शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

चलिए चलें भुवनेश्वर की जैन गुफाओं और मंदिरों की सैर पर !

भुवनेश्वर मंदिरों का शहर है। जैन, बौद्ध और हिंदू धर्मों के अनुयायिओं ने कालांतर में इस प्राचीन कलिंग प्रदेश में कई मंदिरों का निर्माण किया। पिछली पोस्ट में मैंने आपसे खंडगिरि के जैन मंदिर के आहाते में खींचे गए चित्र से जुड़ा एक सवाल पूछा था। यूँ तो आप सबमें से अधिकांश लोगों ने उसे किसी मन्नत से जोड़ा था पर चित्र पहेली का बिल्कुल सही जवाब अभिषेक ओझा ने दिया था। ईंट पत्थरों को एक दूसरे पर सजाने के पीछे मान्यता ये है कि ऍसा करने से अपने घर के नव निर्माण का सपना शीघ्र पूरा होता है।

खैर, मंदिरों की सैर कराने के पहले आज सबसे पहले आपको ले चलते हैं, भुवनेश्वर से करीब ७ किमी. दूर स्थित उदयगिरी (Udaigiri) और खंडगिरी (Khandgiri) की गुफाओं की ओर ! कहते हैं ये गुफाएँ आज से करीब २००० वर्ष पूर्व जैन राजा खारवेल (Jain King Kharvela) के समय बनाई गई थीं। हमलोग यहाँ दिन के तीन बजे पहुँचे थे। प्रवेश द्वार पर बंदरों की फौज हमारे स्वागत को तैयार थी। नतीजन कैमरे को चुपचाप पतलून की जेब में डाल कर हम गुफाओं की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ चले थे। जमीन से ३०-३५ मीटर ऊपर पहुँचते ही गुफाएँ दिखनी शुरु हो जाती हैं।
उदयगिरि में करीब १५ से २० के बीच गुफाएँ हैं। कुछ के अंदर घुसने के लिए वर्गाकार चौखट बनी हुई हैं , जबकि अधिकांश गुफाओं के लिए ये स्वरूप आयताकार है। गुफाओं के अंदर का फर्श सपाट है जो लगता है कि जैन साधकों के विश्राम करने के लिए बनाया गया होगा। कहीं कहीं एक ओर फर्श पर हल्का उठा हुआ प्रोजेक्शन भी दिखा जो शायद तकिये का भी काम करता हो।


गुफा की दीवारों पर जानवरों, युद्ध से जुड़े शिल्प हैं जो संभवतः जैन शासक खारवेल के समय रहे परिवेश को दर्शाते हैं पर इनमें से अधिकांश बहुत हद तक टूट गए हैं। गुफा के प्रवेश द्वार को हाथी, साँप जैसे जानवरों की शक्ल दी गई है। इसी आधार पर इनका नामाकरण हाथी गुफा, पैरट केव्स या अनंत गुफा आदि पड़ा है। देखिए ऍसी ही एक गुफा के प्रवेश द्वार की ये तसवीर...



उदयगिरी के ठीक सामने और उससे थोड़ी ऊँची खंडगिरि की पहाड़ियाँ हैं। इसकी ऊँचाई करीब ४० मीटर है और इसके शीर्ष से भुवनेश्वर शहर को देखना एक सुखद अनुभव है। शीर्ष पर जैन भगवान आदिश्वर (Adishwar) का मंदिर भी है। ये भी कहा जाता है कि एक समय भगवान महावीर यहाँ अपने भक्तों को संबोधित करने आए थे।


अगली सुबह हम चल पड़े यहाँ के प्रमुख मंदिरों के दर्शन को। हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र यहाँ का लिंगराज मंदिर है और लोग कहते हैं कि जगन्नाथ पुरी जाने के पहले यहाँ पूजा अवश्य की जानी चाहिए । इसे ११ वीं शताब्दी में बनाया गया था। ये मंदिर उड़ीसा की स्थापत्य कला का अनूठा नमूना है। पूरा मंदिर चार प्रमुख इमारतों भोगमंडप (भोजन के लिए बना आहाता, Dining Hall) , नटमंडप (Dancing Hall) , जगमोहन (Audience Hall, सभागार) और देउला जहाँ भगवान शिव की अराधना की जाती है, में बँटा हुआ है। यहाँ का आठ फीट व्यास का चमकदार शिवलिंग ग्रेनाइट का बना हुआ है और पानी और दूध से उसका रोज़ स्नान होता है।

मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है और शिव दर्शन के लिए धक्का मुक्की भी करनी पड़ती है। इसलिए मेरा सुझाव ये है कि अगर आप शांति से पूजा अर्चना में विश्वास रखते हों तो फिर मुक्तेश्वर के शिव मंदिर का रुख कीजिए। धौली से करीब दो तीन किमी दूरी पर ये मंदिर अपनी सु्दरता और आस पास फैली हुई शांति से आपको सहज ही आकर्षित कर लेगा। दसवीं शताब्दी में बने इस मंदिर को स्थापत्य की दृष्टि से, हिंदू जैन और बौद्ध स्थापत्य कलाओं का संगम माना जाता है।

वैसे तो भुबनेश्वर के कई अन्य मंदिर भी विख्यात हैं पर हमें शाम के पहले तक नंदन कानन (Nandan Kanan) पहुँचना था। इसलिए लिंगराज और मुक्तेश्वर की यात्रा के बाद हम कुछ देर विश्राम कर नंदन कानन की ओर चल पड़े। क्या हम नंदन कानन के सफेद बाघ को देख पाए ये विवरण इस सफ़र के अगले भाग में....

(लिंगराज मंदिर की तसवीर सौजन्य विकीपीडिया ,बाकी चित्र मेरे कैमरे से)

बुधवार, 12 नवंबर 2008

भुवनेश्वर का जैन मंदिर और पिट्टो की याद दिलाती ये चित्र पहेली

बचपन में आपने पिट्टो तो जरूर खेला होगा। अरे क्या याद नहीं आपको वो पतले पतले पत्थर को एक दूसरे के ऊपर सजा कर रखना और थोड़ी दूरी से रबर की गेंद से निशाना साधना। अगर निशाना नहीं लगा और गेंद टप्पा खा कर लपक ली गई तो आपकी बारी खत्म। और अगर निशाना सही पड़ा तो आपकी टीम के सारे खिलाड़ी दूर दूर तक भाग खड़े होते थे। विपक्षी टीम के खिलाड़ियों को छकाने के बाद यदि अगर वापस बिना गेंद से सिकाई के आपने पत्थर की गोटियाँ सजा लीं तो हो गया पिट्टो !

खैर आप भी सोच रहे होंगे कि उड़ीसा घुमाते घुमाते आखिर आपको पिट्टो के बारे में क्यूँ बताया जा रहा है। तो जनाब नीचे का चित्र देखिए। क्या आपको ये पिट्टो की याद नहीं दिलाता ?



ये चित्र भुवनेश्वर स्थित खंडगिरि के जैन मंदिर (Jain Temple at Khandgiri) के आहाते का है। अब इतना तो पक्का है कि मुसाफ़िर इतनी ऊपर पहाड़ी पर बनें मंदिर पर आ कर पिट्टो तो नहीं खेलते होंगे ? :)

तो बताइए क्या सोचकर पर्यटक और श्रृद्धालु पत्थर और ईंट के टुकड़े को इस तरह सजाते होंगे?

सही जवाब का खुलासा अगली पोस्ट किया जाएगा। हो सकता है उससे पहले ही आप इस गुत्थी को सुलझा लें ....

रविवार, 9 नवंबर 2008

धौलागिरी, भुवनेश्वर : जो कभी युद्ध में हुए भीषण रक्तपात का साक्षी रहा था

कोणार्क (Konark) से वापस हम शाम तक भुवनेश्वर आ गए थे। अगले दो दिन भुवनेश्वर (Bhubneshwar) में रहने का कार्यक्रम था। भुवनेश्वर में अगली सुबह हम जा पहुँचे धौलागिरि (Dhaulagiri), जो कि शहर से करीब आठ किमी दूर स्थित है। धौलागिरि के शिखर पर स्थित सफेद गुम्बद नुमा शांतिस्तूप (Peace Pagoda, Dhauli) दूर से ही दिखाई पड़ता है। १९७२ में इस स्तूप को जापानियों के सहयोग से बनाया गया था। स्तूप के गुम्बद के छत्र के रूप कमल के फूल की पाँच पंखुड़ियों को रखा गया है। सीढ़ियों की शुरुआत में ही खंभों के दोनों ओर सिंहों की प्रतिमा बनाई गई है।

स्तूप की सीढ़ियों को पार कर जैसे ही आप चबूतरे पर पहुँचते हैं आपको पद्मासन में बैठे चिर ध्यान में लीन बुद्ध की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। दूर-दूर तक पहाड़ी से दिखती हरियाली को देख मन पहले से ही पुलकित हो जाता है और भगवान बुद्ध की ये भाव भंगिमा विचारों में निर्मलता का प्रवाह खुद-ब-खुद ले आती है।

पूरी इमारत के चारों ओर दीवारों पर भगवान बुद्ध के जीवन और उस समय के परिवेश से जुड़ी कई कलाकृतियाँ हैं जिसमें कहीं बुद्ध निद्रामग्न हैं तो कहीं अपने शिष्यों से घिरे हुए....


शांति स्तूप से नीचे का नज़ारा भुवनेश्वर का मेरा सबसे यादगार दृश्य रहा। चारों ओर हरे भरे धान के लहलहाते खेत, खेतों की निरंतरता को तोड़ते वृक्ष और पास बहती दया नदी (River Daya) का किनारा.. कुल मिलाकर एक ऍसा दृश्य जिसे देख कर ही मन खिल उठे। कौन सोच सकता है कि ये वही जगह है जहाँ सम्राट अशोक ने कलिंग के साथ युद्ध (Kalinga War) में भयंकर रक्तपात मचाया था। दया नदी का तट लाशों से अटा पड़ा था जिसे देखकर पराक्रमी अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया था।


शांति स्तूप के लिए जहाँ से चढ़ाई शुरु होती है उसके करीब सौ मीटर आगे ही वो जगह है जहाँ हाथी के अग्र भाग का शिल्प बनाया गया था। चट्टानों को काटकर बनाए गए इस शिल्प को भारत का सबसे पुराना (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का ) माना जाता है। कहते हैं कि इसी जगह पर अशोक का हृदय परिवर्त्तन हुआ था। हाथी के निकलते हुए सर को प्रतीतात्मक रूप से बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव माना जाता है। चित्र में शिल्प के पार्श्व में दिख रहा है शांति स्तूप के साथ ही लगा शिव मंदिर (Lord Dhavaleshwar's temple) जिसका पुनर्निर्माण भी सत्तर के दशक में हुआ था।


इस शिल्प के दूसरी तरफ कुछ दूरी पर अशोक द्वारा बनाए गए शिलालेख हैं जो प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। इस शिलालेख में लोगों का दिल जीतने की बात कही गई है। सारी प्रजा के लिए सम्राट अशोक ने अपने आपको पिता तुल्य माना है और लिखा है कि अपने बच्चों की खुशियाँ और परोपकार का ही मैं अभिलाषी हूँ।
ये शिलालेख एक आक्रमक राजा के शांति का अग्रदूत बन जाने की कहानी कहते हैं। आज २००० वर्ष बीतने के बाद भी, हमारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेता भी इस महान शासक के अनुभवों से युद्ध की निर्रथकता का सबक ले सकते हैं।

जिस तरह सूर्य के रथ का पहिया कोणार्क की पहचान था उसी तरह धौली का स्तूप भुवनेश्वर की टोपोग्राफी पर राज करता है। पर अभी तो हमारी भुवनेश्वर यात्रा शुरु ही हुई है। अगले चरण में ले चलेंगे आपको भुवनेश्वर के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिरों और स्मारकों की सैर पर...

रविवार, 2 नवंबर 2008

कोणार्क का सूर्य मंदिर : जिसका गुम्बद कभी समुद्री पोतों का 'काल' होता था

दशहरे के पहले आपको मैं पुरी और चिलका की यात्रा करा चुका था। फिर त्योहार और कार्यालय के कामों में ऍसा फँसा कि आगे के पड़ावों के बारे में लिख ना सका। तो आज अपनी उड़ीसा यात्रा को आगे बढ़ाते हुए बारी कोणार्क के विश्व प्रसिद्ध मंदिर (Sun Temple at Konark) की..


पुरी से कोणार्क का रास्ता बड़ा मोहक है। एक तो सीधी सपाट सड़क और दोनों ओर हरे भरे वृक्षों की खूबसूरत कतार। कोणार्क के ठीक पहले चंद्रभागा का समुद्री तट दिखाई देता है। हम लोग कुछ देर वहाँ रुककर कर तेजी से उठती गिरती लहरों का अवलोकन करते रहे। यहाँ समुद्र तट की ढाल थोड़ी ज्यादा है इसलिए नहाने के लिए ये तट आदर्श नहीं है।




कुछ देर बाद हम कोणार्क के मंदिर के सामने थे। क्या आपको पता है कि कोणार्क शब्द, 'कोण' और 'अर्क' शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। कोणार्क का सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी किनारे पर समुद्र तट के करीब निर्मित है। इसे गंगा वंश (Ganga Dynasty) के राजा नरसिम्हा देव (Narsimha Deva) ने १२७८ ई. में बनाया था।


कहा जाता है कि ये मंदिर अपनी पूर्व निर्धारित अभिकल्पना के आधार पर नहीं बनाया जा सका। मंदिर के भारी गुंबद के हिसाब से इसकी नींव नहीं बनी थी। पर यहाँ के स्थानीय लोगों की मानें तो ये गुम्बद मंदिर का हिस्सा था पर इसकी चुम्बकीय शक्ति की वजह से जब समुद्री पोत दुर्घटनाग्रस्त होने लगे, तब ये गुम्बद हटाया गया। शायद इसी वज़ह से इस मंदिर को ब्लैक पैगोडा (Black Pagoda) भी कहा जाता है।

19 वीं शताब्दी में जब इस मंदिर का उत्खनन किया गया तब ये काफी क्षत-विक्षत हो चुका था। जैसे ही इस मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वार से घुसेंगे सामने एक नाट्य शाला दिखाई देती है जिसकी ऊपरी छत अब नहीं है। कोणार्क नृत्योत्सव (Konark Festival) के समय हर साल यहाँ देश के नामी कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते है।

और आगे बढ़ने पर मंदिर की संरचना, जो सूर्य के सात घोड़ों द्वारा दिव्य रथ को खींचने पर आधारित है, परिलक्षित होती है। अब इनमें से एक ही घोड़ा बचा है। वैसे इस रथ के चक्कों, जो कोणार्क की पहचान है को आपने चित्रों में बहुधा देखा होगा। मंदिर के आधार को सुंदरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महिनों को प्रतिबिंबित करते हैं जबकि प्रत्येक चक्र आठ अरों (Spokes) से मिल कर बना है जो कि दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।



पूरे मंदिर की दीवारें पर तरह तरह की नक्काशी है। कहीं शिकार के दृश्य हैं, तो जीवन की सामान्य दैनिक कार्यों के। कुछ हिस्से में रति क्रियाओं और दैहिक सुंदरता को भिन्न कोणों से दिखाने की कोशिश की गई है। मज़े की बात ये रही कि जब भी ऍसा कोई शिल्प पास आने वाला होता हमारा गाइड समूह के पुरुषों को तेजी से आगे बढ़वाकर धीरे से फुसफुसाता कि ये देखिए ! :)

मंदिर के चारों ओर आर्कियालॉजिकल सर्वे आफ इंडिया (Archeological Survey of India) ने एक बेहद सुंदर हरा भरा बाग बना रखा है जो इन खंडहरों में एक जीवंतता लाता है...आप भी देखिए, खूबसूरत है ना ? 

इस वृत्तांत के अगले हिस्से में देखेंगे वो जगह, जहाँ कभी सम्राट अशोक ने भयंकर युद्ध के बाद हमेशा के लिए शांति को अंगीकार किया था।

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