती शाम और गहराती धुंध के बीच कुछ तस्वीरें ली जा सकें।
गाँधी मीनार से नीचे का दृश्य
हमलोग जिस रास्ते से आ रहे थे वही राह आगे जाकर दाँयी वाली सड़क में मिलती
गाँधी मीनार से जाता रोपवे जो पास के नेहरू पार्क में उतरता है
संबलपुर में हमने होटल की बुकिंग पहले से नहीं कर रखी थी। हालांकि इंटरनेट से कई होटलों के रेट देख रखे थे। ऐसे ही एक होटल में जब हम पहुँचे तो कमरे की कीमत नेट पर बताई गयी कीमत से बारह सौ रुपये ज्यादा दिखी। मैंने कहा अगर ऐसा है तो फिर नेट से ही क्यूँ न आरक्षण कर लें। कमरा देख के जब लौटे तो नेट में अचानक ही सारे कमरे आरक्षित बताए जाने लगे। होटल वालों ने इतनी ही देर में अपना कमाल दिखला दिया था। ख़ैर हमें भरोसा था कि इतने बड़े शहर में कई अन्य विकल्प और मिल जाएँगे। और हुआ भी वही।
हीराकुड बांध के अलावा संबलपुर जिस चीज के लिए मशहूर है वो है यहाँ की साड़ी। हाथ से बनी इन साड़ियों के पारंपरिक डिजाइन तो आपने देखे ही होंगे। संबलपुरी साड़ियाँ संबलपुर के अलावा मध्य और पश्चिमी ओडिशा के जिलों बलांगीर, सोनपुर बारगढ़ आदि में भी बनती हैं। अगर आप संबलपुर जाएँ तो एक बार यहाँ के गोल बाजार का चक्कर जरूर लगाएँ। यहाँ आपको सरकारी और निजी दुकानों में अपनी पसंद का कोई ना कोई संबलपुरी परिधान मिल ही जाएगा।
संबलपुरी प्रिंट के कपड़े
ओड़िशा सामिष भोजन के लिए जाना जाता है पर मैं तो ठहरा शाकाहारी तो वापस की यात्रा में यहाँ की चाट का आनंद लेते हुए गया।
संबलपुर में चाट का आनंद चाट महाराज में
संबलपुर से चलते चलते हजामत बनाने वाली इस दुकान के इस नाम पर नज़र ठहर गई। अब बताइए भला अगर दुकानदार को लेडीज़ पार्लर खोलना होता तो वो इसका क्या नाम रखता? :) हमारा अगला पड़ाव ओड़िशा का छोटा सा पर्वतीय स्थल दारिंगबाड़ी था जो कि वहाँ के कांधमल जिले में स्थित है और जिस तक पहुँचने के लिए इसी महानदी को पार करते हुए कालाहांडी के जंगलों से होकर गुजरना था।