मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

चित्र पहेली 11 का उत्तर : वो सुनहरा पर्वत था सरचू का !

पिछली पहेली में प्रश्न ‌गहरे नीले आकाश के ठीक नीचे सूर्य के प्रकाश से दमकते इन सुनहरे पर्वतों की पहचान करने का था। बताना ये था कि ये पर्वत भारत के किस इलाके में स्थित हैं? तो आइए विस्तार से जानते हैं इस पहेली के उत्तर यानि मनाली लेह राजमार्ग के ठीक बीचों बीच स्थित सरचू (Sarchu) या स्थानीय भाषा में सर भूम चूँ के बारे में।

कुछ महिने पहले जब हिमाचल प्रदेश में स्पिति के एक गाँव के बारे में आप को बताया था तब इस मार्ग की भी बात हुई थी। दरअसल मनाली से रोहतांग जाने वाले रास्ते में ग्राम्फू (Gramphoo) के पास ये सड़क एक दोराहे से मिलती है जिसमें एक लाहौल के मुख्यालय केलांग (Keylong) होते हुए लेह की ओर चला जाता है जबकि दूसरा स्पिति के मुख्यालय काज़ा (Kaza) होते हुए किन्नौर में प्रवेश कर जाता है।

मनाली से लेह तक जाने का मार्ग करीब 479 किमी लंबा है यानि अत्याधिक ऊँचाई वाले इन पहाड़ी घुमावदार रास्तों का सफ़र एक दिन में तय करना मुश्किल है। इसIलिए यात्री अपना सफ़र दो दिनों में पूरा करते हैं। अब इस सुनसान इलाके में इंसान तक को ढूँढना मुश्किल है तो फिर रुके तो रुके कहाँ?




(इस चित्र के छायाकार हैं हालैंड के Bram Bos)

यात्रियों की इसी आवश्यकता को ध्यान में रख कर सारचू पर्वत के सामने खुले आकाश के नीचे टेंट लगाए जाते हैं जहाँ यात्री अपनी रात काटते हैं। वनस्पति विहीन ये पर्वत जाड़े में बर्फ की चादर से ढके रहते हैं। बर्फ के निरंतर नीचे खिसकने से इन पर्वतों की ढाल इस क़दर अपरदित हो गई हे कि जब खुले आकाश में तेज धूप इन पर पड़ती है तो ये सुनहरी आभा से दीप्त हो उठते हैं।







संकेत 1 : ये जगह समुद्र तल से करीब ४००० मीटर से ज्यादा ऊंची है।
4000 मीटर की ऊँचाई हिमालय पर्वत माला और में ही हो सकती है और भूरे पहाड़ लद्दाख की पहचान है, इन दोनों बातों का अंदाजा आप में से बहुतों ने लगा लिया था। अब रहा सारचू तो वो समुद्र तट से करीब 4290 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।

संकेत 2 ये भारत के दो राज्यों की सीमा पर स्थित है।
संकेत 3 : अक्सर मुसाफ़िर इस जगह पर रात बिताने को बाध्य रहते हैं वो अलग बात है कि यहाँ रात जागती आँखों से ही बितानी पड़ती है।

एक बार ये अनुमान लग जाए कि ये लेह मनाली राजमार्ग पर खींची गई तसवीर है तो फिर उत्तर तक पहुँचने के लिए दूसरे और तीसरे संकेत काफी थे। वैसे तो लोग सारचू के आलावा केलांग और जिस्पा (Jispa) में रुकते हैं पर जैसा कि मानचित्र से स्पष्ट है, इनमें से सारचू ही एक ऍसी जगह है जो हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर की सीमा पर स्थित है।
सारचू मनाली से 222 और लेह से 257 किमी दूर है यानि मनाली (Manali) और लेह (Leh) के लगभग बीच में स्थित है। यहाँ तक जाने का रास्ता सिर्फ जून से सितंबर तक खुला रहता है। ये पूरा मार्ग संसार के कुछ उच्चतम दर्रों से होकर गुजरता है। इनमें बरालाचा ला (Baralacha La) 4,892 m और लाचलुंग दर्रा (Lachulung La) 5,059 m ऊँचाई पर है। ये इलाका जितना देखने में अलौकिक है उतना ही दुर्गम भी। इस ऊँचाई पर हाई एल्टिट्यूड सिकनेस (High Altitude Sickness) आम है और इसी वज़ह से सारचू में रात सो कर नहीं बल्कि जाग जाग कर ही बितानी पड़ती है।



इस बार की पहेली के सही जवाब के सबसे निकट पहुँचने का श्रेय मृदुला को जाता है। मृदुला को हार्दिक बधाई। बाकी लोगों को अनुमान लगाने के लिए धन्यवाद।
मुसाफ़िर हूँ यारों के पाठकों को आने वाले नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। जनवरी के महिने पर इस चिट्ठे पर आप सब को ले चलेंगे केरल की यात्रा पर...

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

चित्र पहेली 11 : जब गहरा नीला आसमान भी फीका पड़ जाए पर्वत की इस सुनहरी आभा से !

जब रास्ता सुनसान हो। दूर दूर तक दरख्तों का नामोनिशान ना हो। गहरे नीले आसमान की खूबसूरती के साथ हो ठिठुरा देनी वाली अत्यंत सर्द हवा! ऍसे में अगर आप के सामने एक सुनहरा पहाड़ आकर खड़ा हो जाए तो। बस प्रकृति की इस लीला को देख कर आप निःशब्द ही तो रह जाएँगे। तो आज की चित्र पहेली में आपको ऍसे ही एक पर्वत की झांकी दिखाई जा रही हैं। जो ऐसी ही एक डगर पर चलते चलते अचानक से सामने आ जाता है।



आपको ये बताना है कि ये कौन सी जगह है और भारत के किस इलाके में स्थित है ? सही उत्तर तक पहुँचने के लिए सदा की तरह तीन संकेत हाजिर हैं आपके सामने..



संकेत 1 : ये जगह समुद्र तल से करीब ४००० मीटर से ज्यादा ऊंची है।
संकेत 2 ये भारत के दो राज्यों की सीमा पर स्थित है।
संकेत 3 : अक्सर मुसाफ़िर इस जगह पर रात बिताने को बाध्य रहते हैं वो अलग बात है कि यहाँ रात जागती आँखों से ही बितानी पड़ती है।



पहेली का जवाब इसी चिट्ठे पर कुछ दिनों बाद आपको मिल जाएगा । तब तक आपके कमेंट माडरेशन में रहेंगे।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

कोलकाता की दुर्गा पूजाः आइए देखें माता दुर्गा के ये देशज और विदेशज रूप

पिछली पोस्ट में आप से वायदा किया था कि पंडालों की सैर कराने के बाद आपको दिखाऊँगा देवी दुर्गा की प्रतिमाओं के देशज और विदेशज रूप..। कोलकाता के कारीगर पंडालों की प्रारूप चुनने में तो मशक्कत करते ही हैं पर साथ ही देवी दुर्गा को भिन्न रूपों में सजाने पर भी पूरा ध्यान देते हैं। वैसे तो मैं बिहार, झारखंड और उड़ीसा मे दुर्गा पूजा के दौरान घूम चुका हूँ पर बंगाल में देवी की प्रतिमा में सबसे भिन्न उनकी आँखों का स्वरूप होता है जिससे आप शीघ्र ही समझ जाते हैं कि ये किसी बंगाली मूर्तिकार का काम है। तो आज इस मूर्ति परिक्रमा की शुरुआत ऍसी ही एक छवि से...


और यहाँ माता हैं अपने क्रुद्ध अवतार में..

और जब भगवान शिव और माँ दुर्गा एक साथ आ जाएँ फिर महिसासुर तो क्या किसी भी तामसिक शक्तियों का नाश तो निश्चित ही है।
यहाँ माँ दुर्गे बंगाल की धरती छोड़ कर जा पहुँची है एक तमिल मंदिर में। लिहाज़ा आप देख रहे हैं उन्हें एक अलग रूप में..


माता ने यहाँ वेशभूषा धरी है एक आदिवासी महिला की..


अब कलाकारों की कल्पना देखिए ..देशी परिधानों और वेशभूषा से आगे बढ़कर यहाँ आप देख रहे हैं बर्मा के मंदिर के प्रारूप में स्थापित यह प्रतिमा.. कितनी सहजता से माता के नैन नक़्शों को बदल डाला है परिवेश के मुताबिक कलाकारों ने..

और यहाँ की सफेद मूर्तियों पर असर साफ दिख रहा है फ्रांसिसी मूर्ति कला का..

और आखिर में चलें थाइलैंड यानि एक थाई मंदिर में..

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)

तो कोलकाता की दुर्गा पूजा के पंडालों और प्रतिमाओं की कलात्मकता को आप तक पहुँचाने की कोशिश के रूप में ये थी तीन कड़ियों की श्रृंखला की आखिरी कड़ी। आशा है आपको ये प्रयास पसंद आया होगा।

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

कोलकाता पूजा पंडालों की सैर : बिष्णुपुर की टेराकोटा कला और फिल्म निर्देशक गौतम घोष का कमाल...

पिछली पोस्ट में आपने देखा लत्तरों से बना इगलू वो भी एक पूजा पंडाल के रूप में। पर अगर दुर्गा माँ बर्फीले प्रदेशों के इगलू में विराजमान हो सकती हैं तो कुछ ऊँचाई पर लटकते बया के घोसले में क्यूँ नहीं! विश्वास नहीं हो रहा तो बादामतला (Badamtala) की इन तसवीरों पर नज़र डालिए।



इस पंडाल की साज सज्जा के पीछे हाथ है कला फिल्मों के जाने माने निर्देशक गौतम घोष का। अगर नीचे के चित्र को आप बड़ा कर के देखेंगे तो पाएँगे कि गौतम ने माँ दुर्गा को एक आदिवासी महिला का रूप दिया है जिसने बया के घोसले को अपना घर बनाया है और जिनके हर हाथ में हथियारों की जगह तरह तरह की चिड़िया हैं जो शांति का संदेश देती हैं।। पर ये घोसला जमीन पर इसलिए आ गिरा है क्यूँकि महिसासुर रूपी टिंबर माफिया ने वनों की अंधंधुंध कटाई जारी रखी है। गौतम घोष का कहना था कि ये पंडाल जंगलों के निरंतर काटे जाने से धरती के बढ़ते तापमान पर उनकी चिंता की अभिव्यक्ति है।


अगर बादामतला का ये पंडाल जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा था तो जादवपुर की पल्लीमंगल समिति का पंडाल बंगाल की ऍतिहासिक टेराकोटा ईंट कला का प्रदर्शन कर रहा था। कोलकाता से १३१ किमी दूर बिष्णुपुर में सोलहवीं और अठारहवीं शताब्दी में मल्लभूमि वंश के राजाओं के शासन काल में ये कला खूब फली फूली। आज भी बिष्णुपुर में ये खूबसूरत मंदिर मौज़ूद हैं जो बंगाल की ऍतिहासिक विरासत का अभिन्न अंग हैं।

इन पंडालों की खासियत ये है कि बांकुरा के इस मृणमई माँ के मंदिर के पूरे अहाते का माहौल देने के लिए चारों तरफ छोटे छोटे अन्य मंदिर भी बनाए गए हैं।


और चलते चलते कुछ और प्रारूपों की झलक भी देख ली जाए

ये रहा पेरिस के आपरा हाउस (Opera House)..



और ये अपना जंतर मंतर (Jantar Mantar)
यहाँ है थाई मंदिर (Thai Temple) की झलक
ये पंडाल तो किसी गैराज वाले का प्रायोजित लगता है क्यूँकि ये बना है वाहनों के कल पुर्जों से..:)


पंडाल की आंतरिक दीवारों पर की कलाकारी भी पूरा ध्यान देते हैं कोलकाता के कारीगर


और यहाँ दिख रही है लंबे लंबे दीपकों से की गई अनूठी साज सज्जा..

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)

इतनी सैर के बाद आप थक चुके होंगे तो अब कीजिए थोड़ा आराम। इस श्रृंखला की अगली और आखिरी कड़ी में मैं आपको दिखाऊँगा देवी दुर्गा की प्रतिमाओं के देशज और विदेशज रूप..

सोमवार, 30 नवंबर 2009

कोलकाता के अद्भुत पूजा पंडाल : क्या आपने देखा है हरा भरा इगलू (Igloo) और डोकरा (Dokra) शिल्प कला

पिछली पोस्ट में आप से वादा किया था कि कोलकाता की दुर्गापूजा के कलात्मक पक्ष को सामने रखने के लिए आपको वहाँ के नयनाभिराम पंडालों की सैर कराऊँगा। इस कड़ी में आज एक ऐसे पंडाल की ओर रुख करते हैं जिसका प्रारूप झारखंड, बंगाल और उड़ीसा में रहने वाले आदिवासियों की संस्कृति पर आधारित था। कोलकाता के लेकटाऊन (Laketown) में बने इस पूजा पंडाल को इस साल के सर्वश्रेष्ठ पूजा पंडाल का पुरस्कार मिला। तो देखिए कलाकारों की इस अद्भुत कारीगिरी का एक और नमूना..

एक बार फिर अगर आप नीचे के चित्र को देखेंगे तो समझ ही नहीं पाएँगे की ये पंडाल है। बचपन में हम सभी ध्रुवीय प्रदेशों में रहने वाले एस्किमो (Eskimo) के घर इगलू (Igloo) के बारे में पढ़ा करते थे। अब इगलू की दीवारें तो खालिस बर्फ की बनी होती थीं. पर अगर बर्फ को मिट्टी और उस पर उगाई गई लत्तरों से परिवर्तित किया जाएगा तो जो नज़ारा दिखेगा वो बहुत कुछ इसी तरह का होगा।



तो इस इगलूनुमा पंडाल के भीतर ही माँ दुर्गा की प्रतिमा रखी गई थी। अब आदिवासी संस्कृति का प्रभाव मूर्ति के शिल्प में दिखाने के लिए डोकरा कला (Dhokra/Dokra Art) का इस्तेमाल किया गया । ये कला झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में काफी प्रचलित है। चलिए अब इस कला की बात हो ही रही है तो थोड़ा विस्तार से जान लीजिए कि इस कला में धातुयी शिल्प किस प्रकार बनाए जाते हैं?

सबसे पहले कठोर मिट्टी के चारों ओर मोम का ढाँचा बनाया जाता है। फिर इसके चारों ओर अधिक तापमान सहने वाली रिफ्रैक्ट्री (Refractory Material) की मुलायम परतें चढ़ाई जाती हैं। ये परतें बाहरी ढाँचे का काम करती हैं। जब ढाँचा गर्म किया जाता है तो कठोर मिट्टी और बाहरी रिफ्रैक्ट्री की परतें तो जस की तस रहती हैं पर अंदर की मोम पिघल जाती है। अब इस पिघली मोम की जगह कोई भी धातु जो लौहयुक्त ना हो (Non Ferrous Metal) जैसे पीतल पिघला कर डाली जाती है और वो ढाँचे का स्वरूप ले लेती है। तापमान और बढ़ाने पर मिट्टी और रिफ्रैक्ट्री की परतें भी निकल जाती है और धातुई शिल्प तैयार हो जाता है।



इगलू की ऊपरी छत पर लतरें भले हों पर अंदरुनी सतह पर क्या खूबसूरत चित्रकारी की गई है। इस तरह के चित्र आपको आदिवासी घरों की मिट्टी की दीवारों पर आसानी से देखने को मिल जाएँगे।


नीचे के चित्र में अपने परम्परागत हथियारों धनुष और भालों के साथ आदिवासियों को एक कतार में चलते दिखाया गया है



आदिवासी संस्कृति में गीत संगीत का बेहद महत्त्व है। इन से जुड़े हर पर्व में हाथ में हाथ बाँधे युवक युवतियाँ ताल वाद्यों की थाप पर बड़ा मोहक नृत्य पेश करते हैं. पंडाल के बाहरी प्रांगण में ये दिखाने की कोशिश की गई है।



(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)
तो कैसा लगा आपको आदिवासी संस्कृति से रूबरू कराता ये पूजा पंडाल? अगली कड़ी में ऐसी ही कुछ और झाँकियों के साथ पुनः लौटूँगा...

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

चित्र पहेली 10 : खा गए ना चकमा! जिन्हें आप सचमुच की इमारत समझ रहे थे वे थे कोलकाता के पूजा पंडाल......

इस बार की चित्र पहेली में कोलकाता के शिल्पकारों ने पाठकों को ऐसा दिग्भ्रमित किया की पहेली में दिखने वाली इमारतों को आप सभी सचमुच का मान बैठे। दरअसल इन नकली हवेलियों द्वारा शिल्पकारों ने कोलकाता के पुराने स्वरूप का चेहरा दिखाने की कोशिश की थी। मौका था इस साल की दुर्गा पूजा का ! यानि जर्जर हवेली और अंग्रेजों के ज़माने की साफ सुथरी इमारत की खासियत ये थी कि वे दोनों ही दुर्गा पूजा के पंडाल थे। विश्वास नहीं हो रहा तो चलिए मेरे साथ इन हवेलियों के अंदर...

दक्षिणी कोलकाता में जादवपुर और धाकुरिया के बीच में एक इलाका है जोधपुर पार्क (Jodhpur Park) और उसके नज़दीक ही है बाबूबागान। ये दोनों जगहें दुर्गा पूजा पंडालों के लिए जानी जाती हैं। तो सबसे पहले बात करते हैं बाबू बागान की जहाँ पर बनाया गया था प्लाइवुड और थर्मोकोल की सहायता से पुरानी जर्जर सी हवेली का ये सजीव प्रारूप।

इस दुर्गापूजा पंडाल की थीम भी बड़ी दिलचस्प थी। कलाकार रूपचंद्र कुंडू ने भगवान का रूप धारण कर कस्बों और गाँवों में घूमने वाले बहुरुपियों को ध्यान में रखकर इस प्रारूप को रचा। इमारत के अंदर पुरानी दुकानें,टूटती दीवारों पर देवी देवताओं के चित्र बनाए गए थे ताकि माहौल कुछ दशक पहले की झाँकी प्रस्तुत कर सके।

पंडाल के दोनों किनारों पर बनी सीढ़ियाँ दुर्गा पूजा पंडाल के पहले तल्ले पर ले जाती थीं जहाँ अनेक प्रकाशदीपों से सुसज्जित झाड़फानूस लगाया गया था।
और ठीक इसके सामने दुर्गा, लक्ष्मी, कार्तिक, गणेश और असुर की प्रतिमाएँ इस तरह से रची गई थीं मानों ऐसा लगे कि सामने सचमुच के बहुरुपिए खड़े हों। तो मान गए ना लोहा आप इन कारीगरों की मेहनत और अद्भुत सोच का।

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)
दूसरे चित्र में अंग्रेजों के ज़माने में बनाई गई इमारत दिख रही थी। ये भी एक पूजा पंडाल था जो जोधपुर पार्क में लगाया गया था। प्लाइवुड थर्मोकोल और कार्डबोर्ड से रची इन इमारतों को इतने बेहतरीन तरीके से बनाया गया कि खिड़कियों की बनावट और वास्तुशिल्प का अध्ययन करते वक़्त आपके मन में ये ख्याल नहीं आया कि ये साज सज्जा नकली हो सकती है।

पिछली पोस्ट के चित्र में दिखाई दे रहे हवेली के सामने का बाग और मुस्तैदी से रक्षा करते पहरेदार ने आपके भ्रम को बढ़ाए रखने में मदद की। इसलिए छत के ऊपर का डिजाइन, बिल्कुल बेदाग दीवारें और चित्र के दाँयी ओर Entry का साइनबोर्ड भी आपकी नज़रों को नहीं खटका।


चित्र साभार : कुणाल गुहा

मुझे आशा थी कि कोलकाता से जुड़ा कोई व्यक्ति इस पहेली का सही उत्तर बता सकेगा। बाकी लोगों के लिए इतना अनुमान लगा लेना की हवेली नकली है काफी होता। फिर भी आप सब ने पूरी मेहनत से अपने अनुमान लगाए उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। दरअसल मेरा उद्देश्य दुर्गापूजा के पुनीत पर्व पर हर साल बनाए जाने वाले इन अद्भुत पूजा पंडालों की ओर आपका ध्यान खींचना था।
इस चिट्ठे की अगली कुछ पोस्टों में आपको मैं कोलकाता की दुर्गापूजा के कुछ और नयनाभिराम पंडालों की सैर कराऊँगा।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

नए संकेतों के साथ चित्र पहेली 10 : बताइए क्या खास है शहर की इन इमारतों में ?

हर शहर का अपना एक चेहरा होता है। वैसे ये कहना ज्यादा सही होगा कि हर शहर अपने चेहरों में कई चेहरों को समाए रहता है। उसके किसी हिस्से में हमारा आधुनिक परिवेश से सामना होता है तो कहीं एकदम से उसका पुराना रूप सामने आ जाता है।

इन नए पुराने रूपों को सामने लाने में शहर की इमारतों का ख़ासा योगदान होता है। आज की ये चित्र पहेली ऍसी ही कुछ इमारतों से जुड़ी है। नीचे के चित्रों को देखिए। पहले चित्र में आपको एक जर्जर होती हवेली दिखाई पड़ेगी जबकि दूसरे में अंग्रेजों के ज़माने में बना कोई कार्यालय या जमींदार का मकान ! आप सोच रहे होंगे कि इन इमारतों में ऍसा खास क्या है? ऍसी इमारतें या इनसे मिलती जुलती खंडहर होती हवेलियाँ तो आपने पहले भी देखी होंगी।

तो बस यही तो दिमागी घोड़े आपको दौड़ाने हैं जनाब ! ये दोनों चित्र एक बात में बिल्कुल एक जैसे हैं यानि इनकी एक विशेषता इन्हें एक ही कोटि में ला खड़ा करती है। तो बताइए क्या है वो विशेषता ?




(ऊपर के दोनों चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)

पहेली का जवाब इसी चिट्ठे पर आपको मिल जाएगा। तब तक आपके कमेंट माडरेशन में रहेंगे।
पुनःश्च (20.11.09, 11.30 PM IST): आप सब में से बहुतों ने पहेली के हल तक पहुँचने के लिए संकेतों की माँग की थी। चलिए आपका काम कुछ आसान करने के लिए संकेत हाज़िर हैं

संकेत १ : ये दोनों चित्र पश्चिम बंगाल के एक शहर के हैं।

संकेत २ : चित्र में दिखाई देने वाली हवेलियाँ छायाकार को एक ही इलाके में दिखी थीं और उस इलाके में एक का नाम राजस्थान के एक ऐतिहासिक नगर के नाम पर है।

संकेत ३: खिड़कियों का तो आप सब ने बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया। पता नहीं आपके मन में ये खटका क्यूँ नहीं हुआ कि पहले चित्र में इतनी जर्जर हो चुकी हवेली के पहले तल्ले से झाड़फानूस की रौशनी कैसे आ रही है? है ना ये विडंबना।

वैसे उत्तर के साथ मैं आपको ले चलूँगा इन हवेलियों के अंदर :) ! तब तक चलिए थोड़ा विचार कर देखिए।
Update 21.11.09, 8.42 PM
संकेत ४: दूसरी इमारत की छत की रेलिंग कुछ अलग सी नहीं है क्या? इसके आलावा भी दूसरे चित्र को ध्यान से देखने पर आपको एक संकेत और दिखाई देगा।
पहेली का जवाब 24 November को 10.40 AM पर बताया जाएगा।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

चित्र पहेली 9 : आइए जानते हैं कछुओं की दौड़ का रहस्य और कथा 'Doomed Eggs' की.!.




पिछली चित्र पहेली में प्रश्न था कि ये दौड़ क्यूँ और कहाँ हो रही है?




आपमें से अधिकतर लोगों के जवाब सही थे। पर आप में से एक ने ही बताया सही स्थान का नाम। दरअसल भितरकनिका से जुड़े इस हिस्से की बात मैंने इस पहेली की वज़ह से आप सबको अपने यात्रा वृत्तांत में नहीं बताई थी।

तो पहेली का सही हल देखने के साथ समुद्र तट पर कछुओं द्वारा अंडे देने से लेकर नन्हे बच्चों के वापस समुद्र में जाने की झाँकी देखिए यहाँ पर...

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

चित्र पहेली 9: क्या कभी देखी है आपने कछुओं की दौड़ ?

इस भागमभाग भरी जिंदगी में ऊपर निकलने की रैट रेस (Rat Race) से तो आप भली भांति परिचित हैं। इंसानों की इस दौड़ को छोड़ दें तो घोड़ों,बैलों,ऊँटों और यहाँ तक की हाथियों की दौड़ भी शायद आपने देखी या सुनी होगी । पर कछुओं की रेस के बारे में आपका क्या ख्याल है? क्या कहा कछुए भी कभी दौड़ सकते हैं? हाँ भाई हम सब का बचपन तो खरगोश और कछुए की कहानी सैकड़ों बार सुनते बीता जिसे कछुआ जीतता तो है पर रेस कर के नहीं वरन अपनी धीमी पर निर्बाध चाल की बदौलत।

पर आजकल ज़माना बदल गया है। कम से कम इस चित्र से तो यही लगता है जिसमें कछुए आपस में एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए दौड़ लगा रहे हैं।


आज की इस चित्र पहेली में आपको बताना बस इतना है कि ये माज़रा क्या है और ये दृश्य भारत के किस समुद्री तट पर देखा जा सकता है? हमेशा की तरह आपके कमेंट मॉडरेशन में रखे जाएँगे। सही जवाब नहीं आने की सूरत में इसी पोस्ट पर संकेत दिए जाएँगे।


तो आइए विस्तार से समझा जाए इस दौड़ के पीछे की कहानी को
भितरकनिका के अपने यात्रा विवरण के आखिरी भाग में मैंने जिक्र किया था इकाकुला (Ekakula) के समुद्र तट का और ये भी कहा था कि सुबह सुबह अगर आप इकाकुला के तट से चहलक़दमी करना शुरु करें तो करीब एक सवा घंटा के बाद वैसे ही एक सुंदर समुद्री तट तक पहुँच जाएँगे। ये समुद्र तट कोई और नहीं गाहिरमाथा का समुद्र तट है जो कि विलुप्तप्राय ओलाइव रिडले प्रजाति के कछुओं द्वारा अंडा देने की एक प्रमुख जगह है। कहते हैं कि इस प्रजाति के कछुए यहाँ हजारों वर्षों से अंडे देते आ रहे हैं पर कुछ दशकों पहले ही इसके संरक्षण में लगे लोगों की इस पर नज़र पड़ी। १९९७ में गाहिरमाथा के इस इलाके को मेरीन शरण स्थल का नाम दिया गया।

अचरज की बात ये है कि ये कछुए श्रीलंका के तटीय इलाकों से लगभग हजार किमी की दूरी उत्तर दिशा में तय कर, अपने पूरे समूह के साथ गाहिरमाथा पहुँचते हैं। इनके गाहिरमाथा में आगमन नवंबर से शुरु हो जाता है और तीन चार महिने चलता है। गाहिरमाथा समुद्री तट तक पहुँचने के कुछ पूर्व ही सहवास की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। तट पर पहुँचते ही मादा कछुओं द्वारा अंडे देने की इच्छा इतनी तीव्र होती है कि हजारों की संख्या में तट पर सही स्थान ढूँढने के लिए समु्द्र से निकलकर तेजी से बढ़ती हैं। अक्सर ये समय रात्रि का होता है जैसा कि आप इस पहेली में पूछे गए चित्र में देख सकते हैं..



एक बार में एक मादा कछुआ 100 से 180 अंडे तक देती हैं। समु्द्र तट के बालू में करीब 45 cm का गढ़्ढा बनाने और अंडा दे कर वापस समुद्र में जाने में ये एक घंटे से भी कम का समय लेती हैं। कभी कभी जगह के लिए इतनी मारामारी होती है की खुदाई में दूसरी मादा के अंडे बाहर निकल जाते हैं और बिना निषेचित हुए ही रह जाते हैं। अंग्रेजी में इन्हें Doomed Eggs कहा जाता है।


सूर्य की गर्मी से तपते इन अंडों को निषेचित होने में करीब दो महिनों का समय लगता है। अंडों के कवच से निकलते बच्चे तेजी से समुद्र की धाराओं की और रुख करते हैं। समुद्र की ओर जाने की तेजी का ये दृश्य भी भगदड़ वाला ही होता है। और तो और समुद्र में रहने वाले इनके शिकारी घात लगाकर इनका इंतजार करते हैं। नतीजन मात्र हजार बच्चों में एक ही बच्चा नई जिंदगी का सफ़र शुरु कर पाता है।



गाहिरमाथा के पास ही धामरा में उड़ीसा को दूसरा बंदरगाह बनाया जा रहा है। इन सभी चित्रों को आप तक मैं ला पाया हूँ धामरा पोर्ट कंपनी लिमिटेड (DPCL) के सौजन्य से। इनके जालपृष्ठ पर आप ओलाइव रिडले (Olive Ridley) कछुओं की गाहिरमाथा समुद्रतट पर खींची गई अन्य तसवीरें भी देख सकते हैं।


किसने दिया सही जवाब ?
इस बार की पहेली का सबसे पहले सही जवाब दिया संजय व्यास ने। पर जगह का सही नाम बताने में सिर्फ अरविंद मिश्रा जी ही सफल रहे। संजय और अरविंद मिश्रा जी को हार्दिक बधाइयाँ । बाकी लोगों का अनुमान लगाने और अपनी प्रतिक्रियाएँ देने के लिए हार्दिक आभार।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

भितरकनिका का हमारा आखिरी पड़ाव: इकाकुला का खूबसूरत समुद्र तट

भितरकनिका में हमारा आखिरी पड़ाव था इकाकुला (Ekakula Sea Beach) का समुद्र तट। सुबह करीब साढ़े दस बजे हम डांगमाल से मोटरबोट के ज़रिए इकाकुला की ओर बढ़ गए। धूप तेज थी इसलिए नौका के ऊपरी सिरे पर बैठना उतना प्रीतिकर नहीं रह गया था। आकाश में हल्के हल्के बादल थे उनमें से कोई बड़ा बादल जब हमारी नौका के पास आता तो हम ऊपर चले जाते और बादल की छाँव के नीचे मंद मंद बहती बयार का आनंद लेते। पर ऍसे सुखद अंतराल प्रायः कुछ मिनटों में खत्म हो जाते और हमें वापस नौका के अंदर लौट आना पड़ता।

करीब डेढ़ घंटे सफ़र तय करने के बाद हम समुद्र के बिल्कुल सामने चुके थे। पर इकाकुला के तट तक पहुँचने के लिए छोटी नौका की जरूरत होती है क्यूँकि कम गहरे पानी में मोटरबोट तो चलने से रही। इकाकुला तट से डेढ किमी दूर आकर हमारी मोटरबोट रुक गई। पर छोटी नौका के आने में एक घंटे का विलंब हो गया वैसे छोटी नौका से की गई यात्रा कम रोमांचकारी नहीं रही। वैसे भी पानी के बहाव को हाथ से छूते हुए महसूस करना हो तो इससे बढ़िया विकल्प दूसरा नहीं। फिर हम सब तो पूरे पानी में ही गोता लगा लेते। बड़ी नौका से छोटी नौका में उतरते समय ध्यान नहीं रहा और भारी लोग एक किनारे जा बैठे। नौका को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने बाँयी ओर बीस डिग्री का टिल्ट क्या लिया हम लोगों को लगा कि गए पानी मेंपर नाव खेने वालों ने तत्परता से अपना स्थान बदलकर नाव को संतुलित किया और हमारी जान में जान आईइकाकुला के समुद्र तट के दूसरी तरफ मैनग्रोव के जंगल हैं। पर डांगमाल के विपरीत यहाँ इनकी सघनता कम है और ये अपेक्षाकृत और हरे भरे दिखते हैं। किनारे तक तो पहुँच गए पर अगली मुश्किल लकड़ी के बने पुल तक पहुँचने की थी। लो टाईड (low tide) होने की वज़ह से पुल और पानी के स्तर में काफी अंतर गया था। ख़ैर वो बाधा भी नाविकों की मदद से पार की गई. पुल पार करते ही इकाकुला का फॉरेस्ट गेस्ट हाउस दिखता है। पर्यटक या तो इसकी डारमेट्री में रुक सकते हैं या बाहर बनाए गए टेंट में। हम एक टेंट में अंदर घुसे तो देखा कि अंदर दो सिंगल बेड और शौच की व्यवस्था है। सामने इकाकुला का साफ सु्थरा और बेहद खूबसूरत समुद्र तट हमारा स्वागत कर रहा था। रेत की विशाल चादर को पहले भिगोने की होड़ में लहरें लगी हुई थी। हम पहले तो समुद्र तट के समानांतर झोपड़ीनुमा शेड में जा बैठे और कुछ देर तक शांत मन से समुद्र की लीलाओं को निहारते रहे।

नहाने का मन तो बहुत हो रहा था पर दिन के दो बजे की धूप और वापस तुरंत लौटने की बंदिश की वजह से हम समुद्री लहरों में ज्यादा दूर आगे नहीं बढ़े। कहते हैं शाम के समय नदी के मुहाने से सूर्यास्त देखने का आनंद ही कुछ और है। इकाकुला के समुद्र तट का फैलाव दूर दूर तक दिखता है। पहले यहाँ समुद्र के किनारे काफी जंगल थे जो समुद्री कटाव के कारण अब कम हो गए हैं। वैसे अगर आप यहाँ एक दिन रुका जाए तो सुबह उठकर घंटे भर पैदल चलने के बाद एक और समुद्र तट मिलता है। पर उसकी बातें फिर कभी...

दिन का भोजन करने के बाद हम लोग वापस चल पड़े। दिन की कड़ी धूप गायब हो चुकी थी और रिमझिम रिमझिम बारिश होने लगी थी। हल्की फुहारें और ठंडी हवा के बीच भीगने का आनंद भी हमने उठाया। आधे घंटे बाद आकाश से बादल छँट चुके थे और गगन इंद्रधनुषी आभा से उद्दीप्त हो उठा था। ऐसा लग रहा था कि ये नज़ारा भगवन ने मानो भितरकनिका के विदाई उपहारस्वरूप दिखाया हो। आप भी देखिए ना...

भारत सरकार ने भितरकनिका को यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शुमार करने का आग्रह किया है जिसकी स्वीकृत होने की पूरी उम्मीद है। अगर आप भीड़ भाड़ से दूर मैनग्रोव के जंगलों के बीच अपना समय बिताना चाहते हैं तो ये जगह आपके लिए उपयुक्त है.. पुनःश्च राज भाटिया साहब ने कुछ प्रश्न पूछे हैं । इनमें कुछ का उत्तर तो पिछली किश्तों में दिया है फिर भी चूंकि ये जानकारी यात्रा विवरण के विभिन्न भागों में बिखरी हुई है इसलिए इसे यहाँ संकलित कर रहा हूँ
  • भितरकनिका में विदेश से पहुँचने के लिए सबसे नजदीकी विमान अड्डा भुवनेश्वर है जो भारत के पूर्वी राज्य उड़ीसा की राजधानी है और भितरकनिका के गुप्ती चेक पोस्ट से मात्र १२० किमी दूरी पर है। दिल्ली और कलकत्ता से नियमित उड़ानें भुवनेश्वर के लिए हैं। सड़क मार्ग से भुवनेश्वर से भितरकनिका पहुँचने का रास्ता विस्तार से मैं यहाँ बता चुका हूँ। वैसे देशी पर्यटक भुवनेश्वर के आलावा इस जगह भद्रक के रास्ते भी आते हैं।
  • इस पूरे इलाके को देखने के लिए दो रातें, तीन दिन का समय पर्याप्त है। इसमें से पहली रात डाँगमाल और दूसरी रात आप इकाकुला में बने वन विभाग के गेस्ट हाउस में बिता सकते हैं। अगर आप उड़ीसा पहली बार आ रहे हैं तो आप अपनी इस यात्रा में भुवनेश्वर, कोणार्क, पुरी और चिलका को शामिल कर सकते हैं। निजी टूर आपरेटरों द्वारा संचालित कार्यक्रम का विवरण आप यहाँ देख सकते हैं । इनके पैकेज में एयरपोर्ट से आपको रिसीव कर आपके घूमने, खाने और रहने और राष्ट्रीय उद्यान में घुसने का परमिट की सारी सुविधाएँ रहती हैं। इनकी दरों के लिए आप इनके जाल पृष्ठ पर इनसे संपर्क कर सकते हैं।
  • सरकारी वन विभाग के गेस्ट हाउस के रेट यहाँ उपलब्ध हैं और इसके लिए राजनगर के वन विभाग के डिविजनल फॉरेस्ट आफिसर से संपर्क किया जा सकता है।
  • यहाँ के स्थानीय लोग आम भारतीयों की तरह ही हैं। हिंदी व अंग्रेजी बोल भले ना पाएँ पर आसानी से समझ लेते हैं।
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य
  3. भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...
  4. डाँगमाल के मैनग्रोव जंगलों के विचरण में बीती वो सुबह.....
  5. डाँगमाल मगरमच्छ प्रजनन केंद्र और कथा गौरी की...
  6. इकाकुला का खूबसूरत समुद्र तट