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रविवार, 2 मार्च 2014

वाराणसी की गंगा आरती : एक शब्द चित्र ! (Ganga Arti of Varanasi)

जैसा कि मैंने आपको पिछले आलेख में बताया था घाट परिक्रमा के बाद वापस दशाश्वमेध घाट पर पहुँचते पहुँचते शाम के छः बज चुके थे। घाट के किनारे चौकियों की कतार बिछ चुकी थी। मोर पंख, शंख, दीपदान व हवन सामग्री इन सात चौकियों की शोभा बढ़ा रहे थे।  चौकियों के सामने ही सफेद रंग की चादरों के साथ दरियाँ बिछा दी गयी थी,  जिस पर भक्तजनों ने बैठना शुरु कर दिया था। 

पिताजी के साथ कुछ देर मैं भी वहाँ बैठा रहा पर तैयारी में कुछ समय देख कर बगल के मानमंदिर घाट पर चला गया। वहाँ पर सन्नाटा छाया था सो ज्यादा देर बैठने का मन नहीं हुआ। मानमंदिर घाट की दूसरी तरफ़ प्रयाग घाट की ओर भी गंगा आरती की तैयारियाँ चल रही थीं। वापस लौटा तो देखा दरी के आलावा घाट की सीढ़ियों और चबूतरों पर भी भाड़ी भीड़ जमा है।

गंगा आरती : पूजा की चौकी
सात पंडितों को एक साथ आरती करते देखने के लिए मुझे एक ऊँचे चबूतरे की तलाश थी। घाट की सीढ़ियों के ऊपर एक छोटे से रेस्ट्राँ के सामने एक चबूतरा दिखा। छः सात विदेशी वहाँ पहले ही आसन जमाए बैठे थे पर एक दो लोगों के खड़े होने की थोड़ी सी जगह थी। उनमें से सारे अंग्रेज तो नहीं थे पर Excuse me का सहारा लेते हुए उनके पीछे से होते हुए उस खाली जगह तक पहुँचा। नीचे पालथी मारकर चबूतरे पर बैठा ही था कि मेरे जूते का कोना नीचे लगी अस्थायी पान की दुकान से लगा। मैंने तुरंत खेद व्यक्त किया पर पान वाला मेरे अभद्र आचरण पर बनारसी क्रोध दिखाता रहा। मैं चुप रहा क्यूँकि पंगा लेने से मेरा वहाँ जाने का उद्देश्य पूरा नहीं होता। 

तभी एक साड़ी पहने जापानी महिला वहाँ कुछ खरीदने आई। पानवाले का ध्यान मेरे से हटा। लाल बार्डर और सफेद आँचल की साड़ी पहने वो महिला देवदास की पारो सी प्रतीत हो रही थी। सोचने लगा भारतीय संस्कृति कहाँ कहाँ के लोगों को आकर्षित कर लेती है और हम हैं कि अपनी ही संस्कृति से दूर भागने को आतुर हैं।

पंडित तैयार हैं..
साढ़े छः बज चुके थे और आरती अब शुरु होने ही वाली थी। सात पंडितों का दल सामने आ कर खड़ा हुआ था। पंडितों के नाम से मुझे हमेशा अधेड़ स्थूलकाय प्राणी की छवि ध्यान में आती थी। पर यहाँ तो अधिकांश दुबले पतले युवा थे और उनमें से एक ने तो बिल्कुल नए स्टाइल का चश्मा भी पहन रखा था। सबने सुनहरे श्वेत रंग की धोती और मैरून अचकन पहन रखी थी जो देखने में भव्य लग रही थी।

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

बनारस की घाट परिक्रमा...Ghats of Varanasi !

गंगा मेरे लिए कभी अपरिचित नहीं रही। पटना के जिस स्कूल में मैं पढ़ता था, गंगा ठीक उसके पीछे से बहा करती। सामान्यतः स्कूल की चारदीवारी से गंगा की दूरी पचास मीटर के करीब होती पर बरसात के दिनों में नदी का पानी स्कूल तक पहुँच जाता। नदी के प्रति हमारी दिलचस्पी इन्हीं दिनों बढ़ती। रोज़ चारदीवारी में बने दरवाजे से झाँककर देखते कि नदी का पानी कितना पास आया है। थोड़ी बारिश और स्कूल का तीन चार दिन बंद होना तय क्यूँकि तब पानी हमारे खेल के मैदान में भर जाता और कोई छुट्टी बिना किसी पर्व के मिल जाए तो उससे आनंद की बात और क्या हो सकती है?। पर पटना में एक दशक से भी ज्यादा व्यतीत करने के बाद भी इस नदी के तट पर ज्यादा समय बिताने का मौका नहीं मिला। इसलिए पिछली बार जब बनारस गया तो ये मन बना लिया था कि इस बार वहाँ की महिमामयी गंगा के पास कुछ वक़्त जरूर बिताऊँगा। 

विश्वनाथ मंदिर और दशाश्वमेध घाट की ओर जाती सड़क

दिन के चार बजे दुर्गा कुंड से घाट की ओर जाने वाले आटोरिक्शा में बैठा पर बनारस की व्यस्त सड़कों और बेतरतीब ट्राफिक के बीच घाट तक पहुँचने में आधे घंटे के बजाए पूरा एक घंटा लग गया। घाट की ओर जाने वाली सड़क पर भीड़ भाड़ की वजह से पैदल ही जाना पड़ता है। इस मार्ग में एक रास्ता बनारस के प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर की ओर कटता है जबकि अगर आप सीधे चलते रहें तो यहाँ के प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट तक पहुँच जाते हैं।
 दशाश्वमेध घाट (River Ganges near Dashaswamedh Ghat)

दशाश्वमेध घाट तक पहुँचते पहुँचते शाम के पाँच बज चुके थे। आरती का समय नहीं हुआ था इसलिए घाट पर अभी ज्यादा भीड़ नहीं थी। घाट पर दो तरह की नावें लगी थी् एक जो लोगों को नदी से निकली उथली ज़मीन के पास की मुख्य धारा की तरफ़ ले जा रही थीं। बाहर से आने वाले ज्यादातर लोग उधर ही स्नान के लिए जाते दिखाई पड़े। वैसे भी घाटों के पास हम जैसे मनुष्यों ने 'गंगा' को गंगा जैसा पवित्र रहने ही कहाँ दिया है? 


 धर्म और व्यापार आज के बनारस की पहचान बस इस चित्र जैसी ही रह गई है।


शनिवार, 26 जनवरी 2013

आइए शरीर को Message करें बनारस में ! 'Message' your body from Varanasi :)

गणतंत्र बने साठ साल से ज्यादा हो गए पर अंग्रेजों की दी गई निशानी अंग्रेजी भाषा से हम भारतीयों का प्रेम सालों साल दोगुनी चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रहा है। हालत ये है कि उसे हम हर हाल में अपनाने को तैयार रहते हैं चाहे उसमें रत्ती भर की महारत ना हासिल हो। अंग्रेजी की कौन कहे हिंदी में भी आलम यही है। इसलिए आप देश के किसी भी हिस्से में जाएँ हिंदी के साइनबोर्ड और विज्ञापनों में आपको तमाम गलतियाँ मिल जाएँगी। ख़ैर मैं बात भारतीयों के अंग्रेजी प्रेम की कर रहा था। कई बार इसका नतीजा ये होता है कि अंग्रेजी के अधकचरे ज्ञान के बावज़ूद इसका प्रयोग करने की चाहत अर्थ का अनर्थ कर देती है। ऐसा ही एक प्रयोग मुझे पिछले हफ्ते बनारस में नज़र आया।

हुआ यूँ कि पिछले हफ्ते कुछ काम से बनारस का चक्कर लगा। संयोग से पहले दिन व शाम का समय खाली मिल गया तो सोचा जरा उस समय का सदुपयोग बनारस के मंदिरों और घाटों के दर्शन में बिताया जाए। दुर्गा कुंड और मानस मंदिर से आगे जाती मुख्य सड़क पर एक मंदिर दिखा जिसे अपनी पिछली बनारस व सारनाथ यात्रा में मैं नहीं देख सका था। अंदर जाकर पता चला कि इसे बनारस के राजस्थानी समुदाय द्वारा बनाए गया है और इसका नाम त्रिदेव मंदिर है।

त्रिदेव मंदिर को देखकर वापस लौट ही रहा था कि मेरी नज़र एक सैलून पर पड़ी। सैलून के मुख्य साइनबोर्ड पर उसका नाम देखकर मुस्कुराए बिना रहा नहीं जा सका। एक ज़माना था जब कबूतर पत्रवाहकों का काम करते थे । आज इस इंटरनेट के इस युग में ई मेल से संदेशों का आदान प्रदान यानि messaging आम हो गई है। पर अगर कोई संदेश के माध्यम से शरीर को ही इधर से उधर पहुँचाने की जिम्मेदारी ले तो इससे उन्नत तकनीक भला और क्या हो सकती है?  वैसे भी इहलोक से परलोक जाने के लिए लोग जन्म जन्मांतर से काशी प्रस्थान करते रहे हैं। पर कम से कम बनारसियों ने आधुनिक तकनीक से बॉडी को मैसेज करना सीख लिया है। क्या कहा यक़ीन नहीं आता। तो फिर नीचे के इन चित्रों पर गौर कीजिए




सोमवार, 26 अप्रैल 2010

यादों के झरोखों में एक शहर 'बनारस'

अब तक बनारस चार पाँच बार जा चुका हूँ। पर एक पर्यटक की हैसियत से बनारस जाना कम ही हो पाया है। बचपन में पिताजी मुझे एक बार अवश्य बनारस घुमाने ले गए थे। पर आज मस्तिष्क पर जोर डालने से धुँधली सी बस दो स्मृतियाँ ही उभरती हैं। एक तो गंगा तट पर नौका विहार की और दूसरे तुलसी मानस मंदिर में रामायण के चलते फिरते किरदारों के सुंदर मॉडलों की। ज़ाहिर है बाल मन पर इस दूसरी छवि का ज्यादा असर हुआ। इसके बाद बनारस जाना तो नहीं होता था पर जब भी किसी सफ़र में रेलगाड़ी बनारस के रास्ते मुगलसराय की ओर निकलती हम भाई बहन माँ पिताजी से पैसे लेकर गंगा के पुल से नीचे फेंकना नहीं भूलते थे।

फिर परास्नातक की पढ़ाई के लिए IT BHU का फार्म लाने 1994 में बनारस आना हुआ। पहली बार बनारस की टेढ़ी - मेढ़ी गलियों में रास्ता भूल जाने का अनुभव भी तभी हुआ। तब तक बनारस की छवि एक मंदिरों वाले शहर से बदलकर भीड़ भाड़ वाले एक आम मध्यमवर्गीय नगर के रूप में हो चुकी थी। कुछ सालों बाद जब लेखक पंकज मिश्रा का प्रथम उपन्यास दि रोमांटिक्स (The Romantics) पढ़ा तो बनारस की उस यात्रा की याद ताज़ा हो गई। पुस्तक की शुरुवात में ही मुख्य किरदार इस शहर के बारे में अपनी यादें बाँटते हुए कहता है...
"मैं जब पहली बार 1989 की ठिठुराती ठंड में बनारस पहुँचा तो मुझे नदी किनारे के एक टूटे फूटे मकान में शरण मिली। पर आज आप वैसी जगहों में पनाह पाने की उम्मीद नहीं पाल सकते। जापानी पर्यटकों के लिए सस्ती दरों के अतिथि गृह और जर्मन पेस्ट्री की दुकानें आज नदी किनारे की शोभा बढ़ाती हैं। रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डों पर खड़े दलाल आपको नए बनारस में बने कंक्रीट और काँच की दीवारों से सुसज्जित होटलों में ले जाने को उद्यत रहते हैं। इस नए मध्यमवर्ग की धनाढ़यता आखिरकार बनारस में आ ही गई है। हिंदुओं का ये पवित्रतम तीर्थस्थल जहाँ हजारों सालों से पुनर्जन्म के चक्र से श्रृद्धालु छुटकारा पाने के लिए आते रहे हैं, अब एक भीड़ भरी व्यवसायिक नगरी में तब्दील हो चुका है।

पर ऍसा तो होना ही था। इस बदलाव के लिए ज्यादा दुखी होने की आवश्यकता नहीं। बनारस एक ऐसा शहर है जिसे मुस्लिम और अंग्रेज आकाओं के शासनकाल में कितनी ही बार विनाश और पुनर्निर्माण की प्रकिया से गुजरना पड़ा है। वैसे भी हिंदुओं की ये मान्यता है कि बनारस या वाराणसी भगवान शिव का घर है जो ख़ुद ही सृष्टि के रचनाकार और विनाशकर्ता रहे हैं। विश्व का स्वरूप सतत बदलता रहा है और जब हम इस नज़रिए से किसी शहर को देखते हैं, पुरानी बातें ना रह पाने के लिए अफ़सोस करना व्यर्थ ही जान पड़ता है।"

पंकज की ये टिप्पणी भारत के किसी भी शहर के लिए सटीक जान पड़ती है। अगर आज के पटना में सम्राट अशोक के पाटलिपुत्र की छाप देखने जाएँगे या लखनऊ की उसी अवधी नज़ाक़त को महसूस करना चाहेंगे तो निराशा ही तो हाथ लगेगी।

इस साल जब जनवरी के अंत में बनारस जाने का मौका मिला तो उद्देश्य सिर्फ शादी का समारोह में शिरक़त करने का था। पर थोड़ा अतिरिक्त समय और साथ में वाहन होने की वज़ह से लगा कि मेहमानों के साथ पुरानी यादें ताज़ा करने का ये मौका अच्छा है। तो मैं सबके साथ निकल लिया बनारस के कुछ मंदिरों की सैर पर।

हमारे ठहरने की जगह से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पास ही था। तो सबसे पहले हम सब इस विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थित नए विश्वनाथ मंदिर में गए। बिड़ला परिवार द्वारा बनाया ये मंदिर अहिल्या बाई होलकर द्वारा अठारहवीं शताब्दी में बनाए गए पुराने मंदिर का ही प्रतिरूप है।


मंदिर परिसर में घुसते ही पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। इस मंदिर की निर्माण योजना में मालवीय जी का खासा योगदान रहा है। सफेद संगमरमरसे बनाए गए इस मंदिर की दीवारों पर भारतीय धर्मग्रंथों से लिए गए आलेख अंकित हैं।

पिछली तीनों बार जब जब बनारस आना हुआ है इस मंदिर में मैं गया हूँ। पर प्रथम बार यहाँ आने का अनुभव अब भी नहीं भूलता।

तब सुबह आठ बजे के आस पास मैं वहाँ पहुँचा था। पूरा परिसर लगभग खाली था। मुख्य मंदिर के सामने एक महिला हारमोनियम लिए बड़ी तन्मयता से एक भजन गा रही थी। मंदिर के विशाल कक्ष में गूँजती उनकी आवाज़ पूरे वातावरण को निर्मल किए दे रही थी। वहाँ से निकलकर मंदिर के पिछवाड़े में गया तो देखा कि कॉलेज के छात्र मंदिर के फर्श पर ही बैठे लेटे पढ़ाई में तल्लीन हैं। भक्ति और विद्या के रंगों से रँगा ये वातावरण मन को भीतर तक प्रफुल्लित कर गया। अपने इसी अनुभव की वज़ह से मुझे यहाँ जाना हमेशा ही अच्छा लगता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर से निकलने के बाद हम यहाँ के प्रसिद्ध संकट मोचन मंदिर गए। मार्च २००६ में इसी मंदिर का अहाता आतंकवादियों के निशाने पर रहा था। यहाँ के लोग कहते हैं कि यहाँ नुकसान और हो सकता था अगर एक बंदर ने दूसरे बम को दूर ना फेंक दिया होता। इस घटना के बाद से बनारस के विभिन्न मंदिरों के अंदर चित्र लेने की मनाही हो गई है।
संकटमोचन मंदिर के पास ही दुर्गा मंदिर और तुलसी मानस मंदिर भी अवस्थित हैं। कत्थई रंग का दुर्गा मंदिर भी बेहद पुराना मंदिर हैं। मंदिर से जुड़ा एक कुंड है जिसे दुर्गा कुंड के नाम से जाना जाता है। यहाँ की मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि वह मानव निर्मित ना होकर स्वतः बाहर आई थी। नवरात्र के समय यहाँ भारी भीड़ होती है।


तुलसी मानस मंदिर जिसकी चर्चा मैंने पोस्ट के आरंभ में की, दुर्गा मंदिर से कुछ कदमों के फासले पर है। कहा जाता है कि तुलसीदास ने यहीं बैठकर रामचरितमानस की रचना की। वर्ष 1964 में बने इस मंदिर की विशेषता ये है कि इसकी दीवारों पर रामायण का प्रत्येक अध्याय अंकित है है। फिर रामायण के विभिन्न प्रसंगों को बिजली से चलते मॉडलों के रूप में देखना बच्चों और बड़ों सब को बेहद सुहाता है।

इन मंदिरों को देखते देखते दिन के डेढ़ बज चुके थे सो हम वापस चल दिए। बनारस शहर वैसे सिर्फ मंदिरों का शहर नहीं है। बहुत कुछ है इस शहर से जुड़ा हुआ जिसे शायद फिर कभी देखना समझना होगा। बनारस की बात खत्म करने के पहले यहाँ के एक शिक्षाविद और कवि ज़मज़म रामनगरी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो उन्होंने अपने इस शहर के लिए कही हैं....

यही मिट्टी हमारे पूर्वजों का इक ख़जाना है
इसी मिट्टी से आए हैं इसी मिट्टी में जाना है
कला का केंद्र है काशी, यहीं बनती है वो साड़ी
मुसलमान जिसका ताना है और हिंदू जिसका बाना है

अगली पोस्ट में आपके साथ बाटूँगा अपनी सारनाथ यात्रा का विवरण।