अब तक बनारस चार पाँच बार जा चुका हूँ। पर एक पर्यटक की हैसियत से बनारस जाना कम ही हो पाया है। बचपन में पिताजी मुझे एक बार अवश्य बनारस घुमाने ले गए थे। पर आज मस्तिष्क पर जोर डालने से धुँधली सी बस दो स्मृतियाँ ही उभरती हैं। एक तो गंगा तट पर नौका विहार की और दूसरे तुलसी मानस मंदिर में रामायण के चलते फिरते किरदारों के सुंदर मॉडलों की। ज़ाहिर है बाल मन पर इस दूसरी छवि का ज्यादा असर हुआ। इसके बाद बनारस जाना तो नहीं होता था पर जब भी किसी सफ़र में रेलगाड़ी बनारस के रास्ते मुगलसराय की ओर निकलती हम भाई बहन माँ पिताजी से पैसे लेकर गंगा के पुल से नीचे फेंकना नहीं भूलते थे।
फिर परास्नातक की पढ़ाई के लिए IT BHU का फार्म लाने 1994 में बनारस आना हुआ। पहली बार बनारस की टेढ़ी - मेढ़ी गलियों में रास्ता भूल जाने का अनुभव भी तभी हुआ। तब तक बनारस की छवि एक मंदिरों वाले शहर से बदलकर भीड़ भाड़ वाले एक आम मध्यमवर्गीय नगर के रूप में हो चुकी थी। कुछ सालों बाद जब लेखक पंकज मिश्रा का प्रथम उपन्यास दि रोमांटिक्स (The Romantics) पढ़ा तो बनारस की उस यात्रा की याद ताज़ा हो गई। पुस्तक की शुरुवात में ही मुख्य किरदार इस शहर के बारे में अपनी यादें बाँटते हुए कहता है...
"मैं जब पहली बार 1989 की ठिठुराती ठंड में बनारस पहुँचा तो मुझे नदी किनारे के एक टूटे फूटे मकान में शरण मिली। पर आज आप वैसी जगहों में पनाह पाने की उम्मीद नहीं पाल सकते। जापानी पर्यटकों के लिए सस्ती दरों के अतिथि गृह और जर्मन पेस्ट्री की दुकानें आज नदी किनारे की शोभा बढ़ाती हैं। रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डों पर खड़े दलाल आपको नए बनारस में बने कंक्रीट और काँच की दीवारों से सुसज्जित होटलों में ले जाने को उद्यत रहते हैं। इस नए मध्यमवर्ग की धनाढ़यता आखिरकार बनारस में आ ही गई है। हिंदुओं का ये पवित्रतम तीर्थस्थल जहाँ हजारों सालों से पुनर्जन्म के चक्र से श्रृद्धालु छुटकारा पाने के लिए आते रहे हैं, अब एक भीड़ भरी व्यवसायिक नगरी में तब्दील हो चुका है।
पर ऍसा तो होना ही था। इस बदलाव के लिए ज्यादा दुखी होने की आवश्यकता नहीं। बनारस एक ऐसा शहर है जिसे मुस्लिम और अंग्रेज आकाओं के शासनकाल में कितनी ही बार विनाश और पुनर्निर्माण की प्रकिया से गुजरना पड़ा है। वैसे भी हिंदुओं की ये मान्यता है कि बनारस या वाराणसी भगवान शिव का घर है जो ख़ुद ही सृष्टि के रचनाकार और विनाशकर्ता रहे हैं। विश्व का स्वरूप सतत बदलता रहा है और जब हम इस नज़रिए से किसी शहर को देखते हैं, पुरानी बातें ना रह पाने के लिए अफ़सोस करना व्यर्थ ही जान पड़ता है।"
पंकज की ये टिप्पणी भारत के किसी भी शहर के लिए सटीक जान पड़ती है। अगर आज के पटना में सम्राट अशोक के पाटलिपुत्र की छाप देखने जाएँगे या लखनऊ की उसी अवधी नज़ाक़त को महसूस करना चाहेंगे तो निराशा ही तो हाथ लगेगी।
इस साल जब जनवरी के अंत में बनारस जाने का मौका मिला तो उद्देश्य सिर्फ शादी का समारोह में शिरक़त करने का था। पर थोड़ा अतिरिक्त समय और साथ में वाहन होने की वज़ह से लगा कि मेहमानों के साथ पुरानी यादें ताज़ा करने का ये मौका अच्छा है। तो मैं सबके साथ निकल लिया बनारस के कुछ मंदिरों की सैर पर।
हमारे ठहरने की जगह से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पास ही था। तो सबसे पहले हम सब इस विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थित नए विश्वनाथ मंदिर में गए। बिड़ला परिवार द्वारा बनाया ये मंदिर अहिल्या बाई होलकर द्वारा अठारहवीं शताब्दी में बनाए गए पुराने मंदिर का ही प्रतिरूप है।
मंदिर परिसर में घुसते ही पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। इस मंदिर की निर्माण योजना में मालवीय जी का खासा योगदान रहा है। सफेद संगमरमरसे बनाए गए इस मंदिर की दीवारों पर भारतीय धर्मग्रंथों से लिए गए आलेख अंकित हैं।
पिछली तीनों बार जब जब बनारस आना हुआ है इस मंदिर में मैं गया हूँ। पर प्रथम बार यहाँ आने का अनुभव अब भी नहीं भूलता।
तब सुबह आठ बजे के आस पास मैं वहाँ पहुँचा था। पूरा परिसर लगभग खाली था। मुख्य मंदिर के सामने एक महिला हारमोनियम लिए बड़ी तन्मयता से एक भजन गा रही थी। मंदिर के विशाल कक्ष में गूँजती उनकी आवाज़ पूरे वातावरण को निर्मल किए दे रही थी। वहाँ से निकलकर मंदिर के पिछवाड़े में गया तो देखा कि कॉलेज के छात्र मंदिर के फर्श पर ही बैठे लेटे पढ़ाई में तल्लीन हैं। भक्ति और विद्या के रंगों से रँगा ये वातावरण मन को भीतर तक प्रफुल्लित कर गया। अपने इसी अनुभव की वज़ह से मुझे यहाँ जाना हमेशा ही अच्छा लगता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर से निकलने के बाद हम यहाँ के प्रसिद्ध संकट मोचन मंदिर गए। मार्च २००६ में इसी मंदिर का अहाता आतंकवादियों के निशाने पर रहा था। यहाँ के लोग कहते हैं कि यहाँ नुकसान और हो सकता था अगर एक बंदर ने दूसरे बम को दूर ना फेंक दिया होता। इस घटना के बाद से बनारस के विभिन्न मंदिरों के अंदर चित्र लेने की मनाही हो गई है।
संकटमोचन मंदिर के पास ही दुर्गा मंदिर और तुलसी मानस मंदिर भी अवस्थित हैं। कत्थई रंग का दुर्गा मंदिर भी बेहद पुराना मंदिर हैं। मंदिर से जुड़ा एक कुंड है जिसे दुर्गा कुंड के नाम से जाना जाता है। यहाँ की मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि वह मानव निर्मित ना होकर स्वतः बाहर आई थी। नवरात्र के समय यहाँ भारी भीड़ होती है।
तुलसी मानस मंदिर जिसकी चर्चा मैंने पोस्ट के आरंभ में की, दुर्गा मंदिर से कुछ कदमों के फासले पर है। कहा जाता है कि तुलसीदास ने यहीं बैठकर रामचरितमानस की रचना की। वर्ष 1964 में बने इस मंदिर की विशेषता ये है कि इसकी दीवारों पर रामायण का प्रत्येक अध्याय अंकित है है। फिर रामायण के विभिन्न प्रसंगों को बिजली से चलते मॉडलों के रूप में देखना बच्चों और बड़ों सब को बेहद सुहाता है।
इन मंदिरों को देखते देखते दिन के डेढ़ बज चुके थे सो हम वापस चल दिए। बनारस शहर वैसे सिर्फ मंदिरों का शहर नहीं है। बहुत कुछ है इस शहर से जुड़ा हुआ जिसे शायद फिर कभी देखना समझना होगा। बनारस की बात खत्म करने के पहले यहाँ के एक शिक्षाविद और कवि ज़मज़म रामनगरी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो उन्होंने अपने इस शहर के लिए कही हैं....
यही मिट्टी हमारे पूर्वजों का इक ख़जाना है
इसी मिट्टी से आए हैं इसी मिट्टी में जाना है
कला का केंद्र है काशी, यहीं बनती है वो साड़ी
मुसलमान जिसका ताना है और हिंदू जिसका बाना है