Sambhalpur लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Sambhalpur लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

बारिश में नहाया हुआ हीराकुड बाँध और कथा मवेशियों के द्वीप की...

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह भुवनेश्वर से धेनकनाल होते हुए हम जा पहुँचे सँभलपुर। हीराकुड पहुँचते पहुँचते अँधेरा हो चुका था इसलिए अगली सुबह बाँध के दर्शन की उम्मीद लिए हम सब सोने चले गए। सुबह छः बजे जब मेरी नींद खुली तो बाहर हल्का अँधेरा सा दिखा। दरवाजा खोला तो देखा बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है। मन मसोस कर वापस कंबल में दुबक लिए। आधे घंटे बाद फिर निकला। बारिश थोड़ी धीमी हो चुकी थी। दौड़ कर गेस्ट हाउस की छत पर पहुँचे। नीचे विशाल पानी की चादर थी और ऊपर कुछ स्याह तो कुछ काले बादलों का जमावड़ा था। दूर क्षितिज में बादल और पानी का रंग लगभग एक दूसरे में मिलता प्रतीत हो रहा था।



पानी की इस विशाल चादर को अपने चौड़े सीने पर रोककर हीराकुड बाँध अपनी जबरदस्त मजबूती का परिचय दे रहा था। यूँ तो हीराकुड बाँध करीब 26 किमी लंबा है पर इसके मुख्य हिस्से की लंबाई करीब पाँच किमी है। मुख्य बाँध के बीच का हिस्सा हरा भरा दिखता है और ये मिट्टी का बना है जबकि इसके दोनों किनारे सीमेंट कंक्रीट के बने हैं। कंक्रीट वाले हिस्से में ही अलग अलग तलों पर लोहे के विशाल गेट लगे हैं जिसे पानी का स्तर बढ़ने पर खोल दिया जाता है।



सहज प्रश्न मन में उठता है कि सँभलपुर के पास बने इस बाँध का नाम आखिर हीराकुड क्यूँ पड़ा? कहते हैं पुरातनकाल में सँभलपुर हीरे के व्यवसाय के लिए जाना जाता था। कालांतर में ये जगह हीराकुड के नाम से जानी जाने लगी।

हीराकुड बाँध की परिकल्पना विशवेश्वरैया जी ने तीस के दशक में रखी थी। सन 1937 में महानदी में जब भीषण बाढ़ आई तो इस परिकल्पना को वास्तविक रूप देने के लिए गंभीरता से विचार होने लगा। ये पाया गया कि जहाँ छत्तिसगढ़ में महानदी के उद्गम स्थल का इलाका सूखाग्रस्त रहता है तो उड़ीसा में महानदी का डेल्टाई हिस्सा अक्सर बाढ़ की त्रासदी को झेलता रहता है। लिहाज़ा यहाँ एक विशाल बाँध बनाने का काम आजादी से ठीक पूर्व 1946 में चालू हुआ। करीब सौ करोड़ की लागत से (तब के मूल्यों में) यह बाँध सात साल यानि 1953 में जाकर पूरा हुआ और 1957 में नेहरू जी ने इसका विधिवत उद्घाटन किया। मिट्टी और कंक्रीट से बनाया गया ये बाँध विश्व के सबसे लंबे बाँध के रूप में जाना जाता है। बाँध की विशालता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसको बनाने में एक करोड़ इक्यासी लाख मीटर क्यूब मिट्टी और करीब ग्यारह लाख मीटर क्यूब कंक्रीट लगी थी।

बाँध के चारों ओर की हरियाली देखते ही बनती है। दूर- दूर तक हरे भरे पेड़ों और पहाड़ियों पर घने जंगलों के आलावा कुछ नहीं दिखता। बाँध के दूसरी ओर पनबिजली संयंत्र है। पूरी परियोजना से तीन सौ मेगावाट तक बिजली बनाने की क्षमता थी। बाँध का एक चक्कर लगाने के बाद हमारा समूह बाँध के अंदर घुसा।



जी हाँ, बाँध के विभिन्न तलों के रखरखाव के लिए अंदर पूरी गैलरी बनी हुई है। नीचे तक जाने में साँसे फूल जाती हैं और साथ ही ये डर भी साथ रहता है कि जिस मोटी दीवार के इस तरफ हम खड़े हैं उसके दूसरी तरफ पानी हमारे सर की ऊँचाई से कई गुना ऊपर तक हिलोरें मार रहा है। बाँध के दूसरी ओर के इलाके में पानी एक पालतू जानवर की तरह उसी राह पर चलता है जो मानव ने उसके लिए निर्धारित किया है। जलरहित नदी का विशाल पाट बिल्कुल पथरीला दिखता है।



हीराकुड बाँध की सुंदरता उसके चारो ओर फैली हरियाली से और बढ़ जाती है। मुख्य बाँध लमडुँगुरी और चाँदिलीडुँगुरी पहाड़ियों के बीच बना है और दोनों ओर की पहाड़ियों पर एक एक वॉचटावर भी बने हैं। इन्हीं वॉचटावरों में से एकजवाहर मीनार तो हमारे गेस्ट हाउस के ठीक सामने ही थी।



बाँध की ओर जाने के पहले ही हम जवाहर मीनार पर चढ़कर चारों ओर का नज़ारा ले चुके थे। मीनार के ऊपर से नीचे के उद्यान की छटा देखते ही बनती है


बाँध के दूसरी तरफ गाँधी मीनार है। गाँधी मीनार की एक खासियत है जो आपको अगली पोस्ट में बताऊँगा पर चलते चलते हीराकुड के "कैटल आइलेंड" यानि मवेशियों के द्वीप की बात जरूर करना चाहूँगा।

पचास के दशक में जब हीराकुड बाँध बन कर तैयार हुआ तो करीब छः सौ वर्ग किमी का क्षेत्र पानी में डूब गया। इस इलाके में कई छोटी बड़ी पहाड़ियाँ थीं जिस पर उस समय कई गाँव बसे हुए थे। गाँववाले तो पहाड़ियों पर स्थित इन गाँवों से पलायन कर गए पर कुछ ने अपने मवेशी इन पहाड़ियों पर छोड़ दिए। जलस्तर पूरा बढ़ने पर भी इन पहाड़ियों का ऊपरी हिस्सा नहीं डूबा और ये पालतू मवेशी बच गए। बाँध बनने के पाँच दशकों बाद मानव के संपर्क से दूर रहते हुए ये मवेशी अब जंगली हो गए हैं और इन्हें पहाड़ियों पर दौड़ लगाते देखा जा सकता है। वैसे इन द्वीपों में सबसे ज्यादा संख्या में जहाँ ये पाए जाते हैं वो जगह संभलपुर से करीब नब्बे किमी दूरी पर है पर पानी के रास्ते मात्र दस किमी दूरी तय कर वहाँ पहुँचा जा सकता है।

अगली पोस्ट में चलिएगा मेरे साथ गाँधी मीनार पर और देखियगा हीराकुड बाँध के आसपास के मनमोहक नज़ारे।


 सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

    शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

    धेनकनाल, डोकरा मूर्ति कला और वो बाँध जिसने महानदी को रोक लिया था...

    पिछले एक महिने से इस चिट्ठे पर खामोशी थी। दरअसल जब एक बार कहीं घूमने के लिए निकलता हूँ तो फिर नेट की तरफ रुख करने को भी दिल नहीं करता। दीपावली में घर निकल गया और वहाँ से लौटने के बाद लगभग अगले दो हफ़्ते राजस्थान में बीते। पर आज मैं आपको राजस्थान ले जाने के लिए नहीं आया हूँ उस पर तो बहुत सारी बातें आने वाले दिनों में आपसे होती रहेंगी।

    आज चलते हैं एक ऐसी जगह पर जहाँ की साड़ियों बड़ी मनमोहक होती हैं। उड़ीसा (ओडीसा) में होते हुए जहाँ की मूल भाषा उड़िया से हट कर रही। जहाँ आजादी के बाद एक नदी घाटी परियोजना शुरु हुई जिनसे उस नदी से जुड़े इलाकों को एक साथ बाढ़ और सूखे की विभीषिका से बचाया। इस इलाके को उड़ीसा में धान के कटोरे के नाम से भी जाना जाता है। अब इतने सारे संकेत देने के बाद तो आप समझ ही गए होंहे कि मैं उड़ीसा के शहर संभलपुर की बात कर रहा हूँ।

    बात पिछले साल अक्टूबर की है जब मैं अपनी दीदी के यहाँ भुवनेश्वर गया था। वहीं से योजना बनी कि इस बार हीराकुड बाँध (Hirakud Dam) देखने चला जाए। हीराकुड बाँध सँभलपुर से करीब पन्द्रह किमी की दूरी पर स्थित है। वहीं भुवनेश्वर से सँभलपुर की दूरी करीब 321 किमी है। सँभलपुर जाने के लिए पहले से भुवनेश्वर से कटक जाते हैं और फिर वहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 42 पकड़ते हैं जो सँभलपुर में जाकर ही खत्म होता है।


    हल्की बूँदा बाँदी के बीच हम भुवनेश्वर से निकले। कटक के आगे बढ़ते ही बारिश तेज हो गई। पर सौ किमी की दूरी पार कर जब हम धेनकनाल पहुँचे तो बारिश थम चुकी थी। धेनकनाल पूर्व मध्य उड़ीसा का वो जिला है जिसका अधिकांश हिस्सा पूर्वी घाट की पहाड़ियों और जंगलों से घिरा हुआ है।किसी ज़माने में इन पहाड़ियों पर धेनका नाम के कबीलाई सरदार का शासन था इस लिए जगह का नाम धेनकनाल पड़ा। चाय पानी के विश्राम के लिए हम वहाँ के सर्किट हाउस में थोड़ी देर के लिए रुके। सर्किट हाउस एक छोटी सी पहाड़ी पर था।

    सर्किट हाउस के कक्ष में डोकरा कला के कुछ नमूने दिखे। प्राचीन समय से चली आ रही ये कला छत्तिसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के जन जातीय इलाकों में खासी लोकप्रिय रही है। धोकरा कला से बनाए हस्तशिल्पों में वहाँ की लोकसंस्कृति की झलक मिलती है। अक्सर ऐसे हस्तशिल्प द्वारा जानवरों,राजाओं,सामाजिक उत्सवों और देवी देवताओं की छवियाँ देखने को मिलती हैं। पीतल से बनाई जाने वाले इस हस्तशिल्प को बनाने की प्रक्रिया रोचक है।



    जिस छवि को बनाना होता है लगभग उसके जैसा मिट्टी का आकार बना लिया जाता है जो शिल्प के केंद्र में रहता है। सबसे पहले कठोर मिट्टी के चारों ओर मोम का ढाँचा बनाया जाता हैऔर उसी पर कलाकृति भी उकेर ली जाती है। फिर इसके चारों ओर अधिक तापमान सहने वाली रिफ्रैक्ट्री (Refractory Material) की मुलायम परतें चढ़ाई जाती हैं। ये परतें बाहरी ढाँचे का काम करती हैं। जब ढाँचा गर्म किया जाता है तो कठोर मिट्टी और बाहरी रिफ्रैक्ट्री की परतें तो जस की तस रहती हैं पर अंदर की मोम पिघल जाती है। अब इस पिघली मोम की जगह कोई भी धातु जो लौहयुक्त ना हो (Non Ferrous Metal) जैसे पीतल पिघला कर डाली जाती है और वो ढाँचे का स्वरूप ले लेती है। तापमान और बढ़ाने पर मिट्टी और रिफ्रैक्ट्री की परतें भी निकल जाती है और धातुई शिल्प तैयार हो जाता है।

    धेनकनाल से साठ किमी और आगे बढ़ने पर अंगुल (Angul) आता है जो अब जिला मुख्यालय बन गया है। अंगुल के ठीक पहले ही नालको का संयंत्र है। सतकोसिया का वन्य जीव अभ्यारण्य यहाँ से लगभह साठ किमी पर स्थित है। महानदी यहाँ बड़ी ही संकरी घाटी से होकर गुजरती है। इस इलाके को देखने के लिए लोग टीकरपाड़ा में रुकते हैं जो अंगुल से साठ किमी दूरी पर है। वहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है।

    अंगुल में थोड़ा समय बिताकर हम सँभलपुर की ओर बढ़ गए। सँभलपुर के ठीक पहले के चालीस पचास किमी का रास्ता घने जंगलों के बीच से गुजरता है। चूँकि जंगल के इस इलाके से गुजरने के पहले ही सूर्यास्त हो चुका था हमें बाहर की छटा ज्यादा नहीं दिखाई दी। सँभलपुर के ठीक पहले ही हीराकुड जाने का रास्ता अलग हो गया। करीब साढ़े छः बजे हम हीराकुड में अपने ठिकाने पर पहुँचे। हमें बताया गया कि गेस्ट हाउस की बॉलकोनी से बाँध का नज़ारा स्पष्ट दिखता है।

    बाहर घुप्प अँधेरा था। बाँध पर कुछ रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। पर पानी में कोई हलचल न थी। बाँध के दूसरी ओर हिडांलकों और महानदी कोल्ड फील्ड की फैक्ट्री से लाल पीले रंग की टिमटिमाहट ही दूर तक ठहरी कालिमा में रंग भरने का प्रयास कर रही थी।


    पानी के बीचों बीच पहाड़ी जैसा कुछ आभास होता था और उसके ठीक पीछे का आकाश लाल नारंगी रंग की आभा से दीप्त था। संभवतः उस पहाड़ी के पीछे भी कोई संयंत्र रहा होगा। बाँध की ओर से ठंडी हवा के झोंके मन को प्रसन्न कर दे रहे थे। गेस्ट हाउस के बरामदे में इस दृश्य को बिना त्रिपाद के कैमरे में उतारना काफी कठिन था।


    गेस्ट हाउस के चारों ओर चहलकदमी कर हम शीघ्र ही सोने चले गए। दरअसल सुबह सुबह उठ कर हीराकुड की विशालता का अनुमान लगाने की उत्कंठा जोर मार रही थी। पर क्या हमारी सुबह की उस मार्निंग वॉक का कार्यक्रम फलीभूत हो पाया। इसके बारे में बात करेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में..

     सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ